Book Title: Nrutyadhyaya
Author(s): Ashokmalla
Publisher: Samvartika Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 409
________________ कलासकरण प्रकरण सालस्यगमनोपेता मृगशीर्षकरान्विता । नर्तकी गुरुमानेन हरिणप्लुतया प्लुतम् । 1701 विदध्याद् विचिश्यां यत्र कलासोऽसौ मृगादिगः ॥१५८८॥ यदि पैरों की उँगलियों से पृथ्वी को आक्रान्त करके दो घटनों को उठाकर तथा बार-बार गिराकर, गर्भभार से खिन्न हरिणी की तरह अलसायी हुई चाल वाली, नर्तकी मगशीर्ष नामक हाथ की रचना करके हरिण की छलाँग मारकर चले, तो वह मृगकलास होता है। चार बककलास (४) प्रथम यत्र पक्षौ समानीयौ बकोवाधून्यती करौ । 1702 सव्यापसव्ययोरारात् सन्देशमुकुलाभिधौ ॥१५८६॥ नर्तकी . लघुमानेन कृतासनसमुत्थितिः । 1703 नृत्येत् ससौष्ठवं स स्यात् कलासो बकपूर्वकः ॥१५६०॥ कामपि भ्रमरों कृत्वा संहतस्थानमाश्रिता । 1704 करौ कृत्वाऽलपद्मात्यावरालौ यत्र पादयोः ॥१५६१॥ नीत्वा क्रमेणेकदा वा कम्पयेदच्युताविव । 1705 जलक्लिन्नाथवा सव्यं पाणि मुकुलसंज्ञकम् ॥१५६२॥ मत्स्यग्रहासक्तचित्तबकवद्यदि संब्रजेत् । 1706 पादाग्रेण नटी मन्दं मन्दं पश्चात्पुरोऽपि च । । तदेष भेद प्राद्यः स्याद् बकपूर्वकलासजः ॥१५९३॥ 1707 जैसे बगली अपने पंखों को फड़फड़ाती है, उसी तरह नर्तकी अपने हाथों की मुद्रा बनावे; तत्पश्चात् बायें-दायें क्रम से समीप ही सन्देश और मकुल हस्तमुद्राओं की रचना करे; तदनन्तर एकमात्रिक ताल के प्रमाण से आसन से उठकर सुन्दर ढंग से नृत्य करे । इसी को बककलास कहते हैं । संहत नामक स्थानक के आश्रित किसी ममरी नामक चारी को करके अलपन एवं अराल नामक हाथों की रचना करे; उन्हें पैरों के समीप ले जाकर क्रमश: या एक साथ बिना गिराये ही कम्पित करे; जल से भीगी अथवा यों ही बायें हाथ की मुकुल मुद्रा बनाकर मछली पकड़ने में दत्तचित्त बगली की तरह यदि नर्तकी पैरों के अग्रभाग से धीरे-धीरे पीछे या आगे की ओर चले तो प्रथम बककलास निष्पन्न होता है। ३९९

Loading...

Page Navigation
1 ... 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514