Book Title: Nrutyadhyaya
Author(s): Ashokmalla
Publisher: Samvartika Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૬ નૃત્યઅધ્યાય : દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી કચ્છવાગડ સમુદાયના અધ્યાત્મયોગી પૂ. આ. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્ય પૂ. આ. શ્રી મુક્તિચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા પૂ. આ. શ્રી મુનિચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી શ્રી અધોઈ વિશા ઓસવાલ શ્વે. મૂ. જૈન. સંઘ, અધોઈ જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार પૃષ્ઠ ___84 ___810 010 011 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी | पू. विक्रमसूरिजी म.सा. 238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी | पू. जिनदासगणि चूर्णीकार 286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 162 | 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 302 प्रासादमजरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारती गोंसाई 352 | शिल्पदीपक श्री गंगाधरजी प्रणीत 120 | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા 498 | जैन ग्रंथावली श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१ श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा. 452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ श्री एच. आर. कापडीआ 500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराज दोशी 454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य 188 | 027 | शक्तिवादादर्शः | श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री 214 | क्षीरार्णव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई ___192 013 454 226 640 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 288 30 | શિન્જરત્નાકર प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 520 034 (). પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२) 324 302 196 039. 190 040 | તિલક 202 480 228 60 044 218 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038 | તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી 045 190 138 296 (04) 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना क्रम कर्त्ता / टीकाकार 91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी 92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 93 मोतीलाल लाघाजी पुना स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी 94 मोतीलाल लाघाजी पुना स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी 95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब टी. गणपति शास्त्री टी. गणपति शास्त्री वेंकटेश प्रेस 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १ 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २ 99 भुवनदीपक 100 गाथासहस्त्री 101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला 102 शब्दरत्नाकर 103 सुबोधवाणी प्रकाश 104 लघु प्रबंध संग्रह 105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३ 106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३ 107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५ 108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका 109 जैन लेख संग्रह भाग - १ 110 जैन लेख संग्रह भाग-२ 111 जैन लेख संग्रह भाग-३ 112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १ 113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह 115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116 बीकानेर जैन लेख संग्रह 117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १ 118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २ 119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १ 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम् भोजदेव भोजदेव पद्मप्रभसूरिजी समयसुंदरजी गौरीशंकर ओझा साधुसुन्दरजी न्यायविजयजी जयंत पी. ठाकर माणिक्यसागरसूरिजी सिद्धसेन दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर कांतिविजयजी दौलतसिंह लोढा विशालविजयजी विजयधर्मसूरिजी अगरचंद नाहटा जिनविजयजी जिनविजयजी गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री पी. पीटरसन पी. पीटरसन पी. पीटरसन पी. पीटरसन जिनविजयजी भाषा सं. सं. सं. सं. सं. सं./अं सं. सं. सं. सं. हिन्दी सं. सं./गु सं. सं, सं. सं. सं. सं./हि पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर सं./ हि जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार सं./हि अरविन्द धामणिया सं./गु सं./गु सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु अं. सुखलालजी मुन्शीराम मनोहरराम हरगोविन्ददास बेचरदास हेमचंद्राचार्य जैन सभा ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा आगमोद्धारक सभा अं. अं. अं. सं. सुखलाल संघवी सुखलाल संघवी एसियाटीक सोसायटी यशोविजयजी ग्रंथमाळा यशोविजयजी ग्रंथमाळा नाहटा धर्स जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. जैन सत्य संशोधक पृष्ठ 272 240 254 282 118 466 342 362 134 70 316 224 612 307 250 514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 414 400 320 148 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार | पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम कर्ता/संपादक विषय | भाषा संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक भामाह व्याकरण प्राकृत जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन साहित्य हिन्दी जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा संस्कृत चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१ शिवाचार्य न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२ शिवाचार्य न्याय संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी | संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध । शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत भगवानदास जैन ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह अंबालाल शर्मा ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता 264 144 256 75 488 | 226 365 न्याय संस्कृत 190 480 352 596 250 391 114 238 166 संस्कृत 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | विषय पहा पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत | भाषा संस्कृत 181 364 182 काव्यप्रकाश भाग-२ 222 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३ संस्कृत संस्कृत संस्कृत 330 संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१ 156 248 पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव संस्कृत संस्कृत /हिन्दी 504 185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी 448 440 616 | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती | श्री सारंगदेव 632 नारद 84 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 192 श्री हीरालाल कापडीया मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला । श्री चंद्रशेखर शास्त्री 220 संस्कृत हिन्दी 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 422 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 304 पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 446 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा | 414 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 409 199 | अध्यात्मसार सटीक 476 एच. डी. वेलनकर संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट 200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया 444 श्री डी. एस शाह 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219 प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220 | समासवादार्थ, वकारवादार्थ) | बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221 __ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता संस्कृत महादेव शर्मा 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 विविध कर्ता । संस्कृत | महादेव शर्मा 78 महादेव शर्मा 112 विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत महादेव शर्मा 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०doa CAMERAGE - - संवर्विका प्रकाशन इलाहाबाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRAS वाचस्पति गैरोला अशोकमल्ल विरचित नृत्याध्याय Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NṚTYADHYAYA (A work on Indian Dancing) by ASOK AMALLA Tr. by Vachaspati Gairola Price Rs 0 भारतशासनस्य शिक्षामन्त्रालयस्य वित्तीय साहाय्येन मुद्रितम् Printed with the Financial assistance from the Ministry of Education Government of India Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोकमल्ल विरचित नत्याध्याय [ भारतीय नाट्यशास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ ] वाचस्पति गेरोला प्रकाशक संवर्तिका प्रकाशन ३३६, करेलाबाग कॉलोनी, इलाहाबाद-३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर्तिका प्रकाशन | ३३/९, करेलाबाग कॉलोनी, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण : १९६९ कापीराइट : श्री वाचस्पति गैरोला मूल्य: BR0 आवरण सज्जा : रेखानुकृति श्री कृष्णचन्द्र श्रीवास्तव श्री शिवगोविन्द पाण्डेय ब्लाक निर्माता सरस्वती ब्लाक वर्क्स, इलाहाबाद मुद्रक लीडर प्रेस, प्रयाग Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R HGosaal A PROHTAS HERE DABAR RE Fil Vina श्रद्धेय डाक्टर के० एन० गैरोला को सादर समर्पित Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन अशोकमल्ल और उनका नृत्याध्याय ग्रन्थ के अन्तक्ष्यि के आधार पर यह सिद्ध होता है कि अशोकमल्ल एक राजा था । नत्याध्याय के कतिपय स्थलों पर उसने स्वयं ही अपने नाम का उल्लेख किया है ( यथा ५६४, ९४५, १०१८, १०६४, १०७७ और १२७२ आदि ) । अपने लिए उसने अनेक प्रकार के विशेषणों का प्रयोग किया है, जिनके आधार पर उसका राजा होना सिद्ध होता है । स्वयं को उसने अशोकेन पृथ्वीन्द्रेण (४६), अशोकमल्लेन भूभुजा ( ८०, १०७, १८४, ३३९, ३९९ तया १५९७ ), अशोकमल्लो नृपाग्रणी (२४१, ५४५, ८८५ तथा १५१९ आदि) और नपाशोकमल्लेन (१२९४, १३२७ एवं १४८९ आदि) राजपदवाच्य विशेषणों से अभिहित किया है। राजा होने के साथ ही उसने अपने को धीमान् ( ४६, ५२६ ) और विदुषां चरः ( ४२४) भी बताया है। अपने लिए उसने विशेष सम्मानजनक पदवियों एवं गौरवशाली पर्याधों का भी उल्लेख किया है, जो कि ६९५, ७०७, ९७३, १०८८, १२०८ और १२१२ आदि श्लोकों में दृष्टव्य हैं। परिचयात्मक दृष्टि से अशोकमल्ल के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। नत्याध्याय के कतिपय स्थलों से केवल इतना ज्ञात होता है कि अशोकमल्ल के पिता का नाम वीरसिंह था।वीरसिंह भी राजपद पर आसीन हुआ, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु अशोकमल्ल द्वारा अपने लिए प्रयुक्त वीरसिंहसुतः ( ३३८, ४०१ ४६५ ), वीरसिहानुना ( ३९८, ४८६, १०१३), वीरसिंहात्मजः (८८९, १०४१), वीरसिंहजः (९१३, १०४४, १३०६) और वीरसिंहसुनन्दनः (१५३७) आदि उल्लेखों से स्पष्ट है कि उसके पिता का नाम वीरसिंह था। - अशोकमल्ल कहाँ का राजा था और उसका स्थितिकाल क्या था, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की कोई ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है; किन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थ में जिन आचार्यों का उल्लेख किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे १४वीं, १५वीं शती ई० के आस-पास हुए। ऐसा ज्ञात होता है कि वे क्षत्रिय वंशोद्भव थे और दक्षिण-मध्य भारत के निवासी । नाटय-संगीत के वे पारंगत विद्वान थे और अन्य कलाओं में भी निष्णात थे। विद्वान् होने के साथ ही वे विद्वत्प्रिय भी थे। उनकी एकमात्र उपलब्ध कृति नृत्याध्याय के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अपनी वर्तमान स्थिति की अपेक्षा अपने मूल रूप में वह कुछ भिन्न थी। जिस रूप में उसका एकमात्र हस्तलेख उपलब्ध हआ है, उसमें निश्चित ही उसके लिपिकार की स्वबुद्धि का भी आँशिक समावेश देखने को मिलता है। आदि से अन्त तक उसको एक ही गति से लिपिबद्ध किया गया है और बीच-बीच में उसके अनेक स्थल स्खलित तथा अशद्ध हो गये हैं। मल हस्तलेख के लिपिकरण की इस अवैज्ञानिकता, अज्ञता एवं असावधानी के कारण अनेक स्थल ११ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः अत्यन्त अस्पष्ट भी हो गये हैं। प्रस्तुत संस्करण में इन त्रुटियों को परिमार्जित करने का यथा सम्भव प्रयत्न किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह नाट्यशास्त्र-विषयक किसी विशाल ग्रन्थ का एक अंश है; क्योंकि उसके नत्याध्याय नाम से ही ज्ञात होता है कि उसमें नृत्य-विषयक अंग-उपांगों का ही समावेश है। यदि यह उपलब्ध रूप किसी बृहद् ग्रन्थ का एक अध्याय या अंश मात्र है तो निश्चित ही अपने मूल रूप में वह आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र से भी विशाल रहा होगा। नत्याध्याय की उपलब्ध सामग्री के आधार पर उसे पन्द्रह प्रकरणों में विभाजित किया गया है। अधिकतर प्रकरणों का उसमें उल्लेख भी हुआ है; किन्तु जिनका उल्लेख नहीं हुआ है, विषय-सामग्री के आधार पर उनको पृथक कर उनका नामोल्लेख कर दिया गया है । इसी प्रकार प्रस्तुत संस्करण में विभिन्न प्रकरणों की सुव्यवस्था के साथ-साथ उसके शीर्षकों तथा उपशीर्षकों का भी समुचित रीति से यथास्थान निर्धारण किया गया है । गायकवाड़ ओरिएण्टल ग्रन्थमाला के संस्करण में मूल हस्तलेख के आधार पर श्लोक-संख्या का उल्लेख किया गया है; किन्तु उसमें भी अव्यवस्था देखने को मिलती है, जो कि सम्भवत: लिपिकार की त्रुटि हो सकती है । इस अव्यवस्था के निराकरण के लिए प्रस्तुत संस्करण में अनुष्टुप् छन्द के आधार पर साद्यन्त रोमन अंकों की संख्या दे दी गयी है। अध्येताओं की सुविधा के लिए इस संस्करण में १०८ नृत्तकरणों की रेखाकृतियाँ भी प्रस्तुत की गयी हैं। अभिनय विषय में अभिरुचि रखने वाले अध्येताओं एवं छात्र-छात्राओं को नृत्तकरणों की व्यावहारिक जानकारी देने में इन रेखाकृतियों की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है । जहाँ तक पुस्तक की सज्जा एवं कलात्मक अभिरुचि का सम्बन्ध है, उसको प्रत्येक दृष्टि से भव्य तथा आकर्षक बनाने का यथा संभव पूर्ण प्रयत्न किया गया है। पूर्वाचार्य और उनके मतों का उल्लेख अशोकमल्ल ने अपने ग्रन्थ में नाटयशास्त्रीय परम्परा के कुछ आचार्यों के नामों का स्पष्ट उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए उन्होंने यत्र-तत्र मुनि ( ३४४, ३९६, ४१८, ४३०, ८३४, ८६७, ८६८, ८८१, १४२१ तथा १४३९ आदि) या भरत मुनि (५६०, ७०५, ८७५ आदि) के मत का उल्लेख करते हुए उनका नाम उद्धत किया है। इसी प्रकार दो स्थलों पर तण्डु ( ७८३) और वायुसून (७१४) का उल्लेख किया है। नाटय-संगीत की परम्परा में आचार्य कोहल का महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। अशोकमल्ल के समक्ष आचार्य कोहल का कोई लक्षण ग्रन्थ विद्यमान था, जिसके आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि के लिए उनका तीन बार उल्लेख ( ५१७, ७२२ तथा १०८२) किया है। इसी प्रकार आचार्य कीर्तिधर और आचार्य अभिनवगुप्त का नाम-निर्देश किया गया है । कीर्तिधर के नाम को चार बार (२९३, २९७, ७२९ और १२४१) उद्धत किया गया है । नाटयशास्त्र और काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य अभिनवगुप्त को अशोकमल्ल ने भट्ट (६०१) तथा भट्टाभिनवगुप्त (९०८) के नाम से उद्धृत किया है। १२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन अशोकमल्ल ने पूर्वाचार्यों के नाम-निर्देश के अतिरिक्त नत्याध्याय के विभिन्न स्थलों पर विभिन्न रूपों में पूर्ववर्ती विद्वानों एवं आचार्यों के केवल मतों का उल्लेख किया है । इस रूप में उन्होंने पूर्वाचार्यः (१३२), पूर्वसूरिभिः (३२५, ३५३, ४५५, ५०१, ५०९, ५२३, ७३१, ७९४ आदि ), प्राच्यसूरिभिः (७७८), प्राक्तनर्बुधः (७८०, १३३८ ), पूर्वसूरयः (८४३) और प्राक्तने मते (१३८६) आदि से प्राचीन नाटयाचार्यों के मतों को उद्धृत किया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने मतः सताम् ( १, १५० आदि ) या सतो मतः (२३, ५४ आदि ) का भी विभिन्न स्थानों पर उल्लेख किया है। __इस दृष्टि से नृत्याध्याय में अन्य भी प्रचुर उद्धरण देखने को मिलते है; यथा बुधैर्योज्यः (१५), कथितो बुधैः (३३, ३९), बुरुक्तानि (४०), बुधैः (७५, २११, २१९, ४१२ ), बुधाः ( २५५ ), धीरः (७४, २४१ ), सुधीः ( ६२०, ६३१ ), मनीषिभिः ( ६२, ७२, ९२, ३८६, ४८४, १०२७), पण्डितः (७९), पण्डिताः (२९७), जैः(८३४), विद्वद्भिः (८५७), सद्भिः (१६३, २३९, ३५४, ४२०), विचक्षणः (८९, ८६०, ९८६, १०६७), धीमान् (६१९, ६५८) और कलाभिज्ञाः(४३२) आदि प्रसंग अवलोकनीय हैं। अभिनय के सामान्य सन्दर्भो के अतिरिक्त अशोकमल्ल ने विशेष विधाओं पर तत्तत् विषयों के विशिष्ट आचार्यों के मतों का भी स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए करगपण्डिताः (११४७), करणवेदिभिः (१३१५), करगकोविदः (१३२६), कण्ठरेचककोविदः (१४२४), लक्ष्यवेदिभिः (५१९) और लक्ष्मलक्ष्यविशारदाः (५५३, ७३३, ७९२ तथा ८३३ ) आदि स्थल द्रष्टव्य हैं। इसी प्रकार नृत्त और नृत्य के लक्षण-विनियोगों के सन्दर्भो में अशोकमल्ल ने विभिन्न पूर्वाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए नत्यवित (६४८), नत्यः (७७५, ११९५), नत्यविचक्षणः (१११५), नृत्यपण्डितः (३७, ६०, ९४, ३६९,३७६, ५३१), नाटयवित् (६४८), नाटयज्ञः (६५०), नाटयकोविदः (२८१, ४४५, ६८४ ), नृत्तविचक्षणः (४४२, ८१४, १३०३), नृत्तविचक्षणाः ( १००४, १२४१ ), नृत्तसुविचक्षणः (१०१२), नृत्तवेदिभिः ( १०७३, १११४, १२३५, १२८६, १३३५ ), नत्तवेदिनः (१०७६), नृत्तविशारदः (२७५, १२७३, १२७९), नुत्तमनीषिणः (१३८३), नत्तधीमताम् (२८६) और हस्ताभिनयपण्डितः (१०६) आदि प्रसंग उद्धरणीय है। ___ इनके अतिरिक्त केचित् (२४१, २७४, ३१०), केचन (२८५), केऽपि (६०४, ११८१) और परे (२७९) आदि के रूप में भी विभिन्न पूर्वाचार्यों के मतों को आधार मानकर उद्धृत किया गया है। ___ इस सामग्री का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि अशोकमल्ल के समय तक नाट्यशास्त्र और विशेषरूप से नत्य-अभिनय पर अनेक ग्रन्थों का निर्माण हो चुका था। इसके अतिरिक्त नाटय की कछ पद्धतियाँ ग्रन्थ रूप में निबद्ध न होकर परम्परा द्वारा मौखिक रूप में जीवित थीं। इन लोकजीवित एवं लोकानुगत पद्धतियों का उल्लेख अशोकमल्ल ने स्थान-स्थान पर किया है। शास्त्ररूप में निबद्ध और लोकप्रचलित परम्पराओं का अनुशीलन कर अशोकमल्ल ने नत्याध्याय में सभी प्रकार की सामग्री का समन्वय किया है । इस आधार पर नृत्याध्याय न केवल एक सर्वांगीण ग्रन्थ प्रतीत होता है, अपितु यह १३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः भी ज्ञात होता है कि उसकी इस सर्वांगीणता के कारण लोकदृष्टि और शास्त्रदृष्टि, दोनों प्रकार से उसको असाधारण ख्याति प्राप्त हुई। प्राभार महाराज अशोकमल्ल विरचित नृत्याध्याय को सर्व प्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ोदा को है। श्री बी० जे० सन्देसर के प्रधान सम्पादकत्व और सुश्री डॉ. प्रियबाला शाह के सम्पादकत्व में यह ग्रन्थ गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज संख्या १४१ में १९६३ ई० को प्रकाशित हुआ था। इस ग्रन्थ की मूल हस्तलिखित प्रति ओरिएण्टल इंस्टिट्यूट, बड़ोदा के हस्तलेख-संग्रह में सुरक्षित थी। इस हस्तलेख को महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ोदा ने अपने संगीत तथा नाट्य विषयक ग्रन्थों की सम्पादन-प्रकाशन-योजना में सम्मिलित कर उसका सम्पादन तथा प्रकाशन कराया। संगीत नाटक अकादेमी, नयी दिल्ली द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता में उसका सम्पादन तथा प्रकाशन हुआ। इस प्रकार यह ग्रन्थ ओरिएण्टल इंस्टिट्यूट, बड़ोदा, महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ोदा और संगीत नाटक अकादेमी, नयी दिल्ली, इन तीन संस्थानों से सम्बद्ध है। मुझे यह ज्ञापित करते प्रसन्नता हो रही है कि ओरिएण्टल इंस्टिटयूट, बड़ोदा के निदेशक एवं नत्याध्याय के प्रधान सम्पादक श्री बी० जे० सन्देसर, ( B. J. Sindesara ), महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ोदा के रजिस्ट्रार श्री के० ए० अमीन (K. A. Amin) और संगीत नाटक अकादेमी, नयी दिल्ली के सचिव डॉ.सुरेश अवस्थी ने मेरे निवेदन पर इस महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ग्रन्थ को हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत करने . की स्वीकृति प्रदान की। इस औदार्य एवं सहयोग के लिए मैं उक्त तीनों संस्थानों एवं सम्बन्धित विद्वान् महानुभावों के प्रति अपनी सादर कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। संस्कृत साहित्य के इस ग्रन्थरत्न का यह सचित्र हिन्दी संस्करण संभवतः प्रकाश में न आया होता, यदि शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इसके मुद्रण आदि के लिए मुझे आँशिक वित्तीय सहायता प्राप्त न हुई होती। हिन्दी साहित्य में नाट्य-विषयक लक्षण ग्रन्थों का प्रायः अभाव ही है । इस दृष्टि से विभिन्न भारतीय . भाषाओं के विशिष्ट ग्रन्थों को अनुवाद तथा रूपान्तर द्वारा अन्य भाषाओं में लाने तथा उन्हें सर्व सुलभ बनाने के उद्देश्यसे भारत सरकार ने अपनी विशेष योजना के अन्तर्गत इस ग्रन्थ का हिन्दी संस्करण प्रकाशित कराया है । एतदर्थ भारत सरकार के प्रति मैं अपना सादर आभार प्रकट करता हूँ। इस प्रन्थ के निर्माण, मुद्रण तथा सज्जा आदि में मुझे लीडर प्रेस के व्यवस्थापक श्री बालादत्त पाण्डेय और आचार्य तारणीश झा से जो सहयोग प्राप्त हुआ है तदर्थ उनके प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। विभिन्न विश्वविद्यालयों की स्नातक तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं में नाटयकला (Dramaturgy) विषय के अध्ययन के लिए हिन्दी के माध्यम से पाठ्य-सामग्री का जो अभाव बना हुआ है, मुझे विश्वास है कि इस उपयोगी ग्रन्थ के प्रकाशित हो जाने से उसकी पूर्ति में सहायता होगी और उसके द्वारा इस विषय के छात्रों तथा अध्येताओं का बहुत-कुछ लाभ होगा। --वाचस्पति गैरोला १४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम हस्त प्रकरण एक असंयुत हस्त और उनका विनियोग ५. चतुर हस्त और उसका विनियोग . हंसास्य हस्त और उसका विनियोग भ्रमर हस्त और उसका विनियोग कांगूल हस्त और उसका विनियोग ताम्रचूड हस्त और उसका विनियोग १०. मुष्टि हस्त और उसका विनियोग ११. शिखर हस्त और उसका विनियोग १२. कपित्थ हस्त और उसका विनियोग १३. खटकामुख हस्त और उसका विनियोग सूचीमुख हस्त और उसका विनियोग त्रिपताक.हस्त और उसका विनियोग १६. कर्तरीमुख हस्त और उसका विनियोग अर्धचन्द्र हस्त और उसका विनियोग अराल हस्त और उसका विनियोग १९. शुकतुण्ड हस्त और उसका विनियोग २०. सन्वंश हस्त और उसका विनियोग २१. मुकुल हस्त और उसका विनियोग २२. पद्मकोश हस्त और उसका विनियोग २३. ऊर्णनाभ हस्त और उसका विनियोग अलपल्लव हस्त और उसका विनियोग श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या १-१९ ५९-६२ २०-३० ६२-६४ ३१-३३ ६४-६५ ३४-४० ६५-६६ ४१-४४ ४५-५२ ६७-६८ ५३-६२ ६८-७० ६३-७१ ७०-७२ ७२-७९ ७२-७३ ८०-१०६ ७३-७८ १०७-१३२ ७८-८३ १३३-१४१ ८३-८४ १४२-१४९ ८४-८५ १५०-१६४ ८५-८८ १६५-१६८ ८८-८९ १६९-१८३ ८९-९१ १८४-१९० ९१-९२ १९१-१९८ ९२-९४ १९९-२०२ २०३-२११ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः संयुत हस्त और उनका विनियोग पृष्ठ संख्या २. ९७-९८ ९८-९९ 3 श्लोक संख्या २१२-२१३ २१४-२१९ २२०-२२६ २२७-२३० २३१-२३३ ३३४-२३५ २३६-२३९ २४०-२४२ २४३-२४६ २४७-२४८ २४९-२५० २५१-२५२ २५३-२५५ अंजलि हस्त और उसका विनियोग कपोत हस्त और उसका विनियोग कर्कट हस्त और उसका विनियोग गजदन्त हस्त और उसका विनियोग निषध हस्त और उसका विनियोग पुष्पपुट हस्त और उसका विनियोग खटकावर्धन हस्त और उसका विनियोग उत्संग हस्त और उसका विनियोग स्वस्तिक हस्त और उसका विनियोग दोला हस्त और उसका विनियोग अवहित्य हस्त और उसका विनियोग मकरचेहस्त और उसका विनियोग वर्धमान हस्त और उसका विनियोग ; ८. ९९-१०० १०० १००-१०१ १०१-१०२ १०२ १०२-१०३ १२. १३. १०३ १०४ नृत्तहस्त और उनका विनियोग iii २५६ २५७-२६० २६१ २६२ २६३-२६४ २६५-२६६ चतुरस्र हस्त और उसका विनियोग उद् वृत्त हस्त और उसका विनियोग तलमुख हस्त और उसका विनियोग नितम्ब हस्त और उसका विनियोग केशबन्ध हस्त और उसका विनियोग उत्तानचित हस्त और उसका विनियोग लताकर हस्त करि हस्त रेचित हस्त अर्धरेचित हस्त पल्लव हस्त ललित हस्त पक्षवंचितक हस्त १०४-१०५ १०५ १०५-१०६ १०६ १०६ १०६ १०७ २६७ १०७ १०७-१०८ . १०८ २६८-२६९ २७०-२७१ २७२ २७३-२७५ २७६-२७७ २७८ १०८ १०८-१०९ १२. १३. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या १०९ . ११० ११० २०. .११० १११ १११-११२ ११२ ११२-११३ ११३ ११३ U U २४. ११३ श्लोक संख्या १४. . पक्षप्रद्योतक हस्त २७९ ऊर्ध्वमण्डलिन् हस्त २८०-२८१ पार्वमण्ड लिन् हस्त २८२-२८३ उरोमण्ड लिन् हस्त २८४-२८६ उरःपाश्वधिमण्डल हस्त २८७-२८८ नलिनी पद्मकोश हस्त २८९-२९३ मुष्टि स्वस्तिक हस्त २९४-२९७ २१. वलित हस्त २९८-२९९ २२. दण्डपक्ष हस्त ३००-३०१ २३. गरुड पक्षक हस्त ३०२ अलपन हस्त ३०३ २५. उल्वण हस्त ३०४ स्वस्तिक हस्त ३०५. २७. विप्रकीर्ण हस्त ३०६ आविद्धवक्र हस्त ३०७ २९. सूच्यास्य हस्त ३०८-३१० ३०. अरालखटकामुख हस्त ३११-३१७ हस्ताभिनय का उपसंहार हस्ताभिनय विधान ३१८-३२६ . .. अंग प्रत्यंग प्रकरण/दो अंगाभिनय और उनका विनियोग पाँच प्रकारका वक्षाभिनय ३२७-३३२ वक्षाभिनय के भेद ३२७ सम और उसका विनियोग ३२८ निर्भुग्न और उसका विनियोग ३२९ आभुग्न और उसका विनियोग ३३० प्रकम्पित और उसका विनियोग ३३१ उवाहित और उसका विनियोग ३३२ २८. . आति ११३ ११३-११४ ११४ ११४ ११४-११५ ११६-११७ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१-१२२ १२२ -१२२ i Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ३३४ पाँच प्रकार का पार्थाभिनय पाश्र्वाभिनय के भेद विवर्तित और उसका विनियोग अपसृत और उसका विनियोग प्रसारित और उसका विनियोग नत और उसका विनियोग उन्नत और उसका विनियोग पाँच प्रकार का कटि अभिनय श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ३३३ १२२ .. १२२ १२३ ३३६ १२३ ३३७ १२३ ३३५ .३३८ कटि अभिनय के भेद कम्पिताऔर उसका विनियोग उद्वाहिता और उसका विनियोग छिन्ना और उसका विनियोग विवृत्ता और उसका विनियोग रेचिता और उसका विनियोग १२३ १२३ १२३ ३४० ३४१ १२४ १२४ ३४२ ३४३ . १२४ तेरह प्रकार का पादाभिनय १२४-१२५ १२५ १२५ ३४४-३४५ ३४६ ३४७ ३४८ ३४९ ३५०-३५१ ३५२ १२५ पादाभिनय के भेद सम पाद औरउसका विनियोग अञ्चित पाद और उसका विनियोग · कुञ्चित पाद और उसका विनियोग सूची पाद और उसका विनियोग अग्रतलसञ्चर पाद और उसका विनियोग उद्घटित पाद और उसका विनियोग नोटित पाद और उसका विनियोग घट्टितोत्सेव पाद और उसका विनियोग घटित पाद और उसका विनियोग मदित पाद और उसका विनियोग अप्रण पाद और उसका विनियोग १२५ १२६ ३५४ १२६ १२६ १२६ १२६-१२७ १२७ १२७ ३५६ ३५७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पाणिग पाद और उसका विनियोग पार्श्वग पाद और उसका विनियोग प्रत्यंगाभिनय और उनका विनियोग श्लोक संख्या ३५८ ३५९ पृष्ठ संख्या १२७ १२७ ३६० ३६१ ३६२ १२७ १२८ १२८ ३६३ १२८ १२८ * ३६४ ३६५ १२८ s ३६७ १२९ १२९ १२९ १२९ नौ प्रकार का ग्रीवाभिनय ग्रीवा के भेद समा और उसकाविनियोग नता और उसका विनियोग उन्नताऔर उसकाविनियोग . यत्रा और उसका विनियोग वलिताऔर उसका विनियोग कुञ्चिता और उसका विनियोग अञ्चिताओर उसका विनियोग निवृत्ता और उसका विनियोग रेचिता और उसका विनियोग सोलह प्रकार का बाहु अभिनय बाहु के भेद प्रसारित और उसका विनियोग अधोमुख और उसका विनियोग ऊर्ध्वस्थ और उसका विनियोग आवेष्टित और उसका विनियोग अञ्चित और उसका विनियोग स्वस्तिक और उसका विनियोग मण्डलगति और उसका विनियोग तिर्यक् और उसका विनियोग पृष्ठानुसारी और उसका विनियोग अपविद्ध और उसका विनियोग ३७०-३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८१ १२९-१३० १३० १३० १३० १३० १३० १३१ १३१ १३१ १३१ १३१-१३२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ३८२ १२. श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या १३२ ३८३ १३२ ३८४ १३२ १३२ १३२-१३३ ३८७ १३३ ३८५ ३८६ ११. कुञ्चित और उसका विनियोग सरल और उसका विनियोग १३. नम्र और उसका विनियोग १४. आन्दोलित और उसका विनियोग १५. उत्सारित और उसका विनियोग १६. अविद्ध और उसका विनियोग चार प्रकार का उदराभिनय उदर के भेद क्षाम और उसका विनियोग खल्ल और उसका विनियोग पूर्ण और उसका विनियोग रिक्तपूर्ण और उसका विनियोग चार प्रकार का पृष्ठाभिनय १. क्षाम २. खल्ल ३८८ ३८९ ३९० ३९१ १३३ १३३ .. १३३-१३४ ३९२ اس سع سه - १९३ १९३ १३४ १३४ १३४ १३४ १३४ ३९४ ३९४ ३९५ ४. रिक्त पाँच प्रकार का उरु अभिनय ऊरुके भेद स्तब्ध और उसका विनियोग कम्पित और उसका विनियोग वलित और उसका विनियोग उदतित और उसका विनियोग निवतित और उसका विनियोग दस प्रकार का जंघाभिनय . जंघाके भेद क्षिप्ताऔर उसका विनियोग ३९६ ३९७ १३४ १३४ १३४-१३५ १३५ १३५ ३९८ ३९९-४०० १३५ १३५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नता और उसका विनियोग उवाहिता और उसका विनियोग आवर्तिता और उसका विनियोग परिवर्तिता और उसका विनियोग बहिर्गता और उसका विनियोग कम्पिता और उसका विनियोग तिरश्चीना और उसका विनियोग परावृत्ता और उसका विनियोग निस्ता सात प्रकार का जानु अभिनय मनु के भद नत और उसका विनियोग उपत और उसका विनियोग संहत और उसका विनियोग विवृत और उसका विनियोग २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. १. २. ३. ४. ५. ६. पाँच प्रकार का मणिबन्ध अभिनय १. सम और उसका विनियोग अर्थकृति कुचित और उसका विनियोग ४. ५. मणिबन्ध के भेद निकुञ्च और उसका विनियोग आञ्चित और उसका विनियोग चल और उसका विनियोग भ्रमित और उसका विनियोग सम और उसका विनियोग प्रत्यंग भूषणों का निरूपण विषयानुक्रम श्लोक संख्या ४०१ ४०२ Yo ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ ४०८ ४०९ ** ४११ ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४१९ ४२० ४२१ ४२२ ४२३-४२५ पृष्ठ संख्या १३६ १३६ १३६ १३६ १३६ १३६ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३८ १३८ १३८ १३८ १३८ १३८-१३९ १३९ १३९ १३९ १३९ १३९ १४० २१ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः पृष्ठ संख्या ४२६ १४३ १४३ १४३-१४ . १४४ १४४-१४५ ४४५ १४५ दृष्टि प्रकरण | तीन श्लोक संख्या दृष्टि अभिनय और उनका विनियोग रसजा दृष्टि के भेद स्थायी भावना दुष्टि के भेद ४२७ संचारी भावजा दृष्टि के भेद ४२८-४३० आठ प्रकार की रसजा दृष्टियाँ कान्ता ४३१-४३२ हास्या और उसका विनियोग करुणा और उसका विनियोग रौद्री और उसका विनियोग ४३५ वीरा और उसका विनियोग ४३६-४३७ भयानका और उसका विनियोग बीभत्साऔर उसका विनियोग अदभुता और उसका विनियोग ४४० आठ प्रकार की स्थायी भावजा दृष्टियाँ स्निग्धा हृष्टा और उसका विनियोग दीना क्रुखा और उसका विनियोग ४४४ दृप्ताऔर उसका विनियोग भयान्विता जुगुप्सिता ४४७ विस्मिता और उसका विनियोग बीस प्रकार की संचारी भावजा दृष्टियाँ शून्या और उसका विनियोग ४४९ मलिना और उसका विनियोग ४५०-४५१ ४३८ ४३९ १४५-१४६ १४६ १४६ ४४१ ४४२ ४४३ १४६-१४७ १४७ ४४५ १४७ १४७ ४४८ १४७ १४७-१४८ १४८ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. २०. १. २. ३. ४. ६. श्रान्ता और उसका विनियोग लज्जिता और उसका विनियोग ग्लाना और उसका विनियोग शंकिता और उसका विनियोग विषण्णा और उसका विनियोग ७. मुकुला और उसका विनियोग कुञ्चिता और उसका विनियोग अभितप्ता और उसका विनियोग सात प्रकार की भ्र ू (भौं) का अभिनय म के भेद जिह्वा और उसका विनियोग ललिता और उसका विनियोग वितकता और उसका विनियोग अर्धमुकुला और उसका विनियोग आकेकरा और उसका विनियोग विभ्रान्ता और उसका विनियोग विप्लुता और उसका विनियोग त्रस्ता और उसका विनियोग विकोशा और उसका विनियोग त्रिविधा मदिरा और उसका विनियोग दृष्टि के अनन्त भेद विषयानुक्रम सहजा और उसका विनियोग रेचिता और उसका विनियोग उत्क्षिप्ता और इसका विनियोग कुचिता और उसका विनियोग पतिता और उसका विनियोग चतुरा और उसका विनियोग कुटी और उसका विनियोग श्लोक संख्या ४५२ ४५३ ४५४ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५९ ४६० ४६१ ४६२ *o ४६४-४६५ ४६६ ४६७ ४६८ ४६९ ४७०-४७२ ४७३-४७४ ४७५ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७९ ४८० *&? पृष्ठ संख्या *** १४९ १४९ १४९ १४९ १४९-१५० १५० १५० १५० १५०-१५१ १५१ १५१ १५१ १५१-१५२ १५२ १५२ १५२ १५३ १५३ १५४ १५४ १५४ १५४ १५४-१५५ १५५ .. १५५ १५५ २३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौ प्रकार की पलकों का अभिनय पलकों के भेद सम और उसका विनियोग विवर्तित और उसका विनियोग १. २. ३. ४. ६. ७. ८. तारों का निरूपण १. २. ३. ५. ६. ७. ८. f. १. २. प्रसृत और उसका विनियोग कुचित और उसका विनियोग पिहित और उसका विनियोग स्फुरित और उसका विनियोग उन्मेषित और उनका विनियोग निमेषित और उसका विनियोग वितालित और उसका विनियोग २४ तारों के भेद आत्मनिष्ठ ताराकर्म प्राकृत भ्रमण पात वलन चलन प्रवेशन समुदवृत निष्क्राम विवर्तन विनियोग विषयाभिमुख ताराकर्म सम साथि नृत्याध्यायः श्लोक संख्या ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ *** ४८७ ४८८ ४८९ ४८९ ४९० ४९१ ४९२ ४९३. ४९४ ४९५ ४९५ ४९५ ४९५ ४९६ ४९६ ४९६ ४९७-४९९ ५०० ५०१ ५०२ पृष्ठ संख्या १५५-१५६ १५६ १५६ १५६ १५६ १५७ १५७ १५७ १५७ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५८ १५९ १५९ १५९ १५९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या १५९-१६० i ५०४ १६० १६० १६० ; ५०८ १६३ श्लोक संख्या अनुवृत्त ५०३ अवलोकित विलोकित ५०५ आलोकित ५०६ उल्लोकित ५०७ प्राविलोकित विनियोग ५०९ उपांग प्रकरण | चार उपांगाभिनय और उनका विनियोग । छह प्रकार कान साभिनय स्वाभाविको और उसका विनियोग ५१० विकृष्टा और उसका विनियोग ५११ सोच्छवासाऔर उसका विनियोग ५१२ विकृणिता और उसकाविनियोग ५१३ नता और उसका विनियोग ५१४ मन्दा और उसका विनियोग उनीस प्रकार का वायु अभिनय वायु के भेद ५१६-५१८ स्वस्थ और उसका विनियोग ५१९ चल और उसका विनियोग ५२० विमुक्त और उसका विनियोग ५२१ . प्रवृद्ध और उसका विनियोग ५२२ उल्लासित और उसका विनियोग ५२३ निरस्त और उसका विनियोग स्खलित और उसका विनियोग ५२५ प्रत और उसका विनियोग विस्मित और उसका विनियोग ५२७ १०. सम ५२८-५३३ १६४ १६४ १६४-१६५ १६५ १६५-१६६ ५२४ ५२६ १६७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नश्याध्यायः पृष्ठ संख्या १६७ १६७ १२. श्लोक संख्या ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ ५२८-५३३ १६७ १६७ १६. १६७ १७. १६७ ५३५ १६८ १६८ १६८ चान्त कम्पित विलीन आन्दोलित स्तम्भित उच्छ्वास निःश्वास १८. सूत्कृत १९. सीत्कृत दस प्रकार के अधरों का अभिनय अपर के भेद विवर्तित और उसका विनियोग विसृष्टि और उसका विनियोग कम्पित और उसका विनियोग विनिगृहित और उसका विनियोग सन्दष्टक और उसका विनियोग समुद्गक और उसका विनियोग उदवृत्त और उसका विनियोग विकासी और उसका विनियोग रेचित और उसका विनियोग १०. आयत और उसका विनियोग छह प्राकर का जिह्वा अभिनय जिह्वा के भेद ऋज्वी और उसका विनियोग लोला और उसका विनियोग लेहिनी और उसका विनियोग वक्रा और उसका विनियोग सुक्कानुगा और उसका विनियोग उन्नता और उसका विनियोग १६८ ५३७ ५३८ .५३९ ५४० ५४१ १६८ १६८-१६९ ५४३ ५४४ ५४५ १६९-१७० ५४७ १७० ५४८ १७० १७० १७० १७० ५५० ५५१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ५५२-५५३ .१७०-१७१ १७१ ५५४ १७१ १७१ १७१ आठ प्रकार के दन्तकर्म का निरूपण दाँतों के भेद सम और उसका विनियोग छिन्न और उसका विनियोग खण्डन और उसका विनियोग चुक्कित और उसका विनियोग कुट्टन और उसका विनियोग दृष्ट और उसका विनियोग निष्कर्षण और उसका विनियोग: ग्रहण और उसका विनियोग छह प्रकार के कपोलों का अभिनय कपोलों के भेद १. सम क्षाम कम्पित ५५७ ५५८ १७१ १७२ १७२ १७२ ५६० ५६१-५६४ ५६१-५६४ ५६१-५६४ ५६१-५६४ ५६१-५६४ ५६१-५६४ ५६१-५६४ १७२-१७३ १७२-१७३ १७२-१७३ १७२-१७३ १७२-१७३ १७२-१७३ १७२-१७३ कुञ्चित पूर्ण ५६५-५६६ ५६६ ५६७ ५६८ आठ प्रकार के चिबुक का अभिनय चिबुक (ठोढ़ी) के भेद व्यादीर्ण और उसका विनियोग चलित और उसका विनियोग लोलित और उसका विनियोग श्वसित और उसका विनियोग चलसंहत और उसका विनियोग संहत और उसका विनियोग स्फुरित और उसका विनियोग वक्र और उसका विनियोग १७३ १७३ १७३-१७४ १७४ १७४ १७४ ५७० ५७१ ५७२ १७४ १७४ ५७३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह प्रकार के मुख का अभिनय मुख के भेद भुग्न और उसका विनियोग १. ३. ४. 4. चार प्रकार के मुखराग का निरूपण १. २. मुखराग (मुख के भाव ) के मंद स्वाभाविक और उसका विनियेग प्रसन्न और उनका विनियोग रक्त और उसका विनियोग श्याम और उसका विनियोग बीस प्रकार के पाणि, गुल्फ और हस्तांगुलि निरूपण पाणि (एडी) के भेद बहिर्गता मियोयुक्ता वियुक्ता अंगुलिसंगता उत्क्षिप्ता पतितोत्क्षिप्ता ३. ४. १. २. ३. ४. ६. ७. ८. उद्वाहि और उसका विनियोग विवृत और उसका विनियोग विद्युत और उसका विनियोग विनिवृत और उसका विनियोग व्यभुग्न और उसका विनियोग १. २. ३. २८ पतिता अन्तर्गता नृत्याध्यायः गुल्फ (टखनों) के भेद मिथोयुक्त वियुक्त क्लिटांगुष्ठ श्लोक संख्या ५७४ ५७४ ५७५ ५७६ ५७७ ५७८ ५७९ ५८०-५८१ ५८२ ५८२ ५८३ ५८४ ५९० ५९० ५९० ५९० ५९० ५९० ५९० ५९० ५९० ५९१ ५९१ ५९१ ५९१ पृष्ठ संख्या १७५ १७५ १७५ १७५ १७५ १७५-१७ १७६ १७६ १७६ १७६ १७७ १७७ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ ૩૮ १७८ १७८ १७८ ? ૮ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ५. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. १. २. ३. ४. पाँच प्रकार की चरणांगुलि निरूपण ५. बहिर्गत अन्तर्यात १. २. ३. ४. ५. ६. गुल (हाथों की उँगलियों) के भेद वियुक्ता संहता बा पतिता वलिता प्रसृता कुञ्चन्मूला छह प्रकार के पादतल का निरूपण पादतल के भेद कुञ्चन्मध्य तिरश्चीन चरणांगुलि (पैरों की उँगलियों) के भेद : प्रसारिता और उसका विनियोग अधः क्षिप्ता और उसका विनियोग उत्क्षिप्ता और उसका विनियोग कुञ्चिता और उसका विनियोग संलग्ना और उसका विनियोग अंगुष्ठ के लक्षण विनियोग विषयानुक्रम पतिताग्र अधोगत उद्वृत्ताग्र भूमिलग्न श्लोक संख्या ५९१ ५९१ ५९२ ५९२ ५९२ ५९२ ५९२ ५९२ ५९२ ५९२ ५९३ ५९४ ५९५ ५९६ ५९७ ५९८ ५९९ ५९९ ५९९ ५९९ ५९९ ५९९ ५९९ ५९९ पृष्ठ संख्या १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८ १७८-१७९ १७९ १७९ १७९ १७९ १७९ १८० १८० १८० १८० १८० १८० १८० १८० २९ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः हस्तप्रचार प्रक श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ia; ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ ६००-६०४ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ पन्द्रह हस्तप्रचार का निरूपण हस्तप्रचार (संचालन) के भेद उत्तान अधस्तल पार्श्वमुख अग्रतल स्वसंमुखतल पार्वतल पार्श्वगत अग्रग ऊर्ध्वग अधोगत संमुख संमुखागत १३. ऊर्ध्वमुख १४. अधोमुख १५. परामुख तेरह हस्तक्षेत्र का निरूपण हस्तक्षेत्र (हाथों के स्थानों) के भेद शिर ललाट श्रवण स्कन्ध उर कटिशीर्ष नाभि १८३ १२. १८३ १८३ १८३ १८३ १८३ ६०५ ६०५ १८४ १८४ १८४ m ६०५ ६०५ ६०५ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या श्लोक संख्या ६०५ ६०५ ६०५ पार्श्वद्वय उर्व अधः १८४ १८४ १८४ पुरः ६०५ ११. १२. उरुद्वय १८४ १८४ १८४ ६०५ ६०५ १३. शीर्ष १८४ . बीस करकर्मों का निरूपण करकर्म (हाथों के कार्यों) के भेद मोक्षण रक्षण १८४ १८४ १८४ in क्षेप निग्रह १८४ १८४ १८४ 3 १८४ » परिग्रह धूनन स्फोटन श्लेष विश्लेष मोटन तोलन १८४ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ ६०६-६०७ . • ताडन छद १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ १८४ :. - उत्कृष्ट . आकृष्टि विकृष्टि विसर्जन आह्वान तर्जन भेद . १८४ १८४ . १४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ६०८-६०९ ६१०-६११ १८४-१८५ १८५ । १८५ १८६ चार हस्तकरणों का निरूपण हस्तकरण (हस्त चेष्टाएँ)के भेद १. आवेष्टित उद्वेष्टित व्यावर्तित परिवर्तित विचित्राभिनय प्रकरण | छह विचित्राभिनय निरूपण भावाभिनय (१) ६१४ अनिष्ट ६१५-६१९ ६१५-६१९ ६१५-६१९ १८९-१९० १८९-१९० १८९-१९० मध्य is इन्द्रियाभिनय (२) शब्दाभिनय स्पर्शाभिनय रूपाभिनय रसनाभिनय गन्धाभिनय विचित्राभिनय (३) ६२०.६२४ ६२०-६२४ ६२०-६२४ ६२०-६२४ ६२०-६२४ ६२५-६५५ ६५६-६५७ ६५८-६६० १९० १९० १९० १९० १९१-१९५ १९५-१९६ १९६ ६६३-६६५ कोष दुःख भय शब्द पक्षियों का अभिनय (४) यक्षों तथा देवताओं का अभिनय (५) १९७ १९७ १९७-१९८ ६६८-६६९ ६७०-६७५ १९८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तना (हस्तविन्यास) का निरूपण वर्तन के भेद १. २. ३. ४. ५. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. विभिन्न अभिनय (६) अभिनेताओं को नाटय निर्देश १८. १९. २०. २१. २२. २३. पताकवर्तना अपवर्तना अलवर्तना शुकतुण्ड वर्तना अवहित्यवर्तना मकरवर्तना खटकामुखवर्तना ऊर्ध्ववर्तना चितवर्तना आविवर्तना केशबन्ध वर्तना भालवर्तना उरःस्थवर्तना कवर्तनिका खड्गवर्तना दण्ड वर्तना पद्मवर्तना नितम्बवर्तना पल्लववर्तना ललितवर्तना मण्डलवर्तना दलितवर्तना घातवर्तना श्लोक संख्या ६७६-६८५ ६८६-७०७ बर्तना प्रकरण / सात ७०८-७१४ ७१५ ७१६ ७१७ ७१८ ७१९ ७२० ७२१ ७२२ ७२३ ७२४ ७२५ ७२६ ७२७ ७२८ ७२९ ७३० ७३१ ७३२-७३३ ७३४ ७३५ ७३६ ७३७ ७३८ पृष्ठ संख्या १९९-२०० २००-२०४ २०७ - २०८ २०८ २०८ २०८ २०८ २०८ २०९ २०९ २०९ २०९ २०९ २०९ २०९-२१० २१० २१० २१० २१० .२११ २११ २११ २११ २११-२१२ २१२ २१२ .३३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोक संख्या ७३९ ७४० पृष्ठ संख्या २१२ २१२ २१२-२१३ २१३ २१३ ७४१-७४३ ७४४ २१३ . ७४६ ७४७ ७४८ २१३ २१४ २१४ ७४९ ७५० २१४ २१४ २४. गात्रवर्तना २५. प्रतिवर्तना वर्तना के अन्य भेद १. चतुरखाल्यवर्तना २. तलमुखवर्तना स्वस्तिकदर्तना विप्रकीर्णवर्तना पुष्पपुटवर्तना त्रिपताकवर्तना कर्तरीमुखवर्तना मुष्टिवर्तना शिखरवर्तना कपित्त्यवर्तना सूचीमुखवर्तना चालन प्रकरण आठ हस्त संचालन क्रियाओं का निरूपण चालकों के भेद विश्लिष्टवर्तित वेपथुव्यंजक अपविद्ध लहरीचक्रसुन्दर 'वर्तनास्वस्तिक संमुखीनरथाङग पुरोदण्डमम त्रिभंगीवर्णसारक ७५१ ७५२-७५३ ७५२-७५३ ७५२-७५३ २१५ २१५ २१५ ७५४-७६६ ७६७ ७६८ ७७०-७७२ ७७३-७७४ ७७५-७७६ ७७७-७७८ ७७९ ७८० ७८१ २१९-२२० २२०-२२१ २२१ २२१ २२१ २२१-२२२ २२२ २२२ २२२ २२३ बोल नीराजित स्वस्तिकाश्लेष २२३ २२३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम श्लोक संख्या १२. ७८३ १३. ७८४ ७८७-७८९ ७९०-७९२ ७९३-७९४ ७९५-७९६ ७९७-७९८ ७९९-८०० २०. ८०१ पृष्ठ संख्या २२३ २२३-२२४ २२४ २२४ २२४ २२५ २२५ २२५-२२६ २२६ २२६ २२६-२२७ २२७ २२७ २२७ २२७ २२८ २२८ २२८ २२८-२२९ २२१ २२९ २२९ २२९-२३० २३. ८०२ वामदक्षतिरश्चीन. वर्तनाभरण मियोंसवीक्षाबाहर मौलिरेचितक मणिबन्धासिक अंसवर्तनिक आदिकूर्मावतार कलविङकविनोद मण्डलान चतुष्पत्राउन बालव्यजन चालन विडिबन्धन विशृंगाटकबन्धन कुण्डलिचारक धनुराकर्षण हारदाम विलासक समप्रकोष्ठ मुरजाडम्बर तिर्यग्यातस्वस्तिकान देवोपहारक अलातचक्र ... साधारण उरभसम्बाध मणिबन्धगतागत तायपक्ष विनोदक धनुर्बल्लविमानक तिर्यक्ताण्डव व्यस्तोत्प्लुति निवर्तक कररचितरत्न २४. ८०३ ८०४. ८०५ ل له له ८०७ ८०८-८१० ८११-८१२. ८१३-८१४ سه سی ८१५ A २३० m m ८१७ ८१८ ८१९ ८२०-८२१ ८२२ ८२३ ८२४-८३५ ३७. m m २३० २३० २३०-२३१ २३१ . २३१-२३२ m ४०. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ४२. ४३. ४४. ५. मण्डलाभरण अष्टमन्यविहारास्य शरसन्धानक पर्यायगजदन्तक ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. नवरत्नमुत मतान्तर से अन्य मेद १. दिग्वर्ष २. अनगामोटन ३. ४. ३६ अंसपर्याय निर्गत स्वस्तिक त्रिकोण रथनेमिसम तावेष्टित कर्णयुग्मप्रकीर्ण तोरण अनंगोद्दीपन मुरजकर्तरी स्थानकों का निरूपण स्थानक प्रकरण / नौ स्थानक (खड़े होने का ढंग ) पुरुष स्थानक के भर स्त्री स्थानक के भेद अन्य स्थानक के भेद देशी स्थानक के भद उपविष्ट स्थानक के ब नृत्याध्यायः सुप्त स्थानक स्थानकों की सम्पूर्ण संख्या विनियोग श्लोक संख्या ८३६ ८३७-८३८ ८३९-८४० arr ૪૨ ८४३ ८४४ ८४५ ८४६. ८४७-८५० ८५१ ८५२ ८५३ ८५४-८५५ ८५६-८५७ ८५८-८६२ ८६३-८६५ ८६६ ८६७ ८६८-८६९ ८७०-८७३ ८७४-८७५ ૮૦ ८७७ ૮૦૮ पृष्ठ संख्या २.३ २३३ २३३ २३३ २३४ २३४ २३४ २३४ २३५ २३५ २३५-२३६ २३६ २३६ २३६ २३६-२३७ २३७ २४१ २४१ २४१ २४२ २४२ २४२-२४३ २४३ २४३ २४३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह पुरुष स्थानक (१) १. २. ३. ४. ५. ६. आठ स्त्री स्थानक (२) १. ३. ५. ६. २. ३. ६. ७. ८. तेईस देशी स्थानक (३) १. ७. ८. वैष्णव और उसका विनियोग समपाद और उसका विभियोग वंशाख और उसका विनियोग मण्डल और उसका विनियोग आलोढ़ और उसका विनियोग प्रत्यालीढ़ और उसका विनियोग ९. १०. ११. आयत और उसका विनियोग अवहित्य और उसका विनियोग अश्वकान्त और उसका विनियोग गतागत वलित और उसका विनियोग मोटित विनिवतित प्रोन्नत और उसका विनियोग समपाद स्वस्तिक सं वर्धमान नन्द्यावर्त एकपाद चतुरस्र पृष्ठोत्तानतल 'पाणिविद समसूचि विषमसूचि श्लोक संख्या ८७९-८८९ ८९०-८९१ ८९२-८९३ ८९४-८९६ ८९७-८९९ ९०० ९०१-९०८ ९०९-९११ ९१२-९१४ ९१५ ९१६ ९१७ ९१८ ९१९-९२० ९२१ ९२२ ९२३ ९२४ ९२५ ९२६ ९२७ ९२८ ९२९ ९३० ९३१ पृष्ठ संख्या २४३-२४५ २४५ २४५-२४६ २४६ २४६-२४७ २४७ २४७-२४८ २४८-२४९ २४९ २५० २५० २५० २५० २५०-२५१ २५१ २५१ २५१ २५१ २५२ २५२ २५२ २५२ २५२ २५२ २५३ ३७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोक संख्या ९३२ १३. १४. खण्डसूचि पाणिपाश्र्वगत एकपाश्चंगत परावृत्त एफजानुनत ९३४ ९३५ ९३६ पृष्ठ संख्या २५३ २५३ २५३ २५. २५४ २५४ २५४ २५४ २५४ ९३७ ९३८ २०. वैष्णव . शैव कूर्मासन गरुड वृषभासन नागबन्ध ९४० २१. २५५ २२. २३. ९४१ ९४२. ९४३ २५५ २५५ १. ९४३ २५५ २५५ छह सुप्त स्थानक सम नत और उसका विनियोग आकुञ्चित और उसका विनियोग प्रसारित विवर्तित उद्वाहित और उसका विनियोग ९४५ २५६ ९४६ २५६ २५६ ९४८ २५६ चारी प्रकरण / दस २५९ चारियों का निरूपण चारी ( चेष्ठाकृतिविशेष भावाभिव्यंजन) चारियों के भेद भूमिचारी के भेद आकाशचारीके भेद देशीचारी (भूमिगत) के भेष देशीचारी (आकाशगत) के भेद ९४९-९५० ९५१-९५३ ९५४-९५६ ९५७-९५९ ९६०-९६५ . २५९-२६० २६० २६. २६१-२६२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह भूमिचारियाँ (१) १. समपादा २. आडिता ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. बढा स्पन्दिता विच्यवा अनिता उत्सन्दिता चावगति अधिका एलकाकोडिता ५. ६. ७. ८. ९. शकटास्या ऊरूवृत्ता स्थितावर्ता अपस्पन्दिता समोत्सरितमत्तल्ली मत्तल्ली विनियोग सोलह आकाशचारियाँ (२) १. अतिक्रान्ता २. ३. ४. अपक्रान्ता भ्रमरी मृगप्लुता पार्श्वक्रान्ता ऊर्ध्वजानु भुलगा सिता अलाता दण्डपादा विषयानुक्रम: श्लोक संख्या ९७०-९७३ ९७४ ९७५-९७६ ९७७ ९७८ ९७९-९८० ९८१-९८२ ९८३-९८४ ९८५-९८६ ९८७ ९८८- ९८९ ९९०-९९१ ९९२ ९९३ ९९४-९९५ ९९६ ९९७ ९९८-९९९ १००० १००१ १००२ १००३-२००४ १००५ १००६-२००७ १००८ १००९ पृष्ठ संख्या २६२-२६३ २६३ २६३ २६३ २६३-२६४ २६४ २६४ २६४ २६५ २६५ २६५ २६५-२६६ २६६ २६६ २६६ २६६-२६७ २६७ २६७ २६७ २६७-२६८ २६८ २६८ २६८-२६९ २६९ २६९ २६९ ३९ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नात्याध्यायः पृष्ठ संख्या . १०. श्लोक संख्या १०१० १०११.१०१२ १०१३ . १०१४-१०१५ १०१६ १०१७.१०१८ १०१९ १०२०.१०२५ २७० २७०. २७० २७०-२७१ २७१ . २७१ २७१-२७२ २७२ २७३ २७३ २७३ * २७३ विद्युभ्रान्ता सूची दोलापादा उद्वत्ता आविद्या नपुरपादिका आक्षिप्ता विनियोग पैंतीस देशी भूमिचारियाँ (३) रथचका तलोद्वत्ता मराला पाणिरचिता परावृत्ततला तिर्यमुखा नूपुरविद्धिका कतरा करिहस्ता हरिणत्रासिता अर्षमण्डलिका उस्तारिता मदालसा संचारिता उत्कुञ्चिता मपकुञ्चिता स्फुरिता स्तम्भ क्रीडनिका तिर्यस्कुञ्चिता तलदर्शिनी । २७३ २७४ २७४ २७४ . २७४ १०२६ १०२७ १०२८ १०२९ १०३० १०३१ १०३२ १०३३ १०३४ १०३५ १०३६ १०३७ १०३८ १०३९ १०४० १०४१ १०४२ १०४३ १०४ १०४५ २७४ MAK २७४-२७५ २७५ २७५ २७५ २७५ २७५ , No. २७६ २७६ २७६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या २७६ २७६ २७६ २७७ २७७ २७७ لا لا لا श्लोक संख्या १०४६ १०४७ १०४८ १०४९ १०५० १०५१ १०५२ १०५३ १०५४ १०५५ १०५६ १०५७ १०५८ १०५९ १०६० २७७ २७७ لا لا ३०. لت فاع २१. खुत्ता २२. लजियतजड्या २३. स्वस्तिका २४. कुलोरिका २५. निकटक २६. पुराटिका २७. अर्षपुराटिका २८. स्फुरिका २९. सारिका लताक्षेप ३१. अड्डस्खलितिका । ३२. ऊरुवणी ३३. विश्लिष्टा ३४. समस्खलितिका ३५. संघट्टिता उन्नीस देशी आकाशचारियाँ (४) .१. दण्डपादा २. पुरक्षेपा अपक्षपा हरिणप्लुता विद्युद्भान्ता विक्षपा जाधावा अनियताडिता अलाता डमरी اسع २७७ २७७ २७८ २७८ २७८ २७८ २७८ १०६१ २७९ १०६२ १०६३ १०६४ १०६५ १०६६ १०६७ १०६८ १०६९ १०७० २७९ २७९ २७९ २७९-२८० २८० २८० २८० २८० . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्याध्यायः श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या २८०-२८१ २८१ विद्धा जधालङघनिका सूची प्राकृत उल्लाल २८१ १०७१ १०७२ १०७३ १०७४ १०७५ १०७६ १०७७ १०७८ १०७९ २८१ २८१ २८१ वेष्टन २८२ उद्वेष्टन उत्क्षेप २८२ २८२ पृष्टोत्क्षेप २८२ २८२-२८३ २८३-२८४ १०८०-१०८१ १०८२-१०८८ १०८९ १०९० १०९१ १०९२ १०९३ १०९४ १०९५ २८४ २८४ २८४ पच्चीस मुडुपचारियाँ (५) मुडुपचारी का अर्थ मुडुपचारी के भेद पुर:पश्चात्सरा पश्चात्पुरःसरा मध्यचक्रा एकपदक ट्टिता पदद्वयनिकट्टा पादस्थितिनिकुट्टिता क्रमपादनिकुट्टिका समपादनिकुट्टिता डमरुकुट्टिता १०. डमरु द्वय कुट्टिता पुरः क्षेपनिकुट्टिता पश्चात्क्षेप निकुट्टिता पाश्र्वक्षेपनिकुट्टिता चक्रकुट्टनिका २८४ २८४ २८४-२८५ २८५ २८५ २८५ २८५ ११. १०९७ १०९८ १०९९ ११०० ११०१ ११०२ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. १६. १७. १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. २५. १. नृत्तकरणों का निरूपण २. ३. ४. ५. ६. मध्यस्थापनकट्टा चतुष्कोण निकुट्टिता त्रिकोणचारी तिरश्चीन कुट्टिता ७. ८. ९. १०. ११. १२. अनुलोमविलोमका प्रतिलोमानुलोमका पुरस्ताल्लुठिता पृष्ठलुठिता कुट्टिता पार्श्वद्वयचरी मध्यलुठिता करण और उनके भेद तलपुष्पपुट और उसका विनियोग वक्षःस्वस्तिक और उसका विनियोग नृत्तकरण प्रकरण / ग्यारह वर्तत और उसका विनियोग मण्डलस्वस्तिक और उसका विनियोग विषयानुक्रम लीन और उसका विनियोग उन्मत्त और उसका विनियोग वलितोरु और उसका विनियोग स्वस्तिक और उसका विनियोग अर्धस्वस्तिक और उसका विनियोग fertaस्तिक और उसका विनियोग पृष्ठस्वस्तिक और उसका विनियोग आक्षिप्तरचित और उसका विनियोग श्लोक संख्या ११०३ ११०४ ११०५-११०६ ११०७ ११०८ ११०९ १११० ११११ १११२ १११३ १११४-१११५ १११६-११३८ ११३९-११४१ ११४२-११४३ ११४४-११४७ ११४८-११४९ ११५० ११५१ ११५२-११५३ ११५४ ११५५-११५६ ११५७ ११५८-११५९ ११६०-११६२ पृष्ठ संख्या २८६ २८६ २८६ २८७ २८७ २८७ २८७ २८७ २८८ २८८ २८८ २९१-२९४ २९४ २९४-२९५ २९५ २९६ २९६ २९६ २९७ २९७ २९७-२९८ २९८ २९८-२९९ २९९ ४३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या १३. २९९ १४. ३०० ३०० ३००-३०१ ३०१ ३०१-३०२ ११६३-११६४ ११६५-११६६ ११६७-११६९ .११७०-११७१ ११७२-११७३ ११७४-११७५ ११७६-११७७ ११७८ ११७९-११८४ ११८५ ११८६ ११८७-११९० ३०२ २०. २१. २२. अलात और उसका विनियोग भुजंगत्रासित और उसका विनियोग कटीसम और उसका विनियोग कटीछिन्न और उसका विनियोग घूणित और उसका विनियोग निकुञ्चित और उसका विनियोग निकुट्टक अनिकुट्टक विक्षिप्ताक्षिप्तक और उसका विनियोग अपविद्ध और उसका विनियोग समनख और उसका विनियोग स्वस्तिक रेचित और उसका विनियोग मतल्लि और उसका विनियोग अर्धमत्तल्लि और उसका विनियोग वल्लित अर्घरचित ऊर्ध्वजानु कटिभान्त और उसका विनियोग छिन्न और उसका विनियोग पादापविद्धक भ्रमर दण्डपक्ष २३. २४. २५. २६. ३०२ ३०२-३०३ ३०३-३०४ ३०४ ३०४-३०५ ३०५ ३०५ ३०५ २७. २८. ३०६ २९. ३०. ३२. ३३. rr mmmmmmmmmm m mmmM ११९२ ११९३ ११९४-११९५ ११९६-११९७ ११९८-१२०० १२०१ १२०२ १२०३-१२०४ १२०५ १२०६ १२०७-१२०८ १२०९-१२१० १२११-१२१२ १२१३-१२१४ १२१५ ३०६-३०७ ३०७ ३०७ ३०७-३०८ ३०८ ३०८ ३०८ ३४. नपुर ललित और उसका विनियोग व्यंसित और उसका विनियोग चतुर और उसका विनियोग ३०९ ३०९ ३०९-३१० ३१० भुजंगत्रस्तरेचित Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५९. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ३६. ६७. ६८. भुजंगाञ्चित आक्षिप्त और उसका विनियोग उद्घट्टित दण्डरचित और उसका विनियोग वृश्चिक और उसका विनियोग वृश्चिकरेचित और उसका विनियोग वृश्चिकक ट्टित और उसका विनियोग लतावृश्चिक और उसका विनियोग वंशाखरं चित चक्रमण्डल और उसका विनियोग आवर्त और उसका विनियोग कुञ्चित और उसका विनियोग दोलापाद और उसका विनियोग तलविलासित और उसका विनियोग विवृत्त और उसका विनियोग विनिवृत्त और उसका विनियोग ललाटतिलक और उसका विनियोग विषयानुक्रम विवर्तत अतिक्रान्त विद्युद्ान्त और उसका विनियोग निशुभित और उसका विनियोग उरोमण्डल विक्षिप्त और उसका विनियोग पानिकटक और उसका विनियोग तलसंस्फोटित गण्डसूचि और उसका विनियोग सूचि और उसका विनियोग अर्धसूचि श्लोक संख्या १२१६ १२१७ १२१८ १२१९ १२२० १२२१ १२२२ १२२३ १२२४ १२२५-१२२६ १२२७ १२२८-१२२९ १२३० १२३० १२३१-१२३२ १२३३-१२३४ १२३५ १२३६ १२३७ १२३८ १२३९-१२४१ १२४२ १२४३-१२४४ १२४५-१२४६ १२४७ १२४८-१२४९ १२५० १२५१ १२५२ पृष्ठ संख्या ३१० ३१० ३११ ३११ ३११ ३११ ३१२ ३१२ ३१२ ३१२-३१३ ३१३ ३१३-३१४ ३१४ ३१४ २१४ ३१४-३१५ ३१५ ३१५ ३१५ ३१५-३१६ ३१६ ३१६-३१७ ३१७ ३१७ ३१७-३१८ ३१८ ३१८ ३१८ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९. ७०. ७१. ७२. ७३. ७४. ७५. ७६. ७७. ७८. ७९. ८०. ८१. . ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. ८९. ९०. ९१. ९२. ९३. ९४. ९६. ४६ गजकोडितक पार्श्वजानु और उसका विनियोग गरुडप्लुत धावलीनक और उसका विनियोग दण्डपाद और उसका विनियोग सन्नत और उसका विनियोग समर्पित और उसका विनियोग मयूरललित सूचीबद्ध और उसका विनियोग प्रेोति और उसका विनियोग स्वलित परिवृत करिहस्त प्रसति और उसका विनियोग पार्श्वक्रान्त और उसका विनियोग निवेश नितम्ब हरित और उसका विनियोग सिंहविक्रीडित] और उसका विनियोग सिंहाकथित और उसका विनियोग जनित और उसका विनियोग अवहित्य और उसका विनियोग उद्वृत्त संघटित लोलित शकटास्य और उसका विनियोग बृषभफीडित emaratडित और उसका विनियोग नृत्याध्यायः श्लोक संख्या १२५३ १२५४ १२५५ १२५६ १२५७ १२५८ १२५९-१२६० १२६१ १२६२. १२६३ १२६४ १२६५ १२६६ १२६७ १२६८ १२६९ १२७०-१२७१ १२७२ १२७३ १२७४ १२७५ १२७६-१२७९ १२८० १२८१-१२८२ १२८३ १२८४ १२८५ १२८६ पृष्ठ संख्या ३१९ ३१९ ३१९ ३१९-३२० ३२० ३२० ३२०-३२१ . ३२१ ३२१ ३२१ ३२२ ३२२ ३२२ ३२२ ३२३ ३२३ ३२३ ३२३-३२४ ३२४ ३२४ ३२४ ३२५ ३२५ ३२५-३२६ ३२६ ३२६ ३२६-३२७ ३२७ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ९८. ३२७ ३२७-३२८ ३२८ ३२८ ३२८-३२९ १००. १०१. १०२. १०३. १०४. १०५. विष्कम्भ अपसूत और उसका विनियोग विष्णकान्त और उसका विनियोग अपक्रान्त उरूवृत्त और उसका विनियोग अञ्चित और उसका विनियोग : सम्मान्त और उसका विनियोग मदस्खलितक और उसका विनियोग अर्गल और उसका विनियोग । रेचकनिकुट्टक नागापसर्पित और उसकाविनियोग गडगावतरण और उसकाविनियोग करण प्रयोग के विशेष निर्देश १२८७-१२८८ १२८९-१२९० १२९१ १२९२ १२९३-१२९४ १२९५ १२९६ १२९७ १२९८-१२९९ १३०० १३०१ १३०२-१३०३ १३०४-१३०५ ३२९ ३२९-३३० ३३० ३३० ३३०-३३१ १०७. १०८. ३३१ ३३५-३३६ उत्प्लुतिकरणों का निरूपण | बारह अड़तीस उत्प्लुतिकरणों का निरूपण उत्प्लुति करणों के भेद १३०६-१३१४ अञ्चित १३१५ एकपादाञ्चित १३१६ समपादाञ्चित १३१७ तिर्यगाञ्चित १३१८ भैरवाञ्चित १३१९ मान्तपादाञ्चित १३२०-१३२१ दण्डप्रणामाञ्चित १३२२ कर्तर्यञ्चित १३२३ लडकादाहाञ्चित १३२४ समकतर्यञ्चित १३२५ ३३६ ३३७ ३३७ ३३७ ३३७ ३३७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्याध्यायः श्लोक संख्या - पृष्ठ संख्या ३३८ १३. १३२६ १३२७ १३२८ १३२९ १३३० १३३१ १३३२ १३३३ १३३४ १३३५ ३३८ ३३८ ३३९ ३३९ ३३९ ३३९ २०. ३४० ३४० २२. २३. ३४० बलिबन्धाञ्चित क्षेत्राञ्चित स्कन्धाञ्चित अलग ऊलिग अन्तरालग कूर्मालग लोहडी एकपाद लोहडी विचित्र लोहडी बाहुबन्ध लोहडी कर्तरी लोहडी समकतरी लोहडी चतुर्मुख लोहडो अलगाञ्चित जलशयन दर्पशरण नागबन्ध मत्स्यकरण तिर्थक्करण तिर्यक् स्वस्तिक कपालचूर्णन नतपुष्टक करस्पर्श स्कन्वमान्त एणप्लुत लोहड्याञ्चित सूच्यन्तर १३३७ १३३८ १३३९ १३४० १३४१ १३४२ ३४० ३४० ३४० ३०. ३१. ३४१ ३४१ ३४१ ३४१ ३४२ ३४२ ३२. ३३. ३४. ३५. ३४२ ३४२ ३४३ ३४३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगारों का निरूपण १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. 2 a m x ११. १२. १३. १४. १५. १६. १. fararaक्रम अंगहार रेचक मण्डल प्रकरण / तेरह श्लोक संख्या २. ३. ४. चतुरस्रमान में सोलह अंगहार (१) अंगहार स्थिरहस्त पर्यस्तक सूचीविद्ध अपराजित मदविलासित मत्तक्रीड भ्रमर विद्युद्मान्त परिच्छिन्न पार्श्वच्छेद अपसर्पित आक्षिप्त आच्छुरित आलोढ़ वैशाखरेचित पार्श्व स्वस्तिक त्र्यमान में सोलह अंगहार (२) अपविद्ध परावृत्त रेचित आक्षिप्त रेचित १३४३ १३४४-१३४५ १३४६-१३४७ १३४७-१३५० १३५१ १३५२-१३५४ १३५५-१३५६ १३५७-१३५८ १३५९-१३६१ १३६२ १३६३ १३६४ १३६५-१३६६ १३६७-१३६८ १३६९-१३७० १३७१-१३७२ १३७३-१३८० १३८१-१३८८ पृष्ठ संख्या ३४७-३४९ ३४९ ३४९ ३५० ३५० ३५० ३५०-३५१ ३५१ ३५१-३५२ ३५२ ३५२ ३५२-३५३ ३५३ ३५३ ३५३ ३५३-३५४ ३५४ ३५४ ३५५ ३५५-३५६ ३५६-३५७ ४९ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः पृष्ठ संख्या 35 उद्वत्त उद्घटित अलात सम्भ्रान्त अर्बनिकट परिवतरेचित स्वस्तिकरेचित विष्कम्भापसृत विष्कम्भ गतिमण्डल वृश्चिकापसृत मतस्खलित चार प्रकार के रेचकों का निरूपण श्लोक संख्या १३८९-१३९१ १३९२ १३९३-१३९४ १३९५-१३९७ १३९८-१४०१ १४०२-१४०६ १४०७-१४०८ १४०९-१४१० १४११-१४१२ १४१३ १४१४ १४१५-१४२० ३५७ ३५७-३५८ ३५८ ३५८ ३५८-३५९ ३५९ ३६० '३६० ३६० पागिरेचक कण्ठरेचक कटोरेचक पादरेचक १४२१-१४२२ ३६२-३६३ १४२३ १४२४ ३६३ । १४२५-१४२६३६३ दस आकाशगत मण्डल (१) मण्डल (गति) के भेद अतिक्रान्त वामविद्ध क्रान्त ललितसञ्चर सूवीविद्ध अलात विचित्र विहृत १४२७-१४३० १४३१-१४३४ १४३५-१४३७ १४३८-१४३९ १४४०-१४४३ १४४४-१४४५ १४४६-१४४८ १४४९-१४५१ १४५२-१४५५ ३६८ ३६८ , ३६९ . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या ९. ललित १०. दण्डपाद दस भूमिगत मण्डल (२) श्लोक संख्या १४५६-१४५८ १४५९-१४६१ ३७० ३७० ३७१ नमर शकटास्य पिष्टकुट्टक अड्डित समोत्सारित आवर्त एलकाक्रीडित आस्कन्दित चाषगत अध्य १४६२-१४६४ १४६५-१४६७ १४६८ १८६९-१४७२ १४७३-१४७५ १४७६-१४७८ १४७९-१४८० १४८१-१४८२ १४८३ १४८४-१४८६ ३७१ ३७१-३७२ ३७२ ३७२-३७३ ३७३ ३७३-३७४ ३७४ ३७४ . लास्यांग प्रकरण | चौदह मार्गस्थित लास्यांगों का निरूपण (१) मार्ग स्थित लास्यांगों के भेद स्थितपाठय आसीन संन्धव पुष्पमण्डिका प्रच्छेदक शेषपद द्विमूढ़ त्रिमूढ़ वैभाविक ३७७ ३७७ ३७८ ३७८ ३७८-३७९ १४८७-१४८९ १४९०-१४९१ १४९२-१४९४ १४९५ १४९६ १४९७-१४९८ १४९९ १५००-१५०१ १५०२-१५०४ १५०५-१५०६ ३७९ ३७९-३८० ३८० ३८०-३८१ ९. १०६. ५१ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः चित्रपद उक्तप्रत्युक्त १२. उत्तमोत्तम देशी लास्यांगों का निरूपण (२) श्लोक संख्या १५०७-१५०८ १५०९-१५१० १५११-१५१३ पृष्ठ संख्या ३८१ ३८१-३८२ ३८२ देशी लास्यांगों के भेद चालि चालिवट १५१३-१५१७ १५१८-१५१९ १५२० २८२-३८३ ३८३ ३८३-३८४ १५२१ . . ३८४ मन लेढि उरोडकण ढिल्लाई त्रिकलि किन्तु देशीकारक निजापन उल्लास थसक ३८४ ३८४ ३८४-३८५ ३८५ ३८५-३८६ ३८६ ३८६ ३८६ ३८६-३८७ ~ ~ ३८७ १५२२-१५२३ १५२४-१५२५ १५२६-१५२९ १५३० १५३१-१५३२ १५३३ १५३४ १५३५ १५३६-१५३७ १५३८ १५३९ १५४०-१५४१ १५४२ १५४३ १५४४ १५४५ १५४६ १५४७ १५४८ १५४९ १४. भाव ३८७ सुकलास or ३८७ ३८७ ३८८ १८. ३८८ ढाल छेवा अंगहार लंधित विहसी ३८८ ३८८ ३८८ ३८८-३८९ नीकी नमनिका ३८९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. २५. २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७ शंका वितड गीतवाद्यता विवर्तन थरहर स्थापना सौष्ठव सुवा मसृणता उपार अंगानंग अभिनय कोमलिका मुखरस कलास करणों का निरूपण प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पञ्चम विषयानुक्रम कलास (ताल के अनुसार नृत्य) के भेद १. विद्यास षष्ठ २. खड्गकलास प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ कलास करण प्रकरण / पन्द्रह श्लोक संख्या १५५० १५५१ १५५२ १५५३ १५५४ १५५५ १५५६-१५५७ १५५८ १५५९ १५६० १५६१ १५६२ १५६३ १५६४-१५६५ १५६६-१५६९ १५७०-१५७३ १५७४ १५७५ १५७६ १५७७-१५७८ १५७९ १५८०-१५८१ १५८२-१५८३ १५८४ १५८५-१५८६ पृष्ठ संख्या * ३८९ ३८९ ३८९-३९० ३९० ३९० ३९० ३९०-३९१ ३९१ ३९१ ३९१ ३९१ ३९१-३९२ ३९२ ३९५ ३९५-३९६ ३९६ ३९६ ३९६-३९७ ३९७ ३९७ ३९७ ३९८ ३९८ ३९८ ५३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोक संख्या १५८७-१५८८ पृष्ठ संख्या ३९८-३९९ ३. मृगकलास ४. बककलास १५१४-१५९५ द्वितीय तृतीय ४०० ४००-४०१ १६००-१६०१ १६०२-१६०४ १६०५-१६०६ १६०७-१६०८ १६०९ ४०१ ४०१-४०२ ४०२ ५. प्लवकलास प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ ६. हंसकलास प्रथम द्वितीय तृतीय चित्रसूची परिशिष्ट श्लोकानुक्रमणिका पारिभाषिक शन्दानुक्रमणिका १६१०-१६११ ४०२ ४०२ ४०३ ४०५-४२८ ४३१-४८२ ४८३-५०१ ५४ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोकमल्लविरचितः नृत्याध्यायः [मूल और हिन्दी अनुवाद] Page #66 --------------------------------------------------------------------------  Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण | एक Page #68 --------------------------------------------------------------------------  Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक मल्लविरचितः नृत्याध्यायः असंयुत हस्त और उसका विनियोग ५. चतुर हस्त और उसका विनियोग -- ज्योव् ( ? प्रयोज्यौ च ) यथोचितम् । सखित्वे संयुतः स स्यात् सुखे तु हृदयस्थितः ॥ १ ॥ [ अभिनय के समय हस्तमुद्रा को ] यथोचित रूप से प्रदर्शित करना चाहिए । मित्रता का भाव अभिव्यंजित करने के लिए संयुक्त हस्त का प्रयोग करना चाहिए; किन्तु सुख के भाव को प्रदर्शित करने के लिए हाथ को हृदय पर अवस्थित करना उचित है । 1 मृदुन्यसौ । त्वधोमुखः ॥२॥ ऊर्ध्वोत्थितो नाभिदेशाद्यौवनेऽथ कार्यो रचनायां मर्दाताङ्गुष्ठकः 2 यौवन का भाव प्रदर्शित करने के लिए उत्तानावस्था में हथेली को ऊपर उठाते हुए धीरे से नाभि के पास ले जाकर रख दे । यदि रचना या निर्माण का भाव व्यंजित करना हो तो अँगूठे को मसलते हुए हथेली को औंधा कर नाभिदेश में अवस्थित करना चाहिए । श्रथ ज्ञानेच्छयोस्तोषे अनुरागे प्रतिज्ञायां श्रन्यदर्थे समर्थ च समाश्वासे गुणे चायं हृदयस्थो मतः सताम् ॥४॥ 4 लोकमान्य व्यक्तियों (सताम् ) का अभिमत है कि ज्ञान, इच्छा, सन्तोष, चिन्तन, हार्दिक भाव, अनुराग, ५९ चिन्तने हृदयेऽपि वा । स्वभावे पण्डितेऽपि च ॥३॥ विश्रब्धेऽपि तथादरे । 3 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः प्रतिज्ञा, स्वभाव, पाण्डित्य, परार्थ, समर्थता या समर्थन, विश्वास, आदर, सान्त्वना और गुण आदि के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए हृदयस्थ अधोमुख हस्तमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। परिमण्डलितो रक्त वर्णे पीतेऽप्यसौ कनः (? र):। सिते वर्णे तूर्ध्वगतो नीलेऽसौ पनि (? रि) मर्दितः ॥५॥ . 5 लाल और पीले रंग का भाव प्रदर्शित करने के लिए मण्डलाकार हस्तमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए; किन्तु स्वेत वर्ण के लिए उत्तान हस्त का और नीले वर्ण के लिए परिमदित हस्त का प्रयोग करना चाहिए। प्रादिष्टेऽधोमुखः स स्यात् सोदर्य बालकेऽपि च । स्वल्पे कुब्जे कुमार्यां च मध्ये मध्यस्थितो भवेत् ॥६॥ 6 आदेश देने, सोदर भाई और वाल-कथन का भाव प्रदर्शित करने के लिए हृदयस्थ हस्त को अधोमुख; और अल्पता, कुबड़ापन, कौमार्य और मध्यावस्था का भाव अभिव्यंजित करने के लिए हाथ को ऊर्ध्व-अधः की मध्यस्थिति में रखना चाहिए। अपराधेऽप्युपादाने प्रिये च हृदि सम्मुखः ॥७॥ अपराध, स्वीकार या ग्रहण तथा प्रियजन के अभिनय में हृदयस्थ हाथ को संमुखावस्था में रखना चाहिए। परिवृत्तस्त्वविनये मलिने दुर्लभेऽपि च । । अनुत्पन्नेऽनातुरे [?च] विस्मये निर्गुणेऽपि च । अविनय, मलिनता, दुर्लभता, अनुत्पत्ति, उदासीनता, विस्मय और निर्गुण का भाव अभिव्यंजित करने के लिए परिवृत्त चतुर हस्त का प्रयोग करना चाहिए। विस्मृतावथ मायायां पापे व्यावर्तितः [?करः] ॥८॥ 8 विस्मृति, छल,कपट और पाप के आशय में ध्यावर्तित चतुर हस्त का विनियोग करना चाहिए। -स स्यादधीने सम्मुखागतः । अङ्गल्यनासिकास्पर्शात्सुवर्णाभिनये भवेत् । अधीनता के अर्थ में और अनामिका उँगुलि तथा सुवर्ण का स्पर्श करने में हथेली को संमुखावस्था में रखना चाहिए। मृगकर्णविनिर्देशे त्वसावुत्तानितो भवेत् ॥६॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण हरिण के कान का भाव प्रदर्शित करने के लिए हथेली को उत्तानावस्था में रखना चाहिए । मुखदेशस्थितः प्रश्ने भये वाथ प्रकम्पितः । असमग्रे प्रयोक्तव्यः कीदृशे मुखदेशगः ॥१०॥ प्रश्न और भय के भावों को अभिव्यंजित करने के लिए हाथ को कम्पित कर संमुखावस्था में रखना चाहिए । असमग्रता और ‘किस तरह ' का भाव व्यंजित करने में हाथ को संमुखावस्था में रखना चाहिए । तथा ग्रथितवस्तुनि । स्यात्काव्याद्यर्थनिदर्शने ॥११॥ इदमर्थे किमर्थे च उत्तानितो मुखस्थः 10 'यह इसलिए हैं ' 'यह किसलिए है' ऐसा आशय व्यक्त करने तथा ग्रथित ( क्रमवद्ध या गुंथी हुई) वस्तु और काव्य आदि का अर्थ प्रकट करने के आशय में हथेली को मुख के सामने उत्तानावस्था में रखना चाहिए । उद्वेष्टितो दर्शने स्यात् प्रयोक्तव्ये उत्तानितोऽथ विश्वासे प्रयोक्तव्यो हृदि 12 भवेदसौ । स्थितः ॥ १२ ॥ भवेदेष निन्दिते तु विवर्तितः । समे तूर्ध्वतलः स स्याद्दोषे तु हृदयस्थितः ॥ १३ ॥ 11 देखने के अर्थ में हथेली मुड़ी हुई; किसी वस्तु का प्रयोग करने में उत्तान और विश्वास के भाव प्रदर्शित करने में हृदय पर अवस्थित होनी चाहिए । परिवर्तितो उत्तानो सम्मतः । नयनौपम्ये पद्मपत्रेsपि प्रथातुरे तथा सत्ये वाक्ये युक्तेऽप्यसौ करः ॥ १४॥ यथोचितं बुधैर्योज्यः पथ्यकैतवयोरपि । 13 निन्दा के भाव प्रदर्शित करने में हथेली उलटी या घूमी हुई होनी चाहिए । समावस्था के अभिव्यंजन में हथेली ऊपर की ओर होनी चाहिए । यदि दोष का भाव प्रदर्शित करना हो तो वही उत्तान हथेली हृदय पर अवस्थित होनी चाहिए । 14 15 नेत्रों के सादृश्य तथा पद्मपत्र के भावाभिव्यंजन में हथेली को उत्तानावस्था में रखना चाहिए। आतुरता, सत्यता, समीचीन वचन, पथ्य और प्रवंचना के भाव प्रदर्शित करने में (उत्तान स्थिति में ) ; या नाट्यविशारदों द्वारा अभिमत हस्तमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए । ६१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः परिमण्डलितोत्तानश्चरितेऽथ स्वसम्मुखः ॥१५॥ मध्ये गते स्वस्तिकोऽसौ पुरस्कारेऽपि संमतः । 16 चरित के प्रदर्शन में स्वसंमुख हस्त को चारों ओर घुमाकर उत्तानावस्था में रखना चाहिए। मध्यावस्था तथा पुरस्कार के अर्थ में स्वस्तिक हस्त का प्रयोग करना चाहिए। संश्लिष्य मणिबन्धौ स्तः विनये चतुरोदितौ ॥१६॥ विनय के भाव प्रदर्शित करने में दोनों कलाइयों को सटाकर चतुर हस्त का विनियोग करना चाहिए। सुरते स्वस्तिकाकारौ चातुर्यवचनेषु तु । 17 संयुतौ तौ विधातव्यावर्हायां मुखदेशगौ ॥१७॥ स्वस्तिकौ तौ प्रयोक्तव्यौ स्वागताभिनयेऽपि च । 18 निपुणे श्लिष्टविश्लिष्टौ नेत्रे तद्देशविच्युतौ ॥१८॥ स्वस्तिकीभूय तो स्तोऽथ चाक्षुषे विस्तृताविमौ । 19 स्वस्तिकावथ कर्तव्यौ प्रजा(?) स्तद्वेष्टिताविमौ ॥१६॥ रतिक्रीड़ा और चातुर्यपूर्ण बातों के अभिव्यंज में स्वस्तिक हाथों का प्रयोग करना चाहिए। पूजाआराधना का भाव व्यक्त करने में दोनों स्वस्तिक हाथों को मुख के सामने अवस्थित रखना चाहिए। स्वागत के अभिनय में भी स्वस्तिक हस्तमद्रा का प्रयोग करना चाहिए। निपणता के भाव दिखाने में स्वस्तिक हस्त को मिला कर या अलग-अलग भी दिखाना चाहिए । नेत्र का भाव प्रदर्शित करने में स्वस्तिक हस्त को आँख से गिरा कर रखना चाहिए। आँखों का भाव दिखाने के लिए स्वस्तिक हस्त को फैला कर भी रखा जा सकता है। नाटयशास्त्रियों के मत से नेत्रों का भाव प्रदर्शित करने के लिए स्वस्तिक हस्त को वेष्टितावस्था में भी रखा जा सकता है। ६. हंसास्य हस्त और उसका विनियोग यत्र त्रेताग्निसंस्थानास्तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः ।। संलग्नामा यदाङगुल्यो शेषे स्तो विरलोवंगे ॥२०॥ हंसास्यः स करः प्रोक्तस्तदा जिस अभिनय में तीन अग्नियों (दक्षिण, गार्हस्पत्य और आहवनीय) के विन्यास रूप तर्जनी अंगठे के पास की उँगली], अंगुष्ठ और मध्यमा [बीच की उँगली] नामक उँगलियों के अग्रभाग सटे हों और शेष ६२ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण दोनों उँगलियाँ [अर्थात् अनामिका और कनिष्ठा] अलग-अलग ऊपर की ओर उठी हों, उस हस्तमुद्रा को हंसास्य कहा जाता है। -त्रेताग्निदर्शने । निःसारे मृदुनि श्लक्ष्णे दधदेषोऽङ्गुलित्रयम् ॥२१॥ उक्त तीनों अग्नियों, सारहीन वस्तु, कोमल वस्तु और चिकनी वस्तु का भाव प्रदर्शित करने में हंसास्य हस्त का विनियोग होता है। मदिताग्रमथाग्रं तु क्षिप्तं तद्वद्विनितम् । 22 दधल्लाद्यौ(?ल्लद्यौ)तु शिथिले स्वल्पेऽसौ परिकीर्तितः ॥२२॥ यदि हलकी, शिथिल और स्वल्प वस्तु का भाव प्रदर्शित करना हो, तो उक्त तीनों उँगलियों के अग्रभाग को मर्दित कर, झटक कर या कम्पित कर हंसास्य हस्त का प्रयोग करना चाहिए। असौ दरिद्रे मन्देऽपि चञ्चलोऽसौ सतां मतः । 23 बुधैर्योज्यो विमर्दे तु निषेधेऽपि स मदितः ॥२३॥ (सताम) व्यक्तियों का अभिमत है कि दरिद्र और मूर्ख व्यक्ति के भाव-प्रदर्शन के लिए . हंसास्य हस्त का विनियोग करना चाहिए। इसी प्रकार विद्वान् व्यक्तियों के कथनानुसार युद्ध या शरीर रगड़ने तथा निषेध करने के आशय में हंसास्य हस्त को मसल कर प्रयोग में लाना चाहिए। हृयधिोमुखः स स्यात् प्राणेष्वथ निषेवणे । 24 अधो घर्षन् रताश्चासे कन्दर्पऽपि हृदि स्थितः ॥२४॥ यदि हृदय का भाव प्रदर्शित करना हो तो हंसास्य हस्त को ऊर्ध्वमुख और प्राणों के तथा किसी वस्तु के सेवन के आशय में अधोमुख रखना चाहिए। रतिक्रीड़ा के समय श्वास-प्रश्वास और कन्दर्प के भाव व्यंजित करने में भी हंसास्य हस्त को हृदय पर अवस्थित रखना चाहिए। स्तनप्रदेशविधृतः परिहासे तरौ (? रतौ) तु सः ।। ऊर्ध्वमुखो नियोज्योऽसावर्पितेऽधो मुखो मतः ॥२५॥ परिहास और रतिक्रीड़ा के प्रदर्शन में हंसास्य को ऊर्ध्वमुख करके स्तनों पर रखना चाहिए । अर्पण का भाव प्रदर्शित करने में उसे अधोमुख रखना चाहिए। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः अधोमुखः प्रयोक्तव्यश्व(?श्च)रणे ङ्गुध(?ष्ठ) देशगः । 26 अधरस्फुरणे त्वेषोऽधरस्थो विवृतोऽथ सः ॥२६॥ चरण का भाव प्रदर्शित करने में हंसास्य को पैर के अंगूठे के पास अधोमुख करके रखना चाहिए। 'निचले ओठ (अधर) के फड़कने के आशय में उसे मोड़ कर अघर पर रखना चाहिए। चलाङ्गुलिस्तु लेपे स्यान्मुकुलोद्गमने तु सः। 27 ऊर्ध्वविच्युतसन्दंशः प्रसवेऽपि च संमतः ॥२७॥ . लेप या अंगराग का भाव दिखाने में हंसास्य की कम्पित उँगली का और कली के निकलने तथा प्रसव का भाव व्यक्त करने में उँगलियों को ऊर्ध्वावस्था में सँड़सी की तरह प्रयोग में लाना चाहिए। ऊर्ध्वमुखो विचित्रः स्याद् वसन्ताभिनये करः । 28 अन्याङ्गुलिसमीपस्थो मुद्रायां स्यादधोमुखः ॥२८॥ वसन्त ऋतु के अभिनय में हंसास्य को ऊर्ध्वमुख और मुद्रा का भाव दिखाने में अन्य उँगलियां के समीप अधोमुख करके रखना चाहिए। पुष्पितेऽधोमुखः कार्यः परिमण्डलितश्चलः । 20 उदये विवृतास्योऽथ द्विस्त्रिर्वोवं चलत्करः ॥२६॥ फूल खिलने के भाव में हंसास्य को मण्डलाकार अवस्था में कम्पित करते हुए अधोमुख रखना चाहिए और उदय का भाव दिखाने में उसे खोल कर तथा ऊर्ध्वमुख करके दो-तीन बार कम्पित कर देना चाहिए। असावुडुगणे कार्यः परावृत्तस्त्वपुष्पिते । 30 नासादेशगतः कार्यः सुगन्धिद्रव्यदर्शने । उचितश्चयुतसन्दशः पुष्पोपचयनादिषु ॥३०॥ 31 तारों तथा अपुष्पित वृक्षों के अभिनय में हंसास्य को परावृत्त करना चाहिए। सुगन्धित द्रव्यों का भाव दिखाने में उसे नासिका के पास रखना चाहिए। फूल चुनने आदि का भाव प्रदर्शित करने में उसे खुली हुई सँड़सी के समान अधोमुख करना चाहिए। ७. भमर हस्त और उसका विनियोग अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुल्योः सन्दंशे तर्जनी नता । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण _ यदि मध्यमा और अंगुष्ठ परस्पर मिले हुए हों और तर्जनी सँड़सी की तरह मुड़ी हुई (अंगुष्ठ के मूल का स्पर्श करती हुई) नत हो (और शेष दोनों उँगलियाँ अनामिका तथा कनिष्ठा सीधी फैली हों)तो उस हस्तमुद्रा को भमर हस्त कहा जाता है। बुधैर्यो(?र्यो)ज्योऽथ विश्वासे बालालापे च भर्त्सने ॥३१॥ 32 ताले शोले(?ते) च कर्तव्यः सशब्दो विच्युतोऽपि सः ।। तालपत्रे त्वसौ कर्णक्षेत्रमण्डलितभ्रमः ॥३२॥ 33 अक्षरेषु चलन् कार्यो भ्रमरे त्वेष कम्पितः । अधोमुखो नियोज्योऽथ यन्त्रेहायामिमौ करौ। 34 इतरेतरसंश्लेषात्तर्जन्योः कथितौ बुधः ॥३३॥ नाट्यविशारदों के मतानुसार विश्वास, बालकों के साथ बात-चीत, डाँटने-फटकारने, तालपत्र और शीत आदि का भाव अभिव्यंजित करने में भ्रमर हस्त को सशब्द गिराकर प्रयोग में लाना चाहिए । तालपत्र के भाव-प्रदर्शन में इस हस्त को कान के चारों ओर घुमाकर प्रयुक्त करना चाहिए। अक्षरों के अभिव्यंजन में और भौंरों की अभिव्यक्ति में उसे कम्पित करके प्रदर्शित करना चाहिए। ग्रन्थि या कुण्डी (यंत्र) खोलने की इच्छा प्रकट करने में दोनों समर हस्तों को अधोमुख करके रखना चाहिए। बुधजनों का कहना है कि दोनों तर्जनियों के पारस्परिक गंथने के भाव में भी भ्रमर हस्त का प्रयोग करना चाहिए। ८. काँगूल हस्त और उसका विनियोग यत्र वक्रानामिका स्यात् कनिछो(?ष्ठो)र्वा यदाङ्गुलिः । 35 शेषास्त्रेताग्निसंस्थाना अलग्नाग्रास्तदा करः ॥३४॥ कागुगूलः संज्ञितस्तस्य विनियोगः प्रकथ्यते । 36 यदि (अभिनय के समय) अनामिका मुड़ी हो, कनिष्ठा ऊपर की ओर हो, शेष अग्निस्थापन रूप तीनों (तर्जनी, मध्यमा और अंगुष्ठ) उगलियों के अग्रभाग परस्पर मिले न हों, तो उसे काँगूल हस्त कहा जाता है। उसका विनियोग इस प्रकार है: . अल्पे फले मिते ग्रासे बालस्य चिबुकग्रहे ॥३५॥ चुचुकाभिनयेऽप्येष प्रसूने पञ्चकस्य च । 37 मन्त्रणे मुखदेशस्थः स्त्रीरोषवचने तु सः ॥३६॥ प्रास्यदेशेऽङ्गुलिपात्कर्तव्यो नृत्यपण्डितः । 38 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः नृत्याचार्यों के मतानुसार थोड़े फल, नपे-तुले कौर, बालक की ठुड्ढी पकड़ने, स्तनाग्र, पांच पूल (कमल, अशोक, आम्रमंजरी, नवमल्लिका और रक्त अशोक), मंत्रणा और स्त्री की क्रोधभरी वाणी के भाव व्यक्त करने में उँगुलियों को मुख के पास रखकर काँगल हस्त का विनियोग करना चाहिए। बिडालादिपदेऽप्येष तथा यवनभोजने ॥३७॥ . अधोमुखो नियोज्योऽथ वुल्पा(? ार्मा) दूर्ध्वमुखो मतः । 39 ऋतौ बिम्बे च शङ्कायां वृत्तान्ते रत्नशब्दयोः ॥३८॥ बिल्ली आदि के पैरों और यवनों के भोजन के अभिनय में कांगूल हस्त को अधोमुख करना चाहिए। तरंग, यज्ञ, बिम्ब, शंका, वृतान्त, रत्न और शब्द के अभिनय में उसे ऊर्ध्वमुख में रखना चाहिए। .. अग्रसंकोचनादेष सन्दष्टे कथितो बुधैः। 40 मुखस्थितो भवेदेष सन्देशवचनादिषु ॥३६॥ पूर्वाचार्यों का मत है कि काटने या डंक मारने के अभिनय में कॉगल हस्त की उँगलियों को अग्रभाग से सिकोड़ लेना चाहिए। सन्देश-कथन आदि के अभिनय में उसे मुख पर अवस्थित करना चाहिए। पृष्ठायातावुभौ कार्यों बालायां स्वस्तिकाविमौ । 41 कुचदेशगतौ कार्यों पश्चादर्थे तु लोकतः । कान्तराण्येवमस्य बुधैरुक्तानि शास्त्रतः ॥४०॥ 42 बाला स्त्री के अभिनय में दोनों कांगूल हस्तों को स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित कर पृष्ट भाग से आते हुए दिखाना चाहिए। लोक-परम्परा के अनुसार इस हस्त-मुद्रा को कुचों के पास रखने का भी विधान है। इसी प्रकार नाटयाचार्यों ने शास्त्रीय दृष्टि से कॉगल हस्त के अन्य भी अनेक भेद बताये है। ९. तामचूड हस्त और उसका विनियोग मध्यमाङ्गुष्ठयोर्यत्र सन्दंशस्तर्जनी नता । शेषे तलस्थिते स्तोऽसौ ताम्रखंडः करो मतः ॥४१॥ 43 यदि मध्यमा और अंगुष्ठ को मोड़ कर मिला दिया जाय तथा तर्जनी को घुमा कर झुका दिया जाय (किन्तु बह हथेली को स्पर्श न करती हो) और शेष दोनों उँगलियों (अनामिका और कनिष्ठा) को हथेली पर रख दिया जाय तो उसे ताम्रचूड हस्त कहा जाता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण सशब्दच्युतसन्दंश एष विश्वासनादिषु । कलाकाप्त्या (?ष्ठा) मुहर्तेषु जम्भणेऽपि क्षणे तथा ॥४२॥ 44 गीतादिमानताले च शैघ्या निर्भर्त्सनेऽपि च । बालाह्वानेऽप्यसावेव छोटिका प्रोच्यते बुधैः ॥४३॥ 45 विश्वास दिलाने आदि कार्यों में, समय के परिणाम, यथा काष्ठा (कला का ३०वां भाग), मुहूर्त, जमुहाई की काल-मर्यादा तथा क्षण में, संगीत आदि के ताल-मेल में, शीघ्रता में, भर्त्सना करने में और बालकों को बुलाने में-सँडसी की तरह मुड़ी एवं मिली हई उँगलियों के शब्द, अर्थात् चुटकी बजाने या चुटकी काटने, का प्रयोग करना चाहिए । नाट्याचार्यों ने इस तामचूड हस्त को छोटिका (चुटकी काटने) नाम से कहा है । मुष्टिमूर्धू (?x) कनिष्ठं तु ताम्रचूडं परे जगुः । असौ योज्यः सहश्रा (?स्रा)दौ संख्यायामथविन्दुषु ।। क्षिप्तमुक्ताङ्गुलिस्तद्वत्स्फुलिङ्गोष्वपि कीर्तितः ॥४४॥ कुछ विद्वान् ऐसे मुष्ठिबन्ध को ताम्मचूड हस्त कहते हैं, जिसमें कनिष्ठा उँगली ऊपर उठी हुई हो । इस हस्त-मुद्रा का विनियोग हजार आदि संख्या या विन्दुओं का भाव व्यक्त करने में किया जाता है। इसी प्रकार कुछ लोगों के मत से यदि इस हस्त मुद्रा की उँगलियों को खोल दिया जाय तो अग्निकणों के भाव प्रदर्शित करने में उसका विनियोग किया जाता है। १०. मुष्टि हस्त और उसका विनियोग अगुल्यग्रा यदा गुप्तास्तलमध्ये सुसंयताः । 47 . . पीडयित्वा स्थितोऽङ्गुध्वो(?ष्ठो)मध्यमां यस्यस स्मृतः ॥४५॥ करो मुष्टिरशोकेन पृथिवीन्द्रेण धीमता । 48 बुद्धिमान् राजा अशोक का कहना है कि यदि हाथ की (चारों) उँगलियों के अग्रभाग को हथेली के बीच भली भाँति बाँध दिया जाय और अंगुष्ठ मध्यमा को दबा कर अवस्थित रहे तो उसे मुष्टि हस्त कहते हैं। यष्टिग्रहे किमर्थे च स्थितावप्ययमिव्य (?ष्य) ते ॥४६॥ दोहने च गवादीनां रसनिष्कासनेऽपि च । 49 कुन्तखङ्गाहेऽप्येष मल्लयुद्धे कराविमौ ॥४७॥ लाठी पकड़ने, 'ऐसा क्यों'-इस प्रकार पूछने, ठहरने, गो आदि दोहने, रस निकालने, भाला तथा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्याध्यायः तलवार पकड़ने और दोनों हाथों से मल्लयुद्ध का भाव प्रदर्शित करने में मुष्टि हस्त का विनियोग होता है। कथने स्कन्धदेशस्थः स मनाक्कलितो मतः । मध्ये मध्यप्रदेशस्थः स स्वयमित्यस्य दर्शने ॥४॥ हृदयस्थो निरालम्बे त्वसौ स्यात्परिवर्तितः । परिग्रहे यथौचित्यमप्यर्थे स्कन्धदेशगः ॥४६॥ तत्रेत्यर्थेऽप्यसावेव परिवर्तित इष्यते । 52 कहने का भाव प्रदर्शित करने में मुष्टि हस्त को ईषत् कम्पन के साथ कन्धे पर रखना चाहिए। मध्य का भाव दिखाना हो तो उसे मध्य में और 'वह स्वयं हुआ ऐसा भाव प्रदर्शित करने में हृदय पर अवस्थित रखना चाहिए। निराश्रय वस्तु को प्रकट करने में उसे परिवर्तित (उल्टा) कर देना चाहिए। पकड़ने या भोग-सामग्री ग्रहण करने के आशय प्रकट करने में उसे यथोचित स्थान पर रखना चाहिए। यह भी होगा ऐसा भाव दिखाने में उसे कन्धे पर, और वहाँ होगा' ऐसा आशय प्रकट करने में कन्धे के अतिरिक्त दूसरे स्थान पर रखना चाहिए। भञ्जने कार्मुकादीनामुपर्येकः करोऽपरः ॥५०॥ मध्यस्थः स्याद्विचारे तु बाहुदेशस्थितो मतः । व्यावृत्तपरिवृत्तौ च वस्त्रकेशादिपीडने ॥५१॥ पतन्तावुत्पतन्तौ तौ वस्त्रप्रक्षालने क्रमात् । 54 संवाहनेऽप्यथ स्यातां धावने तौ पराङ्मुखौ ॥५२॥ धनुष आदि के तोड़ने के भाव में एक मुष्टि हस्त ऊपर और दूसरा मध्य भाग में (हृदय के पास) अवस्थित रहना चाहिए। किन्तु विचार का भाव प्रकट करने के लिए उसे बाँह पर रखना चाहिए । वस्त्रों और केशों को निचोड़ने में दोनों मुष्टि हस्तों को उलट-पलट कर अवस्थित करना चाहिए। वस्त्रों को धोने के आशय में उनको क्रमशः गिराते-उठाते रहना चाहिए । बोझा ढोने और दौड़ने का भाव दिखाने के लिए दोनों मुष्टि हस्तों को विपरीत स्थिति में रखना चाहिए। ११. शिखर हस्त और उसका विनियोग ऊर्ध्वाङ्गुष्ठो यदा मुष्ठिस्तदासौ शिखरः करः। 55 यदि मुष्टि हस्त-मुद्रा में अंगठे को उँगलियों के ऊपर न मोड़ कर सीधे खड़ा कर दिया जाय, तो उस मुद्रा को शिखर हस्त कहते हैं। ६८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशाङ्कुशग्रहे अलकोत्क्षेपणेऽप्येषोऽलक्तकोत्पीडने मोक्षणे तोमरस्यासौ शक्तेरपि सतां हस्त प्रकरण चापवज्रयोर्ग्रहणेऽपि नीव्यादिरचने नाभिदेशस्थितो तथा । मतः ॥ ५४ ॥ कुश, अंकुश, धनुष और वज्र धारण करने, बाल झाड़ने या सँवारने, महावर लगाने, तोमर ( भाले की तरह का अस्त्र विशेष ), तथा शक्ति ( साँग ) नामक अस्त्रों को चलाने का भाव प्रदर्शित करने में शिखर हस्त का विनियोग होता है । वादने स्वपाव अधरस्य त्वेष चञ्चलाङ्गुष्ठका नीविधारणेऽधोमुखः च ॥५३॥ कोहलादीनां दोलितोऽथासौ मनाक् । स्थितः ॥ ५५ ॥ नीवी (धोती की गाँठ या इजारबन्द ) आदि बाँधने के अभिनय में शिखर हस्त का अंगूठा कुछ कम्पित कर देना चाहिए । किन्तु नीवी धारण करने के अभिनय में उसे अधोमुख करके नाभि के पास रखना चाहिए । घण्टादीनां तु वादने । रञ्जनेऽलक्तकादिना ॥५६॥ स्यात् पश्चादेकोऽपरः पुरः ॥५७॥ पतनोत्पतनान्वितः । तद्देशेऽधोमुखः परिकीर्तितः ॥ ५८ ॥ सीधुपाने मुखस्थ: स्यान्नियोगे शिरो देशगतौ कार्यों शिखरौ 56 57 प्रकर्तव्यस्तद्देशस्थोऽभिनेतृभिः । 59 कोहल (एक प्रकार का वाद्य यंत्र) और घंटा आदि बाजों को बजाने के अभिनय में शिखर हस्त को बगल में करके कम्पित कर देना चाहिए । अधर को महावर आदि से रँगने के भावाभिव्यंजन में अभिनेताओं को चाहिए कि वे शिखर हस्त को अधर के पास अवस्थित करें । . वंशादिजलयन्त्रे यवादितांडने असौ शिरसि तावधोमुखौ । नृत्यपण्डितैः ॥ ५६ ॥ 58 बाँस आदि के बने जलयंत्र के भाव प्रदर्शन में एक शिखर हस्त को पीछे और दूसरे को आगे रखना चाहिए । यव (जी) आदि धानों के कूटने-पीटने में प्रयुक्त डण्डे के भाव दर्शन में शिखर हस्त को उठाते- गिराते हुए (अथवा ) शिर पर अधोमुख करके रखना चाहिए । 60 61 ६९ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः नाट्याचार्यों के अभिमत से मद्यपान के अभिनय में शिखर हस्त को ( ऊर्ध्वमुख में ) मुख पर अवस्थित करना चाहिए । आदेश या निषेधाज्ञा के आशय में दोनों शिखर हस्तों को अधोमुख करके शिर पर रखना चाहिए। ऊर्ध्वाधः शिखरौ हस्तौ सम्मुखागुष्ठको मिथः । 62 वर्तितौ नावि संप्रोक्तौ बुधस्तञ्चालनेऽप्यथ ॥६०॥ विद्वानों का कहना है कि नाव और उसके चलाने के अभिनय में दोनों शिखर हस्तों के अंगठों को परस्पर आमने-सामने करके ऊपर-नीचे अवस्थित करना चाहिए । क्रोशनेऽङ्गुलिसंस्फोटे स्त्रीभिस्तु शिखरद्वयम् । .. 63 संयुतं तद्विधातव्यं संयुज्य तु वियोजितम् ॥६१॥ स्त्रियों को चाहिए कि वे चिल्लाने और उँगली तोड़ने के अभिनय में दोनों शिखर हस्तों को पहले मिला दें और बाद में अलग कर दें। नास्तीत्युक्तावथ मनाक्चलस्तूष्णीं निरूपणे । G4. एवं कर्मान्तराण्यस्य ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ॥६२॥ 'नहीं हैं ऐसे कथन तथा मौन होने का भाव दिखाने में शिखर हस्त को थोड़ा कम्पित कर देना चाहिए। शिखर हस्त के अन्य अनेक प्रयोगों की जानकारी के लिए नाट्यविशेषज्ञों का आश्रय लेना चाहिए। १२. कपित्थ हस्त और उसका विनियोग करस्य शिखरस्य स्यादङ्गुष्ठाग्रेण । पीडितम् । तर्जन्यग्रं यदा यत्र कपित्थोऽसौ तदा करः ॥६३॥ यदि शिखर हस्त मुद्रा की तर्जनी के अग्रभाग को अंगुठे के अग्रभाग से दबा दिया या योजित किया जाय तो उसे कपित्य हस्त कहते हैं । काकाकर्षणे योज्यो यथाभूतार्थदर्शने । चक्रचापगदादीनां धारणे तालवादने ॥६४॥ प्रतोदग्रहणेऽप्येष मुक्तादिग्रथने तथा । 67 धनुष खींचने, किसी वस्तु को ज्यों-का-त्यौं दिखाने, चक्र-धनुष-गदा आदि धारण करने, ताल देने 66 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण या तबला बजाने, चाबुक धारण करने और मोती आदि गूंथने के भाव प्रकट करने में कपित्थ हस्त का वनियोग होता है । तिर्यगायत एष स्यादेखायामथ नाभितः ॥ ६५ ॥ ऊर्ध्वोत्थितो रोमराजौ दिग्बन्धे तूर्ध्वगो भ्रमन् । सशब्दच्युत सन्दंशोऽधस्त्वगादि उत्तानितोऽधोमुखः स्यादूर्ध्वास्यः निरूपणे ॥६६॥ पुरुष श्मश्रुदेशस्थस्तथा पुरोगत: ग्रहणे पार्श्वगामी श्रसौ सूक्ष्मवस्तुनि । रेखा का भाव दिखाने के लिए कपित्थ हस्त को तिरछा करके प्रदर्शित करना चाहिए । रोमावली का भाव दिखाने के लिए उसे नाभि से ऊपर उठाना चाहिए। दिशाओं को बांधने का भाव दिखाने में उसे ऊपर की ओर घुमाकर फिर सँड़सी के आकर में सशब्द करके ( चुटकी बजाकर ) उठा देना चाहिए । पर्वत या वृक्ष का भाव दिखाना हो तो उसे उत्तान करके अघोमुख कर देना चाहिए और सूक्ष्म वस्तु के अभिव्यंजन में ऊर्ध्वमुख कर देना चाहिए । श्मश्रुप्रसाधने ॥६७॥ कार्यश्चित्रताडनयोरथ । स्याचामरस्यापि धारणे ॥६८॥ कार्यों 68 69 पुरुष और दाढ़ी-मूंछों के भाव दर्शन में कपित्थ हस्त को दाढ़ी-मूंछों के पास रखना चाहिए । आश्चर्य और ताड़न के आशय में उसे सामने अवस्थित करना चाहिए। किसी वस्तु को ग्रहण करने और चामर धारण करने में उसे बगल में स्थित होना चाहिए । उन्मूलने व सम्प्रयुज्यते । नाभिदेशस्थितावेतौ नीव्याः काञ्च्याच बन्धने ॥ ६६ ॥ गत्वोद्धृतोऽसौ खड्गाद्यायुधबन्धने । सर्वथास्थानेऽवधारण निरूपणे ॥७०॥ 70 किसी वस्तु को उखाड़ने का भाव प्रदर्शित करना हो तो कपित्थ हस्त को नीचे ले जाकर ऊपर उठा देना चाहिए। नीवी ( धोती की गाँठ या इजारबन्द) और कॉची ( मेखला या करघनी) खोलने में दोनों कपित्थ हस्तों को नाभि के पास रखना चाहिए । कटिक्षत्रगतौ श्रवश्यं 71 72 ७१ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः कपित्थौ हस्तकौ स्यातामथ सत्ये वरे तथा । 73 उपपन्नेऽप्येवमर्थे यथौचित्यं स युज्यते ।। तलवार आदि आयधों के बाँधने के भावाभिव्यंजन में दोनों कपित्थ हस्तों को कमर पर रखना चाहिए। निश्चय करने के आशय में दोनों कपित्थ हस्तों को सर्वथा उपयुक्त स्थान में रखना चाहिए । सत्य, वरदान और समीचीन वस्तु का भाव प्रकट करने में कपित्थ हस्त को यथोचित रीति से प्रयोग करना चाहिए। शिखरस्यापि कर्माणि योज्यान्यस्मिन्यथोचितम् ॥७१॥ 74 शिखर हस्त के अभिनय में भी कपित्थ हस्त का यथोचित रीति से प्रयोग किया जा सकता है। १३. खटकामुख हस्त और उसका विनियोग कपित्थस्योत्थिते वक्र यत्रानामाकनिष्ठिके ॥७२॥ यदा तदासौ खटकामुखः प्रोक्ता मनीषिभिः । यदि कपित्थ हस्त की अनामिका और कनिष्ठा उँगलियाँ उठी होकर (अग्रभाग से) मुड़ी हुई हों, तो मनीषियों के मतानुसार उस मुद्रा को 'खटकामख हस्त' कहा जाता है। असौ शराकर्षणे स्याद्दर्पणग्रहणे तथा ॥७३॥ वालग्रहे लगादाने छत्रचामरधारणे। 76 पुष्पावचयने हारे बीटिकादिग्रहेऽपि च । पत्रवन्तच्छेदने च योज्यो धीरैर्यथोचितम् ॥७४॥ 77 कपित्य हस्त का विनियोग बाण-सन्धान करने, शीशे में मुंह देखने, बच्चे को गोद में लेने, माला पहनने, छत्र तथा चामर धारण करने, फूल चुनने, हार तथा ताम्बूल आदि ग्रहण करने और पत्तों के इंठल तोड़ने के अभिनय में होता है। च्युतसन्दंश एष स्याद् बन्धनस्थेऽथ पार्श्वगः । वक्षोदेशात्प्रयोक्तव्यश्चित्तस्याहरणे बुधैः ॥७॥ 78 बन्धन में पड़े हए का भाव प्रदर्शित करने में सँड़सी की भाँति फैलाकर इस हस्त को बगल में रखना चाहिए। बध जनों का मत है कि चित्तहरण के भाव-दर्शन में इसका प्रयोग वक्ष पर करना चाहिए। सयुद्धतौ त्वधो गत्वोद्धृतोऽथ स भवेत्करः । संगमादौ वरस्त्रीणां प्रियेणांशुककर्षणे ॥७६॥ 79 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण किसी वस्तु को उठाने और उत्तम सुन्दरी स्त्रियों के साथ रति केलि आदि करने में प्रिय के द्वारा वस्त्र खींचने का भाव प्रदर्शित करने के लिए खटकामुख हस्त को नीचे ले जाकर ऊपर की ओर उठा देना चाहिए। शीर्षदेशाल्ललाटस्थो वधूनामवगुण्ठने । मन्थस्याकर्षणे योज्यौ दधतौ तौ गतागतौ ॥७७॥ 80 स्त्रियों का चूंघट काढ़ने का भाव प्रदर्शित करने में दोनों खटकामुख हस्तों को शिर के ऊपर रखना चाहिए और मथानी चलाने के आशय में उन्हें आगे-पीछे की ओर संचालित करना चाहिए। ऊर्ध्वगाधोमुखावेतौ बन्धनेऽथांशुकस्य तु । परिधाने नाभिगतावितरेतरसम्मुखौ ॥७८॥ 81 मलमल या रेशमी वस्त्र बांधने के भाव में खटकामुख हस्तों को क्रमशः ऊर्ध्वमुख और अधोमुख करना चाहिए। यदि वस्त्र पहनने का भाव दर्शित करना हो तो उन्हें नाभि के निकट आमने-सामने अवस्थित कर देना चाहिए। इमौ विच्युतसन्दशौ निराशे समुदाहृतौ । . पेषणे कुङकुमादेस्तु कार्यावेतावधस्तलौ । निराशा का भाव दिखाने के लिए उन्हें सँड़सी की तरह खोल कर लटका देना चाहिए। यदि केसर आदि के पीसने का आशय प्रकट करना हो तो उन्हें निम्न स्थान पर ले जाना चाहिए। यथासम्भवमेतस्मिन्कर्माण्यूह्यानि पण्डितैः ॥७॥ उक्त विनियोगों के अतिरिक्त नृत्याचार्यों ने खटकामुख हस्त के अन्य भी प्रयोग बताये हैं। उनका भी आवश्यकतानुसार उपयोग करना चाहिए। १४. सूचीमुख हस्त और उसका विनियोग ऊर्ध्वप्रसारिता चेत्स्यात् खटकास्यस्य तर्जनी । तदा सूचीमुखः प्रोक्तोऽशोकमल्लेन भूभुजा ॥५०॥ यदि खटकामुख हस्त मुद्रा की तर्जनी को ऊपर की ओर सीधे फैला दिया था तान दिया जाय तो नृपति अशोकमल के मतानुसार उसे सूचीमुख हस्त कहते हैं। तर्जन्यस्य भ्रमन्त्यूर्ध्वमुखा चक्रायुधे मता । घटोपकरणे. चक्रे भ्रमन्ती स्यादधोमुखी ॥१॥ 82 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः निजपावें भ्रमन्ती सा रथचक्रनिदर्शने । 85 जनसंघे निजं पार्श्वमायान्ती चान्यपार्श्वतः ॥१२॥ साधुवादे ध्वजेऽप्येषा दोलिता परिकीर्तिता। 86 चक्रायुध के अभिनय में सूचीमुख हस्त तर्जनी को घुमाते हए ऊध्र्वमुख कर देना चाहिए। घटादि सामग्री से सम्बद्ध चाक के आशय में उसे घुमाते हए अधोमख कर देना चाहिए। रथ के पहिए का प्रदर्शन करने में उसे अपने पार्श्व में घुमाना चाहिए। यदि जन-समूह का भाव दिखाना हो तो उसे अन्य पार्श्व से स्वपार्श्व में आते हुए प्रदर्शित करना चाहिए । माधुवाद और ध्वजा का भाव दर्शित करने में उसे कम्पित कर देना चाहिए। ऋजुरूर्वा तु सैकत्वे श्वासे नासास्थिता मता। .. ईषत्प्रकम्पितायान्तो कर्णान्तं कर्णभूषणे ॥८३॥ 87 एकता का भाव दिखाने के लिए उसे सीधा ऊपर की ओर रखना चाहिए और श्वास के आशय में नासिका पर अवस्थित करना चाहिए । कर्णभूषण का भाव दिखाने में उसे ईषत् कम्पन के साथ कान तक ले जाना चाहिए। स्तवकेषु समाकुञ्च्य मनाक्कार्या प्रसारिता ॥४॥ यदि पुष्पादि स्तवकों (गुच्छों) का भाव प्रदर्शित करना हो तो उसे सिकोड़कर कुछ फैला देना चाहिए। ऊर्ध्वाधः शीघ्रमायान्ती विद्युत्येषा स्मृताबुधः । 88 कुष्माण्डादिलतासूर्ध्वा भ्रमन्ती मण्डलाकृतिः ॥८॥ विद्वानों का अभिमत है कि विद्युत का भाव प्रदर्शित करने के लिए सूचीमुख हस्त को ऊपर से शीघ्रतापूर्वक नीचे आते हुए दिखाना चाहिए। यदि कुम्हड़े आदि लताओं का अभिनय करना हो तो उसे मण्डलाकार घुमाते हुए ऊपर की ओर ले जाना चाहिए। चला किसलये तु स्याहीपे चाथोडुदर्शने । 89 ऋजुरूर्ध्वमुखो योज्यो भ्रमन्मण्डलिताकृतिः ॥८६॥ नवपल्लव तथा दीपक का भाव प्रदर्शित करने के लिए सूचीमुख हस्त को कम्पित कर देना चाहिए और तारों का भाव दिखाने के लिए उसे सीधे ऊर्ध्वमुख करके मण्डलाकार रूप में घुमा देना चाहिए। पतनेऽधः पतन्कार्यो दंष्ट्राभिनयने पुनः । 90 मनाक् पार्श्वनतावेतावोष्ठप्रान्तगतौ करौ ॥८॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण गिरने के भाव में उसे नीचे गिराते हुए प्रदर्शित करना चाहिए और दंष्ट्रा (दाढ़ या हाथी के दांत) के अभिनय में दोनों सूचीमुख हस्तों को बगल में थोड़ा झुकाकर ओठों के निकट अवस्थित कर देना चाहिए। संयोगे त्वस्य तर्जन्यौ कर्तव्ये पार्श्वसंयुते । अधस्तले वियोगे तु विधातव्ये वियोजिते ॥८॥ यदि संयोग का भाव दिखाना हो तो दोनों सूचीमुख हस्तों की तर्जनियों को पार्श्व भाग से मिला देना चाहिए और यदि वियोग का भाव प्रदर्शित करना हो तो उनको अधः भाग से वियुक्त कर देना चाहिए। कलहे स्वस्तिकाकारे नियोज्ये ते विचक्षणः। 92 धूमे सा मण्डलाकारभ्रान्ताथात्यन्तचञ्चला ॥६॥ विद्वानों का मत है कि कलह का भाव दर्शित करने में दोनों सूचीमुख हस्तों को स्वस्तिकाकार मुद्रा में प्रयुक्त करना चाहिए । धुएं का भाव दिखाने के लिए सूचीमुख हस्त को मण्डलाकार में तीव्रगति से कम्पित कर देना चाहिए। बालसर्प भवे(? द्)देव्याक्र थे(?व्याः केशे)वक्रप्रसारिता । 93 कम्पमानाथ कर्तव्या निर्देशे तु रिपोरियम् ॥१०॥ बाल सर्प और देवी के केशों का भाव प्रदर्शित करने में सूचीमुख हस्त को टेढ़ा करके प्रसारित कर देना चाहिए। शत्र का निर्देश करने के आशय में उसे कम्पित कर देना चाहिए। पार्वोत्ताना. कुन्तले तु कुण्डलाङ्गदयोस्तथा । 94 • तत्तदेशगता कार्या कूपावर्ते त्वधोमुखी ॥६॥ शिर के बाल, कुण्डल तथा केयूर (भुजबन्द) आदि के भावाभिव्यंजन में सूचीमुख हस्त को पार्श्व भाग से ऊर्ध्वमुख करके उन-उन स्थानों पर रखना चाहिए। कुएँ के भँवर के आशय में उसे अधोमुख कर देना चाहिए। ... ऊर्ध्वलोके तु सर्वेषामादिमेऽपि च सोर्ध्वगा। . 95 जृम्भायां तु मुखाभ्यासे नियोज्या सा मनीषिभिः ॥२॥ मनीषी जनों का कहना है कि ऊर्ध्वलोक, सर्वप्रथम, जंभाई और मुखाभ्यास का भाव दिखाने के लिए उसे ऊर्ध्वमुख करना चाहिए। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 99 श्रोत्रकण्डूयने दुष्टश्रवणे चास्य तर्जनी। 96 कर्णरन्ध्रागता कार्या कुन्तले क्षेपणे पुनः ॥१३॥ कान खुजलाने, कटुवाणी सुनने, शिर के बाल और किसी वस्तु को फेंकने के आशय में सूचीमुख हस्त की तर्जनी को कान के छिद्र तक ले जाना चाहिए। स्वेदापनयनेऽज्ञातपृच्छायां तर्जनेऽपि च । 97 लोकयुत्त्यनुसारेण योज्यषा नृत्यपण्डितः ॥१४॥ नत्याचार्यों का अभिमत है कि पसीना पोंछने, अज्ञात वस्तु के सम्बन्ध में पूछने और डांटने-धमकाने का भाव प्रकट करने में सूचीमुख हस्त का लोक परम्परा के अनुसार विनियोग करना चाहिए। अधोमुखी ललाटस्था हराभिनयने मता । 98 इन्द्राभिनयने त्वेषा तिरश्चीना तथोन्नता ॥६५॥ परिवेषेभ्रमन्ती सा तिर्यग्मण्डलिताकृतिः । शंकर के अभिनय में सूचीमुख हस्त को अधोमुख करके ललाट पर रखना चाहिए और इन्द्र के अभिनय में उसे उन्नत तथा तिरछा प्रदर्शित करना चाहिए। (सूर्य आदि के) मण्डल के प्रदर्शन में उसे मण्डलाकार बनाकर तिरछा घुमाना चाहिए। इदमर्थेऽधोमुखी साभिहिते मुखदेशगा ॥६६॥ 'यह इस लिए है ऐसा भाव प्रदर्शित करने में उसे अधोमुख कर देना चाहिए और कही हुई बात के अभिनय में उसे मुख पर अवस्थित रखना चाहिए। ऊर्ध्वाधः पतिता कार्या भ्रमन्ती लोकसर्वयोः । 100 भ्रमन्त्यौ संयुते भ्रान्तौ संयुक्तासु सखोष्वियम् ॥१७॥ लोक तथा समष्टि का भाव दिखाने में इस हाथ को घुमाकर ऊपर से नीचे गिरा देना चाहिए। म्रान्ति का भाव प्रकट करने में दोनों सूचीमुख हस्तों को घुमाकर सटा देना चाहिए और समवेत सखियों के अभिनय में एक ही सूचीमुख हस्त को घुमाना चाहिए। अधःपार्श्वगता कार्या संरम्भे स्वस्तिकाकृतिः । 101 अधोमण्डलिता कार्या पल्लवेऽथ मुखास्थिता ॥८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (किसी कार्य को) आरम्भ करने के अभिनय में सूचीमुख हस्त को स्वस्तिक मुद्रा में नीचे बगल में रखना चाहिए और पल्लव के भाव-प्रदर्शन में उसे नीचे घुमाकर मुख पर रखना चाहिए। दूते ते ऊर्ध्वमुख्यौ तु समानाभिनये म(न) ते । 102 भानौ चन्द्रे च कर्तव्या भ्रमन्ती दक्षिणा बुधैः ॥६॥ दूत के अभिनय में दोनों सूचीमुख हस्तों को ऊर्ध्वमुख करके समान रूप से प्रदर्शित करना चाहिए । सूर्य और चन्द्रमा के अभिनय में उसे दाहिनी ओर घुमाना चाहिए, ऐसा विद्वानों का कथन है। प्रतिद्वन्द्विनि ते स्यातामूर्वाग्रे प्रमुखे पुनः । 103 ऊर्ध्याधः पतिता कार्या प्रस्तुतेऽपि बुधैरियम् ॥१०॥ प्रतिद्वन्द्वी, अग्रगामिता और प्रमुखता के अभिनय में दोनों सूचीमुख हस्तों को ऊर्ध्वमुख करना चाहिए । प्रस्तुत वस्तु के भाव-प्रदर्शन में एक सूचीमुख हस्त को ऊपर उठा कर नीचे गिरा देना चाहिए, ऐसा बुद्धिमान् व्यक्तियों का कहना है। विभक्त छेदने चैते योज्यते विच्युते उभे । 104 किसी वस्तु को विभक्त करने तथा काटने के अभिनय में दोनों सूचीमुख हस्तों को गिराकर प्रदर्शित करना चाहिए। पुरोमुखी सूचिते सा मन्त्रणे मुखदेशगा ॥१०१॥ प्रणामेऽधःपतन्ती सा सूर्यास्ते वामपाश्वगा ।। 105 किसी सूचित वस्तु के अभिनय में सूचीमुख हस्त को अग्रमुख करके रखना चाहिए और मंत्रणा के अभिनय में उसे मुख पर अवस्थित करना चाहिए । प्रणाम करने के भाव में उसे नीचे गिराना तथा सूर्यास्त के आशय में बॉयी बगल में रखना चाहिए। _ विश्लिष्टे ते पराङमुख्यौ दक्षिणात्पार्श्वतोमते ॥१०२॥ . पाचव्यत्ययतो योज्ये निशान्ते तद्वदेव ते । 106 संयुक्ता तु सहाये स्यादथ रक्तप्रमोक्षणे ॥१०३॥ नृत्याचार्यों के मत से वियुक्त करने के अभिनय में दोनों सूचीमुख हस्तों को विमुख करके दाहिनी बगल में रखना चाहिए। रात्रि के अन्तिम भाग के प्रदर्शन में उसी प्रकार वियुक्त करके दाहिनी बगल में रखना चाहिए। मित्र या सहायक तथा रक्त निकालने के आशय में उन्हें संयुक्त करके रखना चाहिए। ७७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः अधोमुखी भवेद्वामा कुटिलायां गतौ पुनः । 107 पाचदित्यन्तमसकृदन्यपार्श्वगता भवेत् ॥१०४॥ कटिल गति के अभिनय में बाँये सूचीमुख हस्त को अधोमुख करके एक बगल से दूसरी बगल में बार-बार तीव्र गति से संचालित करना चाहिए। गेये शब्देऽपि कर्तव्या कर्णान्तिकगता बुधैः । 108 विद्वानों के अनुसार गायन और शब्द करने के अभिनय में सूचीमुख हस्त को कान पर रखना चाहिए। भद्र परस्मिन् प्रथमे विवादेऽपि नियोजने ॥१०॥ रेखायां च निमित्तेऽपि मथनेऽस्मोति भाषणे । 109 नत्वैकदायतः सद्यस्तावदर्थेऽप्यसौ करः । योजनीयो यथोचित्यं हस्ताभिनयपण्डितैः ॥१०६॥ 110 कल्याण, दूसरे, प्रथम, विवाद, नियोजन, रेखा, निमित्त, मन्थन, 'मैं हूँ' ऐसे कथन, दण्डवत् प्रणाम और किसी वस्तु की सद्य: प्राप्ति आदि के अभिनय में नाट्याचार्यों के निर्देशानुसार सूचीमुख हस्त मुद्रा का यथाविधि विनियोग करना चाहिए। १५. त्रिपताक हस्त और उसका विनियोग अनामिका पताकस्य यदा वक्रा प्रजायते । त्रिपताकस्तदा प्रोक्तोऽशोकमल्लेन भूभुजा ॥१०७॥ ll यदि पताक हस्त मुद्रा में अनामिका उंगली (के अगले दो पोरों) को झुका दिया जाय तो नृपति अशोकमल्ल के अनुसार उसे त्रिपताक हस्त कहा जाता है। मङ्गल्यदधिदूर्वादिद्रव्यस्पर्श द्वयोरपि । त्रैगुण्येऽपि स्त्रियां तीरे पादयोश्चाथ शङ्किते ॥१०॥ 112 नतोन्नतागुलिरसौ चन्दने तु ललाटगः । पराङ्मुखः परित्राणेऽनुवादे कर्णदेशगः ॥१०॥ 113 दही, दूब आदि मांगलिक द्रव्यों के स्पर्श, दो वस्तुओं, तीन गुणों, स्त्री, तट, चरणों तथा आशंका के अभिनय में त्रिपताक हस्त की उँगलियाँ (मल से) झुकी तथा (अग्रभाग से) उठी हुई होनी चाहिए। चन्दन ७८ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण के भाव प्रदर्शन में इस हाथ को ललाट पर रखना चाहिए । परित्राण देने के अर्थ में उसका मुँह मुड़ा हुआ होना चाहिए; और अनुवाद का भाव प्रदर्शित करने में उसे कानों के समीप रखना चाहिए । शिरोवेष्टित एष स वैद्ये स्याद् भूपालाभिनये करः । त्वेकहस्तस्थनाडिका देशसंश्रितः ॥११०॥ 114 राजा के अभिनय में त्रिपताक हस्त को शिर पर घुमा कर रखना चाहिए और वैद्य के अभिनय में उसे एक हाथ की नाड़ी पर रखना चाहिए । योज्यो मुखप्रदेशमा गच्छन्नसौ चलदङ्गुलिरुत्तानोऽभिव्यक्तेऽथ जनान्तिके । विसर्जने ॥ १११ ॥ 115 अभिनय के समय (रंगमंच ) पर अभिनेता द्वारा दूसरे के सामने कुछ करने का भाव प्रदर्शित करने में त्रिपताक हस्त को मुख के पास 'जाना चाहिए। किसी बात को प्रकट करने और विसर्जन के आशय में उसे, उँगलियों को कम्पित करते हुए, उत्तानावस्था में रखना चाहिए । पुरोगतस्तिरस्कारेऽतिक्रमे परिवर्तितः । त्रिपताकं यदा वामनुगच्छेत्परः करः ॥ ११२ ॥ तदानुवृत्ते योज्योऽयं पत्यौ तु शिरशि स्थितः । अयमन्तःपुरे तु स्यात्स्वास्तिकाकृतितां गतः ॥११३॥ 116 117 तिरस्कार का भाव प्रदर्शित करने में उसे सामने रखना चाहिए और उल्लंघन के आशय में उसे उलट कर रखना चाहिए। एक के पीछे दूसरे को चलने अथवा अनुकरण करने के अभिनय में दाहिने त्रिपताक हस्त को आगे और बाँये त्रिपताक हस्त को उसका अनुसरण करते हुए दिखाना चाहिए। पति का भाव दिखाना हो तो उसे शिर पर रखना चाहिए और अन्तःपुर के अभिनय में उसे स्वस्तिकाकार बनाना चाहिए । मुखदेशे तु पार्श्वस्थो विविक्ते गदितो बुधैः । कुञ्चिताधस्तलीभूय नेये स स्यात्प्रसारितः ॥११४॥ 118 विद्वानों का कहना है कि एकान्त के अभिनय में त्रिपताक हस्त को मुख के एक बगल में रखना चाहिए और ले जाने के भाव-प्रदर्शन में उसे निम्न भाग से मोड़ कर फैला देना चाहिए । .७९ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः अहमित्यादिनिर्देशे हृदयाभिमुखो मतः । व्यक्तः कुटलकेशेषु मुहुरुद्वेष्टितो बुधैः ॥११५॥ 119 'मैं' इत्यादि के निर्देश के अभिनय में त्रिपताक हस्त को हृदय के सम्मुख रखना चाहिए। विद्वानों का अभिमत है कि धुंघराले बालों के अभिनय में उसे चारों ओर से घिरा या मुड़ा हुआ प्रदर्शित करना चाहिए। मुखान्तरित एष स्याद् व्याजेऽथानुप्रवेशने । चलाङगुलिरथाल्पेऽर्थे व्यावर्तितनतोन्नतः ॥११६॥ 120 छल-कपट तथा प्रवेश करने के अभिनय में उसे मुख के पास रखना चाहिए और अल्पता के अर्थ में उसकी उँगलियों को कम्पित करके उलटे, झके तथा उठे हए रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। कुले त्वयं नियोक्तव्य ऊर्ध्वाधश्चलदङ्गुलिः । संशये दधदगुल्यौ क्रमादेष नतोन्नते ॥११७॥ 121 कुल के अभिनय में उसकी उँगली को ऊपर-नीचे कम्पित करते हुए प्रयुक्त करना चाहिए। सन्देह के भावप्रदर्शन में उसकी दो उँगलियां क्रमश: नत और उन्नत होनी चाहिए । अनादरेऽधस्तल स्याद्वहिः क्षिप्ताङ्गुलिद्वयः । अलकापनयने स स्याद्भालादलकसंश्रितः ॥११८॥ 122 अनादर के अभिनय में त्रिपताक हस्त की हथेली नीचे की ओर तथा उसकी दो उँगलियाँ नीचे की ओर फेंकी हुई होनी चाहिए और केशों को हटाने के अभिनय में उसे ललाट पर केशों से सटा हुआ होना चाहिए। -कुञ्चितागुलि (? को) भ्रमन् । उसकी उगलियों को मोड़कर घुमाते हुए [?]....। मस्तकाच्चेद्भमत्यूवं तदा मुकुटधारणे । 123 तिलके स्यादूर्ध्वमेष भ्र वोर्मध्याल्ललाटगः ॥११६॥ मकट धारण करने के अभिनय में उसे मस्तक के ऊपर घमाना चाहिए। तिलक धारण करने के भाव-प्रदर्शन में उसे ऊपर भंवों के बीच से ललाट पर रखना चाहिए। ८० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण विकृते घोषवाग्गन्धे कर्णास्यघ्राणसंवृतिम् । 124 क्रमात्कुर्वन्नगुलिभ्यामथ(?धः)स्यात् कटिदेशतः (?गः) ॥१२०॥ विकार, शब्द, वाणी तथा गन्ध के भावाभिव्यंजन में दो उँगलियों से क्रमश: कान, मुख तथा नाक को ढकते हए त्रिपताक हस्त को नीचे कमर के हिस्से में रखना चाहिए । क्रमादधस्तिर्यगूवं क्षुद्रे स्रोतसि मारुते । 125 तथाविधे खेचरे च दधदेष चलाङ्गुली ॥१२१॥ छोटे सोते, वायु तथा आकाशचारी जीवों के अभिनय में त्रिपताक हस्त की कम्पित उँगलियों को क्रमशः नीचे, तिरछे तथा ऊपर अवस्थित करना चाहिए। विच्युतानामिकाङ्गुष्ठसन्दंशोऽश्रुप्रमार्जने ____126 प्राकाशाभिनये तूर्ध्वमुखोऽथाधोमुखो भुवि ॥१२२॥ आँसू पोंछने के अभिनय में इस हाथ को अनामिका तथा अंगुष्ट उँगलियों को संडसी की तरह मोड़ कर नीचे लटका देना चाहिए । आकाश के अभिनय में इस हस्त को ऊर्ध्वमुख तथा भूमि के अभिनय में अधोमुख रखना चाहिए इतस्ततश्चलनेष बालसर्पनिरूपणे । 127 बाहुशीर्षसमुत्थोऽयमूर्ध्वप्राप्ताङ्गुलिद्वयः ॥१२३॥ बालसूर्य के अभिनय में त्रिपताक हस्त को इधर-उधर चलाते हुए, दो उँगलियों को ऊपर करके बाँह तथा शिर पर रख देना चाहिए। .. साग्निधूमे प्रयोक्तव्यो वक्रमार्गेष्वधोमुखः । 128 पुरश्चलन्नुच्चनीचभुव्यूर्वाधोमुखः करः ॥१२४॥ अग्नि तथा घूम और टेढ़े मार्गों के अभिनय में उसे अघोमुख करके प्रदर्शित करना चाहिए। ऊँचीनीची भूमि के भाव-प्रदर्शन में उसे आगे चलाते हुए ऊपर-नीचे कर देना चाहिए। कुश्चिताङ्गुलिरेष स्यात्कर्णस्थश्चापकर्षणे । 129 बालेन्दुदर्शने कार्यः प्रसृताङ्गुष्ठसम्मुखः ॥१२५॥ धनुष को खींचने का भाव प्रदर्शित करने के लिए त्रिपताक हस्त को कान पर रखना चाहिए और उँगलियों को मोड़ लेना चाहिए । बालचन्द्र के अभिनय में उसके अंगुष्ठ को फैलाकर सामने रखना चाहिए। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः पराङ्मुखो नृणां याने प्रयोक्तव्यो विचक्षणः । 130 अधोमुखौ स्वस्तिकौ तौ गुरुपादाभिवन्दने ॥१२६॥ विद्वज्जनों को चाहिए कि मनुष्यों की सवारी के अभिनय में वे त्रिपताक हस्त को पराङमुख (अर्थात् प्रतिकूल दिशा में) करके प्रयुक्त करें। गुरु के चरणस्पर्श के अभिनय में दोनों विपताक हस्तों को स्वस्तिक बनाकर अधोमुख कर देना चाहिए। विवाहदर्शने स्यातां श्लिष्टौ तावितरेतरम् । 131 भूपालदर्शने तौ स्तो विच्युतौ तु ललाटगौ ॥१२७॥ विवाह के अभिनय में दोनों त्रिपताक हस्त परस्पर सम्बद्ध करके रखने चाहिएं और 'राज-दर्शन के अभिनय में दोनों को अलग करके ललाट पर अवस्थित करना चाहिए। तौ तिर्यक्स्वस्तिको स्यातां सम्बद्धौ वेश्मदर्शने । 132 तपस्विदर्शने स्यातां तावूध्वा तु पराङ्मुखौ ॥१२८॥ गह दिखाने में दोनों त्रिपताक हस्तों को स्वस्तिकाकार में संबद्ध करके तिरछा प्रदर्शित करना चाहिए। तपस्वी के दर्शन में उन्हें ऊपर करके पराङमुख (अर्थात् विरुद्ध दिशा में) कर देना चाहिए। अन्योन्याभिमुखौ तौ तु वियोज्यौ हारदर्शने । 133 मुखाग्रसंश्रितौ कार्यावुत्तानाधोमुखीकृतौ ॥१२॥ हार के प्रदर्शन के अभिनय में उन दोनों हस्तों को एक-दूसरे के आमने-सामने करके दोनों के मुखाग्र भाग को मिलाकर उर्ध्वमुख तथा अधोमख कर देना चाहिए। . नक्राणां वडवाग्नेश्च मकराणां च दर्शने । 134 अन्योन्याभिमुखौ द्वारे सहार्थे संयुतौ मतौ ॥१३०॥ घड़ियालों, वड़वाग्नि, मगरों, द्वार तथा साथ के अभिनय में दोनों हाथों को परस्पर सम्मुख करके संयुक्त कर देना चाहिए। वानरे मुखदेशस्थावुत्तानाभिमुखाविमौ । 135 न जानामीति वाक्यार्थे छादितश्रोत्रसम्पुटौ ॥१३१॥ वानर के प्रदर्शन में दोनों हस्तों को उत्तान एवं आमने-सामने मुख के पास रखना चाहिए। 'मैं नहीं जानता है' इस कथन के प्रदर्शन में उनसे दोनों कर्ण-विवरों को ढक देना चाहिए। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरेण इमावन्योन्यसंश्लिष्टौ स (? ह्) द्गतावुत्थितौ पुनः । सम्भाविते प्रकर्तव्यौ पूर्वाचार्यैरिमौ करौ ॥१३२॥ पूर्वाचार्यों के मत से सम्भावना के अभिनय में दोनों त्रिपताक हस्तों को एक-दूसरे से मिलाकर पुनः हृदय पर उठाकर रख देना चाहिए । १६. कर्तरीमुख हस्त और उसका विनियोग हस्तस्य त्रिपताकस्य यद्यश्लिष्टा तु तर्जनी । मध्यमायां स्थिता पृष्ठे तदासौ कर्तरीमुखः ॥१३३॥ यदि त्रिपताक हस्त-मुद्रा की तर्जनी उँगली को अलग करके उसे मध्यमा उँगली के पृष्ठभाग में अवस्थित किया जाय ( और मध्यमा को अनामिका के साथ हस्ततल की ओर मोड़ दिया जाय ) तो उसे कर्तरीमुख हस्त कहते हैं । स्थितौ च क्षेपे (च) तथैवात्मगतेऽप्यसौ । शून्ये तद्विधेत्यर्थे स भिन्नवलितो भवेत् ॥ १३४॥ मे क्रम, स्थिति, क्षेपण, स्वगत भाषण, अशून्य तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थों के अभिनय में कर्तरीमुख हस्त को बिना मोड़े हुए प्रदर्शित करना चाहिए । ऊर्ध्वास्योऽसौ कपोलादौ पत्रादिरचने मतः । अलक्तकादिचरणरञ्जने सावधोमुखः कार्यो नासाक्षेत्रादथाग्रस्थो भवेदुत्तानिताङ्गुलिः ॥१३६॥ कपोल आदि पर पत्र आदि की रचना करने के प्रदर्शन में इस हाथ का मुख ऊपर को होना चाहिए । महावर आदि से चरणों को रँगने तथा मार्ग दिखाने में उसे अघोमुख कर देना चाहिए । देखने के आशय में उसे कान के समीप ले जाकर फिर नाक के अग्र भाग में, उँगली को उत्तान करके, अवस्थित रखना चाहिए । लेखप्रवाचनेऽथासौ मरणे पतनेऽपि च । 141 मार्गदर्शने ॥१३५॥ 136 दर्शने कर्णदेशः । वितकतेऽपराधे च परिवर्त व्यतिक्रमे ॥१३७॥ व्यत्यस्ततर्जनीकः 137 138 139 140 स्यादवाङ्मुखचलाङ्गुलिः । श्रयं तु पादविन्यासे योज्यस्तद्देशगो बुधैः ॥१३८॥ लेख बाँचने, मरण, पतन, दलील देने, अपराध, परिवर्तन और उल्लंघन के भाव - प्रदर्शन में कर्तरीमुख हस्त की तर्जनी को विपरीत दिशा में रखकर शेष उँगलियों को कम्पित कर देना चाहिए । 142 ८३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः सौधान्तःपुरयोरेष स्वस्तिकः परिदेवने । 143 मुखदेशस्थितोऽथकोऽनुगतोऽनुगते करः ॥१३॥ अपरेण करेणाथ हताशे परिवर्तितः । 144 हृदयस्थोऽथ पाचच्चेद्दक्षिणाद्वामपार्श्वगः ॥१४०॥ महल तथा अन्तःपुर के भाव-प्रदर्शन में कर्तरीमुख हस्त को स्वस्तिकाकार होना चाहिए। विलाप करने के अभिनय में उसे मुख पर और अनुगमन करने के आशय में दोनों हाथों का परस्पर अनुगत कर देना चाहिए (अर्थात् एक हाथ के पीछे दूसरे हाथ को रख देना चाहिए) । हताश के भाव-प्रदर्शन में उसे दाहिनी बगल से बाँयी बगल की ओर परिवर्तित करके हृदय पर अवस्थित करना चाहिए। तदा दाननिषेधे स प्रकाशे वृष्टिदेशतः । . 145 दक्षिणस्तु करो वाम पार्श्वमागत ईरितः । दान के निषध तथा प्रकाश के अभिनय में दाहिने हाथ को क्षेत्रप्रान्त से लाकर वाम पार्श्व में रखना चाहिए। इमौ शिरःस्थौ कर्तव्यौ शृङगाभिनयने करौ ॥१४१॥ 146 सींग के अभिनय में दोनों कर्तरीमुख हाथों को शिर पर रखना चाहिए । १७. अर्धचन्द्र हस्त और उसका विनियोग स्थितेऽन्यतोगुलीसंघे विततेऽङ्गुष्टके सति । योऽर्धचन्द्राकृतिधरः सोऽर्धचन्द्राभिधः करः ॥१४२॥ 147 यदि चारों उँगलियों को सीधे खड़ी कर दिया जाय और अंगूठे को बाहर की ओर सीधे फैला दिया जाय तो उससे जो अर्धचन्द्राकार मुद्रा बनती है उसी को अर्धचन्द्र हस्त कहते हैं । ऊोत्तानोऽर्धचन्द्रेऽथोत्तानितो मण्डलभ्रमः । ग्लानिसंतापयोः शोके नियोज्योऽसौ नियोक्तभिः ॥१४३॥ 148 अभिनेताओं को चाहिए कि ग्लानि, सन्ताप और शोक के भाव-प्रदर्शन में वे अर्धचन्द्र हस्त को ऊपर उत्तान करके मण्डलाकार में घुमायें । मुखदेशस्थितः पाने वदनेऽपि भवेदसौ । पादाङ्करणे त्वेष करस्तद्देशगः स्मृतः ॥१४४॥ 149 पीने तथा बोलने के अभिनय में इस हस्त को मुख पर रखना चाहिए । पैरों के आभूषण प्रकट करने में उसे पैरों के पास ले जाना चाहिए। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण मण्ड मणिबन्धप्रदेशस्थवलये पराङ्मुखोऽथ खेदे स कपोलफलकाश्रितः ॥१४५॥ 150 कलाई पर धारित ककण या चूड़ी के भाव-प्रदर्शन में अर्षचन्द्र हस्त को मण्डलाकार बनाना चाहिए और खेद प्रकट करने में उसे उलटा करके कपोल पर रखना चाहिए। कर्णान्तिकगतौ कार्यो कर्णाभरणदर्शने । 151 लोकयुक्त्यनुसारेण बलानिःकाशने मतः ॥१४६॥ कानों के आभूषण प्रकट करने में दोनों अर्धचन्द हस्तों को कानों के पास रखना चाहिए। किसी को बलपूर्वक निकालने के आशय में लोक-परम्परा के अनुसार अर्धचन्द्र हस्त का उपयोग करना चाहिए। कुम्भाभिनयने स्यातां पुरतोऽन्योन्यसम्मुखौ । मध्यसाम्ये कटिस्थौ द्वावितरेतरसम्मुखौ ॥१४७॥ 152 घट के भाव-प्रदर्शन में दोनों अर्धचन्द्र हस्तों को आमने-सामने (संमुखावस्था में) रखना चाहिए और मध्य का साम्य दिखाने में दोनों को उसी प्रकार परस्पर संमुख करके कटिभाग में रखना चाहिए। नियोज्यौ रस(? श)नायां च कर्तव्यौ तावधोमुखौ । मुखदेशगतावेतौ शङ्खाभिनयने करौ ॥१४८॥ 163 करधनी या रस्सी के भाव-प्रदर्शन में उक्त दोनों हस्तों को अधोमुख करके प्रयुक्त करना चाहिए और शंख के अभिनय में दोनों को मुख पर रखना चाहिए। असंयुताविमावूर्वावुत्थितौ निजपाव॑तः । प्रयोक्तव्यौ करौ बालपादपाभिनये बुधः ॥१४६॥ 154 छोट-छोटे पौधों के अभिनय में नाट्यविद् लोग दोनों अर्धचन्द्र हस्तों को ऊपर उठाये हुए, बिना सटाये ही अपने बगल में रखें। १८. अराल हस्त और उसका विनियोग तर्जनी चापवद्वका यत्राङ्गुष्ठस्तु कुश्चितः। अगुल्याः पूर्वपूर्वस्या अङ्गुली चेत्परा परा ॥१५०॥ 155 .. भिन्नोच्चा स्यान्मनाग्वा तदारालः स कीर्तितः । यदि तर्जनी धनुष की तरह टेढ़ी हो, अंगुष्ठ कुछ मुड़ा हो; और पूर्व-पूर्व की उँगली से उत्तर-उत्तर की उँगली भिन्नता धारण किये उन्नत तथा कुछ वक्र हों (अर्थात् कनिष्ठा, अनामिका और मध्यमा क्रमशः उन्नत होती हुई उसी क्रम से कुछ वक्र हों) तो उसे अराल हस्त कहते हैं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः एषोन्नादावपस्थाने याचने विजयेऽपि च ॥१५१॥ 156 अर्हादेवतयोश्च स्यादाशीर्वादे हृदि स्थितः । अन्न आदि, उपस्थिति या सामीप्य (उपस्थान), याचना, विजय, पूजा, देवता और आशीर्वाद के अभिनय में अराल हस्त को हृदय पर रखना चाहिए। ऊर्ध्वास्यः शिरसः पश्चान्मयूराभिनये मतः ॥१५२॥ 167 मयूर के अभिनय में उक्त हस्त को शिर के पीछे ऊर्ध्वमुख करके रखना चाहिए। अङकुशाभिनये त्वेष मनागूपराङ्मुखः । देहस्वभावभावेषु हितेष्वेष स्वसम्मुखः ॥१५३॥ 158 अंकुश के अभिनय में उसे थोड़ा ऊपर पराङ्मुख करके रखना चाहिए और देह, स्वभाव, भाव तथा हित के आशय में उसे अपने सम्मुख रखना चाहिए। निवारणे बहिःक्षिप्तोऽभिनेतव्योऽभिनेतृभिः । पराङ्मुखः परित्राणे मन्त्रिते मुखदेशगः ॥१५४॥ 159 अभिनेताओं को चाहिए कि निवारण (दूर करने या हटाने) के भाव-प्रदर्शन में वे उक्त हस्त को बाहर फेंक कर (अर्थात् झटका देकर) अभिनीत करें। बचाने के अभिनय में उसे पराङमुख करके और मंत्रणा के आशय में मुख पर रखकर प्रयक्त करना चाहिए। अखण्डिते महालाभे भाग्यमाहात्म्ययोरपि । योग्यतायां च कर्तव्य उत्थितोऽथ बहिर्मुखः ॥१५५॥ 160 अखण्डित वस्तु, महान् लाभ, भाग्य, माहात्म्य और योग्यता के अभिनय में उसे उठाकर वहिर्मुख कर देना चाहिए। श्राद्धकर्मणि योज्योऽयमथ द्रव्ये सुगन्धिनि । नासादेशगतः कार्यस्तथा खल्विति दर्शने ॥१५६॥ 161 तर्जन्याङ्गुष्ठको युक्त्वा वियुक्तो जनने भवेत् । मुखदेशाद्विनिर्गच्छन्नुपदेशे मतः सताम् ॥१५७॥ 162 श्राद्धकर्म के अभिनय में अराल हस्त का उपयोग करना चाहिए। सुगन्धित पदार्थ के अभिनय में उसे नासिका के पास रखना चाहिए। वैसा निश्चित ही हआ है' इस प्रकार के भाव-प्रदर्शन में अराल हस्त की तर्जनी ८६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण उँगली को अंगुष्ठ से मिला देना चाहिए; किन्तु प्रजनन या उत्पादन के आशय में उसे (तर्जनी को) अलग कर देना चाहिए। सज्जन लोगों का मत है कि उपदेश के भावाभिनय में उसे मुख के पास से निकालते हए दिखाना चाहिए । तोषे तूत्तानितः स स्याचन्द्रिकासु चलाङ्गुलिः । केशानां बन्धने स्त्रीणामसो तेषां विकीर्णने ॥१५८॥ 163 द्विनिर्वा मण्डलाकारोऽथाह्वाने पतदगुलिः । सन्तोष के अभिनय में उक्त हस्त को उत्तान रखना चाहिए । चन्द्रिका (ज्योत्स्ना) के भाव-दर्शन में उसकी उंगलियों को कम्पित कर देना चाहिए। स्त्रियों के केशों के बाँधने तथा छितराने में उस हस्त को दो या तीन बार मण्डलाकार बनाना चाहिए। किसी को बुलाने के आशय में उसकी उँगलियाँ गिरती हुई प्रदर्शित करनी चाहिएँ। धृतिस्थैर्यबलोत्साहगर्वगाम्भीर्यदर्शने ॥१५६॥ 164 नाभिक्षेत्रादयं कार्यो धीररुवं शिरोवधिः । अधोमुखो लाभ(?भाल)देशस्वेदापनयने भवेत् ॥१६०॥ 165 वैर्य, स्थिरता, बल, उत्साह, गर्व और गंभीरता दिखाने में उसे धीर पुरुष, नाभि के निकट ले जाकर ऊपर शिर तक ले जायें । ललाट का पसीना पोंछने के आशय में उसे अधोमुख कर देना चाहिए। भालस्थोऽप्यन्यपाचच्चेद् भ्रमन्नायाति वर्तुलः । स्वपार्वे जनसंघे स्याद्विवाहे तु करद्वयम् ॥१६१॥ 166 प्रदक्षिणं भ्रमत् कार्य स्वस्तिकाकारतां गतम् । अगुल्यग्रस्थितं कार्य केवलस्तु प्रदक्षिणम् ॥१६२॥ 167 जन-समूह के अभिनय में अराल हस्त को ललाट पर रख कर वहाँ से गोलाकार में घुमाते हुए दूसरे के बगल से अपने बगल में ले आना चाहिए। विवाह के अभिनय में दोनों अराल हस्तों को स्वस्तिक मुद्रा में प्रदक्षिणा कराते हुए घुमाना चाहिए; किन्तु प्रदक्षिणा केवल उँगलियों के अग्रभाग द्वारा ही होनी चाहिए। भ्रमन्प्रदक्षिणे सद्भिर्देवानां स नियुज्यते । कोऽहं कस्त्वं मया साधं सम्बन्धः क्वेति भाषणे ॥१६३॥ 168 असंबद्ध बहिःक्षिप्ताङ्गुलिरेष पुनः पुनः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः 170 सज्जनों के मत से देवताओं के प्रदक्षिणा में अराल हस्त को घुमाकर प्रदर्शित किया जाना चाहिए। . 'मैं कौन है ? 'तुम कौन हो ?' 'मेरे साथ सम्बन्ध कहाँ ?' इस प्रकार के असम्बद्ध भाषण के अभिनय में अराल हस्त की उँगलियों को बार-बार बाहर फेंकना या झटक देना चाहिए। त्रिपताकोदितेष्वेष कर्मस्वित्याह सिंहनः ॥१६४॥ 169 सिंहन (?) का मत है कि त्रिपताक हस्त के कार्यों में भी इस हस्त का विनियोग हो सकता है। १९. शुकतुण्ड हस्त और उसका विनियोग __ तर्जन्यनामिके यत्रारालस्यात्यन्तवक्रिते । तदासौ शुकतुण्डः स्यात् यदि अराल हस्त मुद्रा की तर्जनी और अनामिका उंगलियों को वक्र कर दिया जाय तो उसे शुकतुष्य हस्त (तोते की चोंच जैसा) कहा जाता है। -पातने तपाशयोः ॥१६॥ किसी के गिराने, द्यत और पासे के भाव-प्रदर्शन में शुकतुण्ड हस्त का विनियोग होता है। नाहं न त्वं न मे कार्य त्वयेति कथनेऽपि च । 171 धारणे लेखनस्यापि वीणादेरपि वादने ॥१६॥ प्रीतिकोपे नवेायामाह्वानेऽथ विसर्जने । 172 आर्द्रापराधके चाथ वश्चने परिवर्तितः ॥१६७॥ नायिकाप्रार्थनोक्तौ स्याद् धिगित्युक्तौ तु रोषतः ।। 173 न मैं','न तुम' और न 'तुमसे मेरा कोई कार्य है' ऐसे कथन; पत्र-धारण, लेखन, वीणा आदि के वादन, प्रीतिपूर्वक क्रोध, नयी ईर्ष्या, बुलाने, विदा करने, सरस या हास्यापराध के अभिनय में उक्त हस्त का विनियोग होता है। वंचन तथा नायिका की प्रार्थना के भाव-प्रदर्शन में इस हस्त को उलट कर प्रयुक्त करना चाहिए। धिक्कार है' इस कथन के अभिनय में उसे सरोष प्रयुक्त करना चाहिए। अवज्ञायां बहिःक्षिप्तस्त्रिनेत्र्यां भालसंश्रितः । अनतोक्ते यथौचित्यं ग्रहणेऽपि कमण्डलोः ॥१६८॥ 174 तिरस्कार के भाव-प्रदर्शन में उसे बाहर की ओर झटक देना चाहिए। त्रिनेत्र का भाव दर्शाने में उसे भाल पर रखना चाहिए ; और मिथ्या भाषण तथा कमण्डलु धारण करने में उसका यथोचित प्रयोग करना चाहिए। ८८ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण २०. सन्दंश हस्त और उसका विनियोग लग्नाने तु यदाङ्गुष्ठतर्जन्यौ निम्नकं मनाक् । तलमध्यमरालस्य तदा सन्दंश ईरितः ॥१६६॥ 175 यदि अराल हस्त-मुद्रा की तर्जनी और अंगुष्ठ उँगलियों के अग्रभाग को मिला दिया जाय और हथेली को भीतर की ओर थोड़ा झुका दिया जाय तो उसे सन्दंश हस्त (संडासी) कहते हैं। इति त्रेधा भवेत्सोऽयमग्रजो मुखजस्तथा । पार्श्वजश्चाथ ते ज्ञेयोस्त्रयोंऽप्यन्वर्थलक्षणाः ॥१७०॥ 176 इस प्रकार सन्वंश हस्त के तीन भेद होते हैं : अग्रज, मुखज और पार्श्वज । उनके नामार्थ के अनुसार ही उनका प्रयोग भी समझना चाहिए ।। कण्टकोद्धरणे सूक्ष्मपुष्पावचयनेऽपि च । केशपर्णतृणादीनां ग्रहणेऽप्यनजो मतः ॥१७१॥ 177 काँटा निकालने, सूक्ष्म पुष्पों को चुनने और केश, पत्ते तथा तृण आदि के ग्रहण करने में अग्रज सन्वंश हस्त का उपयोग करना चाहिए। शल्यावयवनिष्कर्षेऽपकर्षे चाथ कीर्तितः । प्रसूनोद्धरणे वृन्ताद्धिगित्युक्तो च रोषतः ॥१७२॥ 178 वर्त्यञ्जनशलाकादिपूरणे चास्यजस्त्वथ । शरीरांगों में बरछा या तीर मारने तथा निकालने, डण्ठल से फूल तोड़ने, 'धिक्कार है' क्रोध से ऐसा कहने, बत्ती तथा अंजन-शलाका आदि के व्यवहार के अभिनय में मुखज सन्दंश का विनियोग करना चाहिए। मुक्तादीनां गुणक्षेपे वेधनेऽपि च पार्श्वजः ॥१७३॥ 179 मणि-मुक्तादि के गुण बताने तथा (उनके) वेधन करने के अभिनय में अग्रज सन्दंश का विनियोग करना चाहिए। सद्वितीयः प्रयोक्तव्यस्तत्त्वस्य च निरूपणे । ध्यानाभिनयने चित्रकर्मण्यपि च भाषणे ॥१७४॥ 180 सक्रोधे वामहस्तेन मनागमविवर्तनात् । निष्पीडने - त्वलक्तस्य चायमुक्तो बुधैः करः ॥१७५॥ 181 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः तत्त्व-निरूपण में मुखज सन्दंश का उपयोग करना चाहिए । ध्यान, चित्रकर्म, भाषण और थोड़ा आगे फैला कर बायें हाथ से महावर पीसन के अभिनय में इसी हस्त का विनियोग करना चाहिए, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। योगे स्तोके निर्धने च गुरुयज्ञोपवीतयोः । वितर्के पेलवासूयानेत्ररञ्जन (द) शने ॥१७६॥ 182 कद्रौ तत्सुतविद्यायां विद्यातो (ष) विधावपि । स्मृतौ सम्भावनायां चानयनेऽपि हृदि स्थितः ॥१७७॥ 183 योग, अल्प, निर्धन, गुरु, यज्ञोपवीत, वितर्क, कोमल, असूया, काजल, दर्शन, कद्रु ( नागों की माता ), सर्पविद्या (तत्सतविद्यायां), विद्या, सन्तुष्ट करने की विधि, स्मरण, संभावना और आनयन के भाव-प्रदर्शन में मुखज सन्दंश हस्त को हृदय पर अवस्थित करना चाहिए । उद्भिन्ने विच्युतः स स्यान्मोचनीये करावुभौ । विच्युतावथ नेत्रादिस्फुरणे स्यादसौ करः ॥१७॥ 184 तद्देशसंश्रिते लक्ष्ये त्वेष कार्यः पुरःस्थितः । फोड़ कर निकली हुई वस्तु (जैसे सोता) के अभिनय में सन्दंश हस्त के सटे हुए अंश को अलग कर देना चाहिए। खोलने योग्य वस्तु के अभिनय में दोनों सन्देश हस्तों को वैसे ही विच्युत कर देना चाहिए। नेत्र आदि के फड़कने के अभिनय में भी उसी सन्देश हस्त का विनियोग करना चाहिए । नेत्र प्रदेश के लक्ष्य का आशय प्रकट करने में उसे आगे रखना चाहिए। पिपीलिकास्वयं योज्यश्श्चलाधोमुखः करः ॥१७६॥ 185 क्षुद्रे विवर्तितः किश्चिद्दोषे तु परिवर्तितः । परिणामे पार्श्वमुखो ब्राह्मणे वामबाहुतः ॥१८०॥ 186 चींटियों के अभिनय में सन्दंश हस्त को कम्पित करके अधोमुख कर देना चाहिए। क्षद्र वस्तु के अभिनय में उसे घुमाकर और अल्प अपराध के आशय में बदल कर प्रदर्शित करना चाहिए। परिणाम के अभिनय के प्रदर्शन में उसे बगल की ओर झुका होना चाहिए और ब्राह्मण के भाव-निदर्शन में उसे बाँई भुजा की बगल से प्रयुक्त करना चाहिए। आगते दक्षिणे पार्श्वे कर्तव्यो दशनेषु तु । तद्देशस्थो बुधरुक्तः कर्णस्थः कर्णभूषणे ॥१८१॥ 187 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरणे आये हुए व्यक्ति के अभिनय में सन्देश हस्त को दाहिनी बगल में, दांतों के अभिनय में दांतों के पास और कर्णाभूषण के अभिनय में कान के पास रखना चाहिए, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। मुखसंकोचने त्वेष देशीनृत्ये चलग्रहे । वधूभिर्भालदेशस्थः कार्य श्वश्वादिवश्चने ॥१८२॥ 188 मुंह छिपाने या सिकोड़ने, देशी नृत्य (ग्राम्य नृत्य), चलग्रह और बहुओं द्वारा सास आदि को ठगने के अभिनय में इस हाथ को ललाट पर रखना चाहिए। युक्तऽङकुरे तथा स्थाने इत्येवार्थे च युक्तितः । यथौचित्यं योजनीयो लोक त्यविशारदः ॥१८३॥ 189 समीचीन वस्तु, अंकुर, स्थान, ऐसा हो' इस कथन के अभिनय में नृत्यवेत्ताओं को चाहिए कि वे लोकपरम्पराओं के द्वारा यथोचित रूप में सन्दंश हस्त का विनियोग करें। २१. मुकुल हस्त और उसका विनियोग लग्नाग्राः संहता ऊर्ध्वाः पश्चाप्यङ्गुलयो यदा । तदासौ मुकुलः प्रोक्तोऽशोकमल्लेन भूभुजा ॥१८४॥ 190 यदि ऊपर उठी हुई पाँचों उँगलियों के अग्रभाग को परस्पर मिला दिया जाय तो, नृपति अशोकमल्ल के मत से, उस मुद्रा को मुकुल हस्त कहते हैं। बलिदाने भोजने च पद्मादिमुकुले तथा । प्रार्थने देवपूजायां योज्योऽसौ लोकयुक्तितः ॥१८॥ 191 बलिदान, भोजन, कमल आदि की कली, प्रार्थना और देवपूजा के अभिनय में लोकरीति के अनुसार मुकुल हस्त का विनियोग करना चाहिए। विटकत ककान्तादिचुम्बनेऽङ्गीकृतेऽपि सः । अधोमुखः सद्वर्णेषु विलोलविरलागुलिः ॥१८६॥ 192 कामुक द्वारा कान्ता आदि के चुम्बन, अंगीकार और उत्तम वर्णों (द्विजाति) के अभिनय में मुकुल हस्त को अधोमुख करके उसकी उँगलियों को विरल (विलग) करके कम्पित कर देना चाहिए। राक्षसेऽधोमुखः कार्यश्चलागुलिरसौ करः । ऊर्ध्वविच्युतसन्दंशस्तूत्क्षेपे सीकरेषु च ॥१८७॥ 193 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः राक्षस के अभिनय में मुकुल हस्त को अधोमुख करके उस की उँगलियों को कम्पित कर देना चाहिए। यदि किसी वस्तु को ऊपर फेंकने तथा जल-कणों का भाव प्रदर्शित करना हो तो उसकी ऊर्ध्वमुख सटी हुई उँगलियों को खोल देना चाहिए । असौ च सत्वरे दाने विकाश्य प्रकृतिं गतः । मुहुर्मुहुरथ क्षिप्तमुक्ताङ्गुलिरसौ द्रव्य गणनायां प्रकीर्तितः ॥ १८८ ॥ पार्श्वत्पार्श्वोत्तरावधि । शीघ्रता और दान के अभिनय में मुकुल हस्त को विकसित कर (पुनः) यथापूर्व कर देना चाहिए । यदि द्रव्यों की गणना का भाव-प्रदर्शन करना हो तो उसकी उँगलियों को खोलकर उसे एक बगल से दूसरी बगल में करना चाहिए । उच्छ्वासे च्युतसन्दंशो मुखक्षेत्रगतो भवेत् ॥१८६॥ उच्छ्वास (ऊर्ध्वं स्वास) लेने के आशय में उसे सैंड़सी की तरह खोल कर मुख के पास रखना चाहिए। पञ्चसंख्यादिनिर्देशे तथाच्छुरितकेऽप्यसौ । यत्कुचादौ कामिनीनां सशब्दं नखलेखनम् । श्रङ्गुलीपञ्च केन स्यात्तदाच्छुरितकं विदुः ॥ १६० ॥ पाँच की संख्या आदि बताने तथा नख-क्षत के अभिनय में मुकुल हस्त का प्रयोग करना चाहिए। कामिनियों के कुच आदि पर पाँचों उँगलियों के प्रहार से शब्द के साथ जो नख-क्षत किया जाता है उसी को आच्छुरितक कहते हैं । २२. पद्मकोश हस्त और उसका विनियोग श्रङ्गुष्ठसहिताङ्गुल्यो 194 ९२ 195 196 विरलाश्चापवत्तताः । ऊर्ध्वा यस्मिन्नलग्नाग्राः स करः पद्मकोशकः ॥१६१॥ यदि अंगुष्ठ सहित पांचों उँगलियाँ अलग-अलग रहकर धनुष की तरह मुड़कर ऊर्ध्वमुख हों और उनके अग्रभाग एक-दूसरे को स्पर्श न करते हों, तो उस मुद्रा को पद्मकोश हस्त कहते हैं | सौ देवार्चने स्त्रीणां कुचयोस्तद्ग्रहेऽपि च । कबरीग्रहणे स्त्रीणां पुष्पाणां च ग्रहे तथा ॥ १६२ ॥ 197 198 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैस्त प्रकरण देवपूजन, स्त्रियों के कुच और कुचों को पकड़ने, स्त्रियों का जूड़ा पकड़ने और पुष्पों के चुनने के अभिनय में पद्मकोश हस्त का विनियोग होता है। नान्दीपिण्डप्रदाने तूत्तानः क्षिप्ताङ्गुलिर्मतः । 199 अधोमुखः कुश्चितानः कपित्थश्रीफलग्रहे ॥१३॥ नान्दी श्राद्ध में पिण्डदान करने के आशय में पद्मकोश हस्त को उत्तान करके उसकी उँगलियों को फेंकने की शक्ल में करना चाहिए । कैथ और बेल के ग्रहण में उसे अघोमुख करके, उस की उंगलियों के अग्रभाग को कुंचित कर देना चाहिए। भूस्थितार्थग्रहे लोभेऽप्युत्तानो बलिकर्मणि । 200 क्षिप्ताङ्गुलिरथासौ तु पश्चादर्थे चलागुलिः ॥१६४॥ भूमि पर या भू-गर्भ में स्थित द्रव्य के आदान, लोभ और बलिकर्म के भाव-प्रदर्शन में उक्त हस्त को उत्तान करके अँगुलियों को क्षिप्त कर देना चाहिए। पश्चात् अर्थ के स्वीकार या निर्देश के अभिनय में उसकी उँगलियों को कम्पित कर देना चाहिए। : अधोमुखौ यथौचित्यं बीजपूरादिके फले । 201 अंसग्रहे च सिंहाद्यरथातिविरलाङ्गुली ॥१९॥ बिजौरा नींबू आदि फलों के अभिनय में दोनों पद्ममुख हस्तों को यथोचित रूप से अधोमुख करना चाहिए । सिंह आदि के द्वारा कन्धा पकड़ लिये जाने के अभिनय में दोनों पद्ममुख हस्तों की उँगलियाँ अलग करके प्रयुक्त करनी चाहिएँ। .. __ संश्लिष्टमणिबन्धौ च फुल्लपद्मादिदर्शने । 202 कुचदेशस्थितौ कार्यों प्रौढायां पद्मकोशकौ ॥१६॥ खिले हुए कमल आदि पुष्पों के भावाभिव्यंजन में दोनों पद्मकोश हस्तों की कलाइयों को परस्पर सटा देना चाहिए और प्रौढ़ा नायिका के अभिनय में उन्हें कुचों पर रख देना चाहिए। पक्षिणां पञ्जरेष्वेतौ तथा संकीर्णवेश्मनि । 203 - विरलाङ्गुलिको कार्यावन्योन्यान्तरनिर्गतौ ॥१७॥ पक्षियों के पिंजरों तथा संकीर्ण गृह के अभिनय में उक्त दोनों हस्तों को एक-दूसरे के भीतर से निकालते हए उनकी उंगलियों को विरल कर देना चाहिए। १ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः संध्याकाले पृथक्स्यातां मणिबन्धनताविमौ । 204 कुचयोः सम्मुखावेतौ काठिन्याभिनये करौ ॥१९८॥ संध्याकाल के अभिनय में दोनों पद्ममुख हस्तों की कलाइयों को अलग करके प्रदर्शित करना चाहिए; और कुचों की कठोरता के आशय में उन्हें सम्मुख रखकर दिखाना चाहिए। २३. ऊर्णनाभ हस्त और उसका विनियोग पद्मकोशस्य हस्तस्य पञ्चाङगुल्योऽपि कुश्चिताः । 205 यदा यत्र तदा स स्मादूर्णनाभाभिधः करः ॥१६॥ यदि पद्मकोश हस्त मुद्रा की पांचों उँगलियाँ मुड़ी हुई हों तो उसे ऊर्णनाभ हस्त कहते हैं। .. एष वस्तुग्रहे चौर्यात् पङ्काश्मादिग्रहेऽपि च । 206 कुछ(?ष्ठ) व्याधौ तथा शीर्षकण्डूयायां च कीर्तितः ॥२००॥ चोरी से किसी वस्तु को लेने, कीचड़ तथा लोहा आदि ग्रहण करने, कुष्ठरोग और शिर खुजलाने के अभिनय में ऊर्णनाभ हस्त का विनियोग करना चाहिए। उद्धृत्याधोमुखः कार्यो मण्डकाभिनये करः । 207 मण्डक (एक प्रकार की रोटी या माँड़; मण्डूक पाठ के अर्थ में मेंढक) के अभिनय में उक्त हस्त को ऊपर उठाकर अधोमुख कर देना चाहिए। विधायाधोमुखावेतौ नाभिदेशे प्रसारितौ ॥२०१॥ नीतोर्ध्वतर्जनीको चेत्तदान्त्रेषु नियोजितौ । 208 चिबुकस्थाविमौ कायौँ व्याघ्रसिंहादिदर्शने ॥२०२॥ यदि आँतों का अभिनय प्रदर्शित करना हो तो दोनों ऊर्णनाभ हस्तों की तर्जनियों को ऊर्ध्वमुख करके तथा दोनों हस्तों को अधोमुख करके नाभिदेश में फैला देना चाहिए। बाघ तथा सिंह आदि का भाव प्रकट करने में उनको ठुड्डी पर रखना चाहिए। २४. अलपल्लव हस्त और उसका विनियोग आवर्तिन्यः पार्श्वगता हस्तस्याङ्गुलयः स्थिताः ।। 209 तले यस्य विकीर्णाश्चेत्तदासावलपल्लवः ॥२०३॥ . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण जिस हाथ की (पाँचों) उँगलियाँ पार्श्वगत होकर वृद्याकार रूप में मुड़ी हुई और हथेली की ओर फैली हों, उसे अलपल्लव हस्त कहते हैं। अयमेवालपद्मः स्यादित्यन्येऽत्र बभाषिरे । 210 ता एव परिवत्तिन्यो भूत्वा व्यवत्तिता मताः ॥२०४॥ कुछ पूर्वाचार्यों ने अलपल्लव को ही अलपत्र नाम से कहा है, जिससे उसकी पार्श्वगत उँगलियाँ परिवर्तित होकर छितराये या अलग-अलग रूप में निदर्शित की गयी हैं। अयुक्तानृततुच्छोक्तो कस्य त्वमिति भाषणे । । नास्तीत्युक्तौ च नारीभिर्लोकयुक्त्यैष युज्यते ॥२०५॥ असंगत, मिथ्या तथा छोटी बात कहने, 'तुम किसके हो ?' ऐसा भाषण करने और 'नहीं है' इस तरह बोलने में अलपल्लव हस्त का विनियोग होता है। नारियों को चाहिए कि वे लोकरीति के अनुसार उसका प्रयोग करें। सर्वाप्प(?र्थ)ग्रहणे योज्यो वामहस्तेन पातितः । 212 अनुरूपे प्रसन्ने च विश्रान्तौ च गुणोत्तरे ॥२०६॥ विनष्टे च तथासत्ये शोभासंहर्षयोरपि । 213 केवले परितोषे च रसग्रहणयोरपि ॥२०७॥ मुधा विनार्थे सिंहे चावहिते नवभोगयोः । 214 क्रीडायामपि पर्याप्तेऽप्येष धीरैर्नियुज्यते ॥२०॥ सब प्रकार के अर्थों के ग्रहण में बाँये अलपल्लव हस्त को गिरा कर प्रयुक्त करना चाहिए। अनुरूप, प्रसन्न, विश्राम, गणश्रेष्ठ, विनष्ट, सत्य, शोभा, हर्ष, केवल, परितोष, रस, ग्रहण, व्यर्थ, सिंह, सावधान, नवीन, भोग, क्रीड़ा और पर्याप्त के अभिनय में भी धीर पुरुष इस हस्त का विनियोग करते हैं । लोकयुक्त्यनुसारेण साधौ त्वेष चलो मतः । 15 तारुणोऽसौ प्रसिद्ध स्याद्वक्षस्थस्त्वात्मदर्शने ॥२०॥ साधु के अभिनय में उक्त हस्त को कम्पित कर लोकरीति के अनुसार प्रयुक्त करना चाहिए। प्रसिद्ध वस्तु के अभिनय में यह हाथ सर्वथा उपयुक्त है । आत्मदर्शन के भाव-प्रदर्शन में उसे छाती पर रखना चाहिए। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः देवेषु दक्षिणो वामबाहुःशीर्ष समुत्थितः । सुखे कर्णगतः कार्यो नवनीते त्वधोलुठन् ॥२१०॥ 216 देवताओं के अभिनय में दाँया अलपल्लव हस्त बाम बाहु या शिर पर रखना चाहिए। सुख के अभिनय में उसे कान के पास रखना चाहिए और मक्खन के भाव-प्रदर्शन में नीचे लुढ़का देना चाहिए। विशेषे तु चलावेतौ कान्तायां कुचदेशगौ। 217 किसी विशेष वस्तु या बात के अभिनय में दोनों अललपल्लव हस्तों को कम्पित कर प्रयक्त करना चाहिए और प्रिया के अभिनय में उन्हें कचों के पास रख देना चाहिए। ___ एवमन्ये बुधरुह्याः शास्त्रलोकानुसारतः ॥२११॥ नृत्तविद्या-विशारदों को चाहिए कि शास्त्र-दृष्टि और लोक-परम्परा के अनुसार वे अलपल्लव हस्त का अन्य अभिनयों में भी विनियोग करें। चौबीस असंयुत हस्तों का निरूपण समाप्त संयुत हस्त और उनका विनियोग १. अंजलि हस्त और उसका विनियोग तलश्लिष्टौ पताको चेत्तदा हस्तोऽञ्जलिर्मतः। 218 यदि दोनों पताक हस्तों के तल भाग को परस्पर जोड़ दिया जाय तो उसे अंजलि हस्त कहते हैं । देवताया द्विजातेश्च गुरोरपि नमस्कृतौ ॥२१२॥ शिरोवक्षोमुखस्थोऽयं क्रमात्पुंभिनियुज्यते । 219 कामिनीभिर्यथाकाममिति नृत्यविदां मतम् ॥२१३॥ देवता, ब्राह्मण तथा गुरु को नमस्कार करने में अंजलि हस्त को क्रमशः शिर, वक्ष और मुख पर प्रदर्शित करना चाहिए । नत्याचार्यों का अभिमत है कि पुरुषों और स्त्रियों को उसका यथेच्छा प्रयोग करना चाहिए। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण २. कपोत हस्त और उसका विनियोग मूलाग्रपार्श्वसंश्लेषाद्विश्लेषात्तलयोरपि । 220 यदा हस्तौ कपोताभौ कपोतो हस्तकस्तदा ॥२१४॥ केचिदेनं करं प्राहुः कर्मसंज्ञं विचक्षणाः । 221 यदि दोनों हाथों के मूल भाग (कलाई) और अग्र भाग (उँगलियों के छोर) आपस में सटे रहें और तल भाग (हथेली) अलग-अलग रहे, तो उसे कपोत हस्त कहते हैं । कुछ विद्वान् इसे कूर्म हस्त कहते हैं । प्राणामे विनये कार्यों गुरुसंभाषणेऽपि च ॥२१॥ प्रणाम करने, विनय और गुरु से बात-चीत करते समय कपोत हस्त का विनियोग होता है । प्राङ्मुखः कम्पितो वक्षःस्थितः शीते स्त्रियामपि । 222 कातरे स्यादथेयत्तापरिच्छेदे तु विच्युतः ॥२१६॥ शीत और स्त्री के अभिनय में इस हस्त को कम्पित एवं पूर्वमुख रूप में छाती पर रखना चाहिए । कातरता और परिणाम या सीमा-निर्धारण के आशय में उसे विच्युत (अर्थात् सटे हुए. अंश को अलग) कर देना चाहिए। सखेदवचसीदानोमित्यर्थस्य च सूचने । 223 प्राज्ञाप्रतिज्ञयोनाथ प्रसादेऽवहितेऽपि च ॥२१७॥ पक्षपाते पराधीने भक्षणे प्रतिपादने । 224 सेवायामपि योज्योऽसौ लोकयुक्त्यनुसारतः ॥२१॥ खद के साथ बोलने, 'इस समय' इस अर्थ को सूचित करने, आज्ञा, प्रतिज्ञा, स्वामी, प्रसन्नता, सावधान, पक्षपात, पराधीन, भक्षण, प्रतिपादन (निरूपण या समर्पण) और सेवा के अभिनय में भी लोक-परम्परा के अनुसार कपोत हस्त का प्रदर्शन करना चाहिए। विच्युतश्लिष्टपार्योऽसौ भिक्षायां करपात्रिणाम् । 225 जिनके हाथ ही पात्र का काम करते हैं, ऐसे भिक्षुओं को भिक्षा देने के अभिनय में कपोत हस्त के तल मुख से सटे हुए भाग को अलग कर देना चाहिए। इतराण्यपि कर्माणि बुधरूह्यानि युक्तितः ॥२१॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः इनके अतिरिक्त अन्य कार्यों एवं भावों के अभिनय में भी विद्वान नत्यवेताओं को यथाविधि कपोत हस्त का प्रदर्शन करना चाहिए। ३. कर्कट हस्त और उसका विनियोग करयोरखिलागुल्योऽन्योन्यमन्तरनिर्गताः । 226 दृश्यन्तेऽन्तर्बहिर्वा चेत्तदा स्यात्कर्कटः करः ॥२२०॥ यदि दोनों हाथों की सभी उँगलियाँ परस्पर बीच से निकल कर या गुंथी होकर भीतर और बाहर दोनों ओर से दिखायी दें, तब उसे कर्कट हस्त कहते हैं । एष सुप्तोत्थजृम्भायामङ्गानां च प्रसारणे । 227 अग्रे पावऽथवोर्व वा पराङ्मुखतलः करः ॥२२१॥ सोकर उठने के बाद जमुहाई लेने, अंगों के फैलाने, आगे, बगल अथवा ऊपर के भाव प्रदर्शित करने में कर्कट हस्त के तल भाग (हथेली) को पराङमुख कर देना चाहिए । बहिस्स्थिताङ्गुलिस्तु स्यादनादङ्गमोटने । 228 स्थूलोदरेऽप्यसावेवोदरसंस्थित इष्यते ॥२२२॥ अंगों में कामजन्य पीड़ा का भाव दर्शाने में उक्त हस्त की उँगलियों को बाहर की ओर रखना चाहिए। स्थूल उदर का भाव दिखाने में उसी हस्त को पेट पर रखना चाहिए। . हनुं बिभ्रदसौ पृष्ठेऽङ्गुलीनां खेदसूचने । 220 अथान्तःस्थागुलिः कार्यश्चिन्तायां चिबुके स्थितः ॥२२३॥ खेद प्रकाश करने के आशय में कर्कट हस्त को उँगलियों पर ठुड्ढी रख देनी चाहिए और चिन्ता के भाव-दर्शन में उसकी उँगलियों को ठुड्डी पर रख देना चाहिए। ईषद्वक्रीकृतान्योन्याभिमुखाङ्गुलिरेष तु। 230 शङ्खस्य धारणे योज्यो मुखेऽधः स्नानकर्मणि ॥२२४॥ द्विस्त्रिर्वा मूनि संयोज्यो गृहे तु स्यादधस्तलः । 231 हृदयक्षेत्रगः कार्यः किञ्चित्कुञ्चितकूर्परः ॥२२५॥ शंख धारण करने की मुद्रा में उक्त हस्त की उँगलियों को थोड़ा टेढ़ा और एक-दूसरे के आमने-सामने करके मुख पर रखना चाहिए। स्नान करने के अभिनय में उसे नीचे रखना चाहिए; अथवा दो-तीन बार मस्तक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण पर रख देना चाहिए । घर का भाव दिखाने में उसके निम्न भाग को नीचे की ओर करके, कुहनी को कुछ मोड़ कर, हृदय पर रखना चाहिए । अन्तःपुरे वामभागस्थितः कार्योऽथ कार्मुके । पार्श्वोत्थितः प्रयोक्तव्यः पराङ्मुखतलाङ्गुलिः ॥ २२६ ॥ अन्तःपुर के अभिनय में उक्त हस्त को वाम भाग में अवस्थित करना चाहिए और धनुष के अभिनय में उसकी उँगलियों को पीछे की ओर फेरकर बगल से उठाते हुए प्रदर्शित करना चाहिए । ४. गजदन्त हस्त और उसका विनियोग मध्यं सर्पशीर्षो करौ स्कन्ध कूर्परयोर्मिथः । दधाते चेत्तदा प्रोक्तो गजदन्ताभिधः करः ॥ २२७॥ यदि दोनों सर्पशीर्ष हस्त परस्पर कन्धे और कोहनी के मध्य भाग को धारण करें तब उस मुद्रा को गजदन्त हस्त कहते हैं । स्कन्धस्थौ सर्पशीर्षो वर-वधू चेदितरेतरसम्मुखौ । तथाऽपरे ॥ २२८ ॥ कुञ्चत्कूर्पर कौ प्राहुर्गजदन्तं कुछ आचार्यों का कहना है कि यदि दोनों सर्पशीर्ष हस्त कन्धे पर अवस्थित होकर एक-दूसरे के आमने सामने रहें, और उनकी कोहनियाँ मुड़ी रहें, तब उस मुद्रा को गजदन्त हस्त कहते हैं । नयने स वरवध्वोविवाहार्थं प्रयुज्यते । को विवाहार्थं ले जाने के अभिनय में गजदन्त हस्त का विनियोग होता है । भारस्योद्वहने स्तम्भग्रहणे च अधः शैलशिलोत्पाटे करः कार्यो वीजनों के अभिमत से बोझा ढोने, खूंटा पकड़ने, आने-जाने और में उक्त हस्त का प्रयोग करना चाहिए । श्रस्यान्येsभिनया 232 धीरैर्विज्ञेयाः शास्त्रदृष्टितः ॥ २३०॥ गजदन्तहस्त के शास्त्र दृष्टि से अन्य अभिनय प्रयोगों को विद्वानों द्वारा जान लेना चाहिए । ५. निषेध हस्त और उसका विनियोग 233 कपित्थं मुकुलं हस्तं परिवेष्ट्य यदा स्थितः । तदा निषधनामासौ 234 गतागते ॥२२६॥ विचक्षणैः । पर्वतशिला के उखाड़ने के अभिनय 236 235 237 ९९ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः यदि एक हाथ को कपित्थ मुद्रा में बना कर उससे दूसरे मकल हस्त को परिवेष्टित कर अवस्थित किया जाय तो उसे निषध हस्त कहते हैं । -सम्यक्स्थापितवस्तुनि ॥२३१॥ निष्पेषणे तथा सत्यमिदमित्यपि कीर्तने । 238 सम्यक्तया च शास्त्रार्थस्वीकारेऽपि प्रकीर्तितः ॥२३२॥ भली भांति स्थापित की गयी वस्तु, पीसने, 'यह सत्य है' इस प्रकार के कथन और सम्यक प्रकार से शास्त्रार्थ स्वीकार करने के अभिनय में निषध हस्त का विनियोग होता है। पूर्वोक्तं गजदन्तं तु निषधं संजगुः परे। 239 गर्वगाम्भीर्यधैर्यादिष्वसौ शौर्ये च कीर्तितः ॥२३३॥ कुछ आचार्य पूर्वोक्त गजदन्त हस्त को ही निषध हस्त कहते हैं । गर्व, गाम्भीर्य, धैर्य और वीरता आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ६. पुष्पपुट हस्त और उसका विनियोग बाह्यपार्श्वसुसंश्लिष्टौ सर्पशीर्षो यदा करौ। 240 तदा पुष्पपुटौ हस्तोऽशोकमल्लेन कीर्तितः ॥२३४॥ यदि दोनों सर्वशीर्ष हस्तों के वाह्य पाश्वों को भली भाँति मिला दिया जाय तो, अशोकमल्ल के मत से, उस मुद्रा को पुष्पपुट हस्त कहा जाता है। पुष्पधान्यजलादोनामर्पणे ग्रहणेऽपि च । 241 पुष्पाञ्जलौ प्रसादे चोपायनेऽपि स कीर्तितः ॥२३५॥ फूल, धान्य और जल आदि के देने-लेने, पुष्पांजलि, प्रसन्नता तथा उपहार के अभिनय में पुष्पपुट हस्त का विनियोग होता है। ७. खटकावर्षन हस्त और उसका विनियोग अन्योन्याभिमुखौ हस्तौ खटकामुखसंज्ञितौ ।। 242 यदा यद्वा स्वस्तिकौ तौ मणिबन्धस्थितौ तथा ॥२३६॥ खटकांवर्धमानोऽसौयदि दोनों खटकामुख हस्तों को एक-दूसरे के आमने-सामने कर दिया जाय; अथवा अन्योन्याभिमुख करके दोनों स्वस्तिक हस्तों को परस्पर कलाइयों पर अवस्थित किया जाय, तो उसे खटकावर्धन हस्त कहते हैं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण मतः । - प्रणामकरणे ग्रथने च प्रसूनानां तथ्योक्तौ चादिमे प्रणाम करने, फूल गूंथने, सत्य बोलने और आदिम मत के अभिनय में खटकावर्धन हस्त का विनियोग होता है । मते ॥ २३७॥ मतान्तरे कामिनां स पर्णादिग्र (ह) णे करः । तिर्यगास्योऽथ सूर्यस्योदये तृत्तानितो मतः ॥ २३८ ॥ निर्णयाङ्गीकृतौ योज्यो मितेऽपि स युक्तितः । खटकावर्धन हस्ताभिनय के अन्य प्रयोगों को शास्त्रानुसार जान लेना चाहिए । ८. उत्संग हस्त और उसका विनियोग 245 कमियों के मतभेद और पत्ते आदि के ग्रहण के अभिनय में उक्त हस्त को तिरछा करके प्रस्तुत करना चाहिए। सूर्योदय के अभिनय में उसे उत्तान रखना चाहिए । निर्णय को स्वीकार करने और परिमितता का भाव दर्शाने में उसे यथाविधि प्रयुक्त करना चाहिए । अस्य क्रियान्तराण्येवं सद्भिरुह्यानि शास्त्रतः ॥२३६॥ स्वस्तिका कृतिसम्प्राप्तावन्योन्यस्कन्धदेशगौ 1 अरालौ विततौ स्वाभिमुखौ स्यातां यदा तदा ॥ २४० ॥ उत्सङ्ग हस्तमाचष्टाशोकमल्लो नृपाग्रणीः । 243 244 बहुयत्नप्रसाध्येऽर्थे अलङ्कारानुपादाने लज्जादावपि 247 यदि दोनों अराल हस्तों को स्वस्तिक हस्त मुद्रा में करके संमुखावस्था में एक-दूसरे की बाजुओं के ऊपर रख दिया जाय तो उसे महाराज अशोकमल्ल ने, उत्संग हस्त कहा है । स्वस्तिकं केचिदत्राहुर्या दक्षिणदेशगम् ॥ २४१॥ त्वत्र विचक्षणाः । तुषाराश्लेषयोरपि । 246 अधस्तलत्वमप्याहुरन्ये 248 कुछ विद्वान् उक्त हस्त को दक्षिण देशगामी स्वस्तिक कहते हैं । दूसरे विद्वान् उसे अधस्तल भी कहते हैं । सुभ्रु वाम् ॥२४२॥ 249 १०१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः बहु यत्न-साध्य वस्तुं, तुषार, आलिंगन, आभूषण न पहनने और सुन्दरियों की लज्जा आदि के अभिनय में उत्संग हस्त का विनियोग होता है । ९. स्वस्तिक हस्त और उसका विनियोग खटकास्यौ पताकौ वा यद्वारालौ करौ यदा । मणिबन्धस्थितौ स्यातामितरेतरपार्श्वगौ ॥ २४३ ॥ हृदयसंस्थितौ । उत्तानो वामभागस्थौ यद्वा तदा करः स्वस्तिकाख्योऽशोकमल्लेन कीर्तितः ॥ २४४ ॥ 251 यदि दोनों खटकामुख हस्तों या पताक हस्तों अथवा अराल हस्तों को एक-दूसरे की बगल में करके उनकी कलाइयों को बाँध कर उत्तान करके बाँयी ओर या हृदय पर रख दिया जाय, तो उस मुद्रा को अशोक मल्ल ने स्वस्तिक हस्त के नाम से कहा है । विच्युतोऽसौ कामिनीभिरेवमस्त्विति भाषणे । विस्तीर्णे गगनेऽम्भोधिप्रसृतौ च नियुज्यते ॥ २४५॥ कामिनियों के 'अच्छा' ऐसा कहने, विस्तृत आकाश और समुद्र - विस्तार के अभिनय में स्वस्तिक: फैला कर प्रयुक्त करना चाहिए । 250 252 हस्त को १०२ स्वस्तिकाधोमुखौ रात्रौ विच्युतोत्तानितौ दिने । मेधप्रच्छादिते तस्मिन् विच्युताधोमुखाविमौ ॥ २४६ ॥ 253 रात्रि के अभिनय में दोनों स्वस्तिक हस्तों को अधोमुख, दिन के अभिनय में फैला कर उत्तान और मेघाच्छन दिन के अभिनय में फैलाकर अधोमुख रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। १०. दोला हस्त और उसका विनियोग विरलाङ्गुली पताकौ चेल्लम्बमानौ थांसकौ । तदा दोलाभिधो हस्तो यदि दोनों पताक हस्त लम्बायमान तथा शिथिल या ढीले हों और उनकी उँगलियाँ अलग-अलग हों, तो उसे बोला हस्त कहते हैं । - विषादे मदमूच्छंयोः ॥२४७॥ 254 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण व्याधौ च सम्भ्रमे गर्वगतावपि स युज्यते । धीरैः स्तब्धो दोलितो वा पार्श्वयोर्लोकयुक्तितः ॥ २४८ ॥ 255 विषाद, मद, मूर्च्छा, व्याधि, हड़बड़ी तथा गर्वपूर्वक चलने के अभिनय में दोला हस्त का विनियोग होता है। धीर पुरुषों को चाहिए कि दोनों पावों के अभिनय में दोला हस्त को लोक-परम्परा के अनुसार निश्चल या चलायमान, जैसा उचित समझें, प्रयुक्त करें । ११. अवहित्य हस्त और उसका विनियोग शुकतुण्डाभिघौ हस्तौ हृदयक्षेत्रसम्मुखौ । श्रधोमुखौ विधायाधो नीतौ ताववहित्थकः ॥ २४६ ॥ 256 यदि दोनों शुकतुण्ड हस्त हृदय के सामने अधोमुख करके नीचे की ओर ले जाये जाँय तो उसे अवहित्य हस्त कहते हैं । निःश्वासीत्सुक्यदौर्बल्य काय काश्यष्वसौ मतः । सतृष्णे चानुरक्तेऽपि प्रतापे मण्डलेऽपि च ॥ २५० ॥ 257 साँस को बाहर निकालने या साँस लेने, उत्सुकता, दुर्बलता, शरीर-क्षीणता, सतृष्ण, अनुरक्त होने, प्रताप और मण्डल के अभिनय में अवहित्थ हस्त का विनियोग होता है । १२. मकर हस्त और उसका विनियोग यदा पताकौ संश्लिष्टावुपरिस्थौ परस्परम् । उर्ध्वाङ्गुष्ठावधौवक्त्रौ तदासौ मकरः करः ॥२५१॥ 258 यदि दोनों पताक हस्तों को ऊपर उठा कर तथा उनकी हथेलियों को निम्नमुख करके ( अर्थात् एक हथेली की पीठ पर दूसरी हथेली को रख कर ) उन्हें परस्पर मिला दिया जाय और दोनों हाथों के अंगुष्ठ ऊपर की या बाहर की ओर निकले हों, तो उसे मकर हस्त कहते हैं । मकरे च क्रव्यादे नदीपूरे मीने सिंहे च नक्रेऽपि धीरैरेष द्वीपदर्शने । प्रयुज्यते ॥ २५२ ॥ 259 राक्षस, मकर, मछली, सिंह, हाथी, नदी प्रवाह और घड़ियाल के अभिनय में मकर हस्त का विनियोग होता है । १०३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः १३. वर्षमान हस्त और उसका विनियोग .. मृगशीर्षी हंसपक्षौ करौ वा सर्पशीर्षको। पराङ्मुखौ स्वस्तिको चेद्वर्धमानस्तदा करः ॥२५३॥ 260 यदि दोनों मृगशीर्ष या हंसपक्ष अथवा सपशीर्ष हस्तों को पराङमुख (उलटा) करके स्वस्तिकाकार बना दिया जाय तो उसे वर्धमान हस्त कहते हैं। कपाटोद्घाटने त्वेष च्युतस्वस्तिक इष्यते । तादृगेव भवेदेष वक्षसः प्र(विदारणे) ॥२५४॥ 261 किवाड़ खोलने के अभिनय में इस हाथ की स्वस्तिक मुद्रा को खोल कर प्रयुक्त करना चाहिए। छाती फाड़ने के अभिनय में भी उसे उसी रूप में प्रदर्शित करना चाहिए। विना कृतं स्वस्तिकेन केचिदिच्छन्ति तं बुधाः । सीमन्ताभिनये योज्यः स्त्रीभिस्तद्देशगः करः ॥२५५॥ 262 कछ विद्वानों का अभिमत है कि वर्षमान हस्त को स्वस्तिक मुद्रा की सहायता के बिना ही प्रदर्शित करना. चाहिए। सिर की माँग (सीमन्त) के अभिनय में स्त्रियों को चाहिए कि वर्षमान हस्त को वे सीमन्त पर अवस्थित करें। तेरह संयुत हस्तों का निरूपण समाप्त, नृत्तहस्त और उनका विनियोग १ चतुरस्र हस्त और उसका विनियोग समांसकूपरौ वक्षःस्थलादष्टाङ्गुलान्तरौ । स्थितावुरः पुरस्ताच्चेत्प्राङ्मुखौ खटकामुखौ । 263 चतुरस्रो तदायदि दोनों मांसल कुहनियाँ छाती से आठ अंगुल की दूरी पर अवस्थित रहें और दोनों खटकामुख हस्त छाती के सामने पूर्वमुख होकर रहें तब उस मुद्रा को चतुरस्त हस्त कहते हैं। १०४ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण -हारमौलाधाकर्षणे करौ ॥२५६॥ हार और मुकुट आदि के उतारने में चतुरसा हस्त का विनियोग होता है। २. उवृत्त हस्त और उसका विनियोग चतुरस्रौ विधायादावथोद्वेष्टितकर्मणा । 264 हंसपक्षावुरोदेशे कृतावेकस्तयोः करः ॥२५७॥ . व्यावृत्तिक्रिययोध्वं तु गत्वोत्तानो वृजेदधः । .265 प्रथान्यः परिवृत्त्याधोमुखो वक्षो वृजेद्यदि ॥२५८॥ तवृत्तौ करौ स्यातांपहले दोनों हाथों को उद्वष्टित मुद्रा के द्वारा चतुरस्र बना दिया जाय; तदनन्तर उन्हें हंसपक्ष मुद्रा में करके हृदय पर रख दिया जाय। उनमें से एक को व्यावृत्त क्रिया द्वारा ऊपर ले जाकर उत्तानावस्था में नीचे कर दिया जाय । दूसरे हंसपक्ष हस्त को परिवृत्त करके अघोमुख छाती पर रख दिया जाय; तो उस अभिनय मुद्रा को उद्धृत्त हस्त कहते हैं। --तालवृन्तनिदर्शने । 266 पंखे के अभिनय में उद्वृत्त हस्तों का विनियोग होता है। एतावेव परे प्राहस्तालवृन्ताभिधौ करौ ॥२५॥ कुछ नाट्याचार्यों ने उक्त उद्वृत्त हस्तों को तालवृन्त नाम से कहा है। व्यावृत्तपरिवृत्तौ चेत् हंसपक्षौ पुरोमुखौ । 267 तदोवृत्तौ जगुः केचित्यदि दोनों हंसपक्ष हस्तों को व्यावृत्त तथा परिवृत्त करके पूर्व मुख कर दिया जाय तो, कुछ विद्वानों के मत से, उसे उद्धृत्त हस्त कहते हैं। -जयशब्दनिरूपणे ॥२६०॥ .. 'जय' शब्द के उच्चारण में उसका विनियोग होता है। ३. तलमुख हस्त और उसका विनियोग उद्वत्तसंज्ञको हस्तौ त्र्यलो भूत्वा स्वपार्श्वयोः । मिथोऽभिमुखतां यातौ हंसपक्षौ यदा करौ । 268 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः तदा तलमुखौ स्यातांजब दोनों हस्त उद्वत्त में स्थित होकर हंसपक्ष की मुद्रा बनाते हैं और अपने पाश्चों में तिरछे (यस्र) होकर आमने-सामने अवस्थित किये जाते हैं, तब उन्हें तलमुख हस्त कहते हैं। -मधुरे मईलध्वनौ ॥२६१। 269 मईल (मृदंग के समान वाद्ययंत्र) की मधुर ध्वनि के अभिनय में तलमुख हस्तों का विनियोग होता है। ४. नितम्ब हस्त उत्तानोऽधो मुखीभूय क्रमादंसप्रदेशतः । करौ पताको निर्गम्य नितम्बक्षेत्रमागतौ । 270 रेचकं विदधाते च नितम्बौ कथितौ तदा ॥२६२॥ जब पताक की मुद्रा में दोनों हस्त उत्तान तथा अधोमुख होकर क्रमशः दोनों कन्धों से बाहर की ओर निकल कर नितम्ब तक आ जाय और नितम्ब रेचक में हो, तब उन्हें नितम्ब हस्त कहते हैं। ५. केशबन्ध हस्त पताको त्रिपताको वा केशदेशाद्विनिर्गतौ ॥२६३॥ 271 अस्पृशन्तौ करौ पावर्ची पार्श्वदेशसमुत्थितौ । उत्तानाऽधोमुखौ शश्वन्निक्षिप्योपशिरः स्थितौ । 272 पृथगुत्तानितौ चेत् सः (? तौ) केशबन्धौ तदोदितौ ।२६४॥ जब पताक या त्रिपताक मुद्रा में दोनों हस्त पार्श्वदेश से उठकर, दोनों पावों से विलग होकर, उत्तान एवं अधोमुखावस्था में शिर पर पहुँच जाय; फिर वहाँ से निकल कर उन्हें अलग-अलग उत्तान करके बारबार गतिशील करके शिर के समीप अवस्थित किया जाय, तब उन्हें केशबन्ध हस्त कहते हैं। ६. उत्तानवञ्चित हस्त अंसभालकपोलानां मध्येऽन्यतमदेशगौ । 273 अन्योन्याभिमुखावीषत्तिर्यञ्चौ कूपरांसयोः ॥२६५॥ मनाक्कलितयोरुतलौ स्थित्वा क्षणं करौ।। 274 त्रिपताको प्रचलितौ प्रोक्तावुत्तानवञ्चितौ ॥२६६॥ १०६ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण जब दोनों त्रिपताक हस्त कन्धा, ललाट तथा कपोल (गाल) में से किसी एक पर ले जा कर परस्पर आमने-सामने कुछ तिरछे होकर किञ्चिन्मात्र पकड़ी हुई कुहनी तथा कन्धे के ऊपर क्षण भर ठहर कर चलायमान हो जाय, तब उन्हें उत्तानवञ्चित हस्त कहते हैं । ७. लताकर हस्त पार्श्वयोर्दोलितौ तिर्यक् प्रसृतौ च यदा करौ । पताको त्रिपताकौ वा तदा हस्तौ लताकरौ ॥२६७॥ जब दोनों पताक या विपताक हस्त दोनों पाओं (अगल-बगल) में तिरछे फैले तथा थिरकते रहें, तब उन्हें लताकर हस्त कहते हैं। ८. करिहस्त दोलितोत्थो लताहस्तः दोलावत्पार्श्वयोर्यदि। 276 अन्यः कर्णस्थितो यत्र खटकास्योऽथवा करः ॥२६॥ त्रिपताकस्तदा प्राहुः करिहस्तमिमं बुधाः । 277 इहैकवचने मानं मुनेर्वचनमेव हि ॥२६॥ जब ऊपर उठा हुआ एक लता हस्त दोनों पाश्वों में झूले की तरह झूले और दूसरा हाथ खटकास्य या त्रिपताक मुद्रा में कान पर रहे, तब बुधजन उसे करिहस्त कहते हैं । यहाँ एकवचन (अर्थात् एक ही हस्त के प्रयोग) में भरत मुनि का वचन प्रमाण है। . ९. रेचित हस्त प्रसारितौ तथौत्तानतलौ हस्तौ तु रेचितौ। 278 द्रुतभ्रान्तौ हंसपक्षावथवा रेचितौ मतौ ॥२७॥ यद्वानयोमिलित्वामू लक्ष्मणी लक्ष्म सम्मतम् । हिरण्यकशिपोर्वक्षो दारणे नहरेर्मतौ ॥२७१॥ जब दोनों करतलों को उत्तान कर फैला दिया जाय तो उन्हें रेचित हस्त कहते हैं । अथवा हंसपक्ष हस्तों को द्रुत गति से घुमाने पर वे रेचित हस्त बन जाते हैं । अथवा इन दोनों हस्तों को मिला कर प्रयोग करने में वे लक्ष्मण हस्त कहलाते हैं, जो लक्ष्मण को, और हिरण्यकशिपु के वक्षःस्थल को विदीर्ण करने में नृसिंह भगवान को अभीष्ट थे। 279 १०७. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्याध्यायः १०. अर्थरेचित हस्त चतुरनस्तयोरेकश्वेत्तदा त्वर्धरेचितौ ॥२७२॥ 280 (उक्त रेचित हस्तों में) एक (बाँया) हाथ चतुरस्त्र में और दूसरा (दाँया) रेचित मुद्रा में हों तो उन्हें अर्धरचित हस्त कहते हैं। ११. पल्लव हस्त व्यावृत्या तु भुजावूवं प्रसार्य परिवृत्तितः । अधोमुखौ पताको चेत्स्वस्तिको पल्लवौ तदा ॥२७३॥ 281 जब दोनों भुजाओं को ऊपर पीछे की ओर घुमाकर फैला दिया जाय और फिर दोनों हस्तों को पताक मुद्रा में घुमाते हुए अधोमुख करके स्वस्तिक बना दिया जाय, तब उन्हें पल्लव हस्त कहते हैं । शिथिलौ मेनिरे केचित् त्रिपताको कराविह । यदा नतोन्नतौ स्यातां पद्मकोशाभिधौ करौ ॥२७४॥ 282 शिथिलौ मणिबन्धस्थौ पुरो यद्वा स्वपार्श्वयोः । . तदाहुः पल्लवौ केचित् नृत्तविद्याविशारदाः । पताको तु बुधाः प्राहुः स्थाने तो पद्मकोशयोः ॥२७॥ कछ नाट्याचार्यों के मत से यदि त्रिपताक हस्तों को शिथिल कर दिया जाये तो उन्हें पल्लव हस्त कहते हैं। कुछ नृत्तविद्याविशारदों का कहना है कि यदि पदकोश दोनों हस्तों को नतोन्नत कर दिया जाय और वे सामने कलाइयों पर या दोनों पावों में शिथिल रहें तो वे पल्लव हस्त कहलाते हैं । किन्तु कुछ विद्वानों ने पद्मकोश हस्तों के स्थान पर पताक हस्तों को पल्लव हस्त कहा है। १२. ललित हस्त शिरःक्षेत्रे यदा प्राप्तौ पल्लवौ ललितौ तदा । 284 चतुरस्रक्रियोपेतौ शीर्षस्थावचलौ परे ॥२७६॥ जगुरेतावथान्ये तु करौ तौ खटकामुखौ । 285 शनैर्गत्वा शिरोदेशं लग्नाग्राविति मेनिरे ॥२७७॥ जब दोनों पल्लव हस्तों को शिर पर रख दिया जाय, तब उस मुद्रा को ललित हस्त कहते हैं। दूसरे आचार्यों का कहना है कि जब दोनों चतुरस हस्त निश्चल हो कर शिर पर अवस्थित रहें, तब उन्हें ललित हस्त कहा १०८ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण जाता है। किन्तु अन्य आचार्यों का अभिमत है कि जब दोनों खटकामख हस्तों को धीरे से ले जाकर उनके अग्रभाग को शिर पर संलग्न कर दिया जाय तब उन्हें पल्लव हस्त कहते हैं । १३. पक्षवञ्चितक हस्त त्रिपताको कटीमूनि धृतानों पक्षवञ्चितौ ॥२७८॥ 286 जब दोनों हाथ त्रिपताक मुद्रा में, अग्रभाग से एक कमर पर और दूसरा शिर पर रखा हुआ हो, तब उन्हें पक्षवञ्चितक हस्त कहते हैं । १४. पक्षप्रद्योतक हस्त एतावेव परावृत्तौ पक्षप्रद्योतको करौ । उत्तानितौ केचिदिमौ परे तूर्ध्वगताङ्गुली ।। 287 पराङ्मुखौ च पूर्वाभ्यां प्राहुरेतावनन्तरम् ॥२७॥ यदि पक्षवञ्चितक हस्तों को उलटा कर दिया जाय तो उन्हें पक्षप्रद्योतक हस्त कहते हैं । कुछ आचार्य दोनों पक्षवञ्चित हस्तों को उत्तान कर देने पर पक्षप्रद्योतक हस्त कहते हैं । अन्य आचार्यों का मत है कि उक्त पक्षवञ्चितक उत्तान हस्तों के विपरीत यदि उनकी उंगलियों को ऊर्ध्वमुख कर दिया जाय तो उन्हें पक्षप्रद्योतक हस्त कहते हैं। १५. ऊर्ध्वमण्डलिन् हस्त व्यावत्तिक्रियया वक्षःस्थलात्प्राप्य ललाटकम् । 288 . ' तत्पाश्वमागतौ हस्तौ विततौ मण्डलभ्रमात् ॥२८॥ ऊर्ध्वमण्डलिनों प्रोक्तावथ लक्ष्मापरे जगुः । 289 ललाटप्राप्तिमर्यादमर्थतौ नृतकोविदाः । चक्रवतिनिकेत्याहुलॊकशास्त्रानुसारतः ॥२८१॥ 290 जब दोनों हाथों को घुमाते हुए वक्षःस्थल से ललाट पर और फिर बगल में आ जाँय तथा मण्डलकार में घमते हए फैल जाय, तब उन्हें ऊर्ध्वमण्डलिन हस्त कहा जाता है। दूसरे आचार्यों का कहना है कि उनका ललाट तक पहुंचना ही पर्याप्त है। किन्तु नृत्तविद्याविशारदों का अभिमत है कि लोक और शास्त्र के अनुसार (चक्राकृत होने के कारण) उन्हें चक्रवर्तिनिका नाम से भी कहा जाता है। १०९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः १६. पार्श्वमण्डलिन् हस्त पताकीकृत्यतावेव यदा पार्श्व स्थितौ करौं । मिथः सम्मुखतां प्राप्तौ पार्श्वमण्डलिनौ तदा ॥२८२॥ 29] केचिदावेष्टिताख्येन कर्मणा निजपार्श्वयोः । प्राविद्धभ्रामितभुजौ पार्श्वमण्डलिनौ जगुः ॥२८३॥ 292 जब दोनों ऊर्ध्वमण्डलिन हस्तों को पताक मुद्रा में करके उन्हें परस्पर सम्मुख करके पार्श्व में रख दिया जाय, तब उन्हें पार्श्वमण्डलिन् हस्त कहा जाता है। कुछ आचार्यों का मत है कि यदि वेष्टित क्रिया के द्वारा दोनों भुजाओं को कुटिल गति से घुमाया (आबिद्धभ्रमित) जाय, तब उन्हें पार्श्वमण्डलिन् हस्त कहते हैं । १७. उरोमण्डलिन् हस्त उद्वेष्टितं विधायापवेष्टितं चैकदा करौ । स्वपार्वे वक्षसो जातौ क्रमान्मण्डलवद् भ्रमात् ॥२८४॥ 293 व्युत्क्रमाच्चेदुरः प्राप्तावुरोमण्डलिनौ तदा । एतयोभ्रमणं वक्षःस्थयोः केचन मन्वते ॥२८५॥ 294 उरोवर्तनिकात्वेन प्रसिद्धौ नृत्तधीमताम् । पताको हंसपक्षौ वा ज्ञेयौ मण्डलिषु त्रिषु ॥२८६॥ 295 जब एक हाथ उदवेष्टित और दूसरा अपवेष्टित हो; उन्हें अपने पार्श्व में वक्ष पर क्रमश: मण्डलाकार में घुमाते हुए फिर वक्ष पर रख दिया जाय तब उन्हें उरोमण्डलिन् हस्त कहा जाता है। कुछ आचार्यों का कहना है कि दोनों हाथों को छाती पर ही घुमाया जाय । किन्तु नृत्तविदों का अभिमत है कि तीनों प्रकार के उरोमण्डलिन् हस्तों में पताक या हंसपक्ष हस्त उरोवर्तनिका रूप में प्रसिद्ध है। १८. उरःपावधिमण्डल हस्त पावें प्रसारितस्त्वेको वक्षस्युत्तानितोऽपरः । व्यावृत्त्योरःस्थलायातः स्वपार्श्वमलपल्लवः ॥२८७॥ 296 एवं यदा तदैवान्यः क्रिययावेष्ठितास्यया । संप्राप्यारालतां याति वक्षस्येवं परः करः । अभ्यासाकथितावेवमुरःपावर्धिमण्डलः ॥२८॥ 297 ११० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण जब एक हाथ पार्श्व में फैला दिया जाय और दूसरा उत्तान करके छाती पर रख दिया जाय; फिर 'करके छाती से अपने पार्श्व में ले आया जाय; इस प्रकार जब एक हाथ आवेष्टित अलपल्लव हस्त को व्यावृत क्रिया द्वारा अराल मुद्रा धारण कर वक्ष पर और दूसरा भी आवृत्ति द्वारा इसी स्थिति में पहुँच जाय; तब उन्हें उरः पाश्वर्वमण्डल हस्त कहा जाता है। ( इसमें एक हाथ अलपल्लव में छाती पर और दूसरा अराल में पार्श्व पर अवस्थित होता है) । १९. नलिनीपद्मकोश हस्त करौ यदा । व्यावृत्ति क्रियया यत्र पद्मकोशौ प्रश्लिष्टस्वस्तिकीभूय मिथः स्यातां पराङ्मुखौ ॥ २८६ ॥ तदा स्तो नलिनीपद्मकोशावथ परेऽन्यथा । पद्मकोशाभिधौ हस्तावितरेतरसम्मुखौ ॥२०॥ मणिबन्धसमायुक्त भूत्वा प्राप्तौ पृथग्यदा । व्यावृत्तौ परिवृत्तौ च तदैताविति मेनिरे ॥२१॥ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां करौ पद्मकोशकौ । जानुनोनिकटं प्राप्ताविमौ केचित्तदा जगुः ॥२६२॥ अंसयोः कुचयोर्वापि निकटस्थौ विर्वात्ततौ । इमौ कीर्तिधरः प्राह पद्मवर्तनिकामपि ॥२९३॥ जब दोनों पद्मकोश हस्त व्यावृत्ति क्रिया द्वारा स्वस्तिक मुद्रा में परस्पर पृथक् होकर विमुख स्थिति हें तब उन्हें नलिनीपद्मकोश हस्त कहा जाता है । अन्य आचार्यों का कहना मे कि जब दोनों पद्मकोश हस्त पृथक्-पृथक् एक-दूसरे के आमने-सामने रहें और मणिबन्ध से युक्त होकर व्यावृत्त तथा परिवृत्त हों, तब उन्हें नलिनीपद्मकोश कहा जाता है । कुछ विद्वानों का अभिमत है किजब दोनों पद्मकोश हस्त व्यावृत्त तथा परिवृत्त क्रिया द्वारा घुटनों के निकट पहुँच जाँय, तब उन्हें नलिनीपद्मकोश कहा जाता है । आचार्य कीर्तिघर का कहना है कि जब दोनों पद्मकोश हस्तों को कन्धों और कुचों के समीस्थ करके घुमाया जाता है, तब उन्हें पद्मवर्तनिका भी कहा जाता है । २०. मुष्टिस्वस्तिक हस्त तदापरम् । श्ररावर्तनापूर्व करमेकं कृत्वालपल्लवं शश्वद् विभूतः स्वस्तिकाकृतिम् ॥ २६४॥ 298 299 300 301 302 303 १११ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः खटकास्यौ यदा हस्तौ मुष्टिकस्वस्तिको तदा । कपित्थावथवा मुष्टिशिखरौ स्वस्तिकाकृती ॥२६॥ यदा स्यातां तदा प्रोक्तौ मुष्टिकस्वस्तिको करौ। 305 कुश्चितौ मुष्टिरेकश्चेत् खटकास्यः परोऽश्चितः ॥२९॥ मुष्टिकस्वस्तिकावेवं प्राह कीर्तिधरस्तदा । 306 खगवर्तनिकेत्याहुरनयो म पण्डिताः ॥२६७॥ एक हाथ को अराल मुद्रा में और दूसरे को अलपल्लव मद्रा में बनाकर जब दोनों स्वस्तिक का आकार धारण करें, तब वे दोनों हस्त मुष्टिस्वस्तिक कहलाते हैं । अथवा जब दोनों कपित्थ हस्तों को मुष्टि तथा शिखर मुद्राओं में करके स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित किया जाय, तब उन्हें मुष्टिस्वस्तिक कहा जाता है। आचार्य कीर्तिघर का कहना है कि जब एक मुष्टि हस्त कुञ्चित और दूसरा खटकास्य हस्त अंचित हो, तब उन्हें मुष्टिस्वस्तिक कहा जाता है । कुछ विद्वानों ने मुष्टिस्वस्तिक हस्त को खड्गवर्तनिका हस्त नाम से कहा है। २१. वलित हस्त कूर्परस्वस्तिकाकारौ लताख्यौ वलितौ करौ । 307 परे तौ विधुतौ भूनि मुष्टिकस्वस्तिको जगुः ॥२६॥ केचिदन्योन्यलग्नानौ पृष्ठतो नम्रकूपरौ । 308 ऊर्ध्वानौ खटकास्यौ च तदाहुर्वलितौ करौ ॥२६॥ जब दोनों हाथों से कुहनी पर स्वस्तिक से युक्त लता हस्तों का प्रयोग किया जाय, तब उन्हें वलित हस्त कहा जाता है। दूसरे आचार्यों का मत है कि जब दोनों वलित हस्तों को शिर पर कम्पित कर दिया जाय तब उन्हें मुष्टिस्वस्तिक कहा जाता है । कुछ आचार्यों का कहना है कि जब दोनों खटकास्य हस्तों के अग्रभाग एक-दूसरे से सट जॉय और कुहनियाँ पीछे की ओर झुकी रहें तथा अग्रभाग ऊर्ध्वमुख रहें, तब उन्हें वलित हस्त कहा जाता है। २२. दण्डपक्ष हस्त यदैको हंसपक्षस्तु व्यावृत्त्या संश्रयेदुरः । 309 बाहुः प्रसारितस्तिर्यक् तदान्यः परिवर्तितः ॥३०॥ ११२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण तद्वदङ्गान्तरेणापि दण्डपक्षो करौ मतो । 310 परे प्रसारणं वाहोर्युगपत्प्रतिपेदिरे ॥३०१॥ जब एक हंसपक्ष हस्त को व्यावृत्त करके वक्षस्थल पर रख दिया जाय, बाहु को तिरछा करके फैला दिया जाय और दूसरे हाथ को भी इसी मुद्रा में अवस्थित किया जाय, तब उन्हें दण्डपक्ष हस्त कहते हैं। कुछ आचार्यों का मत है कि दण्डपक्ष हस्त मुद्रा में दोनों भुजाओं को एक साथ फैलाना चाहिए। २३. गडपक्षक हस्त कटीदेशे करौ न्यस्तौ पताको चेदधोमुखौ। 311 तिर्यश्चावुत्पतन्तौ द्राग्गतौ गरुडपक्षको ॥३०२॥ जब दोनों पताक हस्तों को अघोमुख करके काटि पर रख दिया जाय और फिर वे तिरछे होकर तेजी से ऊपर की ओर उड़े या उठे, तब उन्हें गरुडपक्षक हस्त कहा जाता है। २४. अलपत्र हस्त कर्मणोद्वेष्टिताख्येन वक्षःस्थावलपल्लवी । 312 अंसान्तिकं ततो गत्वा प्रसृतावलपद्मको ॥३०३॥ जब दोनों अलपल्लव हस्तों को उद्वेष्टित क्रिया द्वारा वक्षःस्थल पर रख दिया जाय; फिर कन्धे के पास जाकर उन्हें फैला दिया जाय, तब वे अलपदम हस्त कहे जाते हैं। २५. उस्वण हस्त वक्षसः स्कन्धयोरूध्वं प्रसार्य स्कन्धसम्मुखौ। 313 विलोलाङ्गुलिकावेतौ कथिताबुल्वणौ करौ ॥३०४॥ जब दोनों हाथों को छाती और कन्धों के ऊपर फैलाकर कन्धों के सम्मुख उनकी उँगलियों को कम्पित कर दिया जाय, तो उन्हें उल्वण हस्त कहते हैं । २६. स्वस्तिक हस्त अश्लिष्टस्वस्तिको हंसपक्षौ चेत्स्वस्तिकौ तदा ॥३०॥ 314 आश्लष्ट (पृथक्) होकर जब दोनों स्वस्तिक हस्त हंसपक्ष मुद्रा में अवस्थित हों, तब उन्हें कर स्वस्तिक हस्त कहते हैं। २७. विप्रकीर्ण हस्त विच्युतौ स्वस्तिकावेतौ विप्रकीर्णौ करौ मतौ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः कुचयोरग्रतो गतौ । नताग्रावथवोच्चाग्रौ विप्रकीर्णौ केचिदाहु पक्षौ पराङ्मुखौ ॥३०६॥ उक्त स्वस्तिक हस्तों को जब विच्युत (गिरा दिया) किया जाय, तब उन्हें विप्रकीर्ण हस्त कहा जाता है । कुछ आचार्यों का मत है कि जब हंसपक्ष दोनों हाथों के अग्रभाग नत या उन्नत हों, और पराङ्मुख होकर कुचों के अग्रभाग में स्थित हों, तब उन्हें विप्रकीर्ण हस्त कहा जाता है । २८. विद्धव हस्त सविलासौ पताकौ । भुजांसकूर्पराग्रेषु कृत्वा व्यावर्तने स्यातां त्वरितं चेदधोमुखौ । तदा त्वाविद्धवत्राख्यौ विक्षेपवलने करौ ॥३०७॥ 315 संलग्नमध्यमांगुष्ठौ चतुरस्राकृती क्रमात् । तिर्यक्प्रसारितौ सर्पशीर्षौ चेत्तर्जनीं बहिः ॥ ३०८ ॥ प्रसारितां दधानौ यौ सूच्यास्यौ तौ तदा मतौ । विधायादौ पताकौ द्वौ व्यावृत्तिपरिवृत्तितः ॥ ३०६॥ भ्रान्त्वा प्रसारणं केचिद् विशेषमिह मन्वते । परे सर्पशिरोहस्तौ स्वस्तिकाकारतां गतौ । मध्यप्रसारिताङ्गुष्ठौ जगुः सूच्यास्यलक्षणम् ॥३१०॥ 316 317 जब भुजा, कन्धा और कुहनी के अग्रभाग में दोनों पताक हस्त हाव-भाव पूर्वक व्यावर्तित होकर ( मुड़ कर ) शीघ्र अघोमुख हो जाँय, तब, वक्रगति वाले उन दोनों हाथों को आविद्धवत्र कहा जाता है । २९. सूच्यास्य हस्त 318 319 320 जब दोनों सर्पशीर्ष हस्तों की मध्यमा और अंगुष्ठ उँगलियाँ सटी रहें, तर्जनी बाहर की ओर फैली रहे और दोनों हाथ चतुष्कोण के आकार में क्रमशः तिरछे फैले रहें, तब उन्हें सूच्यास्य कहा जाता है । कुछ आचार्यों का कहना है कि पहले दोनों हाथों की पताक मुद्रा बना कर जब उन्हें व्यावृत्त तथा परिवृत्त क्रिया से घुमाकर विशेष रूप से फैला दिया जाय, तब उन्हें सूच्यास्य कहा जाता है। दूसरे आचार्यों का मत है कि जब दोनों सर्पशीर्ष हस्तों को स्वस्तिक मुद्रा में बनाकर उनके दोनों अँगूठे को बीच से फैला दिया जाय, तब वे सूपास्य हस्त कहलाते हैं । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरल. 322 324 ३०. अरालखटकामुख हस्त पताको स्वस्तिकीकृत्य व्यावृत्तपरिवत्तितौ । अलपद्मावथे(? अवदे)वाथ पद्मकोशौ करावुभौ ॥३११॥ ऊर्ध्वमुखौ क्रमात् कृत्वा व्यावृत्तपरिवत्तितौ । अथारालं करं वाममुत्तानं रचयेत्ततः ॥३१२॥ यदान्यं खटकावक्र चतुरस्रमधोमुखम् । 323 कुर्यादेवं तदा हस्तावरालखटकामुखौ ॥३१३॥ अथवा स्वस्तिकाकारावरालखटकामुखौ । विधायादावरालौ चेद्रेचितौ खटकामुखौ ॥३१४॥ तदा वा भवतो हस्तावरालखटकामुखो । 325 वितर्के सविवादानां वणिजामेष युज्यते ॥३१॥ वक्षोग्रस्थः पुरोवकः खटकास्याभिधः करः । उन्नतानः परोऽरालः तिर्यक्किञ्चित्प्रसारितः ॥३१६॥ पार्श्वव्यत्यासतो यद्वा निजे पार्वे करौ यदा । । 327 तालान्तरौ स्थितौ स्यातां तदैतावपरे जगुः ॥३१७॥ पहले दोनों पताक हस्तों को स्वस्तिकाकार बना कर पीछे की ओर मोड़ दिया जाय तथा घुमा दिया जाय । फिर दोनों पद्मकोश हस्तों को अलपन की तरह ऊर्ध्वमुख करके उन्हें व्यावृत्त तथा परिवर्त कर दिया जाय । तदनन्तर बाँये अराल हस्त को उत्तान और दाँये खटकामुख हस्त को चतुरस्र तथा अधोमुख कर दिया जाय । इस प्रकार की अभिनय-मुद्रा को अराल खटकामुख कहते हैं । अथवा दोनों स्वस्तिक हस्तों को पहले अराल तथा खटकामुख बना दिया जाय; या पहले दोनों को अराल बना कर रेचित किया जाय, अथवा पहले खटकामुख बना कर रेचित किया जाय, तो वे अरालखटकामख कहलाते हैं। विवाद करते हुए बनियों के आशय में इन हाथों का प्रयोग होता है। अन्य आचार्यों का अभिमत है कि जब एक खटकामुख हस्त छाती के अग्रभाग में स्थित हो; वह वक्र होकर पूर्वाभिमुख हो; उसका अग्रभाग उन्नत हो; और दूसरा अराल हस्त तिरछा करके कुछ फैला हो ; अथवा 326 १५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुस्याध्यायः पार्श्व-परिवर्तन के द्वारा दोनों हाथों को अपने पार्श्व में ताल-मात्रा के अन्तर पर अवस्थित किया जाय, तो उन्हें अरालखटकामुख कहते हैं। तीस नृत्तहस्तों का निरूपण समाप्त हस्ताभिनय का उपसंहार हस्ताभिनय विधान स्थानादिन्यासभेदेन सम्भवन्तोऽप्यनेकधा । 328 कियन्तोऽपि मया प्रोक्ताः करा विस्तरभीरुणा ॥३१॥ अशोकमल्ल का कहना है कि स्थानादिकृत (स्थान, समय, अवसर, व्यक्ति तथा वस्तु आदि) भेद से हस्ताभिनयों के अनेक प्रकार हो सकते हैं; किन्तु विस्तार-भय से यहाँ मैंने उनमें से कुछ ही निरूपित किये हैं। दृष्टिभ्र मुखरागाद्यरुपाङ्गरपि पोषिताः । 329 प्रत्यङ्गश्च करा योज्या रसभावप्रकाशकाः ॥३१६॥ (अभिनेताओं को चाहिए कि वे) दृष्टि, 5 और मुख आदि उपांगों और (वक्ष, पार्श्व, हाथ आदि) प्रत्यंगों से पोषित तथा रसों और भावों के प्रकाशक हाथों का प्रयोग करें। अभिनयेषत्तमेषु भालस्था मध्यमेषु तु । 330 उत्तम अभिनयों में हाथ भाल पर, मध्यम अभिनयों में (संभवतः हृदय पर) अवस्थित होना चाहिए। उत्तमे निकटस्थाः स्युर्मध्यस्थाः मध्यमेषु च ॥३२०॥ मध्यमे सात्त्विके प्रोक्तो मध्यमोऽथाल्पसात्त्विके । 331 प्रचुरः स बुधरेवं प्रचारस्त्रिविधस्मृतः ॥३२१॥ महापुरुषों का अभिनय करने में हाथों को निकटवर्ती और मध्यम पुरुषों के अभिनय में मध्य में होना चाहिए । मध्यम सात्त्विक भावों के प्रदर्शन में हाथों का मध्यम प्रकार से प्रयोग करना चाहिए । अल्प सात्त्विक १. यहां कुछ चरण छूट गये प्रतीत होते हैं । देखिए-संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक २४९-९२ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त प्रकरण (अर्थात् अधम लोगों) के अभिनय में हस्त-प्रचार के विभिन्न रूपों का उपयोग करना चाहिए। इस प्रकार विद्वानों ने हस्ताभिनय के तीन प्रकार (उत्तम, मध्यम और अधम) बताये हैं । नियोज्यास्तूत्तमः पात्रः प्रत्णाधुपबृंहिताः । 332 ससौष्ठवाः सुलक्ष्माणः करास्तमध्यमैः पुनः ॥३२२॥ सुव्यक्तलक्षणाः कार्याः सौष्ठवाधिष्ठितास्तथा । 333 नीचस्तस्ते प्रयोक्तव्याः लोकवृत्तसमाश्रयाः ॥३२३॥ श्रेष्ठ अभिनेताओं को प्रत्यंग आदि से परिपुष्ट, सुन्दर तथा सुलक्षण युक्त हस्तों का प्रयोग करना चाहिए । मध्यम अभिनेताओं को सुलक्षण तथा सुन्दर हस्तों का उपयोग करना चाहिए । इसी प्रकार निकृष्ट अभिनेताओं को लोक-प्रचलित (सामान्य) हस्तों का प्रयोग करना चाहिए। मच्छिते तन्द्रिते भीते व्याकुले च जुगुप्सिते ।। 334 ग्लाने जरादित सुप्ते ज्वरिते शोकपीडिते ॥३२४॥ शीतार्ते व्याधिते मते विषण्णोन्मत्तयोरपि । 335 चिन्तान्विते प्रमत्तेऽपि निश्चेष्टे तापसेऽपि च ॥३२५॥ न कराभिनयः कार्य इत्युक्तं पूर्वसूरिभिः । 336 पूर्वाचार्यों का अभिमत है कि मूछित, तन्द्रित, भयभीत, व्याकुल ,निन्द्रित, ग्लानि से युक्त, बृद्धावस्था-पीड़ित, सुप्त, ज्वरग्रस्त, शोकान्वित, शीत-पीड़ित, रोगग्रस्त, मत्त, दुःखी, मदोन्मत्त, चिन्तातुर, पागल, निश्चेष्ट और तपस्वी आदि के भावाभिव्यंजन में हस्ताभिनय नहीं करना चाहिए (अपितु सात्विक भावों द्वारा ही उनका प्रदर्शन करना चाहिए )। ये करास्त्वान्तरं भावं सूचयन्तीह ते मताः । मूच्छितादिष्वपि प्रायः कराः कर्कटकादयः ॥३२६॥ 337 जो हस्त आन्तरिक भावों को प्रकट करें वे अभीष्ट एवं उचित होते हैं। प्रायः कर्कट आदि हस्त मूच्छित आदि के भावाभिव्यंजन के लिए उपयुक्त समझे जाते हैं। ___ हस्ताभिनय प्रकरण समाप्त ११७ Page #128 --------------------------------------------------------------------------  Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण | दो Page #130 --------------------------------------------------------------------------  Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्षाभिनय के भेद अङ्गाभिनय और उनका विनियोग पाँच प्रकार का वक्षाभिनय वक्षः प्रकम्पितम् । समं निर्भुग्नमाभुग्न तथा उद्वाहिताभिधं चेति वक्षः पञ्चविधं स्मृतम् ॥ ३२७॥ वक्ष पाँच प्रकार का कहा गया है : १ सम, २. निर्भुग्न, ३. आभुग्न, ४. प्रकम्पित और ५. उद्वाहित । १. सम और उसका विनियोग यद्वक्षः 'सौष्ठवोपेतं चतुरस्राङ्गसंयुतम् । स्वभावस्थं समं प्रोक्तं स्वभावस्य निरूपणे ॥ ३२८ ॥ 339 जो वक्ष सुन्दर, सुडौल, सब अंगों के विन्यास से युक्त और स्वाभाविक या सहज हो, उसे सम कहा जाता है । स्वभाव के निरूपण में उसका विनियोग होता है । २. निर्भुग्न और उसका विनियोग पुरःस्तब्धमुरो यदुन्नतं सत्योक्तिस्तम्भमानेषु गर्वोत्सेके भाषणे च प्रहर्षादिदमिष्यते ॥ ३२६॥ निर्भुग्रमीरितम् । विस्मयदर्शने । तथा जो पीठ स्तब्ध और वक्ष उन्नत हो, उसे निर्भुग्न कहा जाता है । सत्यवचन, स्तम्भन, मान, विस्मय, गर्व और दर्पोक्ति के अभिनय में इस वक्ष का अत्यन्त हर्ष से विनियोग होता है । ३. आभुग्न और उसका विनियोग १६ 338 यन्निम्नं शिथिलं शोकहृच्छल्ययोः व्याधिभीतिविषादेषु 342 जो वक्ष निम्न और शिथिल हो उसे आभुग्न कहते हैं। शोक, हृदय में शल्य के समान चुभने वाली बात, १२१ वक्षस्तदाभुग्नमुदीरितम् । शीतमूर्च्छयोर्गर्वहर्षयोः ॥३३०॥ लञ्जासम्भ्रमयोरपि । 340 341 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः शीत, मूर्छा, गर्व, हर्ष, व्याधि, भय, विषाद, लज्जा और ससंभ्रम (उत्तावली) के भाव-प्रदर्शन में इस वक्ष का विनियोग होता है। ४. प्रकम्पित और उसका विनियोग निरन्तरोत्क्षेपणैर्यत्कम्पितं तत्प्रकम्पितम् । भीतिकासश्रमश्वासहिक्काहासेषु रोदने ॥३३१॥ 343 जो वक्ष बार-बार ऊपर उठाकर प्रकम्पित किया जाय, उसे प्रकम्पित कहते हैं । भय, खांसी, श्रम, सांस, हिचकी, हँसी और रोने के अभिनय में इस वक्ष का नियोग होता है । ५. उद्वाहित और उसका विनियोग यनिष्कम्पमृत्क्षिप्तं तदुद्वाहितमोरितम् । जृम्भोच्चवीक्षणे दीर्घोच्छ्वासाभिनयने च तत् ॥३३२॥ 344 जो वक्ष कम्पन-रहित हो तथा धीरे से चालित किया जाय, उसे उद्वाहित कहते हैं । जम्हाई लेने, ऊपर देखने और लम्बी साँस खींचने के अभिनय में इस वक्ष का विनियोग होता है। पाँच प्रकार का पाश्र्वाभिनय पाश्र्वाभिनय के भेद विवर्तिताभिधमथापसृतं च प्रसारितम् । नतं चोन्नतमेवेति पावं पञ्चविधं भवेत् । पार्श्व के पांच भेद हैं : १. विवर्तित, २. अपसृत, ३. प्रसारित, ४. नत और ५. उन्नत । १. वितित और उसका विनियोग विवर्तितं परावृत्तौ भवेत् त्रिकविवर्तनात् ॥३३३॥ यदि कटिदेश को घुमा दिया जाय, तो उसे विवर्तित पार्श्व कहते हैं। पीछे की ओर मुड़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. अपसृत और उसका विनियोग अपसृतं तन्निवृत्त्या स्यात्पार्श्वस्य विवर्त्तने ॥३३४॥ 348 यदि कटिदेश की निवृत्ति (अर्थात् उसको विवर्तित में घुमाकर जहाँ ले जाया गया हो, वहाँ से लौटाने में) की जाय तो उसे अपसत पार्श्व कहते हैं । पार्श्व को घुमाने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। 345 १२२ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अंग प्रत्यंग प्रकरण ३. प्रसारित और उसका विनियोग प्रसारितं मुदादौ तत्पार्श्वयोर्यत्प्रसारणात् ॥३३॥ यदि दोनों पाश्वों को फैला दिया जाय, तो उसे प्रसारित पार्श्व कहते हैं। हर्ष आदि अभिनय में उसका विनियोग होता है। . ४. नत और उसका विनियोग नतं तु न्यञ्चितस्कन्धनितम्बमुपसर्पणे ॥३३६॥ 347 यदि कन्धा और नितम्ब को झका दिया जाय तो उसे नत पार्श्व कहते हैं। किसी के पास ( कुछ वस्तु ) ले जाने के अभिनय में इस पार्श्व का विनियोग होता है। ५. उन्नत और उसका विनियोग । उन्नतं तद्विपर्यासाकथितं त्वपसर्पणे ॥३३७॥ . नत के विपरीत यदि कन्धा और नितम्ब को ऊपर उठा दिया जाय तो उसे उन्नत पार्श्व कहते हैं । भागने के अभिनय में इस पार्श्व का विनियोग होता है । पाँच प्रकार का कटि अभिनय कटि अभिनय के भेद कम्पितोद्वाहिता छिन्ना विवृत्ता रेचतापि च । 348 कटिः पञ्चविधा ज्ञेया वीरसिंहसुतोदिता ॥३३॥ अशोकमल्ल ने कटि के पांच प्रकार बताये हैं १. कम्पिता, २. उद्वाहिता, ३. छिन्ना, ४. विवृत्ता और ५. रेचिता। १. कम्पिता और उसका विनियोग पार्वे गतागते शीघ्रं दधती कम्पिता कटिः । 349 कुब्जादिगमनप्रोक्ताऽशोकमल्लेन भूभुजा ॥३३॥ यदि कटि को शीघ्रता से एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व में ऊपर-नीचे कर दिया जाय, तो उसे कम्पिता कहते हैं । कुबड़े, बौने आदि की गति के अभिनय में इस कटि का विनियोग होता है । २. उवाहिता और उसका विनियोग पार्श्वद्वयेन या किञ्चिच्चलता तूपलक्षिता । 360 सोद्वाहिता कटी लीलागतेषु गविता स्त्रियाः ॥३४०॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः दोनों पाश्वों से किंचित् चलते हुए लक्षित होने वाली कटि को उद्ववाहिता कहते हैं। स्त्री की लीलागति (विलासपूर्वक चलने) के अभिनय में इस कटि का विनियोग होता है। ३. छिन्ना और उसका विनियोग मध्यस्य वलनाच्छिन्ना पात्रे तिर्यङमुखे मता। 351 व्यावृत्तप्रेक्षणादौ स्याद् व्यायामे सम्भ्रमेऽपि च ॥३४१॥ मध्य भाग से मुड़ी या धूमी हुई कटि को छिन्ना कहते हैं। तिरछे मुख वाले अभिनेता, घूमकर देखने आदि, व्यायाम और उत्तावलीपन के अभिनय में इस कटि का विनियोग होता है। ४. विवृत्ता और उसका विनियोग परागास्येन पात्रेण सम्मुखं या विवर्तिता । 352 सा विवृत्ता कटी धीरैः प्रयुक्ता विनिवर्त्तने ॥३४२॥ उलटा मुंह किये हुए पात्र द्वारा जो सामने की ओर घुमायी जाय उस कटि को विवृत्ता कहते हैं। धीर पुरुष लौटने के अभिनय में इस कटि का विनियोग करते हैं। ५. रेचिता और उसका विनियोग सर्वदिभ्रमणात्प्रोक्ता रेचिता भ्रमणे कटिः ॥३४३॥ 363 चारों ओर घूमने वाली कटि को रेचिता कहते हैं । भ्रमण के अभिनय में उसका विनियोग होता है । तेरह प्रकार का पदाभिनय पादाभिनय के भेद समाश्चितौ कुश्चिताख्यः सूच्यग्रतलसश्चरौ । उद्घट्टितस्तथा पादः षड्विधो मुनिना मतः ॥३४४॥ 354 भरत मुनि ने पादाभिनय के छह प्रकार बताये हैं, जिनके नाम हैं : १. सम, २. अञ्चित ३. कुञ्चित, ४. सूची, ५. अग्रतलसंचर और ६. उद्घटित । त्रोटितोद्धटितोत्सेको घट्टितो मर्दिताग्रगौ । पार्णिगः पार्श्वगोऽप्येवं पादोऽन्यः सप्तधोदितः ॥३४५॥ 355 अन्य आचार्यों ने पादाभिनय के सात भेद बताये हैं : १. नोटित, २. उद्घटितोत्सेक, ३. घट्टित, ४. मर्दित, ५. अग्रग, ६. पाष्णिग और ७. पार्श्वग । १२४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण अथो तेषां लक्षणानि क्रमेणाहं ब्रवेऽधुना । अब मैं क्रमश: उनके लक्षण बताता हूँ। १. सम पाद और उसका विनियोग स्थितौ स्थितस्वभावेन समः पादः प्रकीर्तितः । 356 स्थिरः स्वभावाभिनये रेचकेऽसौ चलो मतः ॥३४६॥ प्रकृत रूप से भूमि पर अवस्थित पैरों को सम पाद कहा गया है। उसे स्वाभाविक अभिनय में स्थिर और रेचक अभिनय में चलायमान होना चाहिए । २. अञ्चित पाद और उसका विनियोग यो भूमिस्थितपाणिः सन्नुत्क्षिप्ताग्रतलस्ततः । 357 प्रसृताङ्गुलिकः पादः सोऽश्चितोऽभिहितस्तदा । पादाहतो तथा नानाभ्रमणादिषु कीर्तितः ॥३४७॥ 358 जिस पैर की एड़ी (पाष्णि) भूमि में हो, अग्रभाग उत्क्षिप्त हों और उँगुलियां फैली रहें, उसे अञ्चित कहते हैं। पैरों से मारने और अनेक प्रकार की भ्रमरी आदि के अभिनय में इस पाद का विनियोग होता है। ३. कुञ्चित पाद और उसका विनियोग उत्क्षिप्तपाष्णिराकुश्चन् मध्यो यः कुश्चिताङ्गुलिः । कुञ्चितोऽसावतिक्रान्तक्रमे तुङ्गाग्रहेऽपि च ॥३४८॥ 359 जिस पैर की एड़ी (पार्णि) ऊपर को उठी हो और मध्य भाग तथा उँगलियाँ सिकुड़ी ( कुञ्चित ) हों, वह कृश्चित पाद कहलाता है। अतिक्रान्त क्रम और उच्च ग्रह के अभिनय में इस पाद का विनियोग होता है। ४. सूची पाद और उसका विनियोग स्वाभाविको यदा वामोऽपरोऽङ्गुष्ठानभूस्थितः । समुत्क्षिप्तान्यभागोऽसौ सूची नपुरबन्धने ॥३४६॥ 360 जब बाँया पैर भूमि पर स्वाभाविक स्थिति में हो और दाहिना पैर अंगूठे के अग्रभाग में स्थित हो तथा उसका अन्य भाग ऊपर उठा हो, तब उसे सूची पाद कहते हैं । नूपुर बाँधने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १२५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ५. अग्रतलसंचर पाद और उसका विनियोग उत्क्षिप्तपाणिः प्रसृताङ्गुष्ठको न्यश्चितागुलिः । यः पादोऽसावनतलसञ्चरः प्रेरणे भवेत् ॥३५०॥ 361 पीडने कुट्टने स्थाने भ्रमणे रेचके मदे । भूस्थापसारणे भूमिताडनेऽपि मतः सताम् ॥३५१॥ 362 जब पाणि उठी हो, अंगुष्ठ फैला हो और उँगलियाँ सिकुडी ( न्यञ्चित ) हों, तब उसे अग्रतलसञ्चर पाद कहते हैं । प्रेरणा, पीड़न (पीड़ा देना), कूटने, स्थान, भ्रमण, रेचक प्राणायाम, मद, भूमि पर से किसी वस्तु को हटाने और भूमि रौंदने के अभिनय में सज्जनों ने इस पाद का विनियोग बताया है। . . ६. उद्घट्टित पाद स्थित्वा पादतलाग्रेण स्थितौ पाणिनिपात्यते । असकृद्वा सकृद्वापि तदोद्घट्टित ईरितः ॥३५२॥ 363 जब एक बार या बार-बार पैर के अग्रभाग के बल खड़ा होकर एड़ी को नीचे गिरा दिया जाता है, तब उस पाद को उद्घटित कहते हैं । ७. नोटित पाद और उसका विनियोग अवष्ठभ्य भुवं पाया यः पादोऽग्रेण हन्ति ताम् । स नोटिताभिधो योज्यो गर्वे रोषेऽपि सूरिभिः ॥३५३॥ 364 जो पैर एड़ी से भूमि का सहारा लेकर अग्रभाग से भूमि को आहत करता रहता है, तो वह बोटित कहलाता है । गर्व और क्रोध के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ८. घट्टितोत्सेध पाद और उसका विनियोग क्रमाद्यो घट्टयत्यग्रपाणिभ्यामसकृद् भुवम् । स पादो घट्टितोत्सेधस्ताण्डवे सद्भिरीरितः ॥३५४॥ 365 जो पैर अग्रभाग तथा एड़ी से बार-बार भूमि को आहत करता है, वह घट्टितोत्सेध कहलाता है । सज्जनों के कथनानुसार ताण्डवनृत्य में उसका विनियोग होता है। ९. घट्टित पाद और उसका विनियोग घट्टितो घट्टयन्पाणिर्भुवं प्रोक्तोऽल्पनोदने ॥३५५॥ १२६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रत्यंग प्रकरण जब (केवल) एड़ी से भूमि को आहत किया जाता है, तब उस पाद को घटित कहते हैं। थोड़ा हटाने या ठेलने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । १०. मर्दित पाद तिर्यक् तलेन मृदनाति भुवं यः स हि मदितः ॥३५६॥ 366 जो पैर अपने तिर्यक् तल भाग से भूमि का मर्दन करता है उसे मदित कहा जाता है। ११. अग्रग पाद और उसका विनियोग चरणोऽग्ने द्रुतं गच्छन् सोऽग्रगः पिच्छिलक्षितौ ॥३५७॥ जो पैर अपने अग्र भाग के बल शीघ्रता से संचालित हो, उसे अग्रग कहा जाता है। चिकनी भूमि पर चलने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १२. पाणिग पाद पृष्ठतो याति यः पार्ष्या स पादः पाणिगो भवेत् ॥३५८॥ 367 जो पैर एड़ी के सहारे पीछे की ओर चले उसे पाणिग कहा जाता है। १३. पार्श्वग पाद पार्श्व गच्छन् पार्श्वगः स्याद्यद्वा पार्श्वे स्थितो मतः ॥३५॥ जो पैर बगल के सहारे चले या स्थित हो, उसे पार्श्वग कहते हैं । सात प्रकार के अंगों का निरूपण समाप्त प्रत्यंगामिनय और उनका विनियोग नौ प्रकार का ग्रीवाभिनय प्रीवा के भेद समा नतोन्नता व्यत्रा वलिता कुञ्चिता[श्चिता] । निवृत्ता रेचिता चेति ग्रीवा नवविधा मता ॥३६०॥ 368 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ग्रीवा के नौ भेद कहे गये हैं, जिनके नाम हैं : १. समा, २. नता, ३. उन्नता, ४. व्यसा, ५. वलिता, ६. कुञ्चिता, ७. अञ्चिता, ८. निवृत्ता और ९. रेचिता। १. समा और उसका विनियोग स्वाभाविको समोक्ता सा जपे ध्यानस्वभावयोः ॥३६१॥ 369 स्वाभाविक रूप में समस्थिति में अवस्थित ग्रीवा समा कहलाती है। जप, ध्यान और स्वभाव का भाव प्रदर्शित करने में उसका विनियोग होता है। २. नता और उसका विनियोग नम्रा ग्रीवा नता प्रोक्ता धीरः कण्ठावलम्बने । हारादिबन्धने चैषा कामिनीभिनियुज्यते ॥३६२॥ 370 नीचे की ओर झुकी हुई ग्रीवा को नता कहते हैं। धीर पुरुषों के मत से गले का सहारा लेने या गले लगाने और रमणियों द्वारा हार आदि धारण करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. उन्नता और उसका विनियोग ऊर्ध्वगा तून्नता ग्रीवा भवेदूर्वावलोकने । नियोज्या सा बुधस्तद्वत्कण्ठालंकारदर्शने ॥३६३॥ 371 ऊपर की ओर उठी हई ग्रीवा को उन्नता कहा जाता है। ऊपर ताकने और गले का आभूषण देखने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. श्यला और उसका विनियोग पार्श्वनम्रा भवेत् व्यत्रा खेदे पाचवलोकने ॥३६४॥ बगल की ओर झुकी हुई ग्रीवा त्र्यसा कहलाती है । खेद तथा अगल-बगल ताकने के अभिनय मे उसका विनियोग होता है। ५. वलिता और उसका विनियोग ग्रीवा पार्शोन्मुखी या तु सा सद्भिर्वलिता मता । 372 ग्रीवाभङ्ग तथा भर्तुः प्रेक्षायां गुरुसन्निधौ ॥३६५॥ जो ग्रीवा पार्श्व की ओर उन्मुख हो, उसे विद्वानों ने वलिता कहा है । गर्दन के टूटने, स्वामी को देखने और गुरु के समीप (बैठने) के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १२८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण ६. कुञ्चिता और उसका विनियोग . अनम्रा कुञ्चिता ग्रीवा शिरोभारे स्वगोपने ॥३६६॥ 373 थोड़ी-सी झुकी हुई ग्रीवा कुञ्चिता कहलाती है। शिर पर बोझा ढोने और अपने को छिपाने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। .. ७. अञ्चिता और उसका विनियोग चञ्चला प्रसृता यासावश्चिताऽधोनिरीक्षणे । केशपाशाकर्षणेऽपि विनियुक्ता नियोक्तृभिः ॥३६७॥ 374 जो ग्रीवा कम्पित तथा फैली हुई हो वह अञ्चिता कहलाती है। प्रयोक्ताओं को नीचे देखने, और केशों को खींचने के अभिनय में उसका उपयोग करना चाहिए। ८. निवत्ता और उसका विनियोग यदा याभिमुखीभूय विनिवर्तेत्तदा तु सा । निवृत्ता कथिता स्कन्धभारे सा चकितेक्षणे ॥३६८॥ 375 यदि सम्मुख होकर ग्रीवा घूम जाय या लौट जाय तो उसे निवृत्ता कहते हैं । कन्धे पर बोझा ढोने तथा चकित होकर देखने में उसका विनियोग होता है। ९. रेचिता और उसका विनियोग या ग्रीवा विधुतभ्रान्ता सा मता रेचिताभिधा । वर्तुले मथनेऽप्येषा नियुक्ता नृत्यपण्डितैः ॥३६॥ 376 जो ग्रीवा काँपती तथा घूमती हो,वह रेचिता कही जाती है । नृत्यविशारदों ने गोलाकार वस्तु और मन्थन का भाव प्रदर्शित करने में उसका विनियोग कहा है। सोलह प्रकार का बाहु अभिनय बाहु के भेद प्रसारितोऽधोमुखाख्य ऊर्ध्वस्थोद्वेष्टिताञ्चिताः । स्वस्तिको मण्डलगतिस्तिर्यक्पृष्टानुसारिणौ ॥३७॥ 377 अपविद्धस्तथेस्युक्तो बाहुर्दशविधो बुधैः । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः विद्वानों ने बाहु के दस भेद बताये हैं, जिनके नाम हैं : १. प्रसारित, २. अधोमुख, ३. ऊध्वंस्थ, ४. उद्वेष्टित, ५. अञ्चित, ६. स्वस्तिक, ७. मण्डलगति ८. तिर्यक्, ९. पृष्ठानुसारी और १० अपविद्ध। . कुञ्चितः सरलो नम्रो दोलितोत्सारितावपि । 378 प्राविद्धश्चेति षड् बाहूनन्यानन्ये जगुर्बुधाः ॥३७१॥ दूसरे विद्वानों ने बाहु के छह अन्य भेद बताये हैं । उनके नाम हैं : १. कुञ्चित, २. सरल, ३. नम, ४. दोलित, ५. उत्सारित और ६. आविद्ध । १. प्रसारित और उसका विनियोग प्रसरत्यग्रदेशे यो बाहुः स स्यात् प्रसारितः । .. 379 प्रादानेऽसौ फलादीनां याचनेऽपि नियुज्यते ॥३७२॥ जो बाहु आगे की ओर फैली रहती है वह प्रसारित कहलाती है। फल आदि के लेने और मांगने के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। २. अधोमुख प्रालिङ्गस्तु धरां बाहुरधोमुख उदोरितः ॥३७३॥ 380 पृथ्वी का आलिंगन करती हुई बाहु अधोमुख कहलाती है। ३. ऊर्ध्वस्त और उसका विनियोग शिरोदेशाद् व्रजन्नूर्ध्वमूर्ध्वगस्तुङ्गदर्शने ॥३७४॥ शिर से ऊपर को जाती हुई बाहु ऊर्ववस्थ कहलाती है। ऊँची चीज को देखने का भाव प्रदर्शित करने के लिए उसका विनियोग होता है। ४. उद्वेष्टित और उसका विनियोग निर्गम्य मणिबन्धाद्यो व्यावृत्ति पुनराश्रितः। 381 उद्वेष्टितो भुजोऽसौ स्यादभिमाना [दना] दरे ॥३७॥ जो बाहु कलाई से फैल कर पुनः पीछे की ओर मुड़ कर मणिबन्ध पर ही अवस्थित हो, वह उवेष्टित कहलाती है। अभिमान से (किसी का) अनादर करने का भाव दर्शाने में उसका विनियोग होता है। ५. अञ्चित और उसका विनियोग उरसः प्राप्य शीर्ष यो वक्षः पुनरुपाश्रितः । 382 स बाहुरश्चितः खेदे नियोज्यो नृत्यपण्डितैः ॥३७६॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण . जो बाह छाती से शिर पर जाकर पुनः छाती पर ही आकर अवस्थित हो जाय, वह अञ्चित कहलाती है। नत्ताचार्यों ने खेद के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। ६ स्वस्तिक और उसका विनियोग पार्श्वव्यत्यासतो लग्नौ बाह स्वस्तिक ईरितः ।। 383 रवेर्भवेदुपस्थाने प्रणामे परिरम्भणे ॥३७७॥ यदि दोनों बाहओं को दोनों विपरीत पावों ( अगल-बगल ) में सटा दिया या अवस्थित किया जाय तो उसे स्वस्तिक बाहु कहते हैं । सूर्योपस्थान, प्रणाम तथा आलिंगन का भाव प्रदर्शित करने के लिए उसका विनियोग होता है। ७. मण्डलगति और उसका विनियोग सर्वतो भ्रमणाद् यः स्यात् स मण्डलगतिर्भुजः । 384 भ्रमणे तु गदाखड्गाद्यायुधानां प्रकीर्तितः ॥३७८॥ यदि बाहु को ( वृत्ताकार ) चारों ओर घुमाया जाय तो उसे मण्डलगति कहते हैं। गदा तथा तलवार आदि आयुधों को भाँजने (घुमाने) का भाव प्रकट करने के लिए उसका विनियोग होता है। ८. तिर्यक् (और उसका विनियोग ) पापिगमनाबाहुस्तिर्यगाख्यो बुधर्मतः ॥३७॥ 385 विद्वानों का अभिमत है कि यदि बाह को पाव भाग से हटा या अलग कर दिया जाय तो उसे तिर्यक कहते हैं । (दूर हट जाने या अलग हो जाने के भाव को प्रदर्शित करने के लिए उसका विनियोग होता है)। ९. पृष्ठानुसारी और उसका विनियोग .. ' पृष्ठतः .. सरणात्पृष्ठानुसारी बाहुरीरितः । वीटिका ग्रहणे त्वेष तूणाबाणग्रहे तथा ॥३८०॥ 386 यदि बाहु को पीठ की ओर ले जाया जाय तो उसे पृष्ठानुसारी कहते हैं। पान का बीड़ा लेने ( या चोलि की ग्रन्थि बाँधने) और तूणीर (तरकश) से बाण निकालने का भाव प्रकट करने के लिए उसका विनियोग होता है। १०. अपविद्ध और उसका विनियोग उरसो मण्डलाकारभ्रान्त्या यो निःसृतो भुजः । सोऽपविद्धो गदाखड्गयुद्धादिषु नियुज्यते ॥३८१॥ 387 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः यदि बाहु को वक्षःस्थल के आगे मण्डलाकार में चारों ओर घुमाया जाय, तो उसे अपविद्ध कहते हैं । युद्ध आदि में गदा, खड्ग (तलवार) आदि का भाव प्रकट करने के लिए उसका विनियोग होता है । ११. कुञ्चित और उसका विनियोग सूचीं कुर्वन् कूर्परस्तु वक्रितः कुञ्चितो भवेत् । पानभोजनयोरेष खड्गधारणे ॥३८२॥ प्रहारे 388 यदि कुहनी को सूची के आकार में (नोकीली) बनाते हुए टेढ़ा कर दिया जाय तो उस बाहु को कुञ्चित कहा जाता है । पीने, भोजन करने, प्रहार करने और खड्ग धारण करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १२. सरल और उसका विनियोग प्रसारितः पार्श्वयोश्चद्बाहरूर्ध्व मधोऽपि यः । सरलोऽसौ तदा पूर्वः पक्षानुकरणेऽपरः । माने भवेत्तृतीयस्त भूस्थापौरुषो गतिः (? षयोर्मतः) ॥३८३॥ यदि बाहु को दोनों पावों, ऊपर तथा नीचे फैला दिया जाय तो उसे सरल कहा जाता है। पार्श्व में फैलायी जाने वाली बाहु के पक्ष का अनुकरण करने में; ऊपर फैलायी जाने वाली बाहु का मान करने में; और नीचे फैलायी जाने वाली बाहु का भूमि पर स्थित वस्तु तथा अपौरुषेय वस्तु का भाव दर्शाने में उसका विनियोग होता है । १३. नम्र और उसका विनियोग 389 मनाग्वत्रीकृतो नम्रः स्तोत्रे माल्यादिधारणे ॥ ३८४ ॥ 390 यदि बाहु को थोड़ा झुका दिया जाय तो उसे नम्र कहा जाता है । स्तोत्रपाठ तथा माल्यादि धारण करने में उसका विनियोग होता है । १४. आन्दोलित और उसका विनियोग १३२ बाहुरान्दोलितोऽन्वर्थः सविलासगतादिषु ॥ ३८५॥ अर्थं का अनुसरण करने वाली ( अर्थात् इधर-उघर, ऊपर-नीचे चलायी जाने वाली ) बाहु आन्दोलित कहलाती है । हाव-भाव के साथ संचालित होने आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । १५. उत्सारित और उसका विनियोग निजं पार्श्व सरन्नन्यपाशर्वादुत्सारितो भुजः । जनतोत्सारणे प्रोक्ता नियोगोऽस्य मनीषिभिः || ३८६ ॥ 391 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण यदि बाह को दूसरे के पाश्र्व से हटाकर अपने पार्श्व में लाया जाय तो उसे उत्सारित कहते हैं। विद्वानों ने जन-समूह को दूर हटाने के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। १६. आविद्ध बाहुरभ्यन्तराक्षेपाद बुधराविद्ध ईरितः ॥३८७॥ 392 भीतर की ओर चलायी जाने वाली बाह को विद्वानों ने आविद्ध कहा है। चार प्रकार का उदराभिनय उदर के भेद क्षामं खल्लं तथा पूर्ण रिक्तपूर्णमिति क्रमात् । चतुर्बोदरमाख्यातमेतल्लक्ष्माधुनावे ॥३८॥ 393 उर के चार प्रकार बताये गये हैं : १. क्षाम, २. खल्ल, ३. पूर्ण और ४. रिक्तपूर्ण । १. क्षाम और उसका विनियोग नमनादुदरं. क्षामं वीरसिंहसुतोदितम् । [भवेत् तज्] जृम्भणे हास्ये निःश्वस्य रुदिते तथा ॥३८६॥ 394 अशोकमल्ल ने पिचके या दबे उदर को शाम कहा है। जम्हाई लेने, हँसने, लम्बी साँस लेने और रुदन के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. खल्ल और उसका विनियोग निम्नं खल्लं समाख्यातमातुरे श्रमकर्षिते । वेतालभृङ्गिरिट्यादिधारणे च क्षुधादिते ॥३६०॥ 395 फंसे हुए पेट को खल्ल कहा जाता है । रोगी, थके-माँदे, पिशाच ( वेताल ), शिव का गण (भृगी तथा रिटि) आदि का रूप धारण करने और प्यास के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. पूर्ण और उसका विनियोग प्राध्मातमुदरं पूर्ण भवेदत्यशिते त्विदम् । जलोदराभिधे व्याधौ तुन्दिलाभिनयेऽपि च ॥३६१॥ 396 फूला हुआ पेट पूर्ण कहलाता है। अधिक भोजन करने, जलोदर नामक रोग तथा तोंद वाले व्यक्ति के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. रिक्तपूर्ण और उसका विनियोग स्यादन्वर्थ रिक्तपूर्ण श्वासरोगे प्रकीर्तितम् ॥३६२॥ १३३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः अर्थ का अनुसरण करने वाला उदर ( अर्थात् ऐसा उदर, जो खाली रहने पर भी भरा मालूम हो रिक्तपूर्ण कहलाता है । श्वास रोग के अभिनय में उसका विनियोग होता है। चार प्रकार का पृष्ठाभिनय । क्रियाभिरुदरोक्ताभिर्यतः पृष्ठं विकारवत् । ... 397 ततः पृथग्मया नास्य लक्षणं प्रतिपादितम् ॥३६३॥ उदराभिनय के जो लक्षण-विनियोग बताये गये हैं, उन्हीं से ( स्वभावतः ) पृष्ठ का भी व्यत्यय हो जाता है। अतः पृष्ठाभिनय का पृथक् रूप से निरूपण नहीं किया गया। (अर्थात् उदाराभिनय से ही पष्ठाभिनय की क्रियाएँ भी समझ लेनी चाहिएँ) । पाँच प्रकार का उरु अभिनय उरु ( जाँघ ) अभिनय के भेद स्तब्धस्ततः कम्पितश्च वलितोद्वतितावपि । 398 निवर्तितस्तथेत्यूरोः पञ्चधा लक्षणं मतम् । उरु के पाँच भेद कहे गये हैं : १. स्तब्ध, २. कम्पित, ३. वलित, ४. उद्भर्तित और ५. विवर्तित । १. स्तब्ध और उसका विनियोग यो भवेनिष्क्रियः स्तब्धः स साध्वसविषादयोः ॥३६४॥ 399 जो उरु निष्क्रिय या निश्चेष्ट हो, वह स्तब्ध कहलाता है। भय और विषाद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. कम्पित और उसका विनियोग नतोन्नतौ मुहुः स्यातां पाश्वौं यस्य स कम्पितः । अधमानां गतौ प्रोक्तो विनियोगोऽस्य सूरिभिः ॥३६॥ 400 जिस उरु में दोनों पार्श्व बार-बार झुके और उठे, वह कम्पित कहलाता है। विद्वानों ने कहा है कि अधम व्यक्तियों की गति को अभिव्यक्त करने में उसका विनियोग होता है। ३. वलित और उसका विनियोग जानुन्यन्तर्गतो यः स्याद्रुः स वलिताभिधः । योषितां स्वरगमने मुनिना स नियोजितः ॥३६६॥ 401 १३४ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण जो उरु घुटने के अन्तर्गत हो वह वलित कहलाता है । भरत मुनि ने स्त्रियों की स्वच्छन्द गति का भाव प्रकट करने में उसका विनियोग बताया है। ४. उद्वर्तित और उसका विनियोग _ मुहुरन्तर्बहिःक्षेपात् पाणैरगतलस्य च । उर्तितस्ताण्डवेऽसौ व्यायामाभिनये तथा ॥३६७॥ 402 यदि एडी (पाष्णि) के अग्रभाग को बार-बार भीतर और बाहर चलाया जाय तो वह उरु उद्वर्तित कहलाता है । ताण्डव तथा नृत्य व्यायाम के प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। ५. निवतित और उसका विनियोग यो मध्यगतया पार्ष्या भवेत् स तु निवर्तितः । शमसम्भवयोरुक्तो वीरसिंह सुसूनुना ॥३६८॥ 403 जिस उरु के मध्यभाग में एड़ी को रख दिया जाय वह निर्तित कहलाता है। अशोकमल्ल ने शान्ति तथा संभव वस्तु या उत्पत्ति के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग बताया है। दस प्रकार का जंघाभिनय जंघा के भंद क्षिप्ता नतोद्वाहिताख्यावतिता परिवर्तिता । जङ्घवं पञ्चधा प्रोक्ताऽशोकमल्लेन भूभुजा ॥३६॥ 404 बहिर्गता तिरश्चीना निःसृता कम्पिता तथा । परावृत्ताभिधा [चासौ] प्रोक्ता पश्चविधापरः । 405 अशोकमल्ल ने जंघा अभिनय के पांच भेद बताये हैं, जिनके नाम हैं : १. क्षिप्ता, २. नता, ३. उद्वाहिता, ४. आवर्तिता और ५. परिवतिता। दूसरे आचार्यों के मत से उसके पाँच भेद और होते हैं : १. बहिर्गता २. तिरश्चीना, ३. निःसता, ४. कम्पिता और ५, परावृत्ता। १. लिप्ता और उसका विनियोग बहिःक्षेपाद् भवेत् क्षिप्ता व्यायामे ताण्डवेऽपि च ॥४००॥ यदि जंघा को बाहर की ओर चलाया जाय तो वह क्षिप्ता कहलाती है। व्यायाम और ताण्डव नृत्य के अभिनय में उसका विनियोग होता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः २. नता और उसका विनियोग नमज्जानुस्तु या जङ्घा सा नता परिकीर्तिता । 406 गतस्थानासनेष्वेषा वीरसिंहसुतोदिता ॥४०१॥ यदि घुटने को मोड़ दिया जाय तो वह नता जंघा कहलाती है। अशोकमल्ल ने गमन, स्थान और आसन के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। ३. उद्वाहिता और उसका विनियोग उर्ध्वं गतोद्वाहिता स्यादाविष्टगमनादिषु ॥४०२॥ 407 यदि जंघा को ऊपर की ओर उटाया जाय तो वह उवाहिता कहलाती है। आवेश तथा यमन (या भूत आदि से आविष्ट व्यक्ति) आदि के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। ४. आतिता और उसका विनियोग दक्षिणे वामतः पादे वामे दक्षिणतो मुहुः । कृते योज्यावर्तिताख्या विदूषकपरिक्रमे ॥४०३॥ 408 यदि दाहिना पैर बाँयी ओर और बाँया पैर दाहिनी ओर बार-बार चलाया जाय तो उसे आतिता जंघा कहते हैं । विदूषक के चक्कर काटने में उसका विनियोग होता है। ५. परिवर्तिता और उसका विनियोग प्रतीपं यायिनी जङ्घा कथिता परिवर्तिता । ताण्डवेऽशोकमल्लेन नृपापण्या मनीषिणा ॥४०४॥ 409 उक्त आवर्तिता जंघा के विपरीत क्रिया वाली जंघा को परिवर्तिता कहते हैं । मनीषी महाराज अशोकमल्ल ने ताण्डव नृत्य के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। ६. बहिर्गता पार्श्वप्रसारिता नृत्ये सद्विरुक्ता बहिर्गता ॥४०॥ यदि नृत्य में जंघा को बगल की ओर फैलाया जाय तो सज्जनों ने उसे बहिर्गता कहा है । ७. कम्पिता और उसका विनियोग कम्पिता कम्पनादुक्ता भये घघरिकाध्वनौ ॥४०६॥ 410 काँपती हुई जंघा को कम्पिता कहा जाता है। भय और घर्घर ध्वनि का भाव प्रकट करने में उसका विनियोग होता है। १३६ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण ८. तिरश्चीना और उसका विनियोग क्षितिश्लिष्टबहिःपार्वा तिरश्चीना मतासने ॥४०७॥ जिस जंघा का बाह्य पार्श्व भाग भूमि से सटा हो, उसे तिरश्चीना कहते हैं । आसन के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ९. परावृत्ता और उसका विनियोग पश्चात्प्राप्ता परावृत्ता धराश्लिष्टेन जानुना । 411 वामेन पितृकार्येऽथ देवकार्येऽपरेण सा ॥४०८॥ यदि घुटने को भूमि से सटा कर (या टिका कर) जंघा को पीछे की ओर मोड़ दिया जाय तो उसे परावृत्ता कहते हैं । पितृ कार्य का भाव दर्शाने में परावृत्ता के बाँयें घुटने को भूमिश्लिष्ट करके और देव-कार्य का भाव दर्शाना हो तो दाहने घुटने को भूमिश्लिष्ट करके उसका विनियोग करना चाहिए। १०. निःसृता याने प्रसारिता जङ्घा सा मता निःसृताभिधा ॥४०६॥ 412 जो जंघा आगे की ओर फैला दी जाय उसे निःसृता कहते हैं। __सात प्रकार के जानु अभिनय जान (घुटने) के भेद नतोन्नते संहतं च विवृतं कुश्चितं समम् । ततोऽर्धकुञ्चितं चेति जानूक्तं सप्तधा बुधः । 413 विद्वानों ने जानु के सात भेद बताये हैं : १. नत, २. उन्नत, ३. संहत, ४. विवृत्त, ५. सम, ६. अर्धकुञ्चित और ७ कुञ्चित । १. नत और उसका विनियोग भूमिप्राप्तं जानु नतं प्रोक्तं पातेऽभिवादने ॥४१०॥ भूमि पर अवस्थित जानु को नत कहते हैं । किसी चीज को गिराने और अभिवादन करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. उन्नत और उसका विनियोग कुचदेशागतं जानून्नतमुच्चाधिरोहणे ॥४११॥ 414 यदि जानु को कुच देश तक उठा लिया जाय तो, वह उन्नत कहलाता है । ऊपर उठने या ऊंची चीज पर चढ़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २३७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्याध्यायः ३. संहत और उसका विनियोग लग्नान्तर्जानु यज्जानु संहतं तद् बुधर्मतम् । तदाकोपलञादिरतिभावेषु योषिताम् ॥४१२॥ 415 यदि एक जानु को दूसरे जानु के नीचे सटा कर रख दिया जाय तो विद्वानों के कथनानुसार उसे संहत जानु कहा जाता है। ईर्ष्या, कोप, लज्जा और स्त्रियों के रति-भावों (कामकेलियों) के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. विवत और उसका विनियोग जानुद्वयं बहिर्भूतं विवृतं जानु सम्मतम् । नियुज्यते वाजिगजारोहणादिषु सूरिभिः ॥४१३॥ 416 यदि दोनों जानुओं को बाहर की ओर फैला दिया जाय तो उसे विवृत्त कहते हैं । हाथी और घोड़े आदि पर चढ़ने आदि के अभिनय में विद्वानों ने उसका विनियोग बताया है। ५. सम और उसका विनियोग स्वभाविकं समं जानु स्वभावावस्थितौ मतम् ॥४१४॥ यदि जान को स्वाभाविक रूप में रखा जाय तो उसे सम कहते हैं । स्वाभाविक अवस्था का भाव व्यक्त करने में उसका विनियोग होता है। ६. अर्धकुञ्चित ___ नमनात्तु नितम्बस्य प्रोक्तं जान्वर्धकुञ्चितम् ॥४१५॥ 417 यदि नितम्ब को झुका दिया जाय तो उसे कुञ्चित जान कहते हैं। .. ७. कुञ्चित और उसका विनियोग श्लिष्टोरुजङ्घ जानक्तं कुञ्चितं सद्भिरासने ॥४१६॥ यदि (घुटनं को मोड़ कर) उरु और जंघा को सटा दिया जाय तो उस जानु को कुञ्चित कहते हैं । सज्जनी न आसन के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। पाँच प्रकार का मणिबन्ध अभिनय मणिबन्ध (कलाई) के भेद निकुञ्चाकुञ्चितौ स्यातां चलश्च भ्रमितः समः । ___418 एवं पञ्चविधो धीरैर्मणिबन्धः प्रकीर्तितः ॥४१७॥ । १३८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण धीर पुरुषों ने मणिबन्ध के पांच भेद बताये हैं : १. निकुञ्च, २. आकुञ्चित, ३. चल, ४. नामित और ५. सम । १. निकुञ्च और उसका विनियोग बहिर्यो निम्नतां प्राप्तो निकुञ्चोऽसौ मतः सताम् । 419 . दाने त्वभयदानेऽपि मुनिना संप्रदर्शितः ॥४१८॥ जो कलाई बाहर की ओर झुकी हो उसे सज्जनों ने निकुञ्च कहा है । भरत मुनि ने दान तथा अभयदान के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। . २. आकुञ्चित और उसका विनियोग अन्तर्निम्नः समाख्यातो धीरैराकुञ्चिताभिधः । प्रायः प्रयुज्यते धीररेष वस्त्वपसारणे ॥४१६॥ भीतर की ओर झुके हुए मणिबन्ध को धीर पुरुषों ने आकुञ्चित कहा है। धीरों के मत से वस्तु के हटाने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ३. चल और उसका विनियोग अभ्यासाद रचितौ चेत् स्तो निकुञ्चाकुञ्चिताविमौ । चलस्तदा नियोगोऽस्यावाहने सद्भिरीरितः॥४२०॥ यदि दोनों मणिबन्धों की निकुञ्च और आकुञ्चित में रचना की जाय तो, वह चल कहलाता है। सज्जनों ने आह्वान करने के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। ४. ममित और उसका विनियोग . भ्रमणाद् भ्रमितः खगच्छुरिकाभ्रमणादिषु ॥४२१॥ 422 यदि मणिबन्ध को घुमाया जाय तो वह भ्रमित कहलाता है । तलवार और छुरे आदि के घुमाने में उसका विनियोग होता है। ५. सम और उसका विनियोग ऋजुः समे धारणे तु पुस्तकस्य प्रतिग्रहे ॥४२२॥ यदि मणिबन्ध को (स्वाभाविक रूप में) सीधा रखा जाय तो वह सम कहलाता है। पुस्तक के धारण करने तथा दान लेने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 433 प्रत्यंग भूषणों का निरूपण भूष्यन्तेऽङ्गानि यस्तानि भूषणानि प्रचक्षते । प्रत्यङ्गत्वं कथं तेषां तन्मतेऽप्युपपद्यते ॥४२३॥ मणिबन्धौ जानुनी च प्रत्यङ्गे स्तो यथाकथम् । ___424 आभूषण से अंग सुशोभित (विभूषित) होते हैं । इसलिए उन्हें भूषण कहा गया है । किन्तु जो यथाकथञ्चित् मणिबन्धों और जानुओं को प्रत्यंग मानते हैं उनके मत में भी आभूषणों में प्रत्यंगत्व कैसे सिद्ध होता है ? . अत्र प्राह समाधानमशोको विदुषां वरः ॥४२४॥ शक्त्या यदपि बाधःस्याद् दृश्यतेऽत्र तथापि हि । - 425 वृत्त्या लक्षणया तेषां तदकृतिहेतुता । प्रत्यङ्गत्वं भवेदेवमिति सर्व समञ्जसम् ॥४२॥ 428 इस समस्या का समाधान विद्वद्वर अशोकमल्ल ने इस प्रकार किया है कि यद्यपि भूषण का प्रत्यंगत्व अभिघ शक्ति से सिद्ध नहीं होता, तथापि लक्षणा वृत्ति से सिद्ध हो जाता है; क्योंकि वे (मणिबन्ध तथा जानु) शोभा के कारण हैं । इसलिए प्रत्यंग हैं । इस प्रकार उनका सामंजस्य हो जाता है। नौ प्रकार के प्रत्यंगों का निरूपण समाप्त Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण | तीन Page #152 --------------------------------------------------------------------------  Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि अभिनय और उनका विनियोग [अशोकमल्ल ने दृष्टि अभिनय के छत्तीस प्रकार बताये हैं, जिनमें रसजा दृष्टि के आठ, स्थायी भावजा दृष्टि के आठ और संचारी भावजा दृष्टि के बीस भेद होते हैं। रसजा दृष्टि के भेद कान्ता हास्या च करुणा रौद्रा वीरा भयानका । बीभत्सा चाद्भुतेत्यष्टौ विज्ञेया रसदृष्टयः ॥४२६॥ 427 रसजा दृष्टि के आठ भेद होते हैं : १. कान्ता, २. हास्या, ३. करुणा, ४. रौद्रा, ५. वीरा, ६. भयानका, ७. बीभत्सा और ८. अद्भुता। स्थायी भावजा दृष्टि के भेद स्निग्धा हृष्टा तथा दीना क्रुद्धा दो(?)प्ता भयान्विता । जुगुप्सिता विस्मितेति दृशोऽष्टौ स्थायिभावजाः ॥४२७॥428 स्थायी भावों से उत्पन्न दृष्टि के आठ भेद होते हैं: १. स्निग्धा, २. हृष्टा, ३. दीना, ४. क्रुद्धा, ५. दुप्ता, ६. भयान्विता, ७. जुगुप्सिता और ८. विस्मिता। संचारी भावजा दृष्टि के भेद शून्या च मलिना श्रान्ता तथान्या लज्जिताभिधा । ग्लाना तथा शङ्किता च विषण्णा मुकुला ततः ॥४२८॥429 कुञ्चिता चाभितप्ता च जिह्मा च ललिता तथा । वितर्किता ततोऽप्यर्धमुकुलाकेकरा परा ॥४२६॥430 विभ्रान्ता विप्लुता त्रस्ता विशोका(? कोशा)मदिरा तथा। विशतिर्व्यभिचारिण्यो दृष्टयो मुनिनोदिताः ॥४३०॥431 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः भरत मनि के मतानुसार मंचारी भावों या व्यभिचारी भावों से उत्पन्न दृष्टि के बीस भेदों के नाम इस प्रकार हैं : १. शून्या, २. मलिना, ३. श्रान्ता, ४. लज्जिता, ५. ग्लाना, ६. शंकिता, ७. विषण्णा, ८. मुकुला, ९. कुञ्चिता, १०. अभितप्ता, ११. जिह्मा, १२. ललिता, १३. विकिता, १४. अर्धमुकुला, १५. आकेकरा, १६. विभ्रान्ता, १७. विलुप्ता, १८. त्रस्ता, १९. विकोशा और २०. मदिरा । दृष्टयो मिलिताः सर्वा षट्त्रिंशत् परिकीर्तिताः । इस प्रकार दृष्टियों के सभी भेदों को मिलाकर कुल छत्तीस दृष्टियाँ होती हैं । आठ रसजा दृष्टियाँ (१) १. कान्ता या दृश्यमापिबन्तीव भृशं स्वच्छा विकाशिनी ॥४३१॥ 432 . सभ्र क्षेपकाटाक्षा सा कान्तानङ्गविवर्धिनी । यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्तनम् । 433 तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते ॥४३२॥ जो दृष्टि मानो दृश्य पदार्थ को पी रही हो, अन्यन्त स्वच्छ एवं विकसित हो, म भंग (टेढ़ी भवों वाली) तथा कटाक्ष से युक्त हो और कामोत्पादक (या कामिनियों के शरीर की शोभा का उत्कर्ष बताने वाली) हो, हो, वह कान्ता कहलाती है। २. हास्या और उसका विनियोग या कुश्चितपुटा तीवमध्यमन्दतया क्रमात् । 434 मनागभ्यन्तराविष्टा चित्रभ्रान्तकनीनिका । हास्या दृष्टिरसावुक्ता सद्भिविस्मापने मता ॥४३३॥ 435 यदि सिकुड़ी हुई पलकों वाली दृष्टि क्रमशः तीव्र, मध्य और मन्द गति से कुछ भीतर की ओर चली जाय और पूतलियां आश्चर्यजनक रूप में घमती हों, तो वह हास्या कहलाती है। नाट्याचार्यों के मत से आश्चर्यचकित करने वाले भावों के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. करुणा और उसका विनियोग या स्रस्तोर्ध्वपुटा सास्रा नासिकानानुगामिनी । शोकमन्थरतारा सा करुणा करुणे मता ॥४३४॥ 436 १४४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण जो दृष्टि नीचे गिरी हो, पलक ऊपर उठी हो, आँसू बहा रही हो, नाक के अग्रभाग पर जमी हो और शोक के कारण जिसकी पुतली शिथिल पड़ गयी हो, वह करुणा कहलाती है । करुण रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ४. रौद्री और उसका विनियोग रूक्षा क्रूरा स्तब्धतारा चकितोभपुटारुणा । उग्रा भ्रुकुटिभीष्मा या सा रौद्री दृष्टिरीरिता ॥ ४३५॥ 437 जो दृष्टि रूक्ष, क्रूर, स्थिर पलकों वाली, चकित, उग्र पलकों वाली, अरुण, तीक्ष्ण और भयानक भृकुटि वाली हो, वह रौद्री कहलाती है । रौद्र रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५. वीरा और उसका विनियोग प्रक्षुब्धा समतारा या गम्भीरोत्फुल्लमध्यभाक् । दीप्ता विकासिता दृष्टिवरा सा वीरगोचरा ॥४३६ ॥ माधुर्यधैर्यगाम्भीर्यौदार्याणि faquat | शोभातेजोविशेषादीन् सत्त्वभेदांश्च तु सा किल ॥४३७॥ 439 जो दृष्टि क्षोभरहित, सम तारों वाली, गंभीर, उत्फुल्ल मध्य भाग वाली, दीप्त, विकसित और वीरोचित हो, वह वीरा कहलाती है । मधुरता, धीरता, गंभीरता, उदारता, शोभा, विशेष तेज और अनेक प्रकार के पराक्रमों की अभिव्यक्ति में उसका विनियोग होता है । ६. भयानका और उसका विनियोग 438 विलोलोवृत्ततारा या दृश्यात्पलायमानेव स्तब्धोवृत्तपुटोभया । दृष्टिर्भयानका ॥४३८ ॥ सोक्ता कर चंचल, फड़कते हुए तारों वाली, स्तब्ध एवं खुले हुए पलकों वाली और देखने से मानो पलायन देने वाली दृष्टि भयानका कहलाती है । भयानक रस के भावों के अभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है । ७. वीभत्सा और उसका विनियोग घृणयोद्वेगमापन्ना दृश्याद् या लोलतारका । निकुञ्चितपुटापाङ्गा संश्लिष्टचलपक्ष्मभाक् । बीभत्सा दृष्टिरुक्ता सा बोभत्सरससंश्रया ॥४३६॥ 440 441 १४५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः घृणा के भावों को उद्दीप्त करने वाली, दृश्य से चंचल तारों वाली, सिकुड़ी हुए पलकों के कोरों वाली, सटी हुई और घूमते हुए पलकों वाली दृष्टि बीभत्सा कहलाती है। बीभत्स रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ८. अद्भुता और उसका विनियोग तारका । किञ्चित्कुञ्चितपक्ष्माग्रा सौम्यापाङ्गविकासाख्याऽद्भुता सा दृष्टिरद्भुते ॥ ४४० ॥ ईषत सिकुड़ी हुई बरौनियों के अग्रभाग वाली, अश्चर्य के साथ घूमती हुई पुतली वाली, सौम्य तथा खिले हुए कोरों (अपांगों) से सम्पन्न दृष्टि अद्भुता कहलाती है । अद्भुत रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । आठ स्थायिभावजा दृष्टियाँ (२) १. स्निग्धा 442 स्मिततारा साभिलाषोत्क्षिप्त र्या विकाशिनी । काक्षिणी सहर्षा सा दृष्टिः स्निग्धोदिता बुधैः । उत्क्षेप केचिदुभयवोराहुर्मनीषिणः ॥ ४४१ ॥ 444 मुस्कराती हुई पुतली वाली, चाहभरी, ऊपर फेंकी हुई भवों वाली, खिली हुई, कटाक्ष करने वाली और हर्षित दृष्टि स्निग्धा कहलाती है। कुछ विद्वानों का कहना है कि उसमें दोनों भवों को ऊपर फेंकना चाहिए । २. हृष्टा और उसका विनियोग १४६ स्मिताकृतिविशत्तारा फुल्ल गल्लयुगा चला । मनागाकुञ्चितप्रान्ता दृष्टिर्या च निमेषिणी । सा हृष्टा दृष्टिरादिष्टा हासे नृत्तविचक्षणैः ॥ ४४२ ॥ हास्ययुक्त आकृति वाली, विशद तारों वाली, दोनों कपोलों को उत्फुल्ल करने वाली, चंचल, कुछ सिकुड़ी हुई कोरों वाली निमेष दृष्टि हृष्टा कहलाती है । नाट्यशास्त्रियों ने हास्य रस के अभिनय में उसका विनियोग बताया ३. दीना मनावस्तोर्ध्वपुटा किञ्चिदावृत्ततारका । बाष्पाविलाल्पसञ्चारा दृष्टिदनोदिता बुधैः ॥४४३ ॥ 443 445 446 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरणे गिरी हुई, ऊपर उठे हए पलकों वाली, कुछ खुली हुई पुतलियों वाली, आँसुओं से भरी और मन्द-मन्द संचरण करने वाली दष्टि को विद्वानों ने दीना कहा है। ४. क्रुद्धा और उसका विनियोग कुटिल भ्र कुटी रूक्षा [किञ्चित्तरलतारका] । 447 स्तब्धोवृत्तपुटा दृष्टिः क्रुद्धा क्रोधे निरूपिता ॥४४४॥ टेढ़ी भवों वाली, रूखी, कुछ चंचल तारों वाली स्थिर और उठे हुए पलकों वाली दृष्टि क्रुखा कहलाती है। क्रोध के भावों को व्यक्त करने के लिए उसका विनियोग होता है। ५. दप्ता और उसका विनियोग उदिगरन्तीव या धैर्य स्थिरा चोत्साहिनी तथा । 448 दृष्टिदृप्ताभिधोत्साहे सा योज्या नृत्तकोविदः ॥४४५॥ धैर्य को उगलति हुई-सी स्थिर तथा उत्साहयुक्त दृष्टि को नाटयाचार्यों ने दृप्ता कहा है। उत्साह के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ६. भयान्विता त्रासान्निष्क्रान्तमध्येव . विस्तारितपुटोभया । 449 विलोलतारका भीत्या दृष्टिस्त्रस्ता भयान्विता ॥४४६॥ मानो भय से बाहर निकली मध्यभाग वाली, दोनों खुली हुई पलकों वाली, भय से काँपती हुई तारों वाली भयग्रस्त दष्टि भयान्विता कहलाती है। ७. जुगुप्सिता . . योद्विग्ना दृश्यमालोक्य संकुचत्पुटतारका । अव्यक्तालोकिनी धीरैरसावुक्ता जुगुप्सिता ॥४४७॥ दृश्य को देखकर उद्विग्न (व्याकुल) हुई, संकुचित पलकों एवं पुतलियों वाली और साफ न दिखायी देने वाली दृष्टि को धीर पुरुषों ने जुगुप्सिता कहा है। ८. विस्मिता और उसका विनियोग विस्तारितपुटद्वन्द्वातिशयोभ्रान्ततारका । विकाशिनी. समा दृष्टिविस्मिता विस्मयोद्धवा । ... Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः फैली हुई, दोनों पलकों वाली, अत्यन्त घूमने वाले तारों वाली, खिली हुई और सम दृष्टि को विस्मिता कहते हैं । विस्मय के भावों के अभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है। दृशोऽनक्ताभिनयना ज्ञेयाः स्वस्वरसाश्रयाः ॥४४८॥ 452 जिन दृष्टियों के यहाँ अभिनय-विनियोग नहीं बताये गये हैं, अपने-अपने रसों के अभिनय में उनका विनियोग समझना चाहिए। संचारी भावजा दृष्टियाँ (३) १. शून्या और उसका विनियोग निष्कम्पा समतारा या मलिना शून्यदर्शना । तथा समपुटा बाह्यविषयेषु गतस्पृहा । .. 453 सा दृष्टिः कथिता शून्या धीरैश्चिन्तानिरूपणे ॥४४६॥ कम्पनरहित, सम तारों वाली, मलिन, शून्य दिखायी पड़ने वाली, सम पलकों वाली और वाह्य विषय को ग्रहण करने में निस्पृह दष्टि शन्या कहलाती है। विद्वानों ने चिन्ता का भाव प्रकट करने में उसका विनियोग बताया है। २. मलिना और उसका विनियोग किञ्चित्कुश्चत्पुटा लक्ष्यायावर्तितकनीनिका । 454 प्रस्पन्दमानपक्ष्माना मलिनान्ता च या भवेत् ॥४५०॥ सा दृष्टिर्मलिना प्रोक्ता वैवये विहृते स्त्रियाः । 455 प्रियेण यदसंलापः कालेऽपि विहृतं हि तत् ॥४५१॥ कुछ सिकुड़े हुए पलकों वाली, लक्ष्य को ग्रहण करने में असमर्थ पुतलियों वाली, बरोनियों के अग्रभाग से कम्पित और अन्तिम भाग से मलिन (धुंधली) दष्टि मलिना कहलाती है। मालिन्य तथा स्त्रियों के प्रेमप्रदर्शन और उचित अवसर पर ही प्रिय के साथ वार्तालाप करने (विहृत-स्त्रियों के दस हावों में एक ) में उसका विनियोग होता है। ३. श्रान्ता और उसका विनियोग श्रमम्लानपुटा सन्ना किञ्चित्कुञ्चदपाङ्गिाका । 456 पतत्कनीनिका श्रान्ता दृष्टिः सद्भिः श्रमे मता ॥४५२॥ श्रम से म्लान पलकों वाली, स्तब्ध, कुछ सिकुड़ी हुई कोरों वाली और नीचे गिरती हुई तारों वाली दृष्टि श्रान्ता कहलाती है। श्रम के अभिनय में विद्वानों ने उसका विनियोग बताया है। १४८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण ४. लज्जिता और उसका विनियोग मनागञ्चितपक्ष्माना पात्रस्तकनीनिका । 457 संत्रस्तोर्ध्वपुटा दृष्टिलज्जिता लज्जिते स्त्रियाः ॥४५३॥ बरौनियों से कुछ सिकड़ी हुई अग्रभाग वाली, लज्जा से गिरी हुई पुतलियों वाली, बहुत डरी हुई और ऊपर उठी हुई पलकों वाली दृष्टि लज्जिता कहलाती है । स्त्रियों की लज्जा का भाव प्रकट करने में उसका विनियोग होता है। ५. ग्लाना और उसका विनियोग ___ श्लथपक्ष्मपुटा भ्रर्या मलिना मग्नतारका । 458 अल्पसञ्चारिणी दृष्टिः ग्लानौ ग्लाना निरूपिता ॥४५४॥ शिथिल पलकों, मलिन भवों, डूबी हुई बरौनियों वाली और मन्द-मन्द चलने वाली दृष्टि ग्लाना कहलाती है। ग्लानि के भावों के अभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है। ६. शंकिता और उसका विनियोग दृश्याद् द्रुतनिवृत्ता च मुहुर्लोलस्थिरोन्नता । 459 तिरश्चीना यथा गूढा तथा चकिततारका । सा दृष्टिः शङ्किता प्रोक्ता शङ्कायां पूर्वसूरिभिः ॥४५॥ 460 दृश्य पदार्थ से तुरन्त लौट आने वाली, बार-बार चंचल, स्थिर, ऊपर उठी हुई, तिरछी, गूढ़ और चकित तारों वाली दष्टि शंकिता कहलाती है। पूर्वाचार्यों ने शंका (द्विविधा, आशंका) के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। ७. विषण्णा और उसका विनियोग स्रस्तापागा स्तब्धतारा विस्फारितपुटोभया । निमेषिणी या सा दृष्टिविषण्णोक्ता विषादिनी ॥४५६॥ 461 गिरी हुई पलकों वाली, निश्चल पुतली वाली, फैली हुई दोनों पलकों वाली और पलक भांजने वाली दृष्टि विषण्णा कहलाती है। विषाद का भाव व्यक्त करने में उसका विनियोग होता है । ८. मुकुला और उसका विनियोग योल्लसल्लग्नपक्ष्माना सुखामीलत्कनीनिका । सा दृष्टिर्मुकुलानन्दे मजुलर्शगन्धयोः ॥४५७॥ 462 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः जिसमें वरौनियों के अग्रभाग खिले हए तथा मिले हुए हों और पुतलियों सुख के कारण उन्मीलित हों वह दृष्टि मुकुला कहलाती है । आनन्द, सुन्दर, स्पर्श तथा गन्ध के भावों को अभिव्यक्त करने में उसका विनियोग होता है। ९. कुञ्चिता और उसका विनियोग आकुञ्चत्पुटपक्ष्माया सम्यक्कुञ्चत्कनीनिका । या दृष्टिः कुञ्चिता सोक्ता तेजोदुष्प्रेक्षव[स्तु] नि । 463 प्रसूयिते तथानिष्टे नेत्रसंव्यथनेऽपि च ॥४५८॥ यदि पलक और बरौनियों के अग्रभाग सिकुड़े हुए हों और तारे भी अच्छी तरह सिकुड़े हुए हों, तो उसे कुञ्चिता दृष्टि कहते हैं । तेज, कठिनाई से दिखायी देने वाली वस्तु को देखने, ईर्ष्या, अनिष्ट और नेत्रपीड़ा के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १०. अभितप्ता और उसका विनियोग निरीक्षणालसे तारे व्यथया चलितौ पुटौ । 464 यत्र सन्तापलग्नान्ता साभितप्ता दृगीरिता । उपतापेऽभिघातेऽपि निर्वेदाभिनये तथा ॥४५॥ 465 जिसकी पुतलियाँ देखने में आलस्ययुक्त हों, व्यथा के कारण दोनों पलके चलायमान हों और कोरें सन्ताप में डूबी हुई हो, वह दृष्टि अभितप्ता कहलाती है। रोग, चोट और अवसाद के अभिनय में उसका निवियोग होता है। ११. जिह्मा निगूढस्रस्ततारा या शनैस्तिर्यग्निरीक्षणा । आकणितपुटा गूढा जिह्मा दृष्टिरुदीरिता ॥४६०॥ 466 जिसकी पुतलियाँ छिपी एवं गिरी या लटकी हुई हों, धीरे-धीरे तिरछी चितवन डालती हों, जिसकी पलकें कुछ संकुचित हों और जो गूढ़ हों, वह दृष्टि जिह्मा कहलाती है। १२. ललिता और उसका विनियोग सस्मिता कुञ्चितप्रान्ता मधुरा भ्र विकारयुक् । विकाशिता मनोजन्मविस्तारसहिता च या । सा दृष्टिललिता धीरैर्ललिते सम्प्रयुज्यते ॥४६१॥ 467 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण मुसकुराती हुई, सिकुड़ी हुई कोरों वाली, मधुर, प्र-भंगिमा से युक्त, विकसित, कामभाव प्रकट करने वाली और लम्बी दृष्टि ललिता कहलाती है । ललित भावों के अभिव्यंजन में घीर पुरुषों ने उसका विनियोग बताया है। १३. वितकता और उसका विनियोग विकाशिततारका । तर्केऽभुते पुटद्वन्द्वा या अधस्तात्सञ्चरन्ती सा दृष्टिरुक्ता वितर्कता ||४६२ ॥ अद्भुत तर्क में लगी हुई दोनों पलकों वाली, खिले हुए तारों वाली और नीचे की ओर संचरण करने वाली दृष्टि वितर्किता कहलाती है । ( अद्भुत रस को उपस्थित करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है ) । १४. अर्धमुकुला और उसका विनियोग स्तोकोन्मीलितताराख्या माना कुञ्चत्पुटद्वया । किञ्चिदुत्फुल्लपक्ष्माग्रा दृक् सार्धमुकुला सुखे ॥४६३॥ अर्ध मुकुलित तारों वाली, कुछ कुञ्चित हुई दोनों पलकों वाली और ईषत् खिली हुई बरौनियों के अग्रभाग वाली दृष्टि अर्धमुकुला कहलाती है । सुख के भावों के अभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है । १५: आकेकरा और उसका विनियोग श्राकुणितपुटापाङ्गा मुहुस्तरलतारका । तिर्यग्निवेशिता यार्धनिमेषसहिता च दृक् ॥४६४॥ साकेकरा दुर्निरीक्ष्ये विच्छेदप्रेक्षितेऽपि च । स्नेहविच्छेदतः कान्ते सापराधे यदीक्षणम् । वीरसिंहसुतेनोक्तं विच्छेदप्रेक्षितं हि तत् ॥ ४६५ ॥ 468 १६. विभ्रान्ता और उसका विनियोग या विश्रान्तिं कचित्रेति लोलोत्फुल्लकनीनिका । 469 470 472 जिसकी पलकें तथा कोरें कुछ सिकुड़ी हुई हों, पुतलियाँ बार-बार घूमती हों, जो तिरछी चितवन से युक्त हो और आधी खुली हुई हो, वह दृष्टि आकेकरा कहलाती है। कठिनाई से देखने और स्नेहभंगपूर्वक दृष्टिपात करने में उसका विनियोग होता है । प्रिय के अपराधी होने पर स्नेहविच्छेदपूर्वक जो दृष्टि उस पर डाली जाती है, उसको अशोकमल्ल ने विच्छेदप्रेक्षित कहा है । 471 १५१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 474 विस्तीर्णा च बुधैः सोक्ता दृष्टिर्विभ्रान्तसंज्ञिका । 473 विभ्रमे सा तथा वेगे विरामेऽपि नियुज्यते ॥४६६॥ जो कहीं विश्राम नहीं पाती तथा चंचल रहती है, जिसघी पुतलियाँ खिली हुई हों और जो फैली हई हो, उसे विद्वानों ने विमान्तादृष्टि कहा है। भ्रान्ति (बेचैनी), आवेग और विराम के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। १७. विलुप्ता और उसका विनियोग स्फुरितौ या पुटौ स्तब्धौ पतितावपि चेत्क्रमात् । धत्ते सा विप्लुता दृष्टिर्गदिता चापले बुधैः ।। उन्मादे च तथा? च दुःखादावापि युज्यते ॥४६७॥ 475 जो दृष्टि क्रमशः क्षुब्ध, स्थिर तथा गिरी हुई दोनों पलकों को धारण करती है (अर्थात् इन स्थितियों में वर्तमान रहती है) उसे विलुप्ता कहते हैं। चपलता, उन्माद, पीड़ा तथा दुःख आदि के अभिनय में विद्वानों ने उसका विनियोग बताया है। १८. त्रस्ता और उसका विनियोग त्रासोद्ममत्पुटद्वन्द्वा या कम्पितकनीनिका । उत्फुल्लमध्यमा त्रस्ता सा दृष्टिस्त्रासगोचरा ॥४६॥ 476 जिसकी दोनों पलके भय से घूमती हों, पुतलियाँ कांपती हों और जिसका मध्य भाग विकसित हो उसे त्रस्ता दृष्टि कहा जाता है। त्रास के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १९. विकोशा और उसका विनियोग उत्फुल्लपुटयुग्माना यानवस्थिततारका । निनिमेषा समुत्फुल्ला विकोशा सा दृगीरिता । उग्रदर्शनविज्ञानक्रोधेषु ज्ञानगर्वयोः ॥४६६॥ जिसकी दोनों पलकों के अग्रभाग खिले हों, पुतलियाँ घमती हों, पलकें निनिमेष (अपलक) हों और जो अत्यन्त विकसित हो, वह दृष्टि विकोशा कहलाती है। भयंकर दर्शन, विज्ञान, क्रोध, पाण्डित्य और गर्व के भावों के अभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है। १५२ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण २०. त्रिविषा मदिरा और उसका विनियोग प्राणितान्तरा क्षामा किञ्चिदञ्चिततारका । विकाशिता चला दृष्टिमदिरा तरुणे मदे [१] ॥४७०॥ मनाकस्रस्तपुटा दृष्टिर्या किञ्चिभ्रान्ततारका । अनवस्थितसंचारा मुहुः पक्षमाग्रपीडिता ॥४७१॥ मदिरा सा मदे धीरैर्मध्यमे परिकीर्तिता [२] । अधस्तात्सञ्चरन्ती या किञ्चिल्लक्षिततारका । सनिमेषा च सा धीरैर्मदिरोक्ताऽधमे मदे [३] ॥४७२॥ 481 मदिरा दृष्टि के तीन भेद कहे गये हैं, जिनका लक्षण-विनियोग इस प्रकार है : (१) जिस दृष्टि का भीतरी भाग घूमता हो, जो क्षीण हो, जिसकी पुतली कुछ झुकी हो और जो खिली हुई तथा चंचल हो, उसे मदिरा कहते हैं । पूर्ण मद के अभिनन में उसका विनियोग होता है। (१) जिस दृष्टि की पलक कुछ गिरी हुई हो, पुतली कुछ घूम रही हो, गति अस्थिर हो और जो बरौनी के अग्रभाग से बार-बार पीड़ित हो, उसे भी मदिरा कहते हैं । धीर पुरुषों ने मध्यम मद के अभिव्यंजन में उसका विनियोग बताया है। (३) जो दृष्टि नीचे की ओर संचरण करती हो, जिसकी पुतली कम दिखायी पड़ती हो और जो पलक मारती हो, उसे भी मदिरा कहते हैं। धीर पुरुषों ने अधम मद के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। . दृष्टि के अनन्त भेद षत्रिंशद् दृष्टयस्त्वेता दिङ्मात्रेण मयोदिताः । अनन्ता भ्र पुटादीनां सन्दर्भात् सन्ति दृष्टयः ॥४७३॥ 482 स्फुटयन्त्यो रसादीन याः करैरपि निवेदिताः ।। चतुर्मुखोऽपि ता वक्तुं समर्थो नेतरः कथम् ॥४७॥ 483 उक्त छत्तीस प्रकार की दृष्टियाँ मैंने केवल दिग्दर्शन के लिए बतायी हैं । भवों तथा पलकों आदि के संयोग से उनके अनन्त भेद हो जाते हैं। विभिन्न रसों के अनुसार उनका अभिव्यंजन होता है, जो कि हस्ताभिनयों के सन्दर्भ में यथास्थान निरूपित की गयी हैं। स्वयं ब्रह्मा भी उन समस्त भेदों का वर्णन करने में असमर्थ हैं। फिर दूसरे की बात का तो कहना ही क्या ? छत्तीस प्रकार की दृष्टियों का निरूपण समाप्त Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के भेद नृत्याध्यायः सात प्रकार की भ्र (भौं) का अभिनय सहजा रेचितोत्क्षिप्ता कुञ्चिता पतिता तथा । चतुरा भ्रुकुटी चेति सद्भिः सप्तधोदिता । 484 सज्जनों ने भौं के सात भेद बताये हैं : १. सहजा, २. रेचिता, ३. उत्क्षिप्ता, ४. कुञ्चिता, ५. पतिता, ६. चतुरा और ७. कुटी । १. सहजा और उसका विनियोग सहजा तु स्वभावस्था भावेषु सहजेषु सा ॥। ४७५ || - स्वाभाविक स्थिति में रहने वाली भौं सहजा कहलाती है । सहज भावों के अभिनय में उसका विनियोग है। २. रेचिता और उसका विनियोग १५४ भ्रूरेका ललितोत्क्षिप्ता रेचिता नृत्तसंश्रया ॥ ४७६ ॥ 485 एक ही भौं को सुन्दरता के साथ ऊपर उठाने को रचिता कहते हैं। ललित भावों के अभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है । ३. उत्क्षिप्ता और उसका विनियोग श्रन्वर्थलक्षणोत्क्षिप्ता क्रमाद्वाथान्यया सह । कोपे स्त्रीणां वितर्के च श्रवणे दर्शने निजे । लीलादावपिलायां नियोज्यैषा मनीषिभिः ॥ ४७७ || यदि भौवों को क्रमशः अथवा एक के साथ दूसरी को ( अर्थात् एक साथ ) ऊपर उठाया जाय तो उसे उत्क्षिप्ता कहा जाता है। स्त्रियों के कोप, तर्क-वितर्क, श्रवण, आत्मदर्शन, लीला और अवज्ञा के भावों के अभिव्यंजन में मनीषियों ने उसका विनियोग बताया है । ४. कुञ्चिता और उसका विनियोग 486 मृदुभङ्गा तु कार्यद्वा सार्धद्वितीयया । वासा कुञ्चिता प्रोक्ता विलासे किलकिञ्चिते । मोट्टायिते कुट्टमिते नियुक्ता सा प्रयोक्तृभिः || ४७८ ॥ 487 488 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण यदि एक या दोनों भौहों को मृदुता के साथ टेढ़ा कर दिया जाय या झुका दिया जाय तो उसे कुञ्चिता भौं कहते हैं। विलास (क्रीड़ा खेल मनोरंजन ) किलकिंजित, मोट्टायित और कुट्टमित के अभिनय में नाट्याचार्यों ने उसका विनियोग बताया है । ( किलकिजित एक हाव है, जिसमें नायिका एक साथ कई भाव प्रकट करती है । मोट्टायित भी एक हाव है, जिसमें नायिका का अनुराग छिपाने की चेष्टा करने पर भी प्रकट हो जाता है । इसी प्रकार कुट्टमित भी एक हाव है, जिसमें नायिका सुखानुभव के समय बनावटी दुःखचेष्टा प्रकट करती है) । ५. पतिता और उसका विनियोग पतिता भ्ररधः प्राप्ता सद्वितीया क्रमेण वा । जुगुप्योः । हासे घ्राणे विस्मये च रोषे प्रसूयत्क्षेपयोश्च पति गदिते भ्रुवौ ॥ ४७६ ॥ 1 यदि दोनों भी एक साथ या क्रमशः एक-एक करके नीचे झुका दी जायें तो उन्हें पतिता कहा जाता हास, घाण, विस्मय, क्रोध, हर्ष और घृणा के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ईर्ष्या और फेंकने के भावों के अभिव्यंजन में दोनों पतिता भौहों का प्रयोग करना चाहिए । ६. चतुरा और उसका विनियोग 489 स्तोकस्पन्दाऽलसा या भ्रू रायता स्याद् द्वितीयया । चतुरा सा भवेत्सौम्यसंस्पर्शे ललितेऽपि च । श्रृङ्गाराभिनयेऽप्येवं ज्ञेया अभिनयाः परे ॥४८० ॥ 491 जो भी किञ्चित् चलती हो, आलस्ययुक्त हो और दूसरी भों के साथ फैली हुई हो उसे चतुर । कहते हैं । कोमल स्पर्श, ललित वस्तु और शृंगारिक अभिनय में उसका विनियोग होता है । अन्य अभिनयों में भी इसी प्रकार उसका विनियोग समझ लेना चाहिए । ७. भृकुटि और उसका विनियोग नौ प्रकार की पलकों का अभिनय समौ विततौ स्यातां प्रसृतौ कुञ्चितौ तथा । 490 द्वितीयया सहामू लोत्क्षिप्ता कुटिना (? भ्रू कुटी) रुषि ॥ ४८१ ॥ यदि एक भौं दूसरी भौं के साथ जड़ के ऊपर उठा दी जाय ( अर्थात खूब तान दी जाय ) तो उसे भ्रुकुटी कहते हैं। क्रोध के अभिनय में उसका विनियोग होता है। 1 पलकों के भेद 492 १५५ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः पिहितौ स्फुरितौ स्यातामुन्मेषितनिमेषितौ ॥४८२॥ वितालिताभिधौ चैवं नवधेति पुटौ मतौ । 493 पलकों के नौ भेद बताये गये हैं : १. सम, २. विवर्तित, ३. प्रसृत, ४. कुञ्चित, ५. पिहित, ६. स्फुरित, ७. उन्मेषित, ८. निमेषित और ९. वितालित । १. सम और उसका विनियोग पुटौ साहजिको स्यातां समौ सहजगोचरौ ॥४८३॥ स्वाभाविक स्थिति में विद्यमान पलकें सम कही जाती हैं । स्वाभाविक स्थिति के प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। २. विवर्तित और उसका विनियोग विवर्तितौ समुभ्रान्तौ क्रोधे प्रोक्तौ मनीषिभिः ॥४८४॥ 494 भ्रमित या अस्तव्यस्त पलकें विवर्तित कहलाती हैं । क्रोध के अभिनय में उनका विनियोग होता है। ३. प्रसूत और उसका विनियोग प्रसृतौ त्वायतावुक्तौ विस्मये हर्षवीरयोः ॥४८॥ फैली या लम्बायमान पलकें प्रसृत कहलाती है। विस्मय, हर्ष, तथा वीरता के अभिनय में उनका विनियोग होता है। ४. कुञ्चिन और उसका विनियोग अन्वर्थो कुञ्चितौ स्यातामनिष्टे प्रेक्षणे रसे ।। 495 गन्धे स्पर्श तथा प्रोक्तौ वीरसिंहसुसूनुना ॥४८६॥ सिकड़ी हई पलकें कुञ्चित कहलाती हैं । अनिष्ट, निरीक्षण, रस, गन्ध तथा स्पर्श के अभिनय में उनका विनियोग होता है। ५. पिहित और उसका विनियोग अन्वर्थो पिहितौ प्रोक्तौ सुप्तेऽक्षिव्यथनेऽपि च ।। 496 मूर्छातिवर्षयोरुष्णवातधूमाञ्चनार्तिषु ॥४८७॥ बन्द की हई दोनों पलकें पिहित कहलाती हैं। शमन, नेत्रपीडा, मर्छा, अतिवृष्टि, उष्णवात (लू), धुओं, आंजन और पीड़ा के अभिनय में उनका विनियोग होता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. स्फुरित और उसका विनियोग दृष्टि प्रकरण अन्वर्थी स्फुरितौ ज्ञेयौ धीरैरीर्ष्यास्विमौ मतौ ॥ ४८८ ॥ 497 फड़कने वाली दोनों पलकें स्फुरित कहलाती हैं । ईर्ष्या के अभिनय में धीर पुरुषों ने उनका विनियोग बताया है। ७. उन्मेषित और ८ निमेषित तथा उनका विनियोग उन्मेषितावलग्नौ स्तः संलग्नौ तु निमेषितौ । इमावुभावपि ज्ञेयौ क्रोधाभिनयने बुधैः ॥४८६ ॥ 498 यदि दोनों पलकों को खोल दिया जाय तो वे उन्मेषित और बन्द कर दिया जाय तो निमेषित कहलाती हैं । विद्वानों ने क्रोध के अभिनय में इन दोनों पलकों का विनियोग बताया है । ९. वितालित और उसका विनियोग वितालितावुत्तरेण पुटेनाधः स्थिताहतेः । प्राहुः परे त्वलक्ष्ये तावतिविस्तारितौ पुटौ ॥४६०॥ 499 यदि ऊपर की पलक से नीचे की पलक पर चोट की जाय तो वे वितालित कहलाती हैं। दूसरे आचार्यों के मत से अत्यन्त फैली हुई पलकें वितालित कहलाती हैं । अदृश्य वस्तु के अभिनय में उनका विनियोग होता है । तारों (आँखों की पुतलियों) का निरूपण तारों के भेद ब्रवेऽहं तानि कर्माणि ताराभेदा भवन्ति ये । द्विधा तान्यात्मनिष्ठानि विषयाभिमुखानि च ॥ ४६१ ॥ 500 अब तारा भेदों तथा उनके कार्यों का निरूपण किया जा रहा है । उनके कार्य दो प्रकार के होते हैं: एक आत्मनिष्ठ और दूसरे विषयाभिमुख । आत्मनिष्ठ ताराकर्म (१) प्राकृतं भ्रमणं पातो वलनं चलनं तथा । प्रवेशनं समुद्वृत्तं निष्क्रामञ्च विवर्तनम् ॥ ४६२ ॥ नवोक्तान्यात्मनिष्ठानि ताराकर्माणि कोविदैः । 501 विद्वानों ने आत्मनिष्ठ ताराकार्यों के नौ भेद बताये हैं : १. प्राकृत, २. भ्रमण, ३. पात, ४. वलन, ५. चलन, ६. प्रवेशन, ७. समुद्वत्त, ८. निष्क्राम और ९. विवर्तन । १५७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्राकृत तारयोः समवस्थानं प्रकृत्या प्राकृतं मतम् ||४६३ ॥ तारों (पुतलियों) की समवस्थित स्वाभाविक स्थिति प्राकृत कहलाती है । २. भ्रमण नृत्याध्यायः पुटान्तर्मण्डलावृत्तिस्तारयोभ्रं मणं पलकों के भीतर तारों को मण्डलाकार में घुमाना भ्रमण कर्म कहलाता है । ३. पात पातोऽधोगमनम् - तारों का नीचे गिराना पात कहलाता है । ४. वलन तारों का तिरछा घुमाना वलन कहलाता है । ५. चलन - तिर्यग्गमनं वलनं मतम् । कम्पनं चलनं ज्ञेयम्तारों का काँपना चलन कहलाता है । ६. प्रवेशन -प्रथ तत् स्यात् प्रवेशनम् ||४६५ ॥ पुटान्तरे प्रवेशो यः तारों का पलकों के भीतर प्रवेश करना प्रवेशन कहलाता है । ७. समुद्वृत्त मतम् ॥४६४॥ तारों को ऊपर की ओर घुमाना या उन्नत करना समुद्वत्त कहलाता है । ८. निष्काम — समुद्धृतं समुन्नतम् । निष्कामो निर्गमः प्रोक्तः तारों का बाहर निकलना निष्काम कर्म कहलाता है । ९. विवर्तन तारों का कटाक्ष करना विवर्तन कहलाता है । १५८ - कटाक्षः स्याद् विवर्तनम् ॥ ४९६ ॥ 502 503 504 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि प्रकरण समभावेषु भ्रमणं प्राकृतं पातस्तु करुणे योज्यो वलनं वीररौद्रयोः । वीररौद्रयोः ॥४६७॥ प्राकृत ताराकर्म का समभाव में, भ्रमण का वीर तथा रौद्र रस में, पात का करुण रस में और वलन का वीर तथा रौद्र रस के अभिनय में प्रयोग होता है । भयानके तु चलनं युज्यते तु प्रवेशनम् । हास्यबीभत्सयोर्धीरैः समुद्वृतं सतां मतम् ॥४६८॥ भयानक रस के अभिनय में चलन तथा प्रवेशन ताराकर्मो का विनियोग होता है। धीर पुरुषों का कहना है कि हास्य तथा बीभत्स रस के अभिनय में समवृत्तताराकर्म का विनियोग करना चाहिए । वीरे रौद्रेऽथ निष्क्रामो वीरे रौद्रे भयानके । समं श्रद्भुतेऽप्यथ कर्तव्यं श्रृङ्गारे तु विवर्तनम् ॥४६६॥ A तथा रौद्र रस के अभिनय में निष्क्राम का और वीर, रौद्र, अद्भुत तथा शृंगार रस के अभिनय में विवर्तन तारा कर्म का विनियोग होता हैं । मध्यस्थतारकं सौम्यं दर्शनं सममीरितम् ॥ ५०१ ॥ यदि तारों को बीच में अवस्थित करके सौम्य दृष्टि से देखा जाय तो उसे सम कहते हैं । २. साचि विषयाभिमुख ताराकर्म (२) साच्यनुवृत्तं चावलोकितविलोकिते । श्रालोकितोल्लोकिते च प्रविलोकितमित्यपि ॥ ५०० ॥ विषयाभिमुखान्याहुर्दर्शनानीति सूरयः । 509 विद्वानों ने तारों (पुतलियों) के विषयाभिमुखदर्शनों के आठ भेद बताये हैं : १. सम, २. साचि, ३. अनुवृत्त, ४. अवलोकित, ५. विलोकित, ६. आलोकित, ७. उल्लोकित और ८. प्रविलोकित । १. सम तत् साचि यत् तिरश्चीनं पक्ष्मप्राप्त कनीनिकम् ॥ ५०२ ॥ यदि बरौनियों की ओर तारों को घुमाकर तिरछी चितवन से देखा जाय तो उसे साचि कहते हैं । ३. अनवृत्त 505 कान्यदन्तश्चिरस्था या दिदृक्षा सा बुधैर्मता । निर्वर्णना तया 506 युक्तमनुवृत्तमुदीरितम् ॥५०३॥ 507 508 510 511 १५९ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्याय विद्वानों का मत है कि सम्पूर्ण रूप से चिरकाल तक रहकर भीतर देखने की जो इच्छा होती है वह निवर्णना कहलाती है और उस (निवर्णना) से युक्त दर्शन अनुवृत्त कहलाता है । ४. अवलोकित अधस्ताद्दर्शनं यत् स्यादवलोकितमीरितम् ॥५०४॥ . नीचे पृथिवी की ओर तारना अवलोकित कहलाता है । ५. विलोकित तद् विलोकितमाख्यातं पृष्ठतो यनिरीक्षणम् ॥५०५॥ 512 पृष्ठभाग से निरीक्षण करना या तारों को घुमाकर पीछे देखना विलोकित कहलाता है। ६. आलोकित यदीक्षणं स्वभावस्थमुक्तमालोकितं हि तत् ॥५०६॥ स्वाभाविक स्थिति में रहकर दृष्टिपात करना आलोकित कहलाता है । . ७. उल्लोकित यदुवं दर्शनं सद्भिस्तदुल्लोकितमीरितम् ॥५०७॥ 513 ऊपर की ओर जो दृष्टिपात किया जाता है, सज्जनों ने उसे उल्लोकित कहा है । ८. प्रविलोकित पार्श्वतः प्रेक्षणं धीरंगदितं प्रविलोकितम् ॥५०८॥ पार्श्व देश से दुष्टिपात करने को विद्वानों ने प्रविलोकित कहा है। विनियोग रसभावेषु तान्याहुः साधारण्येन · सूरयः ॥५०॥ 514 विद्वानों ने सामान्यत: रस-भावों के प्रदर्शन में विषयाभिमुखदर्शनों का विनियोग बताया है। दृष्टि निरूपण समाप्त Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण / चार Page #172 --------------------------------------------------------------------------  Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांगाभिनय और उनका विनियोग छह प्रकार का नासाभिनय अशोकमल्ल ने नासाभिनय के छह भेदों का उल्लेख किया है। उनके नाम हैं : १. स्वाभाविकी, २. विकृष्टा, ३. सोच्छ्वासा, ४. विकूणिता, ५. नता और ६. मन्दा । १. स्वाभाविकी और उसका विनियोग स्वाभाविकी स्वभावस्था स्वाभावाभिनये मता ॥५१०॥ स्वाभाविक रूप में अवस्थित नासिका को स्वाभाविको कहते हैं। स्वभाव के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. विकृष्टा और उसका विनियोग ___ अत्युत्फुल्लपुटा नासा विकृष्टा भीतिरोषयोः । प्रातौं तथोर्ध्वश्वासे च तीव्रगन्धेऽप्युदाहृता ॥५११॥ यदि नासिका के नथुनों को अत्यधिक रूप से फुला दिया जाय, तो उसे विकृष्टा कहते हैं । भय, रोष, पीड़ा, ऊर्ध्वश्वास और तीव्र गन्ध के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. सोच्छ्वासा और उसका विनियोग योत्कृष्टमारुता नासा सा सोच्छवासोदिता बुधः । 516 उच्छ्वासे सौरभेऽप्येषा दीर्घोच्छ्वासविधायिषु । निर्वेदादिष्विपि च या भावेषु विनियुज्यते ॥५१२॥ 517 विद्वानों का कहना है कि यथेष्ट वायु से भरी (अर्थात् तेजी से ऊपर सांस खिंचती) हुई नासिका सोच्छ्वासा कहलाती है । साँस को ऊपर खींचने, सुगन्ध ग्रहण करने, उच्छ्वास लेने और वैराग्य या दुःख आदि के भावों को अभिव्यंजित करने में उसका विनियोग होता है। 515 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. विकूणिता और उसका विनियोग नासा संकुचिता या स्यात् सोक्ता धीरैर्विकूणिता । श्रातौं हास्ये जुगुप्सायामसूयायामपि सा स्मृता ॥ ५१३॥ 518 जिस नासिका के नथुने सिकोड़ लिये जायँ उसे विकूणिता कहते हैं। विद्वानों ने पीड़ा, हास्य, जुगुप्सा और असूया के भावों में उसका विनियोग बताया है । ५. नता और उसका विनियोग नृत्याध्यायः मुहुर्लग्नपुटा या तु सा नता सद्भिरीरिता । विच्छिन्नमन्दरुदिते सोच्छ्वासे सा निरूपिता ।। ५१४ ॥ 519 यदि नथुनों को बार-बार सटाया या हिलाया जाय तो, विद्वानों ने उस नासिका को नता कहा है। सिसकने और साँस को ऊपर खींचने में उसका विनियोग होता है । ६. मन्दा और उसका विनियोग ईषच्छ्वासोच्छ्वासयुक्ता नासा मन्दोदिता बुधैः । चिन्तानिर्वेदयोः शोके तथौत्सुक्ये नियुज्यते ॥ ५१५॥ 520 मन्द श्वास एवं उच्छ्वास से युक्त नासिका को विद्वानों ने मन्दा कहा है । चिन्ता, निर्वेद (वैराग्य), शोक और उत्सुकता का भाव प्रदर्शित करने में उसका विनियोग होता है । उन्नीस प्रकार का वायु अभिनय वायु के भेद (ऊर्ध्वश्वास अधः श्वास) १६४ स्वस्थौ चलौ विमुक्तश्च प्रवृद्धोल्लासितौ तथा । निरस्तस्खलितौ श्वासः प्रसृतो नवधोच्छ्वासनिःश्वासावेवं आचार्य कोहल के मत से उच्छ्वास ( साँस खींचने ) और निःश्वास ( साँस छोड़ने) के नौ भेद होते हैं । १. स्वस्थ २. चल, ३. विमुक्त, ४. प्रबुद्ध, ५. उल्लासित, ६. निरस्त, ७. स्खलित, ८. प्रसूत और ९. विस्मित । समो भ्रान्तः कम्पितश्च विलीनान्दोलितौ नतः ॥ ५१७॥ स्तम्भितश्च तथोच्छ्वासनिःश्वासौ सूत्कृतं तथा । सीत्कृतं चेति स प्रोक्तो दशधा लक्ष्मवेदिभिः ॥ ५१८ ॥ विस्मितस्तथा ॥ ५१६ ॥ 521 tataat | 522 523 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण शास्त्रकारों ने वाय के दस भेदों का उल्लेख किया है, जिनके नाम हैं : १. सम २.मान्त, ३. कम्पित, ४. बिलीन, ५. आन्दोलित, ६. स्तम्भित, ७. उच्छ्वास, ८. निःश्वास, ९. सूत्कृत और १०. सीत्कृत । १. स्वस्थ और उसका विनियोग स्वभावजौ यावुच्छ्वासनिःश्वासाख्यौ तु मारुतौ । तौ स्वस्थौ स्वस्वकार्येषु विनियुक्तौ नियोक्तभिः ॥५१॥ 524 उच्छ्वास और निःश्वास नामक स्वाभाविक रूप से गृहीत एवं निःसृत वायु स्वस्थ कहलाता है । नृत्ताचार्यों ने सामान्यतः सभी अभिनयों के भावों में उसका विनियोग बताया है। २. चल और उसका विनियोग उष्णावुच्छ्वासनिःश्वासौ सशब्दौ वक्त्रनिर्गतौ । यौ तौ चलो शोकचिन्तासमौत्सुक्येषु कीर्तितौ ॥५२०॥ 525 जो उच्छ्वास तथा निःश्वास गर्म, शब्दयुक्त तथा मुख से निकले वे चल कहलाते हैं । शोक, चिन्ता तथा तत्सम ... उत्सुकता के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ३. विमुक्त और उसका विनियोग चिरं निरुध्य यो मुक्तो विमुक्तः सोऽनिलो मतः । ध्याने योगे सद्भिरेष प्राणायामे च युज्यते ॥५२१॥ 526 जिस वायु को चिरकाल तक रोक कर छोड़ दिया जाय उसे विमुक्त कहा जाता है । सज्जनों ने ध्यान, योग तथा प्राणायाम के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। ४. प्रबुद्ध और उसका नियोग यो निःश्वासः प्रवृद्धः सन् सशब्दः स्याद् विनिर्गतः । प्रवृद्ध नामासौ वायुः क्षयव्याध्यादिसंश्रयः ॥५२२॥ 527 जो निःश्वास-वायु बहुत बढ़ कर या (अवरुद्ध होकर) शब्द के साथ बाहर निकलता है, उसे प्रबुद्ध कहते हैं । क्षय रोग आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ५. उल्लासित और उसका विनियोग यो नासया शनैः पीतश्विरादुल्लासितस्तु सः । हृद्यगन्धे च सन्दिग्धे नियुक्तः पूर्वसूरिभिः ॥५२३॥ 528 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः जिस वायु को चिरकाल तक धीरे-धीरे नासिका द्वारा पिया ( अर्थात् खींचा) जाय, उसे उल्लासित कहा जाता है । सुगन्ध और सन्दिग्ध वस्तु के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ६. निरस्त और उसका विनियोग क्षिप्तः सकृत् सशब्दो यो निरस्तः सोऽभिधीयते । स रोगे दुःखसंयुक्ते श्रान्तेऽप्येष नियुज्यते ॥ ५२४ ॥ 529 जिस वायु को एक ही बार शब्द के साथ छोड़ दिया जाय, वह निरस्त कहलाता है। रोग, दुःख, संतप्त और थके हुए के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ७. स्खलित और उसका विनियोग यो निष्क्रान्तोऽतिदुःखेन स वायुः स्खलिताभिधः । दशायामन्तिमायां स व्याधिस्खलितयोरपि ॥ ५२५ ॥ 530 जो वायु अत्यन्त कष्ट से बाहर निकलता है, उसे स्खलित कहा जाता है । अन्तिम दशा, व्याधि तथा पतन के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ८. प्रसूत और उसका विनियोग मुखाद् यो निर्गतो दीर्घः सशब्दः प्रसृतस्तु सः । प्रसुप्ताभिनये प्रोक्तोऽशोकमल्लेन धीमता ।।५२६॥ 531 जो दीर्घ श्वास शब्द के साथ मुख से निकलता है, वह प्रसूत कहा जाता है। धीमान् अशोकमल्ल ने सोये हुए के अभिनय में उसका विनियोग बताया है । ९. विस्मित और उसका विनियोग स्याच्चित्तस्यान्यप्रसक्तितः । प्रयत्नेन विना स विस्मितोऽद्भुते कार्यश्चिन्ताविस्मययोरपि ॥ ५२७ ॥ 532 अन्यमनस्कावस्था में, बिना प्रयत्न के ( स्वभावतः ) जो वायु मुख से निकलता है वह विस्मित कहा जाता है । आश्चर्य, चिन्ता और विस्मय के अभिनय में उसका विनियोग करना चाहिए । refor वायु के विनियोग १६६ यः दश त्वन्वर्थलक्ष्माणो विज्ञातव्याः समादयः । (श्लोक ५१७ और ५१८ में ) वायु के सम आदि जो दस भेद बताये गये हैं उनके लक्षणों के अनुरूप ही विनियोग भी समझने चाहिएँ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण समः सहजकार्येषु भ्रान्तो वल्लभसंगमे ॥५२॥ प्रथमेऽथ बुधरुक्तः कम्पितः सुरतेऽनिलः । मूर्छिते तु विलीनोऽथ मरुदान्दोलितो भवेत् ॥५२६॥ 534 पर्वतारोहणेऽथ स्यात् स्तम्भितः शस्त्रमोक्षणे । आघ्राणे कुसुमादीनामुच्छ्वासः परिकीर्तितः ॥५३०॥ 535 पश्चात्तापादिषु प्रोक्तो निःश्वासो नृत्तपण्डितः । वेदनादौ सूत्कृतं स्याच्छीतदुःखे तु सीत्कृतम् ॥५३१॥ 536 नखक्षते कामिनीनां निर्दयाधरपीडने । नृत्तविद्या-विशारदों का कहना है कि सम वाय का विनियोग स्वाभाविक कार्यों में होता है। इसी प्रकार अभिनय में मान्त वाय का प्रिय-समागम में, कम्पित वायु का प्रथम रति-प्रसंग में, विलीन वायु का मूर्छा में, आन्दोलित वायु का पर्वत पर चढ़ने में, स्तम्भित वायु का शस्त्र-संचालन में, उच्छ्वास वायु का पुष्प आदि सूंघने में, निःश्वास वायु का पश्चाताप आदि में, सूत्कृत वायु का वेदना में, और सीत्कृत वायु का शीत, पीड़ा, नखक्षत्रत तथा कामिनियों के अधरों का कसकर दन्तक्षत करने में विनियोग होता है। एवं लोकाद् बुधैल्ह्या नियोगा इतरेऽपि च ॥५३२॥ 537 नासानिलप्रसङ्गन मुखवातोऽपि लक्षितः ॥५३३॥ इसी प्रकार विज्ञ अभिनेताओं को चाहिए कि लोक-परम्परा के द्वारा वे अन्य वायु-भेदों तथा उनके विनियोगों को जान लें । यहाँ नासा-वाय से मुख-वायु को भी ग्रहण कर लेना चाहिए । . स प्रकार के अधरों का अभिनय अधर के भेट 538 विवर्तितो विसृष्टश्च कम्पितो विनिगूहितः । ..सन्दष्टकः समुद्गाख्योऽधरः षोदेति दर्शितः ॥५३४॥ अधरों (नीचे के ओठ) के छह भेद होते हैं, जिनके नाम हैं: १. विवर्तित, २. विसृष्ट, ३.कम्पित, ४. विनिहित, ५. सन्दष्टक और ६. समुद्गक । विकासिरेचितोवृत्तायतानन्यान् परे विदुः। 539 दूसरे आचार्यों ने अधरों के चार भेद और बताये हैं १. विकासी, २. रेचित, ३. उवृत्त और. ४. आयत । १६७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः १. वित्तित और उसका विनियोग तितक्संकुचितो यः स्यादधरः स विवर्तितः । 540 असूयावज्ञयोर्हास्यवेदनादिषु कीर्तितः ॥५३५॥ जो अधर (घृणा से) तिरछा होकर सिकुड़ जाय वह विवर्तित कहलाता है । असूया, अवज्ञा (अनादर), हास्य और वेदना आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । २. विसष्ट और उसका विनियोग विनिष्क्रान्तो विसृष्टः स्याद् द्रव्येणालक्त कादिना । रञ्जने सविलासेऽपि बिब्बोकेऽपि च सुभ्र वाम् ॥५३६॥ 541 जो अधर आगे निकला हो वह विसृष्ट कहलाता है। सुन्दरियों द्वारा विलासपूर्वक महावर आदि से अधरों को रंगने और रूपादि के गर्व से प्रिय की उपेक्षा करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. कम्पित और उसका विनियोग अन्वर्थः कम्पितः शीतरुड्भीपीडाजपादिषु ॥५३७॥ कॉपता हुआ अधर कम्पित कहलाता है । शीत, रोग, पीड़ा, और जप आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. विनिगहित और उसका विनियोग वदनान्तःप्रवेशेनायासे स्याद् विनिगूहितः । 542 स ईर्ष्यारोषयोः स्त्रीणां हठाच्चुम्बति च प्रिये ॥५३८॥ जिस अधर को मुख के भीतर छिपा लेने से कष्ट (आयास) हुआ हो (अर्थात् जिस अधर को आयासपूर्वक मुख के भीतर छिपा लिया जाय), वह विनिगहित कहलाता है। स्त्रियों की ईर्ष्या तथा कोप और उनका वलात चम्बन लेते हुए प्रिय के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५. सन्दष्टक और उसका विनियोग योऽधरो दशनैर्दष्टः क्रोधे सन्दष्टकस्तु सः ॥५३॥ 543 जिस अधर को दाँतों से काटा (या चबाया) जाय, वह सन्दष्टक कहलाता है। क्रोध के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। ६. समुद्गक और उसका विनियोग यो दधात्युन्नतावोष्ठसम्पुटौं स समुद्गकः । चुम्बनेष्वनुकम्पायां फूत्कारेऽप्यभिनन्दने ॥५४०॥ 544 १६८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण जिसके दोनों ओष्ठपुट उन्नत हों (अर्थात् जो ओष्ठ अपनी स्वाभाविक स्थिति में हों ) वह अघर समुद्गक कहलाता है । चुम्बन आदि, कृपा, फूकने और अभिनन्दन करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ७. उवृत्त और उसका विनियोग उद्वृत्तो वदनोत्क्षेपात् सोऽवज्ञापरिहासयोः ॥ ५४१॥ जिस अघर को मुँह की ओर उठाया गया हो, वह उद्वृत्त कहलाता है । अनादर और परिहास के अभिनय में में उसका विनियोग होता है । ८. विकासी और उसका विनियोग किञ्चिल्लक्ष्योर्ध्वदन्तो यः स विकासी स्मिते मतः ॥ ५४२ ॥ 545 जिस अघर के ऊपर दाँत कुछ दिखायी पड़ें, वह विकासी कहलाता है । ईषत् हास्य ( मुसकुराहट) के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ९. रेचित और उसका विनियोग रेचितोन्वर्थलक्ष्मा स्याद् विलासे स नियुज्यते ॥५४३॥ साफ किया गया अधर रचित कहलाता है । विलास के अभिनय में उसका विनियोग होता है । १०. आयत और उसका विनियोग ततः सहोत्तरोष्ठेनायतः स्यात् सोऽद्भुते रसे ॥५४४॥ 546 ऊपर के ओठ के साथ फैला हुआ अघर आयत कहलाता है । अद्भुत रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । छह प्रकार का जिह्वा अभिनय जिवा के भेद, ऋज्वी लोला लेहिनी च वक्रा सुक्कानुगोन्नता । षोढेति रसनां प्राहाऽशोकमल्लो नृपाग्रणीः ॥ ५४५॥ 547 महाराज अशोकमल्ल ने जिह्वा के छह भेद बताये हैं, जिनके नाम हैं : १. ऋज्वी, २. लोला, ३. लेहनी, ४. वत्रा, ५. सुक्कानुगा और ६. उन्नता । १. ऋज्वी और उसका विनियोग २२ ऋज्वी, सा व्यात्तवक्त्रे या रसना स्यात् प्रसारिता । एषा श्रमे श्वापदानां पिपासायामपि स्मृता ॥ ५४६ ॥ 548 १६९ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः खोले हुए मुँह में फैलायी गयी जिह्वा को ऋज्वी कहते हैं। श्रम और हिंस्र पशुओं की प्यास के अभिनय में उसका विनियोग होता है । २. लोला और उसका विनियोग व्यात्तास्ये या चला लोला सा वेतालनिरूपणे ॥ ५४७ ॥ खोले हुए मुँह में लपलपाती जिह्वा को लोला कहते हैं । वेताल के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ३. लेहनी या जिह्वा लेढि दन्तोष्ठं सा सद्भिर्लेहिनी मता ॥ ५४८ ॥ जो जिह्वा दाँत और ओष्ठ को चाटती हो, सज्जनों ने उसे लेहनी कहा है । ४. वक्रा और उसका विनियोग प्रसृतास्यान्नताग्रे या सा वक्रा नृहरौ मता ॥ ५४६ ॥ जो आगे फैली हुई जिह्वा अग्र भाग से झुकी हो, वह वा कहलाती है । नृसिंह के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५. सुक्कानुगा और उसका विनियोग या जिह्वा लीढक्का सा प्रोक्ता सृक्कानुगा रुषि । स्वादुभक्ष्ये चैवमन्ये ज्ञेया अभिनया अपि ॥ ५५०॥ जो जिह्वा ओष्ठ के प्रान्त भाग को चाटती हो. वह सृक्कानुगा कहलाती है । क्रोध तथा स्वादिष्ट भोजन के अभिनय में उसका विनियोग होता है । इसी प्रकार अन्य अभिनयों में भी उसका विनियोग समझ लेना चाहिए । ६. उन्नता और उसका विनियोग 549 प्रसारितमुखे या वोन्नता जिह्वोन्नता मता । सा वक्त्रान्तःस्थवीक्षायां जृम्भाभिनयनेऽपि च ॥ ५५१॥ १७० भिद्यन्ते दशना यैस्तु तानि कर्माण्यहं ब्रुवे । समं छिन्नं खण्डनं च चुक्कितं कुट्टनं तथा ॥५५२॥ 550 फैलाये हुए मुँह में जो जिह्वा ऊपर की ओर उठी हो, वह उन्नता कहलाती है। मुँह के भीतर देखने तथा जम्हाई लेने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । आठ प्रकार के दन्तकर्म का निरूपण दाँतों के भेद 551 552 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण 453 दष्टनिष्कर्षणे तद्वद् ग्रहणं चेति सञ्जगुः । अष्टौ दशनकर्माणि लक्ष्मलक्ष्यविशारदाः । जिनसे दांतों के भेद अवगत होते हैं, उन कार्यों का मैं यहाँ निरूपण कर रहा हूँ । लक्षण और लक्ष्य के ज्ञाताओं ने दन्तकर्म के आठ भेद बताये हैं। उनके नाम हैं : १. सम, २. छिन्न, ३. खण्डन, ४. चुविकत, ५. कटन, ६. दष्ट, ७. निष्कर्षण और ८. ग्रहण । १. सम और उसका विनियोग ___ सममुक्तं मनाक् श्लेषस्तत् स्यात् सहजकर्मणि ॥५५३॥ 664 जिन दाँतों को किञ्चित् मिला लिया जाय उन्हें समकर्म कहते हैं । सामान्यतः सभी प्रकार के अभिनयों में उसका विनियोग होता है। २. छिन्न और उसका विनियोग छिन्नं तु दृढसंश्लेषो रोदने व्याधिशीतयोः । वीटिकाछेदने भीतौ व्यायामादिष्वपि स्मृतम् ॥५५४॥ 555 दाँतों को दृढ़ता से मिलाना छिन्न कर्म कहलाता है। रुदन, व्याधि, शीत, कपड़े की गाँठ काटने, भय और व्यायाम आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. खण्डन और उसका विनियोग मुहुर्दशनसंश्लेषविश्लेषः खण्डनं मतम् । संलापेऽध्ययने तत् स्याज्जपभक्षणयोरपि ॥५५५॥ 556 दाँतों को बार-बार मिलाना और अलग करना खण्डन कर्म कहलाता है । वार्तालाप, अध्ययन, जप और भक्षण आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ४. चुक्कित और उसका विनियोग दूरे स्थितिर्दन्तपङ्क्त्योः चुक्कितं तच्च जम्भणे ॥५५६॥ दोनों दन्त-पंक्तियों को दूरी में रखना चुक्कित कर्म कहलाता है । जम्हाई लेने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५. कुट्टन और उसका विनियोग .. कुट्टनं दन्तसंघर्षः शीते भीरुगजरास्विदम् ॥५५७॥ 667 दाँतों को रगड़ना या किटकिटाना कुट्टन कर्म कहलाता है । ठंडक, भय, रोग और बुढ़ापे के अभिनय में उसका विनियोग होता है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. दष्ट और उसका विनियोग श्रधरे दशनैर्दशो दष्टं क्रोधे निरूपितम् ॥ ५५८ ॥ दाँतों से अधर (नीचे का ओंठ ) को काटना दष्ट कर्म कहलाता है। क्रोध के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ७. निष्कर्षण और उसका विनियोग नृत्याध्यायः निष्कर्षणं स्यान्निष्कासो मतं मर्कटरोदने ॥ ५५६ ॥ 558 दाँतों को बाहर निकालना निष्कर्षण कर्म कहलाता है । बन्दर के चिचियाने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ८. ग्रहण और उसका विनियोग परिकीर्तितम् । लेहनं जिह्वया लेहस्तल्लौल्याभिनये मतम् । इत्याह ग्रहणस्था भरतो मुनिसत्तमः ॥५६०॥ दातों से तृण आदि पकड़ना ग्रहण कर्म कहलाता है। मुनिश्रेष्ठ भरत ने ग्रहण कर्म के स्थान पर लेहन कर्म बताया है और जिह्वा से चाटने को लेहन कर्म कहा है। चंचलता या लोभ के अभिनय में उसका विनियोग होता है। छह प्रकार के कपोलों का अभिनय कपोलों के भेद तृणादेर्धारणं दन्तैर्ग्रहणं १७२ 559 समौ क्षामौ कम्पितौ च फुल्लाख्यौ कुञ्चितावपि । पूर्णौ कपोलौ षोढेति तल्लक्ष्माद्यधुना ब्रुवे । दोनों कपोलों के छह भेदों के नाम हैं : १. सम, २. क्षाम, ३. कम्पित, ४. फुल्ल, ५. कुञ्चित और ६. पूर्ण । अब उनके लक्षणों का निरूपण किया जाता है । समादि और उनका विनियोग 560 श्रन्वर्थलक्षणाः पञ्च ज्ञेयास्तत्र समादयः ॥५६१॥ 561 सम आदि पाँच भेदों के लक्षण ( अपने-अपने ) अर्थ के अनुरूप समझने चाहिएं । (अर्थात् जो कपोल स्वाभाविक सम स्थिति में हों उन्हें सम; जो क्षीण या पिचके हुए हों वे क्षाम; जो कम्पनयुक्त हों वे कम्पित; प्रफुल्लित हों उन्हें फुल्ल; और जो सिकुड़े हुए हों उन्हें कुञ्चित कहते है ) । पूर्ण यावुन्नतौ कपोल तौ पूर्णौ धीरैरुदीरितौ ॥५६२॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण जो कपोल उन्नत हों, उन्हें धीर पुरुषों ने पूर्ण कहा है। समौ सहजभावेषु क्षामौ दुःखे निरूपितौं । 562 कम्पितौ रोमहर्षेषु फुल्लौ प्रीतौ बुधैर्मतौ ॥५६३॥ कुञ्चितौ साध्वसे स्पर्श शीते रोमाञ्चितेऽपि च । 563 पूर्णावशोकमल्लेन प्रोक्तावुत्साहगर्वयोः ॥५६४॥ विद्वानों का कहना है कि स्वाभाविक भावों के अभिनय में सम कपोलों का, दःख के अभिनय में क्षाम कपोलों का, रोमांच के अभिनय में कम्पित कपोलों का, प्रीति के अभिनय में फल्ल कपोलों का और भय, स्पर्श, शीत तथा रोमांच के अभिनय में कुञ्चित कपोलों का विनियोग होता है। अशोकमल्ल का कहना है कि उत्साह तथा गर्व के अभिनय में पूर्ण कपोलों का प्रदर्शन करना चाहिए। आठ प्रकार के चिबुक का अभिनय चिबुक (ठोढ़ी) के भेद चिबुकं लक्षितप्रायं यद्यप्योष्ठादिकर्मणा । 564 तथाप्यहं सुबोधाय तल्लक्ष्म व्याहरेऽधुना ॥५६५॥ यद्यपि ओष्ठ आदि के लक्षण-विनियोग से चिबुक के अभिनय का भी बोध हो जाता है ; फिर भी (उनकी) सहज जानकारी (स्पष्टीकरण) के लिए यहाँ (पृथक् रूप से) उनका निरूपण किया जा रहा है । व्यादी] चलितं लोलं श्वसितं चलसंहतम् । 565 संहतं स्फुरितं वकं चैवं चिबुकमष्टधा ॥ चिबुक के आठ भेदों के नाम इस प्रकार है : १. व्यादीर्ण, २. चलित, ३. लोल, ४. श्वसित, ५. चलसंहत, ६. संहत, ७. स्फुरित और ८. वक्र ।। १. व्यावीर्ण और उसका विनियोग चिबुकं दूरनिष्क्रान्तं व्यादीणं जृम्भणादिषु ॥५६६॥ 566 दूर तक बाहर निकला हुआ चिबुक व्यादीर्ण कहलाता है। जम्हाई लेने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. चलित और उसका विनियोग चलितं श्लेषविश्लेषे क्षोभवाक्स्तम्भयो रुषि ॥५६७॥ १७३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः चिबुक को संयुक्त-वियुक्त करना चलित कहलाता है। क्षोभ, वाणी के स्तम्भन और क्रोध के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. लोलित और उसका विनियोग तिर्यग्गतागते विभ्रल्लोलं चर्वितचर्वणे ॥५६८॥ 567 तिरछे गमनागमन को धारण करने वाला चिबुक लोल कहलाता है। चबाये हुए को चबाने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. श्वसित और उसका विनियोग एकाङगुलादधःपाति श्वसितं प्रेक्षितेऽद्भुते ॥५६॥ एक अँगुल नीचे गिरने वाला चिबुक श्वसित कहलाता है। आश्चर्यजनक वस्तु के देखने के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। ५. चलसंहत और उसका विनियोग चलसंहतमन्वर्थ कामिनीचुम्बने मतम् ॥५७०॥ 568 अपने अर्थ के अनुरूप (अर्थात् चंचल और संयुक्त) चिबुक चलसंहत कहलाता है। कामिनियों के चुम्बन के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। ६. संहत और उसका विनियोग निश्चलं मोलितास्यं यत् तन्मौने संहतं मतम् ॥५७१॥ जो चिबुक निश्चल तथा संकुचित मुख वाला हो, उसे संहत कहा जाता है । मौन के भावाभिव्यंजन में उसका विनियोग होता है। ७. स्फुरित और उसका विनियोग स्फुरितं कम्पनादुक्तं शीते शीतज्वरेऽपि च ॥५७२॥ 569 जो चिबक कांपता हो उसे स्फरित कहते हैं । शीत तथा शीतज्वर के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ८. वक्र और उसका विनियोग तिर्यग्गतं यत् तद् वक्र ग्रहावेशादिषु स्मृतम् ॥५७३॥ जो चिबुक तिरछा चलाया जाय, वह वक्र कहलाता है। ग्रहों के आवेश आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १७४ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण छह प्रकार का मुख का अभिनय मुख के भेद भुग्नमुद्वाहि विवृतं विधुतं विनिवृत्तकम् । 570 व्याभुग्नं चेति षोढोक्तं मुखं तल्लक्ष्म चोच्यते । मुख के छह भेद होते हैं ; १. भुग्न, २. उद्वाहि, ३. विवृत, ४. विधुत, ५. विनिवृत्त और ६. व्याभुग्न । अब उनके लक्षण बताये जाते हैं। १. भुग्न और उसका विनियोग तद्भग्नं यदधोवक्त्रं यतिप्रकृतिलजयोः ॥५७४॥ 571 नीचे झुका या लटका हुआ मुख भुग्न कहलाता है । यतियों के स्वभाव और लज्जा का भाव प्रकट करने के लिए उसका विनियोग होता है। २. उद्वाहि और उसका विनियोग उत्क्षिप्तमास्यमुद्वाहि लीलानादरयानयोः ॥५७५।। ऊपर को खुले या उठे हुए मुख को उद्घाहि कहते हैं। स्त्रियों की लीला, अनादर और वाहन के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. विवृत और उसका विनियोग विवृतं त्वोष्ठविश्लेऽपि शोके हास्ये भयादिषु ॥५७६॥ 572 अलग-अलग ओठों से युक्त खुले हुए मुख को विवृत कहा जाता है । शोक, हास्य और भय आदि के भाव-प्रदर्शन में उसका विनियोग होता है। ४. विषुत और उसका विनियोग _ विधुतं तिर्यगायामि नैवमित्यादिवारणे ॥५७७॥ तिरछे फैलाये हुए मुख को विधुत कहते हैं । ऐसा नहीं' इस प्रकार रोकने या मना करने के भाव में उसका विनियोग होता है। ५. विनिवृत्त और उसका विनियोग व्यावृत्तं विनिवृत्तं तद् रुषीpसूययोरपि । 573 विहृतावज्ञया चैतत् कामिनीनामपि स्मृतम् ॥५७८॥ १७५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः खुले हुए मुख को विनिवृत्त कहते हैं। क्रोध, ईर्ष्या, असूया, विहृत (भावविशेष) और कामिनियों की अवज्ञा के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ६. व्याभुग्न और उसका विनियोग यन्मनागायतं वक्त्रं तद् व्याभुग्नमितीरितम् । - 574 औत्सुक्यचिन्तानिर्वेदगम्भीरालोकनादिषु ॥५७६॥ (दोनों पावों में) किञ्चित् फैले हुए मुख को व्याभग्न कहते हैं । उत्सुकता, चिन्ता, विरक्ति और गंभीरतापूर्वक अवलोकन आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । चार प्रकार के मुख राग का निरूपण मुखराग (मुख के भाव) येनाभिव्यज्यते चित्तवृत्तिर्धार रसात्मिका । 575 रसाभिव्यक्तिहेतुत्वात् मुखरागः स उच्यते ॥५८०॥ जिस (भाव) के द्वारा धीर पुरुष रसात्मक चित्तवृत्ति को अभिव्यक्त करते हैं, वह (भाव) रसाभिव्यक्ति का हेतु होने से मुखराग कहलाता है। मुखराग के भेद स्वाभाविकः प्रसन्नश्च रक्तः श्यामो बुधैरिति । 576 मुखरागश्चतुर्थोक्तस्तल्लक्षणमथोच्यते ॥५८१॥ विद्वानों ने उसके चार भेद बताये हैं : १. स्वाभाविक, २. प्रसन्न, ३. रक्त और ४. श्याम। अब उनके लक्षणों का निरूपण किया जाता है । १. स्वाभाविक और उसका विनियोग तत्र स्वाभाविकोऽन्वर्थः. स्वभावाभिनये मतः । स्वाभाविक रूप से किये जाने वाले मखराग को स्वाभाविक कहते है। स्वाभाविक अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. प्रसन्न और उसका विनियोग __ स्वच्छः प्रसन्नः शृङ्गारेऽद्भुते हास्येऽपि जायते ॥५८२॥ स्वच्छ (सुन्दर-निर्मल) मुखराग प्रसन्न कहलाता है। शृंगार, अद्भुत तथा हास्य रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है। 577 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. रक्त और उसका विनियोग उपगि प्रकरण रक्तोऽन्वर्थोऽद्भुते वीरे रौद्रे च करुणे तथा ॥ ५८३ ॥ 578 लाल मुखराग रक्त कहलाता है। अद्भुत, वीर, रौद्र और करुण रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. श्याम और उसका विनियोग भयानके सबीभत्से श्यामोऽन्वर्थो निरूपितः ॥ ५८४ ॥ काला मुखराग श्याम कहलाता है। भयानक तथा वीभत्स रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । विशेषज्ञर्यथाभावं यथारसम् । 579 रसभावप्रकाशकः ॥ ५८५॥ एवमेव मुखरागो नियुक्तोऽसौ इस प्रकार नाट्याचार्यों ने निर्देश किया है कि भाव और रस के अनुरूप, रस तथा भाव के प्रकाशक मुखराग का प्रयोग करना चाहिए । कृतोऽप्यभिनयस्तावच्छाखाङ्गोपाङ्गसंयुतः 1 न भाति यावन्नोपैति मुखरागं यथारसम् ॥५८६ ॥ (भरत आदि नाट्याचार्यों का यह भी कहना है कि) शाखा, अंग और उपांग के सहित किया गया अभिनय तब तक शोभा नहीं देता, जब तक वह रस के अनुरूप मुखराग से समन्वित नहीं होता । २३ 580 श्राङ्गिकाभिनयोऽल्पोऽपि मुखरागेण संयुतः । शोभां द्विगुणितां धत्ते शशाङ्केनेव शर्वरी ॥५८७॥ 581 थोड़ा भी आंगिक चेष्ठाओं द्वारा किया गया अभिनय मुखराग से समन्वित होने पर उसी प्रकार द्विगुणित शोभा को धारण करता है, जैसे चन्द्रमा से युक्त होने पर रात्रि । रसभावसमाकीर्णदृष्टिभ्र वदनान्वितम् 1 प्रतिक्षणं तथा नेत्रमन्यदन्यत् प्रवर्तते ॥ ५८८ ॥ तथोचितं प्रकुर्वीत मुखरागं प्रयोगवित् । यथारसं यथाभावमिति नृत्यविदां मतम् ॥ ५८६ ॥ र नाट्याचार्यों का अभिमत है कि रस तथा भाव से समाकीर्ण दृष्टि और भ्रू तथा मुख से संयुक्त जैसे-जैसे नेत्रों का अन्यान्य रूप में प्रसार हो, प्रयोगवेत्ताओं (अभिनेताओं) को चाहिए कि, उसी प्रकार रस तथा भाव के अनुरूप मुखराग का भी उचित रीति से प्रयोग करें । 582 583 १७७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः बीस प्रकार के पाणि, गुल्फ और हस्तांगुलि निरूपण पाणि (एडी) के भेद बहिर्गता मिथोयुक्ता वियुक्ताङ्गुलिसङ्गता । 584 उत्क्षिप्ता पतितोत्क्षिप्ता पतितान्तर्गता तथा । पाणिरष्टविधा ज्ञेया नाम्नव व्यक्तलक्षणा ॥५६०॥ 585 एड़ी (पाणि) के आठ भेद होते हैं : १. बहिर्गता (बाहर की ओर निकली हुई), २. मिथोयुक्ता (परस्पर मिली हुई), ३. वियुक्ता (अलग-अलग हुई), ४. अंगुलिसंगता (उँगलियों से मिली हुई), ५. उत्क्षिप्ता (ऊपर को उठी हुई), ६. पतितोक्षिप्ता (गिर कर उठी हुई), ७. पतिता (गिरी हुई) और ८. अन्तर्गता (भीतर की ओर गयी हुई) । इन आठों भेदों के लक्षण उनके नामों से ही स्पष्ट हैं। गुल्फ (टखनों या घुट्टी) के भेद मिथोयुक्तौ वियुक्तौ च श्लिष्टाङ्गुष्ठौ बहिर्गतौ । अन्तर्यातौ चेति गुल्फो स्थानकादिषु पञ्चधा ॥५६१॥ 586 टखनों (गुल्फ) के पांच भेद होते हैं : १. मिथोयुक्त (परस्पर सटे हुए), २. वियक्त (अलग हुए), ३.शिलष्टांगुष्ठ (सटे हुए अंगठों वाले), ४. वहिर्गत (बाहर किये हए) और ५. अन्तर्यात (भीतर किये हए)। बाण साधते समय शरीर की मुद्रा आदि के अभिनय में उनका विनियोग होता है। करागुलि (हाथ की उंगलियों) के भेद वियुक्ताः संहता वक्राः पतिता वलितास्तथा । प्रसृताश्च तथा कुञ्चन्मूलाः सप्तविधा मताः । 587 कराङगुल्यो बुधैरुक्ता नामतो ज्ञातलक्षणाः ॥५६२॥ विद्वानों ने हाथ की उंगलियों के सात भेद बताये हैं : १. वियुक्ता (अलग हुई), २. संहता (मिली हुई), ३. वक्रा (टेढ़ी), ४. पतिता (गिरी हुई), ५. वलिता (मुड़ी हुई), ६. प्रसूता (फैली हुई) और ७. कुञ्चन्मूला (सिकुड़े हुए मूलभाग वाली) । इनके लक्षण उनके नामों से ही स्पष्ट हैं। पाँच प्रकार की चरणांगुलि निरूपण चरणांगुलि (परों की उंगलियों के) भेद प्रसारिता अधःक्षिप्ता उत्क्षिप्ता कुञ्चितास्तथा । 588 संलग्नाश्चेति पदयोरगुल्यः पञ्चधा क्रमात् ॥५६३॥ १७८ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपांग प्रकरण पैरों की उँगलियों के पांच भेद होते हैं। १. प्रसारिता, २. अधःक्षिप्ता ३. उत्तिप्ता, ४. कुग्यिता और ५. संलग्ना । १. प्रसारिता और उसका विनियोग अङगुल्यः सरलाःस्तब्धा यास्ता उक्ताः प्रसारिताः । 689 नियुज्यन्ते बुधरेताः स्वापे स्तम्भेऽङ्गमोटने ॥५९४॥ जो उँगलियाँ सीधी (स्वाभाविक स्थिति में) तथा स्थिर हों वे प्रसारित कहलाती हैं। विद्वानों ने निद्रा, स्तम्भन और अंगों को फोड़ने या चटकाने के अभिनय में उनका विनियोग बताया है। २. अधःक्षिप्ता और उसका विनियोग ____ अधः क्षिप्ता मुहुः पाताद् बिब्बोकादिषु ता मताः ॥५६॥ 590 जिन उँगलियों को बार-बार गिराया जाय, उन्हें अधःक्षिप्ता कहते हैं। रूपादि के गर्व से प्रिय की उपेक्षा (बिब्बोक) आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. उत्क्षिप्ता और उसका विनियोग उच्चर्या मुहुरुत्क्षिप्ता नवोढायास्त्रपाभरैः ॥५६६॥ जो उँगलियाँ बार-बार ऊपर की ओर चलायी या फेंकी जाय, उन्हें उत्क्षिप्ता कहते हैं। नव विवाहिता की लज्जा के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. कुञ्चिता और उसका विनियोग ___ अन्वर्थाः कुञ्चितास्त्रासमूर्छाशीतग्रहादिते ॥५६७॥ 591 सिकुड़ी हुई उँगलियाँ कुञ्चिता कहलाती हैं । त्रास, मूर्छा, ठंडक और ग्रहपीड़ा के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ५. संलग्ना और उसका विनियोग मिथःश्लिष्टास्तु साङ्गुष्ठाः संलग्नाः कर्षणे मताः॥५६॥ अंगुष्ठ सहित परस्पर सटी हुई उँगलियां संलग्ना कहलाती हैं । खींचने के अभिनय में उनका विनियोग होता है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुष्ठ के लक्षण-विनियोग मृत्याध्यायः अङ्गुष्ठस्यापि मेदाः स्युरेत एवोक्त लक्षणाः । उक्त उँगलि-भेदों के ही अनुरूप अंगुष्ठ के भी लक्षण - विनियोग होते हैं । छह प्रकार के पादतल का निरूपण तल ( पादतल) के भेद १.८० कुञ्चन्मध्यं तिरश्चीनं पतिताग्रमधोगतम् । उद्वृत्ताग्रं भूमिलग्नं षोढान्वर्थं तलं मतम् ॥ ५६६॥ 592 593 अर्थ के अनुरूप पादतल के छह भेद होते है : १. कुञ्चिन्मध्य ( सिकुड़े हुए मध्य भाग वाला ), २. तिरश्चीन (तिरछा ), ३. पतिताप्र ( गिरे हुए अग्रभाग वाला ), ४. अधोगत (नीचे की ओर गया हुआ), ५. उद्बुताग्र ( उठे हुए अग्रभाग वाला) और ६. भूमिलग्न (भूमि से सटा हुआ ) । उपांग निरूपण समाप्त Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तप्रचार प्रकरण/पाँच Page #192 --------------------------------------------------------------------------  Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रह हस्तप्रचार का निरूपण हस्तप्रचार (संचालन) के भेद . उत्तानोऽधोमुखः पार्श्वगत एवं त्रिधोदितः । करप्रचारोऽशोकेनापरे तं पञ्चधा जगुः ॥६००॥ 594 अग्रगोऽधस्तलश्चेति द्वौ त्रयः प्रथमोदिताः । प्राहोत्तानोऽग्रगं भट्टोऽधोमुखोऽधस्तलं यतः ॥६०१॥ 595 अन्तर्भूतं ततस्त्रित्वं सङ्गतं प्रथमे मते । ऊत्तानोऽधस्तलः पार्श्वमुखोऽप्यग्रतलस्तथा ॥६०२॥ 596 स्वसम्मुखतलः पार्वतलः पार्श्वगतोऽग्रगः । ऊर्ध्वगोऽधोगतश्चाथ सम्मुखः सम्मुखागतः ॥६०३॥ 597 ऊर्ध्वमुखस्तथा चाधोवदनोऽथ पराङ्मुखः । एवं पञ्चदश प्राहुः प्रचारान् केऽपि सूरयः ॥६०४॥ 598 अशोकमल्ल ने हस्तप्रचार (हस्त-संचालन) के तीन भेद बताये है : १. उत्तान २. अधोमुख और ३. पार्श्वगत। दूसरे विद्वानों ने उसके पाँच भेदों का उल्लेख किया है : १. अग्रग, २. अषस्तल, ३, उत्तान, ४. अधोमुख और ५. पार्श्वगत । आचार्य भट्ट का कहना है कि अग्नग और उत्तान तथा अधोमुख और अधस्तल अभिन्न हैं। इसलिए प्रथम मत में ही दूसरे मत का अन्तर्भाव हो जाता है। कुछ विद्वानों ने उसके पन्द्रह भेद बताये हैं : उनके नाम हैं : १. उत्तान, २. अघस्तल, ३. पार्श्वमुख, ४. अग्रतल, ५. स्वसम्मुखतल, ६. पार्वतल, ७. पार्श्वगत, ८. अग्रग, ९. ऊर्ध्वग, १०. अघोगत, ११. सम्मुख, १२. सम्मुखागत, १३. ऊर्ध्वमुख, १४. अधोमुख और १५. पराक मुख । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः तेरह हस्तक्षेत्र का निरूपण हस्तक्षेत्र (हाथों के स्थानों) के भेद शिरो ललाटं श्रवणं स्कन्धोरः कटिशीर्षकम् । नाभी पार्श्वद्वयं पश्चादूवं चाधः पुरस्ततः । 599 ऊरुद्वयं च हस्तानां क्षेत्राणीति त्रयोदश ॥६०५॥ हाथों के तेरह स्थान (क्षेत्र) बताये गये हैं, जिनके नाम हैं : १. शिर, २. ललाट, ३. कान, ४. कन्धा, ५. वक्षःस्थल, ६. कमर, ७. नाभि, ८. दोनों पाव, ९. पीछे, १०. ऊपर, ११. नीचे, १२. सामने और १३. दोनों जंघाएँ। बीस करकर्मों का निरूपण करकर्म (हाथों के कार्यों) के भेद मोक्षणं रक्षणं क्षेपो निग्रहश्च परिग्रहः । धूननं स्फोटनं श्लेषो विश्लेषो मोटनं तथा ॥६०६॥ तोलनं ताडनं छेदोत्कृष्टयाकृष्टिविकृष्टयः । विसर्जनं तथाह्वानं तर्जनं भेद इत्यपि । संज्ञया ज्ञातलक्ष्माणि करकर्माणि विंशतिः ॥६०७॥ 602 संकेत या इशारे से निष्पादित होने वाले हस्त-कार्यों के बीस भेदों का अर्थ-ग्रहण उनके लक्षणों से ही कर लेना चाहिए । उनके नाम है : १. मोक्षण (छुड़ाना), २. रक्षण (रक्षा करना), ३. क्षेप (फेंकना), ४. निग्रह, (रोकना), ५. परिग्रह (लेना), ६. धूनन (कंपाना), ७. स्फोटन (फोड़ना), ८. श्लेष (मिलाना), ९. विश्लेष (अलग करना), १०. मोटन (चूर्ण करना), ११. तोलन (तौलना), १२. ताडन (पीटना), १३. छेद (काटना), १४. उत्कृष्टि (ऊपर उठाना), १५. आकृष्टि (खींचना), १६. विकृष्टि (हटाना), १७. विसर्जन (समाप्ति या विदा करना), १८. आह्वान (बुलाना), १९. तर्जन (मारना) और २०. भेद (फोड़ना)। चार हस्तकरणों का निरूपण हस्तकरण (हस्त चेष्टाएँ) यथालक्ष्मविनिष्पन्नहस्तस्याभिनयाय या । कृतिः क्रियाविशेषस्य तद्धस्तकरणं भवेत् ॥६०८॥ 603 १८४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तप्रचार प्रकरण शास्त्रीय विधि से निष्पन्न हस्ताभिनय के लिए जो हस्तमुद्रा विशेष रूप से प्रयुक्त होती है उसे हस्तकरण कहा जाता है। हस्तकरण के भेद आवेष्टिताभिधं पूर्वमुद्वेष्टितमतः परम् । व्यावर्तितं तथा ज्ञेयं परिवर्तितमित्यपि ॥६०६॥ 604 चतुर्धवं तदाख्यातं तल्लक्ष्म व्याहरे क्रमात् । हस्तकरण के चार भेद होते है : १. आवेष्टित, २. उद्वेष्टित ३. व्यावर्तित और ४. परिवर्तित । उनके लक्षण क्रमशः निरूपित किये जा रहे हैं । १. आवेष्टित 605 तर्जन्याद्या यदाङगुल्यः कुर्वन्त्यावेष्टनं क्रमात् ॥६१०॥ तलसम्मुखमावक्ष एति हस्तोऽपि पावतः । आवेष्टितं तदा प्रोक्तं करणं नृत्यकोविदः ॥६११॥ 606 जब (अंगूठे को छोड़कर) शेष चारों उँगलियाँ क्रमशः मोड़ ली जाती हैं और हथेली को सम्मुख करके हाथ को भी बगल से छाती तक पहुंचा दिया जाता है, तब नृत्यविशारदों ने उसको आवेष्टित करण कहा है । २. उद्वेष्टित तर्जन्याद्यगुलीनां चेन्निर्यातं स्यात् तलावहिः । क्रमात् पाणेश्च बक्षस्तस्तदोद्वेष्टितमीरितम् ॥६१२॥ 607 जब (आवेष्टित में हथेली की ओर झुकी हुई) उंगलियाँ उसी प्रकार क्रमशः हथेली से खोलकर बाहर निकाली जाय और हाथ को छाती से अलग किया जाय, तब उसे उद्येष्टित करण कहते हैं। . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ३. व्यावर्तित व्यावर्तन्ते कनिष्ठाद्या यत्राङगुल्यः क्रमादि । अभ्यन्तरेण तत् प्रोक्तं सद्भिावर्तितं तदा ॥६१३॥ 608 जब हाथ की उँगलियाँ कनिष्ठिका से लेकर तर्जनी तक क्रमशः हथेली की ओर झुकायी जाती हैं, तब विद्वानों ने उसे व्यावर्तित करण कहा है। ४. परिवर्तित कनिष्ठाद्यगुलीनां चेन्निष्क्रमो बाह्यतः क्रमात् । तदा तत् करणं धीरः परिवर्तितमीरितम् ॥६१४॥ 609 जब कनिष्ठा से लेकर तर्जनी तक की सब उँगलियाँ क्रमशः बारी-बारी करके बाहर की ओर खुलती हैं, तब विद्वानों के मत से, उसे परिवर्तित करण कहते हैं। हस्त प्रचार निरूपण समाप्त , Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण/ छह Page #198 --------------------------------------------------------------------------  Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्रामिनय निरूपण भावाभिनय (१) नाटयोपयोगिनः प्रायो विचित्राभिनया मया । ते लिख्यन्तेऽभिनेयार्थ व्यञ्जयन्तीव ये स्फुटम् ॥६१५॥ 610 जो मानो अभिनय योग्य वस्तु के भावों को अभिव्यक्त करने में समर्थ नाटयोपयोगी विचित्र अभिनय हैं, (नृत्य-जिज्ञासुओं के) अभिनय के लिए मैं प्रायः उन (सब का) यहाँ निरूपण कर रहा हूँ। . सन्निकर्ष विना यस्य न वेत्यर्थ कथञ्चन । तस्योक्तो मनसो भावस्त्रिधा यत्प्रतिकोविदः । 611 इष्टोऽनिष्टस्तथा मध्यस्तस्याभिनयनं यथा ॥६१६॥ जिसके संयोग या सामीप्य के बिना पदार्थ को किसी भी प्रकार नहीं समझा जा सकता है, उस मन के भाव को विद्वानों ने तीन प्रकार का बताया है : १. इष्ट, २. अनिष्ट और ३. मध्य । उस त्रिधा विभक्त भाव का अभिनय जिस प्रकार किया जाता है, उसे बताया जा रहा है। मुखस्यातिविकाशेन शरीराल्हादनेऽपि(? नेन) च । 912 तथोल्लुकसितेनेष्टं दर्शयेन्नटायकोविदः ॥६१७॥ अप्रदानेन नेत्रस्य संकोचादक्षिनासयोः । परावृत्ताल्यशीर्षणाप्यनिष्टं . सम्प्रदर्शयेत् ॥६१८॥ जुगुप्सया न चात्यन्तं मनसा नातिहर्षिणा । 614 मध्यभावेन मध्यस्थं भावं धीमान् निरूपयेत् ॥६१६॥ नाटयवेत्ता को चाहिए कि वह मुख को अति विकसित करके तथा शरीर को आह्लादित करके स्वच्छता (स्पष्टता) से इष्ट भाव का प्रदर्शन करे। फिर दृष्टिपात किये बिना आँख और नाक को संकुचित करके 613 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुत्याध्यायः परावृत्त शीर्ष मुद्रा से अनिष्ट भाव को प्रदर्शित करे । बुद्धिमान् अभिनेता को चाहिए कि वह न अत्यन्त घृणा से और न अत्यन्त प्रसन्न मन से, अपितु मध्य भाव से मध्यस्थ भाव को अभिव्यक्त करे । इन्द्रियाभिनय (२) कर्णदेशस्थतर्जन्या तथा तिर्यग्निरीक्षणात् । 615 पानितेन शिरसा सुधीः शब्दं प्रदर्शयेत् ॥६२०॥ सधीजनों के चाहिए कि कान के पास तर्जनी उँगली को रखकर तिरछी चितवन डालते हए बगल में झके हए शिर से वे शब्द के भाव को प्रदर्शित करें। सभ्र क्षेपेण नेत्रेण मनागाकुचितेन च । .. 616 तथा गण्डमुखस्पर्शः स्पर्शो धीरैर्निरूपितः ॥६२१॥ धीर पुरुषों को चाहिए कि 5 -भंगिमा से युक्त तथा कुछ आकुंचित नेत्र से और कपोल तथा मुख के स्पर्श से वे स्पर्श के भाव को प्रदर्शित करें। शिरस्थितौ पताको द्वौ कृत्वेषद्वलिताननः । 617 दृष्टया निवर्णयन्त्यापि रूपमेवं विनिर्दिशेत् ॥६२२॥ दोनों पताक हस्तों को शिर पर रखकर और मुख को किञ्चित् झुकाकर गौर से देखते हुए रूप के भाव का द्यौतन करना चाहिए। नयने किश्चिदाकुञ्च्य फुल्लां कृत्वा च नासिकाम् । 618 एकोच्छ्वासेन च प्राज्ञो रसगन्धौ प्रदर्शयेत् ॥६२३॥ नेत्रों को कुछ आकुंचित करके, नासिका को फुलाकर और एक ही साँस खींचकर पण्डित जन को रस और गन्ध के भाव का प्रदर्शन करना चाहिए । नृत्याय देवरङ्गायाः (?) शब्दाद्यभिनयो मया । 619 निरूपितस्तथा ज्ञेया इन्द्रियाभिनया बुधैः ॥६२४॥ नर्तकी (?) के अभिनय के लिए मैंने शब्द आदि (इन्द्रिय विषयों) के अभिनय का निरूपण किया है। किन्तु विद्वानों को चाहिए कि इसी प्रकार वे कर्ण, त्वक, अक्षि, जिह्वा और घाण आदि इन्द्रियों का अभिनय भी जान लें। १९० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण विचित्राभिनय (३) विधायोतानितो हस्तौ पताको स्वस्तिकच्युतौ । 620 शिरसोद्वाहितास्येन तथोर्ध्वप्रेक्षणेन च ॥६२५॥ । प्रदोष दिवसं रात्रि प्रभातं गगनं घनान् । 6A जलाशयान वनान्तांश्च नक्षत्राणि ग्रहान् दिशः । नानादृष्टियुतं धीरोऽभिनयेन्नाव्यनृत्ययोः ॥६२६॥ 622 धीर पुरुष को नाटय तथा नृत्य के अवसर पर दोनों पताक हस्तों को उत्तान तथा स्वस्तिक मुदा में च्युत करके उद्वाहित शिर से ऊपर ताकने या देखने के द्वारा प्रदोष, दिन, रात, प्रातःकाल, आकाश, मेघ, तालाब, बनभूमि, नक्षत्र, ग्रह और दिशाओं का अनेक दृष्टियों से समन्वित होकर अभिनय करना चाहिए । [एताभ्यामेव हस्ताभ्यां तेनैव शिरसा तथा । अधस्तात्प्रेक्षणेनापि भूमिस्थं सम्प्रदर्शयेत् ॥६२७॥ 623 हाथ की इन्हीं मुद्राओं और शिर की इसी मुद्रा से नीचे ताकते हुए भूमि पर रखी हुई वस्तु या (बने हुए स्थानों) का प्रदर्शन करना चाहिए। दृष्टचा मुकुल [या] किंचिन्नतेन शिरसापि च । - हृदि सन्देशहस्तेन सव्येनकमना नटः । 624 वितर्कितं तथा ध्यानं निर्दिशेन्नाट्यनृत्ययोः ॥६२८॥ नाट्य और नृत्य के समय नट को चाहिए कि वह सावधान होकर मुकला दृष्टि से और किञ्चित् झुके हुए शिर तथा हृदय पर रखे हुए दाहिने सन्दंश हस्त से सन्देह तथा ध्यान का अभिनय करे । विधायोद्वाहितं शीर्ष तथोज़ हंसपक्षकम् । 625 दीर्घ मानं तथोच्चत्वं प्रासादस्य प्रदर्शयेत् ॥६२६॥ उद्वाहित शिर और ऊपर हस्तपक्ष हस्त बनाकर महल की लम्बाई तथा ऊँचाई का प्रदर्शन करना चाहिए। अरालेन तथा वामभागोद्वाहितशीर्षतः । 626 नतध्वस्तनिमित्तानि श्रान्तं वाक्यं च दर्शयेत् ॥६३०॥ अराल हस्त तथा वाम भाग में उद्वाहित शिर से झुके हुए, नष्ट हुए, निमित्त, श्रान्त और वाक्य का अभिनय करना चाहिए। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्याध्यायः 627 628 परितो गतया दृष्ट्या तर्जन्या भ्रमणेन च । सर्वार्थग्रहणं देश्यं सुधीभिर्नाट्यनृत्ययोः ॥६३१॥ नाटय-नृत्य के समय सुधीजनों को चारों ओर दृष्टिपात करके तथा तर्जनी उँगली को घुमाकर समस्त पदार्थों के ग्रहण करने का भाव प्रदर्शित करना चाहिए। उत्तानितौ पताको द्वौ कृत्वा स्वस्तिकविच्युतौ । तथोद्वाहितशीर्षेण चित्रवागवलोकनः ॥६३२॥ दोनों पताक हस्तों को उत्तान तथा स्वस्तिक मुद्रा में विच्युत करके और उद्वाहित शिर से चित्र, वाणी तथा अवलोकन का भाव प्रदर्शित करना चाहिए । प्रसन्नास्यस्तथा स्वस्थसर्वेन्द्रियसमन्वितः । 629 शरदं निदिशेन्नाटये पुष्पैरपि तदुद्भवैः ॥६३३॥ नाटय में प्रसन्नमुख तथा स्वस्थ इन्द्रियों से युक्त होकर शरद् ऋतु तथा उस ऋतु में उत्पन्न होने वाले पुष्पों का अभिनय करना चाहिए । कायसंकोचनाद् वह्नरीक्षयोर्ध्वनिरीक्षणात् । 630 प्राभ्यामेव कराभ्यां च पूर्वोक्तशिरसा तथा । हेमन्तर्तुर्विनिर्देश्यो मानवैर्मध्यमोत्तमः ॥६३४॥ 631 शरीर को संकुचित करके तथा ऊपर दृष्टिपात करके अग्नि का अभिनय करना चाहिए। मध्यम तथा उत्तम कोटि के मानवों को चाहिए कि उक्त दोनों पताक हस्तों और उद्वाहित शिर से वे हेमन्त ऋतु का भाव प्रकट करें। दन्तोष्ठशिरसः कम्पाद् गात्रसंकोचनादपि । अधमोऽभिनयेच्छीतं क्रन्दितैरपि सीत्कृतः ॥६३५॥ 632 अधम पुरुष को चाहिए कि वह दांत, ओठ और शिर को कम्पित करके तथा शरीर को संकचित करके शीत का अभिनय करे । रोकर तथा सिसक कर भी वह इसका अभिनय कर सकता है। उत्तमोऽपि कदाप्येवमवस्थान्तरसंयुतः । शीताभिनयनं त्वेवं विदध्याद् व्यसनोद्भवम् ॥६३६॥ 633 उत्तम पुरुष भी कदाचित् अन्य अवस्था (अर्थात् अधम अवस्था) को प्राप्त होने पर, विपत्ति-जनित इस शीत ऋतु का (उक्त विधि से) अभिनय करे । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण गन्धघ्राणः प्रसूनानामृतुजानां तथा बुधः । संस्पर्शाद् रूक्षवातस्य शिशिरं सुनिरूपयेत् ॥६३७॥ 634 विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वह ऋतुजनित पुष्पों की गन्ध को सूंघ कर तथा रूक्ष वायु के स्पर्श से शिशिर ऋतु का अभिनय करे। सहर्षोत्पादकारम्भैरुपभोगैर्विचित्रितैः । अभिनेयो वसन्तस्तु नानापुष्पप्रदर्शनात् ॥६३८॥ 635 हर्षोत्पादक कार्यों सहित विचित्र प्रकार के उपभोगों और नाना प्रकार के पुष्पों के प्रदर्शन से वसन्त ऋतु का अभिनय करना चाहिए। सुवीजनभूमितापैस्तथा स्वेदापमार्जनात् । संस्पर्शाच्चोष्णवातस्य धीरो ग्रीष्मं विनिर्दिशेत् ॥६३६॥ 636 अच्छी तरह पंखा झेल कर, भूमि का ताप दिखा कर, पसीना पोंछ कर और गर्म वायु का स्पर्श करके पीर पुरुष ग्रीष्म ऋतु का भाव प्रदर्शित करें। हस्तौ सिरस्तथा दृष्टिं शरदीव विनिर्दिशेत् । . शिशिरौं वसन्ते च ग्रीष्मेऽपि निपुणौ नटः ॥६४०॥ 637 निपुण अभिनेता को, शरद् ऋतु की तरह, दोनों हाथों, शिर और दृष्टि को शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुओं में भी प्रयुक्त करना चाहिए। शिखिनां रम्यवाणीभिरिन्द्रगोपः सशालैः । अधोमुखपताकाभ्यां शिरसोद्वाहितेन च । 638 तथोर्ध्वप्रेक्षणादेवं प्रावृष सन्निरूपयेत् ॥६४१॥ मयूरों की रमणीय वाणी, हरितभूमि सहित बीरबहूटी (इन्द्रगोप) और अधोमुख दोनों पताक हस्तों, उद्वाहित शिर तथा ऊपर निरीक्षण द्वारा वर्षा ऋतु का भाव प्रकट करना चाहिए। चिह्न यद्यच्च रूपं च कर्म वा वेष एव च । 639 निर्दिशेत तमृतुं तेन यथेष्टानिष्टदर्शनात् ॥६४२॥ इष्ट और अनिष्ट का भाव (जहाँ जो उचित हो) दिखाते हुए जिस ऋतु के लिए जो चिह्न या लक्षण, जो रूप, जो कार्य या जो वेष उचित हो, उसी से उस ऋतु का भाव प्रकट करना चाहिए। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 642 ऋतूनिमानर्थवशात प्रयुञ्जीत यथारसम् । 640 सुखितः सुखितेष्वेव दुःखितो दुःखितेषु च ॥६४३॥ इम ऋतुओं को (उनके ) प्रयोजनवश रस के अनुरूप प्रकट करना चाहिए । सुखी होकर सुखित वस्तुओं का और दुःखी होकर दुःखित वस्तुओं का भाव अभिव्यक्त करना चाहिए। आविष्टो येन भावेन यः सुखेनापरेण वा । 641 स तज्जनितसंस्कारस्तन्मयं वीक्षतेऽखिलम् ॥६४४॥ जो व्यक्ति जिस भाव से, चाहे दुःख से या सुख से आविष्ट रहता है, उसमें उसका संस्कार निहित रहता है । अत: वह सब वस्तुओं को उसी रूप में देखता है। प्रह्लादनेन गात्रस्य स्पर्शस्य ग्रहणात तथा । सुखं गन्धं रसं वायुं चन्द्रं ज्योत्स्नां निरूपयेत् ॥६४५॥ शरीर के आह्लादन और स्पर्श-ग्रहण से सुख, गन्ध, रस, वायु, चन्द्रमा तथा चाँदनी का अभिनय करना चाहिए । वासोवगुण्ठनाद् भानु धूलि धूमधनञ्जयौ । 643 उष्णं च भूमिसन्तापं दिशेच्छायाभिवाञ्छया ॥६४६॥ वस्त्र का घघट काढ़कर या ओट लगाकर सूर्य, धूल, धूम, अग्नि, गर्मी, भूमि-ताप तथा छाया का प्रदर्शन करना चाहिए। दृष्ट्योलयाकेकरया मध्याह्ने दर्शयेद् रविम् ॥६४७॥ 644 आकेकरा दृष्टि को ऊपर की ओर करके दोपहर-सूर्य का भाव प्रदर्शित करना चाहिए। सौम्यानि यानि वस्तूनि सुखभावोद्भवान्यपि । निर्दिशेत् तानि रोमाञ्चैत्रस्पशैश्च नाट्यवित् ॥६४८॥ 645 जो वस्तुएं सुखपूर्ण तथा अच्छे भावों से उत्पन्न हों उन्हें नाट्यवेत्ता को रोमांच तथा शरीर-स्पर्श से प्रकट करना चाहिए। उद्वेगैरास्यसंकोचैरसंस्पर्शश्च नाट्यवित् । दर्शयेत, तीक्ष्णरूपाणि वस्त्वयोग्यकृतानि च ॥६४६॥ 646 नाटयवेता को अयोग्य व्यक्ति द्वारा निर्मित तीक्ष्ण रूपवाली वस्तुओं का अभिनय विना स्पर्श किये, उद्वेम के साथ तथा मुख सिकोड कर करना चाहिए। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण ससौष्ठवैः साभिमानैर्गात्रैराटोपसंयुतः । गम्भीरार्थानुदात्तार्थान नाट्यज्ञः सन्निदर्शयेत् ॥६५०॥ 647 नाटयवेत्ता को सुन्दरता, गर्व तथा सौष्ठव से युक्त अंगों को फैलाकर गम्भीर तथा उदात्त भावों वाली वस्तुओं का अभिनय करना चाहिए। ध्वजच्छत्रपताकादीन् दर्शयेद् दण्डधारणः । प्रहारान् विविधांश्चैव नानाशस्त्रग्रहैर्दिशेत ॥६५१॥ 648 दण्ड-धारण द्वारा ध्वज, छत्र तथा पताका का और अनेक शस्त्रों के ग्रहण द्वारा विभिन्न प्रकार के आयुधों का प्रदर्शन करना चाहिए। विस्फुलिङ्गान् घनरवान् विद्युदुल्कार्चिषस्तथा । स्रस्तरङ्गस्तद्वदक्षिनिमेनिर्दिशेद् बुधः ॥६५२॥ 649 विद्वान व्यक्ति को शरीर कम्पाकर और उसी प्रकार आँख मीच कर आग की चिनगारियों, मेघ गर्जनों, बिजली, उल्का और लपटों का अभिनय करना चाहिए । उद्वेष्टितौ परावृत्तौ कृत्वा हस्तौ शिरो नतम् । मिह्मदृष्ट्याङ्गसंकोचादास्यप्रच्छादनेन च ॥६५३॥ .. अलिरेणपती अलिरेणुपतङ्गानां तोयस्य च निवारणम् । , नमस्तेजोऽनिलं चोष्णं नाट्यज्ञः सन्निरूपयेत ॥६५४॥ 651 दोनों हाथों को उद्वेष्टित और परावृत्त में करके, शिर झुकाकर, कुटिल दृष्टि से, अंगों को सिकोड़ कर और मुख को ढक कर नाट्यवेत्ता को भ्रमर, धूल, पतंग, जल-निवारण, आकाश, तेज तथा गर्म वायु (लू) का अभिनय करना चाहिए। अथ पुंसां तथा स्त्रीणामखिलाभिनयं पृथक् । भावानुभावसंयुक्तं कथयाम्यधुना क्रमात ॥६५॥ . 652 अब पुरुषों तथा स्त्रियों के भावों तथा अनुभावों से युक्त समस्त अभिनय को पृथक्-पृथक् रूप में क्रमश: निरूपित किया जा रहा है। 650 पाश्लेषणाच्छरीराणां सस्मितान्नयनादपि । तथोल्लुकसनेनापि पुमान् हर्ष विनिदिशेत ॥६५६॥ ! 663 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः शरीर के आलिंगन और मुस्कराहट भरे नेत्र तथा उलूक गति (उद्विकसन) से पुरुष हर्ष का अभिनय करें। शीघ्रमुत्पन्नरोमाञ्चवाष्पसंरुद्धलोचना । भावं विनिर्दिशेत त्वेवं नर्तकी स्मितसंयुता ॥६५७॥ 654 तत्काल उत्पन्न हुए रोमांच, (हर्ष के) आँसुओं से अवरुद्ध दृष्टि और मुसकराहट द्वारा नर्तकी हर्ष के भाव को प्रकट करे। कोष निःश्वासेनाकम्पेन दशनेनाधरस्य च । क्रोधं निरूपयेद् धीमानुवृत्तारुणलोचनः ॥६५८॥ 655 उठे हुए लाल नेत्रों से, लम्बी साँस लेते हुए , शरीर को थर-थर कम्पाते हुए, दाँतों से अघरों को चबाते हुए, पुरुष क्रोष का अभिनय करे । चिबुकोष्ठप्रकम्पेन बाष्पपूर्णक्षणेन च । शीर्षस्य कम्पनेनापि भ्र कुटीरचनेन च ॥६५॥ अङगुलिस्फोटनान्मौनात स्रगालङ्कारवर्जनात् । प्रायतस्थानकस्था च रोषेर्पा निदिशेत स्त्रियाः ॥६६०॥ 657 ठोड़ी तथा ओठों को कम्पाते हुए, आखों को सांसू से भरकर, शिर को कम्पाते हुए, भौं सिकोड़ते हुए, उंगलियों को चटकाते हुए, मौन होकर, माला और आभूषण उतार कर, आयतस्थानक मुद्रा धारण कर स्त्रियाँ कोष तथा ईया का अभिनय करें। 656 अधिकोछ्वासनिःश्वसैरधौमुखविलोकनः विहायःप्रेक्षणाच्चापि नृणां दुःखं निदर्शयेत ॥६६१॥ 658 अत्यधिक निःश्वास और उच्छ्वास से युक्त मुख नीचा करके देखने और आकाश की ओर ताकने से पुरुष दुःख का भाव प्रकट करे। शिरोभिघातात् सध्वाने रौदनैरभिपाततः । भूमिघातादपि स्त्रीणां दुःखं धीमान् नियोजयेत् ॥६६२॥ 659 सिर पीटने, चिल्लाकर रोने, धरती पर गिरने और भूमि पर चोट करने से धीमान पुरुष स्त्रियों के दुःख को प्रकट करें। १९६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण 661 उद्वेगसम्म्रमः शस्त्रसम्पातेनापि साध्वसम् । पुंसामभिनयेद् धीमान् धैर्योद्वेगादिभिस्तथा ॥६६३॥ 660 उद्वेगजन्य हड़बड़ी, शस्त्रपात, धैर्य और उद्वेग आदि से बुद्धिमान् पुरुष को पुरुषों का भय प्रदर्शित करना चाहिए। लोलतारकनेत्राभ्यामङ्गस्फुरितकम्पितः पार्वावलोकनश्चित्रशब्दादाक्रन्दितेन च । प्रालिङ्गानेन पुंसोऽपि स्त्रिया भीति प्रदर्शयेत् ॥६६४॥ आँखों के तारे चलाने, अंग-स्फुरण, शरीर को कम्पाने, बगल की ओर देखने, हाय-हाय करके चिल्लाने और आलिंगन के द्वारा पुरुषों को स्त्रियों का भय प्रदर्शित करना चाहिए। पुंस्कृतः स्त्रीकृतो भावो द्विधेत्यभिनयं प्रति । तत्राद्यो धैर्यमाधुर्यसपन्नौ ललितोऽपरः ॥६६॥ अभिनय-योजना में पुरुष तथा स्त्री द्वारा प्रकट किया जाने वाला भाव दो प्रकार का होता है। पुरुषों के अभिनय में धैर्य तथा माधुर्य से संयुक्त भावों और स्त्रियों के अभिनय में लालित्यपूर्ण भावों का प्रदर्शन करना चाहिए। 662 शब्द कम्पनेन शरीरस्य घूर्णनान्नेत्रयोरपि । 663 प्राकाशवीक्षणात पादस्खलितःकोमलस्तथा । विलोमवचनर्धीमान नादं स्त्रीणां विनिर्दिशेत ॥६६६॥ 664 शरीर के कम्पन, नेत्रों के घूमने, आकाश की ओर ताकने, पैरों के लड़खड़ाने और कोमल तथा विपरीत वचनों द्वारा धीमान् पुरुष स्त्रियों के शब्द का अभिनय करे । उक्ता येऽभिनयास्तेऽमी प्रायः स्त्रीनीचसंश्रयाः ॥६६७॥ ऊपर जो अभिनय बताये गये हैं, वे प्रायः स्त्रियों और निकृष्ट पुरुषों के लिए हैं। पक्षियों का अभिनय (५) सारसान् केकिहंसौ च स्थूलानन्यांश्च पक्षिणः । रेचकरङ्गहारैश्च निदिशेन्नाटयकोविदः ॥६६८॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः नाट्यवेत्ता को रेचिकों तथा अंगहारों के द्वारा सारस, मोर, हंस तथा अन्य बड़े पक्षियों का अभिनय करना चाहिए। अश्वेभोष्ट्रखरव्याघ्रसिहांश्च महिषादिकान् । 666 अङ्गतिप्रकारश्चाभिनयेन्निपुणो नटः ॥६६६॥ निपुण अभिनेता को घोड़ा, हाथी, ऊँट, गधा, वाघ, सिंह तथा भैसा आदि का अभिनय गति-प्रचार के अंगों से करना चाहिए। यक्षों तथा देवताओं आदि का अभिनय (६) ये यक्षा राक्षसा दैत्याः पिशाचाद्यास्तथापरे । . 667 परोक्षास्तेऽभिनेतव्या अङ्गहारैः प्रयोक्तृभिः ॥६७०॥ प्रत्यक्षा येऽभिनेयास्ते भयोद्वेगैः सविस्मयः ॥६७१॥ 668 अभिनेताओं को यक्षों, राक्षसों, दैत्यों, पिशाचों और परोक्ष प्राणियों या वस्तुओं को अंगहारों द्वारा अभिनीत करना चाहिए। प्रत्यक्ष यक्ष आदियों का अभिनय भय, उद्वेग तथा आश्चर्य के भावों द्वारा करना चाहिए। सभावैश्चेष्टितैर्देवाः प्रणामकरणादिभिः । अप्रत्यक्षा विनिर्देश्याः प्रयोगनिपुणैर्नटः ॥६७२॥ 669 प्रत्यक्षाः देवताः साक्षात्पूजोपकरणादिभिः ॥६७३॥ नाट्य-प्रयोग में निपुण अभिनेताओं को भावपूर्ण चेष्ठाओं और प्रणाम आदि के द्वारा अप्रत्यक्ष देवताओं का अभिनय करना चाहिए। किन्तु प्रत्यक्ष देवताओं का अभिनय साक्षात् पूजन-सामग्री आदि के द्वारा करना चाहिए। निदिशेदथ वृक्षादीनचलांश्च समुच्छितान । 670 ऊर्ध्वप्रसारणाद् बाह्वोर्दर्शयेल्लोकयुक्तितः ॥६७४॥ ऊँचे वृक्षों और पर्वतों का भाव बाहुओं को ऊपर फैला कर लोक-रीति के अनुसार प्रदर्शित करना चाहिए । __ मञ्जुलैरुज्ज्वलनिनिमेषैः सुलोचनः । 671 मुदितेनापि मनसा दर्शयेद् दिव्ययोषितः ॥६७५॥ सुन्दर तथा उज्ज्वल वेशों, अपलक नेत्रों और प्रसन्न मन से दिव्य स्त्रियों (देवांगनाओं तथा अप्सराओं) का अभिनय करना चाहिए। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण चमूं समूहमम्भोधि विस्तीर्ण वनमेव च । विक्षिप्ताभ्यां पता [at] भ्यांनिदिशेनाटय नृत्तयोः ॥६७६ ॥ नाट तथा नृत्त के समय सेना, समूह, समुद्र तथा विस्तृत वन का भाव दोनों पताक हस्तों को फैला कर प्रदर्शित करना चाहिए । कामेन ग्रहपाशाभ्यां ज्वरेणापि च येऽदिताः । तेषामभिनयं श्रङ्गलनैरिवाङ्गेषु तथा वासोवगुण्ठनात् । दृष्टयाधोगतया धीरैनिर्देश्या कुलजाङ्गना ॥६७८ ॥ कुर्याच्छिथिलाङ्गविचेष्टितैः ॥ ६७७ ॥ जो काम, ग्रह, वन्धन तथा ज्वर से पीड़ित हों, उनका अभिनय शिथिल अंग चेष्टाओं द्वारा करना चाहिए । नानालंकृतिचिन्नाङ्गः समदैर्बहुचेष्टितैः । निःशङ्कगमनेनापि नटो वेश्यां प्रदर्शयेत् ॥६७६ ॥ 672 अंगों को मानों अंगों में लीन करके, वस्त्र का घूंघट काढ़ कर और दृष्टि को नीचे करके धीर पुरुषों को कुलीन स्त्री का अभिनय करना चाहिए । खेदनिःश्वास चिन्ताभिस्तथा सम्प्रलापैस्तथालीनामात्मावस्थानिदर्शनैः 673 हृदयतापतः । 674 नाना अलंकारों से सज्जित अंगों, मदयुक्त चेष्टाओं और निःशंक गमन के द्वारा अभिनेता को वेश्या का भाव प्रदर्शित करना चाहिए । ग्लान्यश्रुपात दैन्यैश्च सरोषवदनैरपि । भङ्गनिर्भूषणैर्दुःखं रोदनैरपि नाट्यवित् ॥ ६८१ ॥ विप्रलब्धाः खण्डिताश्च कलहान्तरिता श्रपि । इत्थं प्रदर्शयेन्नाटये तथा प्रोषितभर्तृकाः ||६८२ ॥ 675 676 ॥६८०॥ वेद, निःश्वास, चिन्ता, हृदय-ताप, प्रलाप तथा व्याकुल चित्त वालों का अभिनय तदनुसार आंगिक अभिनय द्वारा करना चाहिए । 677 678 १९९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः निपुण अभिनेता को, विप्रलब्धा (संकेत-स्थल में प्रिय के न मिलने से दुःखी नायिका), खण्डिता ( नायक अन्य स्त्री के संयोग-चिह्न देखकर कुपित हुई नायिका ), कलहान्तरिता ( पति या नायक का अपमान कर पीछे पछताने वाली नायिका) और प्रोषितभतं का ( वह स्त्री जिसका पति परदेश गया हो ) नायिकाओं का भाव (क्रमश:) ग्लानि, अश्रुपात, दीनता, क्रोधयुक्त मुख, आभूषणरहित अंग, दुःख और रोदन के द्वारा प्रदर्शित करना चाहिए । विचित्र मण्डनेर्हषैर्वषैर्नानाविधैरपि 1 तथातिशयशोभाभिदिशेत् स्वाधीनभर्तृकाः ॥ ६८३ ॥ वार्ता (पति को अपने वश में रखने वाली ) नायिकाओं का विचित्र प्रकार के आभूषण, नाना प्रकार के वेश तथा प्रचुर अंगराग-प्रसाधनों द्वारा अभिनय करना चाहिए । एवं वासकसज्जापि निर्देश्या नाटयकोविदैः ॥ ६८४॥ 680 इसी प्रकार नाट्यनिपुण अभिनेताओं को वासकसज्जा ( शृंगार करके नायक की प्रतीक्षा करने वाली ) नायिका का भी अभिनय करना चाहिए । नियुज्यन्ते बुधैरेतेऽभिनया भावसंयुताः ॥६८५ ॥ विद्वानों को चाहिए कि उक्त अभिनयों को वे भावसंयुक्त होकर सम्पन्न करें । अभिनेताओं को नाट्य-निर्देश 679 या यस्य नियता लीला गतिश्च स्थितिरेव च । तस्य रङ्गप्रविष्टस्तां नटस्तावद् निनिर्दिशेत् । यावन्न निर्गतो रङ्गादिति सामान्यतो विधिः ॥ ६८६ ॥ २०० 682 रंगमंच पर प्रवेश करने वाले अभिनेता को चाहिए कि जिस अभिनेय वस्तु की जो लीला, गति तथा स्थिति निश्चित हो, उसको तब तक प्रदर्शित करे, जब तक वह रंगमंच पर अवस्थित रहे, यह सामान्य विधान है । दक्षिणेनालपद्म ेन वामेन चतुरेण च । परिमण्डलितेनाथ मयूरललितेन च ॥ ६८७॥ वीराख्यया तथा दृष्ट्या शिरसोद्वाहितेन च । एवं विनिर्दिशेत् षड्जं कोविदो नाटयन्नृत्ययोः ॥ ६८८ ॥ 681 683 684 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण नाटय तथा नृत्य में निपुण अभिनेता को चाहिए कि रंगमंच पर वह दक्षिण अलपद्म हस्त, बाम चतुर हस्त, परिमण्डल हस्त, मयूरललित हस्त, वीरा दृष्टि और उद्वाहित शिर से षड्ज स्वर (संगीत के सात स्वरों में प्रथम) का अभिनय प्रस्तुत करें। हंसास्याभिधहस्तेन दक्षिणेनेतरेण तु । कटिस्थेनार्धचन्द्रेण समेन शिरसा तथा । 685 ब्राह्माख्यस्थानकेनापि धीमानृषभमादिशेत् ॥६८६॥ बुद्धिमान अभिनेता को चाहिए कि दक्षिण हंसास्य हस्त, कटि पर अवस्थित बाम अर्धचन्द्र हस्त, सम शिर और ब्राह्म नामक स्थानक के द्वारा वह ऋषभ स्वर (संगीत के सात स्वरों में द्वितीय) का अभिनय प्रस्तुत करे। शुकतुण्डेन हस्तेन दृष्टया करुणया तथा । 686 अधोमुखेन , शीर्षणाश्वक्रान्तस्थानकेन च । चार्याप्यश्चितया धीमान् गान्धारं स्वरमादिशेत् ॥६६०॥ 687 धीमान् अभिनेता को चाहिए कि शुकतुण्ड हस्त, करुणा दृष्टि, अधोमुख शिर, अश्वक्रान्त स्थानक और अंचिता चारी की रचना द्वारा वह गान्धार स्वर (संगीत के सात स्वरों में तृतीय) का अभिनय प्रस्तुत करे । पताको स्वस्तिकौ कृत्वा शिरसा विधुतेन च । शैवाख्यस्थानकेनापि कटीच्छिन्नेन वा पुनः । 688 दृष्टया सहास्यया धीरोऽभिनयेन्मध्यगं स्वरम् ॥६६१॥ नाट्यनृतज्ञ अभिनेता को चाहिए कि दोनों पताक हस्तों को स्वस्तिकाकार करके; विधुत शिर, शैव स्थानक या कटिच्छिन्न स्थानक और हास्ययुक्त दृष्टि की रचना द्वारा वह मध्यम स्वर (संगीत के सात स्वरों में चतुर्थ) का अभिनय प्रस्तुत करे। कृत्वालपल्लवी हस्तौ धुतेन शिरसा तथा । 689 बैष्णवस्थानकेनापि दृष्टया कान्ताख्यया तथा । एवं विनिर्दिशेद् धीमान् स्वरं पश्चमसंज्ञितम् ॥६६२॥ 690 बुद्धिमान् अभिनेता को चाहिए कि दोनों अलपल्लव हस्तों, घुत शिर, वैष्णव स्थानक और कान्ता दृष्टि की रचना करके वह पंचम स्वर का अभिनय प्रस्तुत करे । २६ . . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः काल]हस्तकौ कृत्वा दृष्टया बीभत्सया तथा । परावृत्ताख्यमूर्ना च प्रत्यालीढाभिधेन च । 691 स्थानकेन विनिर्देश्यो धैवतौ निपुणैनटैः ॥६६३॥ निपुण अभिताओं को चाहिए कि दोनों कांगूल हस्तों, बीमत्सा दृष्टि, परावृत्त शिर और प्रत्यालीड स्थानक की रचना करके वे धंवत स्वर का अभिनय प्रस्तुत करें। हस्तेन करिहस्तेन करिहस्तेन दीनया । 692 दृष्टयावधूतशिरसा निषादं सन्निरूपयेत् ॥६६४॥ (अभिनेता को चाहिए कि) करिहस्त, दोना दृष्टि और अवधूत शिर की रचना करके वह निषाद स्वर का अभिनय प्रस्तुत करे। सुधाब्धिमतामाश्रित्याशोकमल्लेन भूभुजा । 693 अभिनीताः स्वराः सप्त षड्जाद्याः नाटयवेदिना ॥६६५॥ नाट्यशास्त्रवेत्ता राजा अशोकमल्ल ने सुधाब्धि (? संभवत: भरत) के मत का अनुसरण करके षड्ज आदि. सात स्वरों के अभिनय का निरूपण किया है। विभिन्न अभिनय प्रयोग तं निर्दिशेत् पताकेन धिकारं चतुरेण च । 694 तों(? थों) शब्दं त्वर्धचन्द्रेण तथा टें त्रिपताकतः ॥६६६॥ पताक हस्त मुद्रा से तं शब्द का, चतुर हस्त मुदा से धिकार शब्द का, अर्धचन्द हस्त मुद्रा से, (? थों) शब्द का और विपताक हस्त मुद्रा से टे शब्द का अभिनय करना चाहिए । कर्तर्योऽस्य ततं(? ते) पञ्च वर्णा वाद्योद्भवा मया । 695 अभिनीता यथौचित्यमभिनेयाः परे बुधैः ॥६६७॥ कर्तरीमुख हस्त मुद्रा से वाद्य के पांचों वर्गों का अभिनय करना चाहिए । अन्य वर्गों के अभिनय के लिए विद्वान् जैसा उचित समझें, वैसा करें। ब्राह्मस्थः शुकतुण्डेन वामेनान्येन पाणिना । 696 तिर्यक् स्थितेनोपलाभं सूच्यास्येन विनिर्दिशेत् ॥६९८॥ ध्यानस्थ होकर वाम शुकतुण्ड हस्त तथा तिर्यक स्थित दक्षिण सूचीमुख हस्त से पकड़ने का अभिनय करना चाहिए। २०२ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण तेन शब्दं यथौचित्यं हस्तकाद्यै सुधीरेवमन्यं च विरुतादिकम् । रम्यैरभिनयेदिति ॥६२६॥ इसी प्रकार निपुण अभिनेता उक्त (वाम शुकतुण्ड तथा तिर्यक् स्थित दक्षिण सूचास्य) हस्त से शब्द का और अन्य हस्तमुद्रा से गुंजन का भाव प्रकट करें। उन्हें चाहिए कि अन्यान्य के भावों के प्रदर्शन के लिए वे यथोचित रीति से रमणीय हस्तमुद्राओं का प्रयोग करें । प्रसारितभुजो मुष्टिर्वामोऽन्यः खटकामुखः । कर्णस्थो धनुराकर्षे नियुक्तो नृत्यपण्डितः ॥७००॥ 697 नृत्यवेत्ता लोगों को फैली हुई भुजा वाले वाम मुष्टि हस्त तथा कान पर स्थित दक्षिण खटकामुख हस्त को धनुष खींचने के अभिनय में प्रयुक्त करना चाहिए । खटकास्यकरस्थाने करः सूचीमुखो यदा । श्रव्यं श्रवणयोगेन मुखयोगेन वाचिकम् । स्पृश्यमङ्गादियोगेन चक्षुर्योगेन चाक्षुषम् ॥७०२ ॥ गन्धं घ्राणस्य योगेन स्वादं जिह्वाभियोगतः । ..एवं योग्येन हस्तेनाभिनयेन्नृत्यकोविदः ||७०३ || 698 तदासौ बाणसन्धाने विद्वद्भिः परिकीर्तितः ॥७०१ ॥ जब उक्त मुद्रा में खटकास्य हस्त के स्थान पर सूचीमुख हस्त को प्रयुक्त किया जाता है, तब विद्वानों ने वाणसन्धान के अभिनय में उसका विनियोग बताया है । मयैवमेते सम्प्रोक्ता भावा अभिनयं प्रति । सम्प्रोक्ता ये न ते ज्ञेयाः प्रायशो लोकतो बुधैः ॥७०४ ॥ 699 700 701 इस प्रकार नृत्यनिपुण अभिनेता को चाहिए कि वह कान के योग से सुनने योग्य विषय का, मुख के योग से वाचिक विषय का अंग आदि के योग से स्पर्श करने योग्य विषय का, नेत्र के योग से चाक्षुष विषय का, नाक के योग से गन्ध विषय का और जिह्वा के योग से स्वाद विषय का अभिनय करे । 702 इस प्रकार मैंने विभिन्न अभिनयों से सम्बद्ध भावों का निरूपण कर दिया है; किन्तु जिनके सम्बन्ध में नहीं कहा गया है, विज्ञ अभिनेताओं को चाहिए उन्हें लोक व्यवहार द्वारा अवगत या ग्रहण करें । २०३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः लोको वेदस्तथाध्यात्म प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् । 703 तस्मानाट्यप्रयोगे तु प्रमाणं लोक इष्यते । इत्युक्तं मुनिना सर्वदर्शिना भरतेन हि ॥७०५॥ 704 सर्वदर्शी भरत मुनि ने तीन प्रकार के प्रमाण बताये है : लोक, वेद और अध्यात्म (धर्म)। इसलिए नाट्य-प्रयोग में लोक-प्रमाण को मानना चाहिए । स्वस्वचेष्टासमुद्भूत रसभावः पृथक् पृथक् । ज्येष्ठमध्यमनीचेषु नाटयं प्रीतिकरं भवेत् ॥७०६॥ 705 उत्तम मध्यम और अधम वस्तुओं या व्यक्तियों के अभिनय उनकी चेष्ठाओं (प्रकृति) से उत्पन्न रस-भावों द्वारा पथक्-पथक रूप में प्रदर्शित नाटय-प्रयोग हृदयग्राही होता है। संग्रामधीरधुर्येण नृपानण्या मनीषिणा । अशोकेन समादिष्टा विचित्राभिनया इमे ॥७०७॥ 706 संग्राम में धैर्य धारण करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ, भूपतियों में अग्रणी और मनीषी (बुद्धिमान्) राजा अशोकमल्ल ने उक्त विचित्र अभिनयों का निरूपण किया। विचित्राभिनय निरूपण समाप्त Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तना प्रकरण | सात Page #216 --------------------------------------------------------------------------  Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तना (हस्तविन्यास) का निरूपण कराभिनयशोभा या विचित्रां रचयन्ति हि । ततो मयेह लिख्यन्ते वर्तनास्ता मनोहराः ॥७०८॥ 707 विचित्र प्रकार की मनोहर वर्तनाएँ हस्ताभिनय की शोभा में चारुता उत्पन्न करती हैं। इसलिए यहाँ उनका निरूपण किया जा रहा है। वर्तना के भेद वर्तनाद्या पताकाख्यालपद्मारालयोः परे । वर्तने शुकतुण्डाख्याबहित्थाख्ये च वर्तने ॥७०६॥ 708 मकराख्या ततो ज्ञेया खटकामुखवर्तना । अन्योर्ध्ववर्तना तद्वद् रेचिताभिधवर्तना ॥७१०॥ 709 प्राविद्धवर्तना केशबन्धाख्या वर्तना ततः । भालवर्तनिकोरःस्थवर्तना कक्षवर्तना ॥७११॥ 710 खड्गवर्तनिका दण्डवर्तना पद्मवर्तना । नितम्बपल्लवाख्ये द्वे तथा ललितवर्तना ॥७१२॥ 711 अर्धमण्डलपूर्वा च वर्तना वलिताभिधा । घातवर्तनिका गात्रवर्तना प्रतिवर्तना ॥७१३॥ 712 पञ्चविंशतिरित्युक्ता वर्तना वायुसूनुना ॥७१४॥ हनुमान जी ने पच्चीस प्रकार की वर्तनाएँ बतायी है। उनके नाम हैं : १. पताकवर्तना, २. अलपद्मवर्तना, ३. अरालवर्तना, ४. शुक्रतुण्डवर्तना, ५. अबहित्यवर्तना, ५. मकरवर्तना ७. खटकामुखवर्तना, ८. ऊध्र्ववर्तना, २०७ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ९. रचितवर्तना, १०. आविद्धर्तता, १९. केशवना, १२. भालवर्तनां १३. उरः स्थवर्तना, १४. कक्षवर्तना, १५. खड्गवर्तना, १६. दण्डवर्तना, १७. पद्मवर्तना, १८. नितम्बवर्तना, १९. पल्लवर्तना, २०. ललित वर्तना, २१. अर्धमण्डलवर्तना, २२ वलितवर्तना, २३. घातवर्तना, २४ गात्रवर्तना और २५. प्रतिवर्तना । १. पताकवर्तना पताकस्य मुहुर्भवेत् । मणिबन्धावधिभ्रान्तिः सव्यापसव्यतो यत्र सा पताकाख्यवर्तना ॥७१५॥ यदि पताकहस्त को दायें-बायें क्रम से बार-बार मणिबन्ध (कलाई ) तक घुमाया जाय तो वह पताकवर्तना कहलाती है । २. अलपद्मवर्तना श्रलपद्मकरे यत्र व्यावृत्तिक्रियया यदा । वतितः सालपद्माख्या वर्तना गदिता बुधैः ॥७१६॥ यदि दोनों अलपद्महस्तों को घुमा कर रख दिया जाय तो विद्वानों ने उसे अलपद्मवर्तना कहा है। ३. अरालवर्तना कर्मणा वेष्टिताख्येन रचयित्वा यदा करः । अरालो वर्तितः पश्चाद् यत्रोद्वेष्टितकर्मणा । प्रत्यपादि धीरैररालकरवर्तना ॥७१७॥ 713 714 वक्षसः शुकतुण्डकः । तदा 716 यदि पहले वेष्टित (घेरने ) क्रिया के द्वारा अराल हस्त की रचना करके तत्पश्चात् उद्वेष्टित ( चारों ओर घरने की) क्रिया द्वारा उसे अवस्थित किया जाय, तो विद्वानों ने उसे अरालहस्तवर्तना कहा है । ४. शुकुण्ड वर्तना 715 श्रविद्वाधोमुखो यत्र वतितश्च रुपृष्ठे सा शुकतुण्डाख्यवर्तना ॥७१८ ॥ 717 यदि शुकण्ड हस्त को छाती के सामने टेढ़ा तथा अधोमुख करके जाँघ पर रख दिया जाय तो उसे शुकतुण्डवर्तना कहते हैं । ५. अवहित्यवर्तना करावेवमुभौ यत्र साहित्याख्यवर्तना ॥७१६॥ यदि दोनों शुकतुण्ड हस्तों को शुकतुण्डवर्तना में अवस्थित किया जाय तो उसे अवहित्यवर्तना कहते हैं । २०८ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. मकरवर्तना करो मकरनामा चेत् पुरतः पार्श्वयोस्तथा । व्यावतितो मकरवर्तना ॥७२०॥ यदि मकर हस्त को सामने तथा दोनों पावों में बाहर और भीतर व्यावर्तित ( घुमा ) दिया जाय तो उसे मकरवर्तना कहते हैं । ७. खटकामुखवर्तना यदि उदवृत्त ९. रेचितवर्तना सव्यापसव्यतो नाभिदेशे या खटकास्ययोः । भ्रान्तिरामणिबन्धं सा खटकामुखवर्तना ॥७२१॥ यदि दोनों खटकामुख हस्तों को नाभि के पास बाँये दाँये क्रम से कलाई तक घुमाया जाय तो उसे खटकामुखवर्तना कहते हैं । ८. ऊर्ध्ववर्तना विचित्राभिनय प्रकरण वर्त्तितावूर्ध्वदेशे तदोर्ध्ववर्तना चेदुवृत्ताभिधहस्तकौ । प्रोक्ता कोहलेन मनीषिणा ॥७२२॥ दोनों हस्तों को ऊपर उठा कर अवस्थित किया जाय तो आचार्य कोहल ने उसे ऊर्ध्ववर्तना कहा है । १७ हंसपक्षा रच्येते 718 त्वरितभ्रमौ । स्वस्तिकाच्चेद्विच्युतौ यत्र सोक्ता रेचितवर्तना ॥ ७२३ ॥ रेचितौ यदि हंसपक्ष दोनों हस्तों को स्वस्तिक मुद्रा से हटाकर शीघ्रतापूर्वक घुमाया जाय और फिर रेचित हस्तों की रचना की जाये, तो उसे रेचितवर्तना कहते हैं । १०. आविवर्तना केशबन्धाभिधौ व्यावतितौ क्रमात् । 719 प्राविद्धवयोर्यत्र बाहू श्रविद्धौ चेत् तदा सोक्ता धीरैराविद्धवर्तना ॥७२४॥ यदि आविद्धवक्र दोनों हाथों की बाँहों को क्रमशः घुमाकर मोड़ लिया जाय तो धीर पुरुषों ने उसे आविद्धवर्तना कहा है । ११. केशबन्धवर्तना हस्तौ निर्गतौ केशदेशतः । 720 721 722 728 १०९ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नस्याध्यायः विचित्रवर्तनायोगादेकदाथ क्रमाहतौ । वतितौ यत्र तत्रासौ केशबन्धाख्यवर्तना ॥७२५॥ 724 यदि केशबन्ध दोनों हस्तों को केशों के पास से निकाल कर विचित्रवर्तना के योग से एक-एक बार क्रमश: दोनों को आहत किया जाय तो उसे केशबन्धवर्तना कहा जाता है। १२. भालवर्तना उर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ वतितौ भालवर्तना । चक्रवर्तनिकेत्यस्या नामान्तरमुदीरितम् ॥७२६।। 725 यदि दोनों ऊर्ध्वमण्डली हस्तों की रचना की जाय तो उसे भालवर्तना कहते है । उसका अपर नाम चक्रवर्तनिका भी कहा गया है। १३. उरस्थवर्तना __उरःस्थवर्तनां विद्यादुरोमण्डलिनोः क्रियाम् ॥७२७॥ दोनों उरोमण्डली हस्तों की रचना को ही उरःस्थवर्तना कहा जाता है। १४. कक्षवर्तनिका पार्श्वमण्डलिनोः स्वस्वपार्श्वयोभ्रंमणं यदा। 726 युगपत् क्रमतो वा स्यात् कक्षवर्तनिका तदा ॥७२८॥ यदि दोनों पार्श्वमण्डली हस्तों को अपने-अपने पार्यो में एक साथ या क्रमशः एक-एक करके घुमाया जाय तो उसे कक्षवर्तनिका कहते हैं । १५. खड्गवर्तना कुश्चितो मुष्टिरेकोऽन्योऽश्चितः स्यात् खटकामुखः । 727 इमौ कोतिधरः प्राह खड्गवर्तनिकाल्यया ॥७२६॥ यदि एक मुष्टि हस्त कुञ्चित (सिकुड़ा हुआ) और दूसरा खटकामुख हस्त अञ्चित (झुका हुआ) हो, तो उसे खड्गवर्तना कहते हैं। १६. वडवर्तना वतितौ दण्डपक्षी चेत् तदा स्याद् दण्डवर्तना ॥७३०॥ 728 यदि दोनों हाथों की दण्डपक्ष मुद्रा में रचना की जाय तो उसे दण्डवर्तना कहते हैं। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण १७. पदमवर्तना नलिनीपनकोशौ चेत् सविलासं लुठन्ति तौ । पूर्वसूरिभिरादिष्टा पद्मवर्तनिका तदा ॥७३१॥ 729 यदि नलिनीपद्मकोश नामक दोनों हस्त हाव-भाव के साथ लुढ़कें तो पूर्वाचार्यों ने उसे पद्मवर्तना कहा है । १८. नितम्बवर्तना नितम्बौ तु यदा हस्तौ विश्लिष्टाङ्गुलिपल्लवौ । मणिबन्धावधि भ्रान्तौ वर्तित्वा स्कन्धदेशयोः ॥७३२॥ 730 पुननितम्बदेशस्थौ तितौ क्रमशस्तदा । नितम्बवर्तना सोक्ता लक्ष्यलक्ष्मविशारदः ॥७३३॥ 781 यदि नितम्ब मुद्रा में दोनों हाथों को, जिनकी उँगलियाँ अलग-अलग रहें, कलाई तक घुमाते हुए कन्धे तक ले जाया जाय और फिर क्रमश: लाकर नितम्बों पर रख दिया जाय तो अभिनेताओं और नाट्याचार्यों ने उसे नितम्बवर्तना कहा है। १९. पल्लववर्तना पल्लवौ वतितौ चेत् सा सविलासमनोहरौ । निरवादि तदा धीरैः पल्लवाभिधवर्तना ॥७३४॥ 732 यदि दोनों पल्लव हस्तों को हाव-भाव तथा सुन्दरता के साथ प्रदर्शित किया जाय तो उसे धीर पुरुषों ने पल्लववर्तना कहा है। २०. ललितवर्तना लीलया ललितौ हस्तौ तितौ स्वोक्तरीतितः । यदा स्यातां तदा प्रोक्ता ललिताभिधवर्तना ॥७३५॥ 733 यदि दोनों ललित हस्तों को लीलापूर्वक हाव-भाव तथा सुन्दरता के साथ अवस्थित किया जाय तो उसे ललितवर्तना कहते हैं। २१. अर्षमडलवर्तना सविलासं यदा स्यातामुरःपावधिमण्डलौ । वतितो स्वोक्तरीत्येव त्वर्धमण्डलवर्तना ॥७३६॥ 734 २११ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः यदि उर:पावर्धिमण्डल दोनों हस्तों को हाव-भाव के साथ अपने उक्त प्रकार से ही अवस्थित या प्रस्तुत किया जाय तो उसे अर्धमण्डलवर्तना कहते हैं। २२. वलितवर्तना वलिताभिधहस्तौ चेतितौ स्वोक्तरीतितः । सौष्ठवेन तदा सोक्ता धीरैर्वलितवर्तना ॥७३७॥ 735 यदि दोनों वलित हस्त चारुतापूर्वक अपने उक्त प्रकार से प्रस्तुत किये जाँय तो धीर पुरुषों ने उसे वलितवर्तना कहा है। २३. घातवर्तना उल्वणौ वर्तितौ स्वोक्तरीत्योक्ता घातवर्तना ॥७३८॥ यदि दोनों उल्बण हस्तों को अपने उक्त प्रकार से प्रस्तुत किया जाय तो उसे घातवर्तना कहते हैं । २४. गात्रवर्तना अलपल्लवहस्तोऽन्तर्गात्रं व्यावतितो यदि । 736 परागास्योऽपविद्धः स्यात् तदोक्ता गात्रवर्तना ॥७३६॥ यदि अलपल्लव हस्त को अन्दर शरीर की ओर घमाकर पराङमख (उलटा) करके अपविद्ध किया जाय तो उसे गात्रवर्तना कहते हैं । २५. प्रतिवर्तना प्रातिलोम्येन गात्रस्य हस्त आक्षिप्य वर्तितः । 737 अलपल्लवनामा चेत् तदोक्ता . प्रतिवर्तना ॥७४०॥ यदि अलपल्लव हस्त को शरीर के विपरीत भाव से (बाहर की ओर) आक्षिप्त करके अवस्थित या प्रस्तुत किया जाय तो उसे प्रतिवर्तना कहते हैं । वर्तना के अन्य भेद वर्तना चतुरस्त्राख्यापरा तलमुखाह्वया । 738 वर्तना स्वस्तिकाख्यान्या विप्रकीर्णाभिधा परा ॥७४१॥ तथा पुष्पपुटाख्यान्या त्रिपताकाह्वया परा। 739 कर्तर्यास्याभिधा मुष्टिवर्तना (ख्या ततः) परा ॥७४२॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण. शिखराख्या कपित्थाख्या तथा सूचीमुखाह्वया । 740 एवमेकादश ज्ञेया वर्तनाश्च मतान्तरे ॥७४३॥ अन्य आचार्यों के मत से वर्तना के ग्यारह भेद बताये गये हैं, जिनके नाम हैं : १.चतुरनवर्तना, २. तुलमुलवर्तना, ३. स्वास्तिकवर्तना, ४. विप्रकीर्णवर्तना, ५. पुष्पपुटवर्तना, ६. त्रिपताकवर्तना, ७. कर्तरीमुखवर्तना, ८. मष्टिवर्तना, ९. शिखरवर्तना, १०. कपित्थवर्तना और ११. सूचीमुखवर्तना।। १. चतुरस्त्रवर्तना चतुरस्रो यदा हस्तौ चलितौ सांसकूर्परौ। 741 उद्वेष्टितक्रियापूर्वी पश्चाद् वक्षः समाभितौ । तदा धीरैः समादिष्टा चतुरस्रात्यवर्तना ॥७४४॥ 742 यदि दोनों चतुरस्र हस्तों को कन्ध तथा कुहनी सहित चलाया जाय और उद्वेष्टित (चारों ओर से घेरने की) क्रिया करने के अनन्तर उन्हें छाती पर अवस्थित किया जाय, तो धीर पुरुषों ने उसे चतुरस्रवर्तना कहा है। २. तलमलवर्तना यदा तलमुखौ हस्तौ वर्तितौ स्वोक्तरीतितः । सौष्ठवेन तदा धीररुक्ता तलमुखाह्वया ॥७४५॥ 743 यदि दोनों तलमुख हस्तों को अपने उक्त प्रकार से सुन्दरता के साथ प्रस्तुत किया जाय तो धीर पुरुषों ने उसे तलमुखवर्तना कहा है। ३. स्वस्तिकवर्तमा व्यावर्तनश्यिापूर्व क्रियेते स्वस्तिको यदा । तदा सद्भिः समादिष्टा वर्तना स्वस्तिकाभिधा ॥७४६॥ 744 यदि दोनों स्वस्तिक हस्तों को व्यावर्तन क्रिया के द्वारा प्रस्तुत किया जाय तो सज्जनों ने उसे स्वस्तिकवर्तना कहा है। ४. विप्रकीर्णवर्तना उद्वेष्टितक्रियापूर्व भ्रमन्तौ विच्युताविमौ । स्वस्वपार्श्वगतौ प्रोक्ता विप्रकीर्णाख्यवर्तना ॥७४७॥ 145 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नस्याध्यायः यदि उक्त स्वस्तिक हस्तों को चारों ओर घेरते तथा घुमाते हुए अलग-अलग करके अपने-अपने पार्श्व में अवस्थित कर दिया जाय तो उसे विप्रकीर्णवर्तना कहते हैं । ५. पुष्पपुटवर्तना परिवृत्त्या पुष्पपुटः करः पार्वे व्रजेद् यदि । 146 ततो वक्षःस्थलं प्राप्तो व्यावृत्त्या नेत्रसुन्दरः । तदा धोरैः पुष्पपुटवर्तना समुदाहृता ॥७४८॥ 747 यदि पुष्पपुट हस्त को घुमाते हुए पार्श्व में ले जाया जाय और फिर, नेत्रों को अच्छा लगने वाले, उस हस्त को वहाँ से वक्षःस्थल पर पहुंचा दिया जाय तो धीर पुरुषों ने उसे पुष्पपुटवर्तना कहा है। ६. त्रिपताकवर्तना सव्यापसव्यतो भ्रान्तौ त्रिपताको मुहः करौ । मणिबन्धावधि प्रोक्ता त्रिपताकाख्यवर्तना ॥७४६॥ 748 यदि दोनों त्रिपताक हस्तों को बार-बार बाँये-दाँये क्रम से कलाई तक घुमाया जाय तो उसे निपताकवर्तना कहते हैं। ७. कर्तरीमुखवर्तना त्रिपताकोक्तरीत्यैव कर्तरीमुखवर्तना ॥७५०॥ यदि दोनों कर्तरीमुख हस्तों को उक्त त्रिपताक हस्तों की तरह प्रस्तुत किया जाय तो उसे कर्तरीमुखवर्तना कहते हैं। ८. मुष्टिवर्तना व्यावृत्तिक्रियया मुष्टि कृत्वा चेद् भ्रामयेन्मुहुः। 749 सव्यापसव्यतो मुष्टिवर्तना सद्भिरीरिता ॥७५१॥ यदि मुष्टि हस्त को व्यावृत्ति (चक्कर काटने की) क्रिया द्वारा बाँये-दाँये क्रम से बार-बार घुमाया जाय तो उसे सज्जनों ने मुष्टिवर्तना कहा है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्राभिनय प्रकरण ९. शिखरवर्तना, १०. कपित्थवर्तना, ११. सूचीमुखवर्तना शिखरस्य कपित्थस्य तथा सूचीमुखस्य च । 750 भवन्ति वर्तना मुष्टिवर्तनोक्तप्रकारतः ॥७५२॥ शिखर, कपित्त्थ और सूचीमुख हस्तों की वर्तनाएँ उक्त मुष्टिवर्तना में निर्दिष्ट क्रिया के अनुरूप सम्पन्न होती हैं। कराणामेवमन्येषामनन्ता वर्तना मताः । 751 अभिनेयवशाद् धीरस्तत्तन्नाम्नोपलक्षिताः ॥७५३॥ इसी प्रकार अन्य हाथों की अनन्त वर्तनाएँ कही गयी हैं। अभिनय योग्य उन वर्तनाओं को विद्वानों ने अभिनय के अनुरूप उन-उन नामों से अभिहित किया है। छत्तीस प्रकार की वर्तना का निरूपण समाप्त Page #226 --------------------------------------------------------------------------  Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालन प्रकरण | आठ Page #228 --------------------------------------------------------------------------  Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त संचालन क्रियाओं का निरूपण नृत्यज्ञैर्यदि रेच्यन्ते बाहवो बहुभङ्गिभिः। 752 बहुधा चालनानि स्युस्तदा तान्यधुना ब्रुवे ॥७५४॥ । जद निपुण अभिनेता अनेकानेक भाव-भंगिमाओं से बाहुओं को गतिशील करते हैं, तब बहुधा नाना प्रकार की संचालन-क्रियाएं बनती या उत्पन्न होती हैं । यहाँ उनका निरूपण किया जा रहा है। विश्लिष्टवर्तितं त्वाद्यं वेपथुव्यञ्जकं परम् । 753 . अपविद्धं ततो ज्ञेयं लहरीचक्रसुन्दरम् ॥७५५॥ वर्तनास्वस्तिकाख्यं च सम्मुखीनरथाङ्गकम् । 754 पुरोदण्डभ्रमाख्यं च त्रिभङ्गीवर्णसारकम् । दोलं नीराजिताख्यं च स्वस्तिकाश्लेषचालनम् ॥७५६॥ 755 वामदक्षतिरश्चीनं वर्तनाभरणं तथा । मिथोंसवीक्षाबाह्याख्यं मौलिरेचितकं ततः ॥७५७॥ 756 मणिबन्धासिकर्षाख्यमंसवर्तनिक तथा । आदिकूर्मावताराख्यं कलविङ्कविनोदकम् ॥७५८॥ 757 मण्डलानं ततः पश्चाच्चतुष्पत्राब्जसंज्ञितम् । बालव्यजनकं चान्यत् ततो विरुडिबन्धनम् ॥७५६॥ 758 विशृङ्गाटकबन्धाख्यं तथा कुण्डलिचारकम् । धनुराकर्षणाख्यं च हारदामविलासकम् ॥७६०॥ 759 समप्रकोष्ठबलनं मुरजाडम्बरं ततः । तिर्यग्यातस्वस्तिकानं ततो देवोपहारकम् ॥७६१॥ 760 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः अलातचक्रकाख्यं च ततः साधारणाभिधम् । तथोरभ्रकसम्बाधं मणिबन्धगतागतम् ॥७६२॥ 761 तार्यपक्षविनोदाख्यं धनुर्वल्लीविनामकम् । तिर्यवताण्डवचाराख्यं व्यस्तोत्प्लुतिनिवर्तकम् ॥७६३॥ 762 कररेचितरत्नं च मण्डलाभरणं तथा । अष्टबन्धविहाराख्यं शरसन्धाननामकम् ॥७६४॥ 763 पर्यायगजदन्ताख्यमंसपर्यायनिर्गतम् स्यात् स्वस्तिक त्रिकोणं च रथमेमिसमं तथा ॥७६५॥ 764 लतावेष्टितकाख्यं च कर्णयुग्मप्रकीर्णकम् । नवरत्नमुखं चेति पश्चाशच्चालकाः स्मृताः ॥७६६॥ 765 चालकों के पचास भेद कहे गये हैं--१. विश्लिष्टवर्तित, २. वेपथव्यञ्जक, ३. अपविद्ध ४. लहचक्र सुन्दर, ५. वर्तनास्वस्तिक, ६. संमुखीनरथाडा, ७. पुरोदण्डभम, ८. त्रिभंगीवर्णसारक, ९. देल, १०. नीराजित ११. स्वस्तिकाश्लेष, १२. वामदक्षतिरश्चीन, १३. वर्तनाभरण, १४. भियोंसवीक्षाबाह्य, १५. मौलिरेचितक, १६. मणिबन्धासिकर्ष, १७. अंसवतुनिक, १८. आदिकूर्मावतार, १९. कलविङकविनोद, २०. मण्डलाग, २१. चतुष्पत्राब्ज, २२. बालव्यञ्जन चालन, २३.विरुडिबन्धन, २४. विश गाटकबन्धन, २५. कण्डलिचारक, २६. धनराकर्षण, २७. हारदामविलासक, २८. समप्रकोष्ठ चलन, २९. मुरजाडम्बर, ३०. तिर्यग्यतस्वस्तिकाग्र ३१. देवोपहारक, ३२. अलातचक्र, ३३. साधारण, ३४. उरचकसंबाध, ३५. मणिबन्धगतागत, ३६. तार्यपक्षविनोदक ३७. धनवल्लीवितामक, ३८. तिर्यकताण्डव, ३९. व्यस्तोप्लतिनिवर्तक ४०. कररेचितरश्न ४१. मण्डलाभरण, ४२. आटबन्धविहार, ४३. शरसन्धान, ४४. पर्यायगजदन्तक, ४५. अंसपर्यामनिर्गत, ४६. त्रिकोणस्वस्तिक, ४७. रयनेमिसम ४८. लतावेष्टित, ४९. कर्णयग्मप्रकोणक और ५०. नवरत्नमुख । १. विश्लिष्टवर्तित विधाय स्वस्तिकौ यत्र तिर्यगेको विलोडितः । अपरः पार्श्वयोर्यत्राशीर्षमूर्ध्वमधस्तथा । लोडितः स्यात् तदाख्यातं सद्भिर्विश्लिष्ट वर्तितम् ॥७६७॥ 766 . Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालन प्रकरण यदि दोनों हाथों को स्वस्तिक में बनाकर एक को तिरछा करके हिलाया जाय और दूसरे को दोनों पावों में शिर तक नीचे-ऊपर हिलाया जाय तो सज्जनों ने उसे विश्लिष्टवर्तित कहा है। २. वेपथुव्यंजक ___ लुठत्येककरे तिर्यङ् नाभिदेशगते सति । 767 ततोऽन्यदेशचलनं यन्मञ्जुलरसोज्ज्वलम् । हस्तयोस्तत् समाख्यातं वेपथुव्यञ्जकं तदा ॥७६८॥ 768 यदि एक हाथ नाभिदेश में जाकर तिरछा होकर लौटे और फिर वहाँ से अन्य स्थानों में सुन्दरतापूर्वक उज्ज्वल होकर संचलित हो, तो दोनों हाथों की उस क्रिया को वेपथुव्यंजक कहते हैं। ३. अपविद्ध .....लुठनं मण्डलाकारं नाभिकण्ठप्रदेशयोः । वामदक्षिणतो यत् स्यादपविद्धमितीरितम् ॥७६६॥ 769 यदि नाभि और कण्ठ के पास बाँये-दाँये क्रम से हाथों को लोटाया जाय तो उसे अपविद्ध चलन कहते हैं। ४. लहरीचक्रसुन्दर एकस्मिन्नाभिदेशस्थे तिर्यग्लुठति हस्तके । ततो वामं सपर्यन्तं परं प्राप्य पराङ्मुखम् ॥७७०॥ 770 कर्मणान्दोलनेनाथ प्रसार्या, बहिर्यदा । क्षिप्रमन्तरमाक्षिप्य शिरसः पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७७१॥ 771 विलोज्यपार्श्वयोः स्तोकं यद्विलासेन जायते । । तदवादि तदा सद्भिर्लहरीचक्रसुन्दरम् ॥७७२॥ 772 पहले एक हाथ को नाभिदेश में रखकर तिरछा लोटा दिया जाय; फिर बायें हाथ को हिलाते-डुलाते हुए किनारे सहित उलटा कर शिर के दोनों बगल में किञ्चित् हाव-भाव के साथ चलायमान किया जाय, उसी को सज्जनों ने लहरीचक्रसुन्दर चालन कहा है । ५. वर्तनास्वस्तिक ..... एकस्य वलने पावें विद्युदाकृतिधारिणः । अन्वक्षरेण हस्तेन योगश्चेच्च्युतिपूर्वकः ॥७७३॥ 773 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः प्रसकृद् यत्र तत् प्रोक्तं वर्तनास्वस्तिकं तदा । श्रथवेदं त्रिखण्डोक्तवर्तनाभिर्भवेदिति ॥ ७७४ ॥ 774 यदि एक हाथ बिजली की आकृति धारण करके, अर्थात् विद्युल्लता के समान, बगल में चक्कर लगाये और दूसरा हाथ उसका अनुगमन करते हुए बार-बार उससे जुट जाय तथा हट भी जाय, तो उसे वर्तनास्वस्तिक चालन कहते हैं । उसे त्रिखण्डोक्तवर्तनाओं द्वारा सम्पन्न किया जाय । ६. संमुखीनरथांग तिर्यग्विततरेचितौ । परस्परमुखीभूय विधाय पार्श्वयोरन्तरावृत्ती तीक्ष्णकूर्परौ ॥७७५॥ 775 रेचितौ पूर्ववद् यत्र हस्तौ मञ्जुलतान्वितौ । सम्मुखीनरथाङ्गं तच्चालनं परिकीर्तितम् ॥७७६ ॥ 776 जहाँ दोनों रेचित हस्तों को सुन्दर ढंग से एक-दूसरे के आमने-सामने फैलाकर दोनों पावों में दोनों नोकीली कोहनियों को चलाया जाय, वहाँ उसे संमुखीनरयांग कहा जाता है । ७. पुरोदण्डभ्रम तिर्यङमुष्टि विधायक पश्चादस्यैव चेद्वहिः । अन्तश्च लीलयान्यस्मिन् लुठिते सति हस्तयोः ॥ ७७७॥ पुरस्तान्निसृतिर्यत्र पर्यायेण तदीरितम् । पुरोदण्डभ्रमाख्यं तच्चालनं प्राच्यसूरिभिः ॥ ७७८ ॥ 777 778 जहाँ दोनों हाथों में से एक को मुष्टि हस्त बना कर पश्चात् उसी के बाहर या भीतर लीलापूर्वक दूसरे हाथ को लोटा दिया जाय और अनुक्रम से आगे निकाल दिया जाय, तो पूर्वाचार्यों ने उसे पुरोदण्डभ्रम चालन कहा है। ८. त्रिभंगीवर्णसारक पूर्वे पार्श्वे ततः पञ्चाद् विदिश्यपि पदक्रिया । करयोर्जायते यत्र युगपत् *मतोऽथवा । त्रिभङ्गीवर्णसारकं चालनं तदुदीरितम् ॥७७॥ जहाँ दोनों हाथों का संचालन पूरब में, अगल-बगल में तथा दो दिशाओं के अन्तराल में एक साथ या क्रमशः किया जाता है, वहाँ वह त्रिभंगीवर्णसारक चालन कहलाता है । १२२ 779 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. बोल चान करण यत्रोर्ध्वोऽधोमुखस्त्र्यत्रं लीयया लुठितः क्रमात् । करस्तद्दोलमादिष्टं चालनं प्राक्तनैर्बुधः ॥७८०॥ जहाँ एक हस्त क्रमशः ऊर्ध्वमुख तथा अधोमुख होकर त्रिकोण में लोटता है, वहाँ उसको पूर्वाचार्यों ने बोल चालन कहा है । १०. नीराजित 780 स्वस्तिकीभूय चेद्धस्तौ बहिरेव विनिर्गतौ । अन्तस्तिर्यक् चक्रभावान्मूध्नि सव्यापसव्ययोः । युगपल्लुठतो तन्नीराजितचालनम् ॥७८१ ॥ यत्र 782 यदि दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में रच कर बाहर की ओर निकाला जाय और फिर भीतर तिरछा करके चक्राकार में बाँये-दाँये क्रम से एक साथ मस्तक पर लोटा दिया जाय तो वह नीराजित चालन कहलाता है । ११. स्वस्तिकाश्लेष वामदक्षिणयोस्तिर्यग्लुठनं करयोर्यदा । स्वस्तिकाकारयोमंत्र तत् तदा तण्डुना मतम् । तदप्यन्वर्थनामकम् ॥७८३॥ वामदक्षतिरश्चीनं बिभ्रतोः स्वस्तिकाकारं करयोः स्कन्धदेशतः । वलनं चेत् तदा प्रोक्तं स्वस्तिकाश्लेषचालनम् ॥७८२|| 783 यदि स्वस्तिकाकृति धारण किये हुए दोनों हाथों को कन्धे के पास से घुमाया जाय, तो उसे स्वस्तिकाश्लेष चालन कहा जाता है । १२. वामवक्षतिरश्चीन 781 एक: करो यदा कर्णदेशगोऽन्यस्तु वतितः । उत्सार्योद्वेष्टितेन स्याद् वर्तनाभरणं तदा ॥ ७८४ ॥ 784 जब दोनों स्वस्तिकाकार हस्त बाँये-दाँये क्रम से तिरछे लोटा दिये जायं, तब उसे आचार्य डु के मत से क्षतिरश्चीन चालन कहते हैं। यह उसकी अन्वर्थसंज्ञा ( अर्थानुरूप नाम ) है । १३. वर्तनाभरण 785 २२३ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः -788 जब एक हाथ कान के पास रहे और दूसरे हाथ को हटाकर चारों ओर से घेर दिया जाय तब उसे वर्तनाभरण चालन कहते हैं। १४. मिथोंसवीक्षाबाह्य एकः करश्चदन्यस्य स्कन्धदेशमृजुर्गतः । 786 निवृत्तः सन् निजे पार्वे क्रमाद् विहितमण्डलः । मिथोंसवीक्षाबाह्यं तत्कथ्यते चालनं तदा ॥७८५॥ 787 यदि एक हाथ दूसरे के कन्धे पर सीधे चला जाय और फिर क्रमश: मण्डल बना कर पार्श्व में लौट आये, तो उसे मिथोंसवीक्षाबाह्य कहते हैं। १५. मौलिरेचितक कटिदेशगतस्त्वेकोऽपरस्तु पुरतो गतः । प्रथतो केशपर्यन्तं लीलया लुठितौ यदि । तदात्र सद्धिराख्यातं मौलिरेचितकं तदा ॥७८६॥ यदि एक हाथ को कमर पर और दूसरे को सामने रखा जाय तथा दोनों को केश पर्यन्त लीलापूर्वक लोटाया जाय तो सज्जन लोग उसे मौलिरेचितक चालन कहते हैं। १६. मणिबन्धासिकर्ष हस्तावुद्यम्य युगपत् क्रमाद् वा स्कन्धधोर्यदि । 789 विलोडनं विधायाथ कूपरस्वस्तिकात्मना ॥७८७॥ तत्रैव लोडयित्वाथ बहिरन्तश्च मुष्टितः । 790 द्रुतं निविश्य लुठनाच्चक्राकृतिविडम्बिनः ॥७८८॥ तदन्यस्मिन् क्रमाद्धस्ते पार्श्वयोर्वलनं गते । 791 परस्य लीलया यत्र समुत्क्षेपो विधीयते । मणिबन्धासिकर्षाख्यं तदा सद्धिनिरूपितम् ॥७८६॥ 792 दोनों हाथों को एक साथ या क्रम से उठाकर दोनों कन्धों पर हिलाया जाय; फिर कुहनियों को स्वस्तिकाकार बनाकर हाथों को वहीं पर हिलाया जाय, अनन्तर बाहर और भीतर शीघ्र मुष्टि हस्त का प्रयोग करके चक्राकार हाथ को लोटाया जाय; पश्चात् एक हाथ को दोनों पार्यों में टेढ़ा करके दूसरे हाथ को लीलापूर्वक ऊपर उठाया जाय; ऐसा करने पर सज्जनों ने उसे मणिबन्धासिकर्ष चालन कहा है। २२४ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. अंसवर्तनिक मणिबन्धप्रकोष्टांसवर्तनाच्चलितोद्धृतैः कि 'ञ्चित्साचिनतं शीषं विधायोपरिलोडनैः ॥७६०॥ परागधोमुखत्वेन लुठितैरुरसः पुरः । ततश्चेच्चलितैः पाण्योः कुटिलैः पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७६१ ॥ युगपत् क्रमतो यद्वा भूयते यत्र तत् तदा । अंसवर्तनिक प्रोक्तं तल्लक्षणविशारदैः ॥७६२॥ कलाई से लेकर कुहनी तक के भाग को चलाया जाय और सिर को कुछ तिरछा करके उसके ऊपर हाथों को हिलाया जाय; फिर ऊर्ध्वमुख तथा अधोमुख होकर वक्षःस्थल के समक्ष हाथों को लोटाया जाय; पश्चात् दोनों पाव में हाथों को कुटिल करके एक साथ या क्रमशः चलायमान किया जाय । ऐसी क्रिया को लक्षण के विशेषज्ञों ने असवर्तनिक चालन कहा है । १८. आदिकर्मावतार चालन प्रकरण १. देखिए: भरतकोश, पुं० ८१० । १९ वामदक्षिणयोर्मूनों युगपत् क्रमतोऽथवा । ऊर्ध्वाधोमण्डलभ्रान्तौ करौ स्वस्तिकतां गतौ ॥७६३॥ वर्तनास्वस्तिकौ पार्श्वयुग्मे बृहन्मण्डल पूर्णौ चेत् पुरो श्रादिकर्मावताराख्यं 798 मस्तक के वाम तथा दक्षिण भाग में एक साथ या क्रमशः स्वस्तिकाकार हाथों को ऊपर-नीचे मण्डलाकार में घुमाया जाय; फिर वर्तनास्वस्तिक नामक चालन वाले हाथों को दोनों पावों में मण्डल बनाकर घुमा दिया जाय; इस प्रकार बृहत् मण्डल से पूर्ण हाथ जब सामने लोटने लगते हैं, तब पूर्वाचार्यों ने उसे आदिकर्मावतार चालन कहा है । १९. कविविनोद भणितं मण्डलघूर्णितौ । विलुठतस्तदा । पूर्वसूरिभिः ॥७६४|| मूर्ध' देशोपरि करौ यद् मध्याकाशमेकदा । विलोड्य मण्डलाकारमथ चेत् पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७६५॥ 793 794 795 796 797 799 ३१६ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्याध्यायः 800 802 करयोः क्रियते यत्र पतनोत्पतनात्मिका । पुनः पुनः] क्रिया या स्यात् द्रुतमानेन लीलया ।। कलविङ्कविनोदाख्यं चालनं तत् तदेरितम् ॥७६६॥ मस्तक के ऊपर दोनों हाथों को मध्य आकाश में एक बार हिलाकर दोनों पाश्वों में मण्डलाकार घुमाया जाय; फिर बार-बार तेजी से दोनों हाथों को लीलापूर्वक गिरा दिया जाय और उठा दिया जाय । ऐसी क्रिया को कलविद्धकविनोद चालन कहते हैं। २०. मण्डलान मुष्टिविलुठित'स्त्वेकस्तदूर्ध्वं यात्य[था]परः । . 801 गतागतः पार्श्वयोः स पश्चात्तु पुरतो गतः ॥७६७॥ एवं सति पुनर्यत्र व्यत्यासात् करयोः क्रियाः । चालनज्ञैः समाख्यातं मण्डलामिदं तदा ॥७६८॥ एक मष्टि हस्त लोटता रहे और दूसरा ऊपर को जाय; फिर वह हाथ दोनों बगलों में जाय; पश्चात् आगे जाय; इस प्रकार बदल-बदल कर दोनों हाथों की क्रियाएँ जहाँ हों, वहाँ चालन के विशेषज्ञों ने उसे मण्डलान चालन कहा है। २१. चतुष्पत्राज ऊवं विलुठितः पूर्व पश्चान्मण्डलवभ्रमः । 803 विलासेन चतुर्दिक्षु हस्तो यत्र प्रवर्तते ॥७६६॥ नाभिदेशसमीपस्थे लुठत्यन्यकरे . सति । 804 पर्यायाच्चेत् तत् तदोक्तं चतुष्पत्राब्जचालनम् ॥८००॥ जहाँ एक हाथ पहले ऊपर में लोटे पश्चात् चारों दिशाओं में हाव-भाव के साथ मण्डलाकार में घूमे और दूसरा हाथ नाभि के समीप बारी-बारी से लोटे, तो उसको चतुष्पत्राब्ज चालन कहते हैं। २२. बालव्यंजन पर्यायेणोत्प्रकोष्ठं चेत् स्कन्धदेशान्तरं गतौ । करौ विलुठितो भूत्वाधोगतौ चक्रभावतः । यत्र स्तस्तत् तदादिष्टं बालव्यजनचालनम् ॥८०१॥ 806 १. देखिए : 'स्यक' भरतकोश, पृ० ८१५ । 805 ૨૨૬ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालन प्रकरण जहाँ दोनों हाथ बारी-बारी से कलाई से कुहनी तक के भाग को छोड़कर कन्धों पर पहुँच कर लोटने लगें और फिर चक्राकार धारण कर नीचे चले जायें, तो उसको बालव्यंजन चालन कहते हैं। २३. विरुडिबन्धन अनुसृत्य त्रिकोणत्वं करो यत्र विलोड्यते । पुरतः पार्श्वयोस्तद्वद् यदा मण्डलवृत्तितः । 807 चालकज्ञास्तदा प्राहुरिदं विरुडिबन्धनम् ॥८०२॥ जब हाथ त्रिकोण बनाकर हिलाया जाता है और उसी तरह मण्डलाकार में आगे तथा दोनों पावों में चलाया जाता है, तब चालन के विशेषज्ञ लोग उसे विरुडिबन्धन चालन कहते हैं । २४. विश्रृंगाटकबन्ध प्रतिलोमानुलोमाम्यां भवेदेतस्य या क्रिया । 808 विशृङ्गाटकबन्धाख्यं तद्विदस्तदवादिषुः ॥८०३॥ इसी विरुडिबन्धन नामक चालन क्रिया को यदि अनुलोम-विलोम-भाव से सम्पन्न किया जाय, तो चालनज्ञों ने उसे विशृंगाटकबन्ध चालन कहा है। २५. कुण्डलिचारक विलोज्यते यत्र करो वामदक्षिणयोर्यदि । 809 गतागते । दधद् दिक्षु तिर्यग्व्यावर्तिता पुनः । सद्भिरेतत् समादिष्टं तदा कुण्डलिचारकम् ॥८०४॥ 810 यदि बायें-दायें क्रम से हाथ को चलाया जाय और दिशाओं में यातायात करते हुए उस हाथ को तिरछा घुमाया जाय तो सज्जन लोग उसे कुण्डलिचारक चालन कहते हैं । २६. धनुराकर्षण स्वस्तिकीकृतयोः पाण्योर्वेगात् तिर्यक् प्रसर्पतोः । पार्श्वेऽर्थककरोऽकस्मानिवृत्य यदि कर्णगः । 811 धनुराकर्षणं प्रोक्तं तदा त्वन्वर्थनामकम् ॥८०५॥ स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित दोनों हाथों को पार्श्व में तिरछा करके चालाया जाय और फिर एक हाथ को अकस्मात् लोटाकर कान पर ले जाया जाय, तो उसे अर्थानुरूप नाम वाला धनुराकर्षण चालन कहते हैं। २२७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. हारवामविलासक नृत्याध्यायः भुजावंसान्तरं गत्वा युगपत् पार्श्वयोर्द्वयोः । पतेतां यत्र तत् प्रोक्तं हारदामविलासकम् ॥ ८०६ ॥ जब दोनों भुजाएँ कन्धों के बीच में जाकर एक साथ दोनों पावों में गिरते हैं, तब उसे हारदामविलासक चालन कहते हैं । २८. समप्रकोष्ठ सम प्रकोष्ठ चलनमन्वर्थं सद्भिरितम् ||८०७ ॥ 813 सज्जनों ने समप्रकोष्ठ चालन नामक चालन को अन्वर्थ बताया है; अर्थात् समप्रकोष्ठ ( कलाई से कुहनी तक के भाग) पर हाथ के चलने को समप्रकोष्ठ चालन कहते हैं । २९. मुरजाडम्बर २२८ 812 तत्रैव यत्र भवेदादत्तमण्डलः । पार्श्वयोर्वर्तनान्वितः ॥ ८०८ ॥ वामस्कन्धदेशमुपाश्रितः । गत्वा विदिशि सव्यापसव्यतो दक्षिणस्तु ततो क्षिप्रं विदिशि यात्वाथ लुठितः सव्यपार्श्वके ॥ ८० ॥ ततोऽन्यस्मिन् करे तिर्यक् नाभिदेशसमीपमे । लुठत्येतत् समादिष्टं मुरजाडम्बरं बुधैः ॥ ८१०॥ 816 दो दिशाओं के बीच (कोण) में जाकर वहीं मण्डल बना लिया जाय; फिर बायें दायें क्रम से पावों में वर्तना से युक्त दाहिने हाथ को बायें कन्धे पर रख दिया जाय; अनन्तर शीघ्रतापूर्वक बायें पार्श्व में दाहिने हाथ को लोटा दिया जाय; तत्पश्चात् बायें हाथ को नाभिदेश में तिरछा करके लोटा दिया जाय। इसी क्रिया को बुधगण मुरजाडम्बर चालन कहते हैं । ३०. तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्र प्रसृतौ पार्श्वयोः पूर्वं हस्तकौ तदनन्तरम् । मिथोऽभिमुखतां प्राप्य जातस्वस्तिकबन्धनौ ॥ ८११ ॥ पुरतो धावतो यस्मिन् सविलासं यदा तदा । तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्रं तत् सुमन्तुरभाषत ॥ ८१२ ॥ 814 815 817 818 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले दोनों हाथों को पावों में फैला दिया जाय; तदनन्तर एक-दूसरे के आमने-सामने करके दोनों को स्वस्तिक मुद्रा में बाँध कर आगे की ओर हाव-भाव के साथ चलाया जाय; इस क्रिया को आचार्य समन्तु ने तिर्यग्यातस्वस्तिकान चालन कहा है। ३१. देवोपहारक परालकपरावृत्तेरुभयोः पार्श्वयोरपि । सरलप्रसृतस्याग्ने करस्य लुठति स्वयम् ॥८१३॥ 819 सम्प्राप्य कूपरक्षेत्रं परो लुठति यत्र तत् । देवोपहारकं प्रोक्तं तदा नृत्तविचक्षणः ॥८१४॥ 820 दोनों पावों में अराल हस्त को परिवर्तित करके एक हाथ को सीधा फैलाकर स्वयं लोटा दिया जाय; फिर कुहनी के आस-पास दूसरे हाथ को लोटा दिया जाय। इस क्रिया को नत्य के विद्वानों ने देवोपहारक चालन कहा है। ३२. अलातचक्र कश्चिदन्तर्बहिश्चऋचरो हस्तः पराङ्मुखः । प्रन्यो विडम्बनां धत्तेलातचक्रस्य चेद् तदा । 821 , प्रलातचक्रमाख्यातं सद्भिरन्वर्थनामकम् ॥१५॥ बाहर भीतर चक्र के समान चलने वाला एक हाथ किसी ओर से मुंह मोड़ ले और दूसरा हाथ अलातचक्र का अनुकरण करे, तो सज्जन लोग उसका अन्वर्थ (अर्थानरूप) नाम अलातचक्र बताते हैं । 1. साधारण कटिवेशगतौ हस्तौ तिर्यग्यदि विलोडितौ । 822 ततोऽन्तर्मण्डलभ्रान्तावथवा बहिरेकदा । यत्र साधारणमवश्वालनं कथितं तदा ॥१६॥ 823 यदि दोनों हाथ कमर पर तिरछे चलाये जायें और उसके बाद भीतर अथवा बाहर एक बार मण्डलाकार में घुमाये जायें, तो उसको साधारण चालन कहते हैं । ३४. उरमकसम्बाष . स्वस्तिकाकृतिता नीत्का निष्क्रान्ती बहिरेव चेत् । - १२९ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः करो निवृत्तौ वेगेन मिथः सांमुख्यधारिणौ । यत्रोरभ्रकसम्बाधचालनं तत् तदेरितम् ॥ ८१७॥ यदि दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाकर बाहर ही निकाला जाय और फिर एक-दूसरे के आमने-सामने करके वेग से हटा दिया जाय, तो उसको उरभ्भ्रकसम्बाध चालन कहते हैं । ३५. मणिबन्धगतागत 824 मणिबन्धे यदैकस्य करो स्थित्वा बहिर्मण्डलग: यस्मिन् प्रवर्तते तत् स्यात् मणिबन्धगतागतम् ॥१८॥ - 826 जब एक हाथ की कलाई पर दूसरा हाथ लोटा दिया जाता है और फिर उसको बाहर के गोल घेरे में रखकर भीतर के गोल घेरे में कर दिया जाता है, तब उसे मणिबन्धगतागत चालन कहते हैं । ३६. तार्क्ष्यपक्षविनोदक विलुठितोऽपरः । तथान्तर्मण्डलैस्तदा । वर्तनास्वस्तिकीभूय विधुतौ पार्श्वयोर्लोडितौ प्रोक्तौ २३० 825 युगपत् करौ । तापक्षविनोदकम् ॥ ८१६॥ 827 यदि दोनों हाथों को वर्तनास्वस्तिक चालन बनाकर एक साथ कम्पित किया जाय और फिर दोनों पावों में संचालित किया जाय, तो उसे तार्क्ष्यपक्षविनोदक चालन कहते हैं । ३७. धनुर्वल्लीविनामक कृत्वोर्ध्वाधोमुखौ हस्तौ विलासात् क्रमतो यदि । मण्डलाकृतिसम्भ्रान्तौ ततस्तावेव पूर्ववत् ॥ ८२०॥ शीर्षदेशे कटीदेशे पार्श्वयोतिसंयुतौ । स्यातां यत्र तदा तत् स्याद् धनुर्वल्लीविनामकम् ॥ ८२१ ॥ यदि दोनों हाथों को हाव-भावपूर्वक क्रमशः ऊर्ध्वमुख तथा अधोमुख करके मण्डलाकार में घुमाया जाय और फिर उन्हीं को पूर्ववत् सिर पर, कमर पर तथा पार्श्वो में झुकाकर अवस्थित किया जाय, तो उसे धनुर्वल्लीविनामक चालन कहते हैं । 829 ३८. तिर्यक्ताण्डव पूर्वमूध्वं विधायैकं तिर्यग् नाभिप्रदेशगम् । 828 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 830 चालन प्रकरण अपरं करमारच्य तिर्यक् पान्तिरं गतम् । जायते या क्रिया तत् स्यात तिर्यक्ताण्डवचालनम् ॥२२॥ पहले एक हाथ को नाभिप्रदेश में तिरछा करके ऊर्ध्वमुख किया जाय; फिर दूसरे हाथ को दूसरे पार्श्व में तिरछा किया जाय, तो ऐसी क्रिया को तिर्यक्ताण्डव चालन कहते हैं । ३९. व्यस्तोत्प्ल तिनिवर्तक यत्र पार्श्वमुखौ पूर्व निःसृतौ त्वरया करौ । 831 तीक्ष्णकूर्परको स्यातां श्लिष्टपूर्वमुखौ ततः । धराभिमुखता तत् स्याद् व्यस्तोत्प्लुतिनिवर्तकम् ॥८२३॥ 832 जहाँ दोनों हाथ पार्श्व की ओर मुंह करके.शीघ्रता से निकलें; फिर तीक्ष्ण कुहनी वाले दोनों के मुख सट जाँय ; पश्चात् वे पृथ्वी की ओर अभिमुख हों; तो ऐसी क्रिया को व्यस्तोत्प्लुतिनिवर्तक चालन कहते हैं । ४०. कररेचितरत्न पार्श्वयोः प्रथमं यात्वा विदिश्यपि ततोऽनु च । संयतस्वस्तिको स्यातां कटिमूर्ध्वगतौ मिथः ॥२४॥ 833 बालव्यजनचालाख्यक्रियां प्राग्वत्समाश्रितो । वर्तनास्वस्तिकं कृत्वा ततो भूतलसम्मुखौ ॥२५॥ 834 उद्गतौ मण्डलाकारं स्वस्तिको पतितावधः । विधायकं नितम्बाख्यमपरं रथचक्रवत् ॥२६॥ 835 भ्रामयित्वा विलासेन कर्मणान्दोलनेन च । सरलोत्सारितोद्वेष्टप्रसारितविनम्रकः ॥८२७॥ 838 अंसान्ते लुठितौ स्वरमेककं मण्डलोर्ध्वगौ । निर्गताभिमुखौ स्यातां भुजौ पर्यायतो यदि ॥८२८॥ 837 पतितोत्पतितौ शीर्षात् कटिक्षेत्रावसानकम् । पश्चात् स्वस्तिकबन्धेन रमणीयेषु केष्वपि ॥२६॥ 838 द्रुत तत्र प्रदेशेषु वामदक्षिणपूणितौ । अन्तर्वहिश्चक्रचरौ सविलासौ ततः परम् ॥३०॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः कूर्परस्वस्तिकेन स्तः पराङ्मुखविलोडितौ । अथवा द्रुतमानेन केवलं सरलत्वतः ॥८३१॥ 840 वामदक्षिणयोः पश्चात्त्रिकावधि विलोडितौ । एककमथवा नेत्रसुखदौ स्वस्तिको करौ ॥३२॥ 841 यत्रोर्ध्वाधोमुखौ तिर्यग्गतौ तत्कथितं तदा । कररेचितरत्नाख्यं लक्ष्मलक्षणवेदिभिः ॥३३॥ 842 पहले दोनों हाथ पाँजरों पर जाय; उसके बाद दो दिशाओं के बीच में स्वस्तिक मद्रा में बद्ध हों; फिर परस्पर ऊपर को जाकर कटि का आश्रय ग्रहण करें; अनन्तर बालव्यंजन नामक चालन क्रिया का पूर्ववत् आश्रय लें; फिर वर्तनास्वस्तिक नामक चालन-क्रिया करके भूमि के संमुख होकर मण्डलाकार में ऊपर उठे और स्वस्तिकाकार में नीचे गिरें; तत्पश्चात् एक हाथ को नितम्ब हस्त बनाया जाय और दूसरे को रथ के पहिये की तरह घुमाकर हाव-भाव के साथ आन्दोलित किया जाय; सीधा रखे, हटा दे, घेर दे, फैला दे, और झुका दे; उसके बाद दोनों हाथों को अथवा एक-एक को कन्धे के अन्त में लोटाया जाय ; फिर दोनों भुजाओं को मण्डलाकार में ऊपर उठा कर एक-दूसरे के आमने-सामने करके सिर से कटिक्षेत्र के अन्त तक बारी-बारी से गिराया जाय, और उठाया जाय; पश्चात् स्वस्तिक मुद्रा में बाँधकर रमणीय प्रदेशों में बायें-दायें क्रम से शीघ्रता के साथ घुमाया जाय; उसके बाद हाव-भाव के साथ भीतर-बाहर चक्र के समान चलाते हुए दोनों को स्वस्तिकाकार कुहनी से पराङमख तथा आन्दोलित किया जाय; अथवा केवल द्रतगति से सरलतापूर्वक बायें-दायें क्रम से तीन बार तक उन्हें आन्दोलित किया जाय; फिर एक-एक अथवा दोनों नेत्रसुखदायी स्वस्तिकाकार हाथों को ऊर्ध्वमुख, अधोमुख तथा तिरछा करके अवस्थित किया जाय । इन्हीं उपर्युक्त क्रियाओं को लक्ष्य-लक्षण के विशेषज्ञों ने कररेचितरत्न चालन कहा है। रमणीयमिदं यत्र प्रायेण जैः प्रयुज्यते । तत्र सिद्धास्तथासिद्धा देवाश्च मुनिभिः सह ॥८३४॥ 843 सदा तिष्ठन्ति सुप्रीतास्तथा विद्याधरादयः । ग्रन्थविस्तरतो नातिविस्तरः कथितो मया ॥३५॥ 844 जहाँ विज्ञ पुरुषों द्वारा इस समणीय चालन का प्रयोग किया जाता है वहाँ सिद्ध, असिद्ध, देवता, मुनि तथा विद्याधर आदि सदा प्रेमपूर्वक उपस्थित रहते हैं। ग्रन्थ-विस्तार के भय से मैंने इसको अधिक विस्तार से नहीं बताया। २३२ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालन प्रकरण ४१. मण्डलाभरण अभ्यन्तरप्रवेशेन परिभ्राम्य तु चक्रवत् । पश्चाद् विलोड्य दोलावत् क्रियया पार्श्वयोर्यदा । 845 प्रातिलोम्येन यद्वेदं मण्डलाकरणं तदा ॥३६॥ जब दोनों हाथ भीतर प्रवेश के साथ चक्र की तरह घूमकर दोनों पाश्वों में डोले की तरह झूलें अथवा विपरीत भाव से उक्त क्रियाएँ हों, तो उसे मण्डलाभरण चालन कहते हैं । ४२. अष्टबन्धविहार बामदक्षिणपाश्चात्य [] रोदेशेषु सर्वतः । 848 मण्डलस्वस्तिको यात्वा क्रमेण सविलासको ॥३७॥ दिशास्वष्टासु चेद्धस्तौ लुठितौ यत्र तत्तदा । 847 अष्टबन्धविहाराख्यमादिष्टं नृत्तकोविदः ॥८३८॥ जब मण्डल और स्वस्तिक का आकार धारण किये हुए दोनों हाथ क्रमशः विलासपूर्वक बायें, दायें, पीछे और आगे सब ओर आठों दिशाओं में जाकर लोटते हैं, तब नृत्य के विद्वानों ने उसे अष्टबन्धविहार चालन कहा है। ४३. शरसन्धानक पराङ्मुखे . लुठत्येककरे सति विलासतः। 848 परः करो मूर्धदेशपर्यन्तं चेद् गतागतः ॥३६॥ पुनस्तन्मुख एव स्याच्छरसन्धानकं तदा ॥८४०॥ 849 जब एक हाथ पराङ्मुख होकर हाव-भाव के साथ लोटता है और दूसरा हाथ सिर तक जाता-आता हुआ पुनः उसी के सम्मुख रहता है, तब उसे शरसन्धानक चालन कहते हैं। ४४. पर्यायगजवन्तक . लुठत्येककरो तिर्यगथान्यस्तु प्रसारितः । पर्यायाद् यत्र तत् प्रोक्तं पर्यायगजदन्तकम् ॥८४१॥ 850 जहाँ बारी-बारी से एक हाथ तिरछा होकर लोटता है और दूसरा फैलता है, वहाँ उसे पर्यायगजवन्तक चालन कहते हैं । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ४५. अंसपर्यायनिर्गत बध्वा तु स्वस्तिकं पूर्व कलाससमये यदा । निर्गतावंसदेशाच्च पर्यायात् कटिदेशगौ ।। 851 करौ यत्र तदोक्तं तदंसपर्यायनिर्गतम् ॥८४२॥ जब कलास नामक बाजा के बजने के समय दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में बाँधकर कन्धे के प्रदेश से निकाल कर बारी-बारी से कमर के प्रदेश में पहुंचा दिया जाता है, तब उसे अंसपर्यायनिर्गत चालन कहते हैं । ४६. स्वस्तिकत्रिकोण विधाय स्वस्तिको पाश्चादाकुञ्च्य पुनरूर्ध्वगौ । 852 वामांसक्षेत्रपर्यन्तं करौ यदि गतौ तदा । तत् स्वस्तिकत्रिकोणाख्यमवदन् पूर्वसूरयः ॥८४३॥ 853 जब दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाकर पश्चात् सिकोड़ कर पूनः कन्धे के क्षेत्र तक ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है, तब पूर्वाचार्यों ने उसे स्वस्तिकत्रिकोण चालन कहा है ।। ४७. रयनेमिसम आदिमध्यावसानेषु दधतौ स्वस्तिकाकृती। रथचक्रकृती तिर्यगेकदा क्रमतोऽथवा । हस्तौ विलुठितौ यत्र रथनेमिसमं विदुः ॥८४४॥ जब दोनों हाथ आदि, मध्य और अवसान में एक साथ या क्रमशः स्वस्तिक का आकार तथा रथ के पहिए का आकार धारण करके लोटते हैं, तब उसे रयनेमिसम चालन कहते हैं । ४८. लतावेष्टित अन्तर्बहिः करावं वलित्वोद्वेष्टितौ यदि । 855 पार्श्वयोः क्रमतस्तत्र तिर्यग् लुठति चैकके । लुठितोऽन्यः करो यत्र तल्लतावेष्टितं तदा ॥४५॥ 856 जब दोनों हाथ भीतर, बाहर तथा ऊपर वक्र गति से जाकर चारों ओर से घिर जायें और दोनों पावों में दोनों हाथ लोटने लगें, तो उसे लतावेष्टित चालन कहते हैं। 854 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालन प्रकरण ४९. कर्णयुग्मप्रकीर्ण उपकणं यदा तिर्यग्लुठितौ क्रमतः करौ । निजे पावें पुरोदेशपर्यन्तं यत्र तत्तदा । __857 कर्णयुग्मप्रकीर्णाख्यं चालकं कथितं बुधैः ॥८४६॥ जब दोनों हाथ तिरछे होकर कानों के समीप, अपने पार्श्व में और अग्रभाग में क्रमश: लोटते हैं, तब विद्वानों ने उसे कर्णयुग्मप्रकीर्ण चालन कहा है। .. ५०. नवरत्नमुख विश्लिष्ट' वर्तिताद्यैश्च नवभिर्दशभिश्च वा। 858 उक्तः संसर्गरूपेण रचितश्चालकैर्यदि ॥८४७॥ पाकेशबन्धमुत्क्षिप्तः पश्चात्स्वस्तिकतां गतः । ततोऽन्याङ्गपरावृत्तौ धरासम्मुखतां गतौ ॥८४८॥ मण्डलाकारसम्प्राप्तौ तिरश्चीनौ ततः परम् । प्राविद्धावपविद्धौ च युगपत् क्रमतोऽथवा ॥३४६॥ - तत्कालाहक्रियायोग्यौ तदान्दोलनसंयुतौ । करावेवं यत्र तत् स्यान्नवरत्नमुखं तदा ॥८५०॥ उक्त नौ या दस अलग-अलग वर्तनाओं के सम्पर्क से बनाये हुए, जूड़े तक उछाले हुए और पश्चात् स्वस्तिक मुद्रा को प्राप्त किये हुए चालनों से दोनों हाथों को अन्य अंगों पर घुमाकर पृथ्वी के सम्मुख किया जाय; फिर तिरछा. करके मोड़ दिया जाय और दूर फेंक दिया जाय; अनन्तर एक साथ या क्रमश: तत्कालोचित क्रिया के योग्य आन्दोलन से युक्त किया जाय; अर्थात् हिलाया-डुलाया जाय । ऐसी क्रिया को नवरत्नमुख चालन कहते हैं। मतान्तर से अन्य भेद दिग्व ख्यमनकामोटनं तोरणाभिधम् । 862 अनङ्गोद्दीपनं चाथ तथा मुरजकर्तरी । पञ्चेति चालकानि स्युरधिकानि मतान्तरे ॥८५१॥ 863 १. देखिए : 'वणिता' भरतकोश, पृ० ८६४. 861 - - २३५ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः दूसरे मत से चालनों के पांच भेद और अधिक हैं : १. दिग्वर्ष, २. अनंगांगमोटन, ३. तोरण, ४. अनंगोहीपन और ५. मुरजकर्तरी । १. दिग्वर्ष पुरस्तात्पार्श्वयोस्तिर्यगूवं पश्चाच्च लोडितः । . करो यत्र तदुद्दिष्टं दिग्वर्षाभिधचालनम् ॥८५२॥ 864 जहाँ आगे, दोनों पावों में, तिरछे, ऊपर और पीछे हाथ चलाया जाता है, वहां दिग्वर्ष नामक चालन होता है। २. अनंगांगमोटन यदा मण्डलतो हस्तौ लुठित्वा स्कन्धदेशयोः । तद्वद् यत्र शिरःक्षत्रे नयनानन्ददायकैः । 865 लोडितौ तदनगाङ्गमोटनं कोर्तितं तदा ॥८५३॥ जब दोनों हाथ मण्डल बनाकर दोनों कन्धों पर लोटें और उसी तरह नेत्रानन्ददायक हाव-भावों से वे शिर पर लौटे तो उसे अनंगांगमोटन चालन कहते हैं । ३. तोरण पुरस्तात्स्वस्तिको भूत्वा ततो विच्युतितां गतौ । -866 पार्श्वयोर्लोडनः प्राप्य पुनः स्वस्तिकबन्धनौ ॥८५४॥ स्थित्वा शीर्षोपरि करौ ततस्तौ वियुतौ पुरः। 867 लोडितौ यत्र तत् प्रोक्तं चालकं तोरणाभिधम् ॥८५५॥ पहले दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाया जाय; तदनन्तर अलग-अलग करके दोनों पावों में हिलाया-डुलाया जाय; फिर स्वस्तिक मुद्रा में बांधकर सिर के ऊपर रख दिया जाय; तत्पश्चात् अलग-अलग करके चलाया जाय । इसी को तोरण नामक चालक (चालन) कहते हैं । ४. अनंगोद्दीपन विलोड्योरःस्थले हस्तौ क्रमादादत्तमण्डलौ । 868 विलासेनांसपर्यन्तं गत्वाभ्यन्तरमागतौ ॥८५६॥ उद्वेष्टितक्रियापूर्व यत्राधोवदनौ यदा । 869 विद्वद्भिस्तत्समादिष्टमनङ्गोद्दीपनं तदा ॥८५७॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालन प्रकरण वक्षःस्थल पर दोनों हाथों को क्रमश: हिलाकर मण्डलाकार बना दिया जाय; फिर हाव-भावपूर्वक उन्हें कन्धे तक ले जाकर भीतर कर लिया जाय; अनन्तर चारों ओर से घमाकर उन्हें अघोमख किया जाय । इस क्रिया को विद्वानों ने अनंगोहीपन चालन कहा है। ५. मुरजकर्तरी अंसावधि स्तनक्षेत्राद् भ्रान्त्वा मण्डलवृत्तितः । 870 ततो वक्षःस्थलं प्राप्तौ मुहुनिक्षिप्य पार्श्वतः ॥८५८॥ अधस्तत्र ब्रजत्येको द्वितीयो मण्डलभ्रमः । 871 विलोडितो यदा पश्चादुभौ हस्तौ कटिस्थितौ । अन्योन्याभिमुखौ भ्रान्तौ तदा मुरजकर्तरी ॥५६॥ 872 दोनों हाथों को स्तनप्रदेश से लेकर कन्धे तक मण्डलाकार में घमाकर वक्षःस्थल पर ले आया जाय; उनमें से एक हाथ को बगल से बार-बार फैक कर नीच किया जाय और दूसरे को मण्डलाकार में घुमाकर कम्पित किया जाय; पश्चात दोनों हाथों को कटि पर रखकर एक-दूसरे के सामने-सामने कर दिया जाय । ऐसी क्रिया को मुरजकर्तरी चालन कहते हैं । अमी नृत्तस्य तु प्राणाश्वालकाः सुमनोहराः । प्रायो वाद्यप्रबन्धेषु प्रयुज्यन्ते विचक्षणः ॥८६०॥ 873 वे सुन्दर चालक ( चालन ) नृत्य के प्राण हैं । विद्वान् लोग बहुधा वाद्य-प्रबन्धों में (अर्थात् वाद्यों के साथ) इनका प्रयोग करते हैं। . भूरिनिर्भुजचेष्टाभिः सम्भवन्तोऽप्यनेकशः । अमी केचित् समासेन दृष्टान्तार्थ मयोदिताः ॥८६१॥ 874 अनयव दिशा ज्ञेयाः सद्धिरन्येऽपि चालकाः । ग्रन्थविस्तारसंत्रासानातिविस्तर ईरितः ॥८६२॥ 875 बिना भजा की अनेक चेष्टाओं द्वारा अनेकानेक चालनों की संभावना होने पर भी मैंने संक्षेप में कछ चालन बताये हैं । इसी रीति से सज्जन लोग अन्य चालनों का भी ज्ञान कर लें। ग्रन्थ-विस्तार के भय से बहुत विस्तार में चालनों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। समवेत रूप में पचपन चालकों का निरूपण समाप्त २३७ Page #248 --------------------------------------------------------------------------  Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक प्रकरण / नो Page #250 --------------------------------------------------------------------------  Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकों का निरूपण स्थानक (खड़े होने का ढंग) रङ्ग प्रविश्य यैः स्थित्वा चार्यादी रचयेत्क्रियाः । नर्तको यत्नतस्तावत्स्थानान्येतान्यहं ब्रुवे ॥८६३॥ . 876 नर्तक या अभिनेता रंगमंच पर प्रवेश कर जिनके द्वारा चारी (पाद-चेष्ठा-विशेष) आदि क्रियाओं को सम्पन्न करे उन स्थानों का निरूपण किया जा हा है। भावार्थे तिष्ठतेर्धातोरायाते प्रत्यये ल्युटि । स्थाने सिद्ध ततः पश्चात् स्वार्थे कप्रत्यये सति । 877 स्थानकं साधितं तस्य लक्षणं प्रतिपादये ॥८६४॥ स्था धातु से भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय होने पर स्थान शब्द निष्पन्न होता है। फिर उससे स्वार्थ में क प्रत्यय होने पर स्थानक शब्द की सिद्धि होती है । अब उसका (स्थानक का) निरूपण किया जाता है। निश्चलात्माङ्गविन्यासविशेषात् स्थानकं मतम् ॥८६॥ 878 अंगों को निश्चल करके अवस्थित होने की क्रियाविशेष से स्थानक की रचना होती है। पुरुष स्थानक के भेद वैष्णवं समपादं च तथा वैशाखमण्डले । प्रालीढं च तथा प्रत्यालीढं स्थानानि पुंसि षट् ॥८६६॥ 879 पुरुष के छह स्थानक होते हैं : १. वैष्णव, २. समपाइ, ३. वैशाख, ४. मण्डल, ५. आलोढ़ और ६. प्रत्यालीढ़। स्त्रियों के स्थानक के भेद प्रायताख्यावहित्थाख्ये तथाश्वक्रान्तसंज्ञकम् । स्त्रीणां त्रीणि स्युरेतानि स्थानानीति मुनेर्मतम् ॥८६७॥ 880 भरत मुनि के मत से स्त्रियों के तीन स्थानक होते हैं : १. आयत, २. अवहित्य और ३, अश्वकान्त। . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 881 अन्य स्थानक के भेद प्रथापि चेति स्वग्रन्थे भणन्नन्यान्यसूचयत् । मुनिस्तु यानि चत्वारि तानि स्थानान्यहं ब्रुवे । गतागतं च बलितं मोटितं विनिवतितम् ॥६॥ अत्रैव केचिदिच्छन्ति पञ्चमं प्रोन्नताभिधम् ॥८६॥ 882 भरत मुनि ने अपने नाटयशास्त्र में जिन अन्य चार स्थानकों की सूचना दी है, उनको-भी यहाँ बताया जा रहा है। उनके नाम हैं : १. गतागत, २. बलित, ३. मोटित और ४. विनिवर्तित । किसी के मत से ५. प्रोन्नत पाँचवाँ स्थानक होता है। देशी स्थानक के भेद त्रयोविंशतिमाचक्षे देशीस्थस्थानकान्यहम् । समपादं स्वस्तिकं च संहतं वर्धमानकम् ॥८७०॥ 883 नन्द्यावतं चैकपादं चतुरस्राभिधं तथा । पृष्ठोत्तानतलं पाणिविद्वं सूचि समाद्यपि ॥८७१॥ 884 विषमादि च खण्डाद्यं पर्णिपार्श्वगतं तथा । एकपार्श्वगताख्यं च परावृत्ताभिधं तथा ॥८७२॥ 885 एकजानु[नताख्यं च ब्राह्म वैष्णवमित्यपि । कूर्मासनं गारुडं च वृषभासनमित्यपि ॥८७३॥ 886 नागवन्धम्देशीस्थ स्थानकों के तेईस भेदों के नाम इस प्रकार है : १. समपाद, २. स्वस्तिक, ३. संहत,४. वर्षमानक, ५. नन्द्यावर्त, ६. एकपाद, ७. चतुरस्र, ८. पृष्ठोत्तानतल, ९. पाणिविद्ध, १०. समसूचि, ११. विषमसूचि, १२. खण्डसूचि, १३. पाठिणपार्श्वगत, १४. एकपार्श्वगत, १५. परावृत्त, १६. एकजानुनत, १७. ब्राह्म, १८. वैष्णव. १९. शैव, २०. कूर्मासन, २१. गारुड, २२. वृषभासन और २३. नागबन्ध । उपविष्ट स्थानक के भेद -अथ स्वस्थं स्थानमन्यन्मदालसम् । विष्कम्भं च तथा क्रान्त[मुत्कटं] मुक्तजानु च ॥८७४॥ 887 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक प्रकरण विमुक्तकं जानुगतमथ स्वस्थालसाभिधम् । नवोप [विष्टस्थानानि प्राहेति भरतो मुनिः ॥८७५॥ 888 भरत मुनि ने बैठने के नौ स्थान बताये हैं : १. स्वस्थ, २. मदालस, ३. विष्कम्भ, ४. कान्त, ५. उत्कट, ६. मुक्तजानु, ७. विमुक्तक, ८. जानुगत और ९. स्वस्थालस । सुप्त स्थानक समं नताकुञ्चिते च प्रसारितवितिते । [उद्वा]हित तथा सुप्तस्थानकानि भवन्ति षट् ॥८७६॥ 889 सुप्त स्नानकों के छह भेद होते हैं : १. सम, २. नत, ३. आकुञ्चित,४. प्रसारित,५. विवर्तित और ६. उद्वाहित । स्थानकों की सम्पूर्ण संख्या अथ स्थानानि षट् पुंसामष्टान्यान्यपि योषिताम् । त्रयोविंशतिरन्यानि देशीस्थान्यासने नव ॥८७७॥ 890 स्थानान्यथ तथा सुप्तस्थानान्येतानि षट्विधा । द्वापश्चाशदिमानीति मिलितान्येव तान्यपि । पुरुषों के छह स्थानक हैं ; स्त्रियों के स्थानक आठ; देशी स्थानक तेईस; आसन स्थानक नौ और सुप्तस्थानक छह हैं । ये सब कुल मिलाकर बावन होते हैं । विनियोग अर्थतेषां क्रमाल्लक्ष्म सर्वेषां ब्रूमहेऽधुना ॥७॥ अब क्रमशः उन सबके लक्षण-विनियोग बताये जा रहे हैं । छह पुरुष स्थानक (१) १. वैष्णव और उसका विनियोग समस्थितोऽध्रिरेकोऽन्यस्त्र्यस्रः पक्षस्थितोऽथ वा । 892 तालौ द्वावर्धतालश्च तयोरन्तरमीरितम् ॥८७६॥ जङ्घा मनाग नता तु स्यात्सौष्ठवं यत्र तत्तदा । वैष्णवं स्थानकं प्रोक्तं विष्णुरस्याधिदैवतम् ॥१०॥ 891 893 २४३ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः जब एक पैर समभाव में ( सीधा ) स्थित और दूसरा व्यस्र या पक्षस्थित हो; दोनों में ढाई ताल का अन्तर हो; और जंघा सौष्ठवता के साथ कुछ झुकी हो, तो उसे वैष्णव स्थानक कहते हैं । इस स्थान के अधिष्ठाता देवता विष्णु हैं । स्वभावजे । नाना कार्यान्तरोपेतं संलापे तु पुम्भिनियुज्यतेत्वेतदुत्तमैर्मध्य मैरपि 1 इत्याह मुनिरन्ये तु विष्णुवेषानुकारिणा ॥ ८८१ || नटेनेत्यवदन्नृत्ये नायस्थितिविधायिना । [सू] त्रधारादिनेत्याहुः भरत मुनि का कहना है कि स्वाभाविक बातचीत और उत्तम तथा मध्यम पुरुषों द्वारा नाना प्रकार के कार्यों का भाव प्रकट करने में वैष्णव स्थानक का विनियोग होता है। अन्य आचार्यों का कहना है कि विष्णु का स्वरूप बनाये हुए नट को इसका प्रयोग करना चाहिए। दूसरे आचार्यों का अभिमत है कि अभिनय में नाट्य की स्थिति का विधान करने वाले सूत्रधार आदि को इसका उपयोग करना चाहिए । - श्रथ पक्षस्थितस्त्वसौ ॥८८२ ॥ यो भवेच्चरणः पार्श्वमुखाङ्गुल्या [भिमुख्य ] भाक् । स एव चेत्पुरोदेशे गतोऽभिमुखतां तदा ॥८८३ ॥ हस्तस्याङ्गुल्यावङ्गुष्ठमध्यमे । - त्र्यत्रः स्यादथ प्रसारिते तु ये स्यातामन्तरालं २४४ 894 895 896 897 तदग्रयोः ||८८४|| नृपाग्रणी । तालमत्र समाचष्टाशोकमल्लो पक्षस्थित चरण वह कहलाता है, जिसके सम्मुख बगल की ओर उँगलियाँ उन्मुख हों । वही चरण यदि अग्रभाग सम्मुख होने का भाव प्रकट करे, तो वह व्यस्त्र कहलाता है। हाथ की उँगलियों में से अंगुष्ठ और मध्यमा उँगलियों को फैलाने पर उन दोनों के अग्र भागों की जो दूरी होती है, उसे महाराज अशोकमल्ल ने ताल कहा है । 898 शिरोंसकूर्परं तुल्यं यत्र जानुसमा कटी ||८८५ ॥ 899 सन्नमङ्ग तत्सौष्ठवं मतम् । समुन्नतमुरः स्वस्थाननिर्गतं सन्नं निषण्णं निश्चलं स्थितम् ||८८६ ॥ 900 जहाँ सिर, कन्धे और कुहनी बराबर (समभाव में स्थित ) हों; कटि उन के समान (समभाव में स्थित ) हो; Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक प्रकरण वक्षःस्थल उन्नत हो; और अन्य अंग सन्न हों, उसे सौष्ठव कहते हैं। अपने स्थान से (स्वाभाविक रूप में)निर्गत अंग को सन्न और निश्चल को निषष्ण कहते हैं । . अनत्युच्चं चलन्पादमकुब्जकमचञ्चलम् । अङ्गमिष्टं सौष्ठवेन योज्यमुत्त [ममध्य] मैः ॥८८७॥ 901 जो बहुत ऊँचा न हो, जिसके पैर चल रहे हों और जो कुबड़ा तथा चंचल न हो, ऐसे सुरुचिकर शरीर को उत्तम तथा मध्यम श्रेणी के नर्तकों को सौष्ठव से युक्त करना चाहिए। __ स्थानकं वैष्णवं त्वेतच्चतुरस्रस्य जीवनम् ॥८॥ यह वैष्णव स्थानक चतुरस्र का जीवन है । स्थानकं वैष्णवं यत्र कटीनाभिगतौ करौ । 902 क्रमतो युगपद्वाथ वक्षश्चैव समुन्नतम् । चतुरस्र , तदाचष्ट वीरसिंहात्मजः सुधीः ॥८८६॥ 903 जहाँ दोनों हाथ एक साथ या क्रमशः कटि और नाभि पर पहुँचे तथा वक्षःस्थल अत्यन्त उन्नत हो उस वैष्णव स्थानक को विद्वान् अशोकमल्ल ने चतुरस्र कहा है। २. समपाद और उसका विनियोग एकतालान्तरौ पादौ समौ सौष्ठवसंयुतो । यत्रतत् । समपादाख्यं स्थानकं ब्रह्मदैवतम् ॥८६०॥ 904 जहाँ एक ताल के अन्तर पर दोनों पैर समान रूप से सौष्ठव के साथ युक्त हों, वहाँ समपाद स्थानक होता है। उसका अधिष्ठाता देवता ब्रह्मा हैं । एतद् द्विजातिदत्ताशीरङ्गीकारेऽथ दर्शने । पक्षिणां वरवध्वोश्च तथा लिनिन्वतिष्वपि । 905 स्यन्दनस्थे विमानस्थे नियोज्यं नृत्तपण्डितैः ॥८६१॥ ब्राह्मणों द्वारा दिये गये आशीर्वाद के स्वीकार, दर्शन, पक्षियों के निरूपण, वर-वधुओं, ब्रह्मचारी, व्रती (संन्यासी), रथारूढ और विमानारूढ के अभिनय में इस आसन का विनियोग होता है। ३. वैशाख और उसका विनियोग यस्रपक्षस्थितौ पादौ सार्धतालत्रयान्तरौ । 906 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः निषण्णौ तु नभस्यूरू यत्रोवं तावदन्तरौ ॥८६२॥ भुवो विशाखदैवं तद्वैशाखं स्थानकं मतम् । 907 जहां दोनों पैर त्र्यस्र तथा पक्षस्थित हों; दोनों में साढ़े तीन ताल का अन्तर हो; और जंघाएँ आकाश में स्थित (अर्थात् भूमि से ऊपर उठी) हों, तो उसे वैशाख स्थानक कहते हैं । उसका अधिष्ठाता देवता विशाख (स्कन्द) हैं। प्रेरणे वाजिनामाजौ तथा रङ्गप्रवेशने । वाहने वेगदाने च स्थूलपक्षिनि [री] क्षणे ॥८६३॥ 908 घोड़ों को हाँकने या ऊपर चढ़ने, युद्ध, रंगभूमि में प्रवेश करने, वाहन, वेगवान् और स्थल पक्षियों के निरीक्षण में उसका विनियोग होता है। ४. मण्डल और उसका विनियोग त्र्यस्रो पक्षस्थितौ पादावेकतालान्तरौ क्षितौ । निषण्णौ व्योम्नि यत्रोरू सार्धतालद्वयान्तरे ॥८६४॥ 909 कटीजानुसमौ तत् स्यान्मण्डलं शक्रदैवतम् । जहां दोनों पैर त्र्यन मुद्रा में पक्षस्थित हों; दोनों में एक ताल का अन्तर हो; दोनों भूमि पर अवस्थित हों; दोनों जंघाएँ ढाई ताल के अन्तर पर आकाश में स्थित हों; और कटिभाग अँघाओं के बराबर हों; तो उसे मण्डल स्थानक कहते हैं। उसका अधिष्ठाता देवता इन्द्र है । प्रयोगे चापवज्रादेस्तथा वारणवाहने ॥६५॥ 910 प्रेक्षणे गरुडादीनामेतन्मुनिरभाषत । चतुस्तालान्तरौ पादौ परेऽत्र प्रतिपेदिरे ॥८६६॥ 11 धनुष तथा वज्र आदि के चलाने, हाथी की सवारी और गरुड़ आदि के देखने के अभिनय में भरत मुनि ने इस आसन का विनियोग बताया है। कुछ आचार्यों के मत से दोनों पैरों में चार ताल का अन्तर होना चाहिए। ५. आलोढ़ और उसका विनियोग बामो व्योम्नि निषण्णोर्यत्र पूर्वोक्तमानतः । अग्ने प्रसारितोऽघ्रिश्च पश्चतालान्तरेऽपरः ॥८६॥ 912 त्र्यस्रौ द्वावपि चेत् तत् स्यादालीढं रुद्र दैवतम् । २४६ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक प्रकरण जहाँ उक्त मण्डल आसन के मान से बाँधा उरु आकाश में स्थित हो। एक (बाँया) पैर आगे फैलाया हुआ हो, दूसरा (दाहिना) पैर पाँच ताल के अन्तर पर स्थित हो, और दोनों पैर यस्र मद्रा में हों, तो उसे आलीढ़ स्थानक कहते हैं। रुद्र उसके अधिष्ठाता देवता हैं। रोषेाजनिते जल्पे तद्भवेदुत्तरोत्तरे ॥८६॥ 913 संहर्षास्फोटनादौ च मल्लानां वीरताकृते । सन्धानेऽपि च शस्त्राणां.................. ॥६६ 914 रोष तथा ईर्ष्या से उत्पन्न एक-दूसरे के उत्तर-प्रत्युत्तर ,पहलवानों के अत्यन्त हर्ष से ताल ठोंकने और वीरता के लिए शस्त्रों के सन्धान करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ६. प्रत्यालीढ़ और उसका विनियोग प्रत्यालीढं भवेत्स्थानमालीढाङ्गविपर्ययात् । अनेन मोक्षयेच्छस्त्रमालीढस्थानसन्धितम् ॥६००॥ 915 आलीढ़ स्थानक के विपरीत प्रत्यालीढ़ स्थानक की रचना होती है । आलीढ़ स्थानक द्वारा निशाना लगाये हुए शस्त्र-विमोक्षण के अभिनय में उसका विनियोग होता है। आठ स्त्री स्थानक (२) १. आयत और उसका विनियोग तालान्तरे यदा वामस्त्र्यस्रोध्रिदक्षिणः समः । प्रसन्नो मुखरागः स्यात्समुन्नतमुरस्तथा ॥९०१॥ 916 समुन्नतकटिहस्तो दक्षिणः स्यानितम्बगः । वामो लताकरो यत्र तदा तत् समुदीरितम् ॥६०२॥ 917 रमात्र देवताजब बायाँ पैर एक ताल की दूरी पर व्यस्र मुद्रा में तथा दाहिना पैर सम हो; मुखाकृति प्रसन्न हो; वक्षःस्थल तथा कटि समुन्नत हों; दाहिना हाथ नितम्बगामी तथा बायाँ हाथ लताकर मद्रा में हो, तो उसे आयत स्थानक कहते हैं । इस आसन की अधिष्ठातृ देवी लक्ष्मी हैं। -तत्स्यात्पुष्पाञ्जलिविसर्जने । रङ्गावतरणारम्भे सखीप्रियतमादिभिः ॥६०३॥ 918 प्राभाषणेऽभिलाषे च रोषे मानावलम्बने । २४७ . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः प्रतिषेधे तथा स्त्रीणामीष्विङ्गुलिमोटने ॥६०४॥ 919 मौनविसर्जनगर्वगाम्भीर्यावाहनेष्वपि । एतच्चिकोर्षितासु स्याद् गतिष्वपि कृतास्वपि ॥६०५॥ 920 पुष्पांजलि समर्पित करने में, रंगभूमि पर उतरने के आरम्भ में, सखी तथा प्रियतम आदि से वार्तालाप करने, अभिलाष, रोष, मान करने, निषेध, स्त्रियों की ईर्ष्या, उँगली चटकाने, मौन, विसर्जन, गर्व, गंभीरता, आवाहन करने के लिए इच्छित और सम्पन्न की हुई गतियों के अभिनय में उसका विनियोग होता है। रङ्गावतरणारम्भे पुष्पाञ्जिलिविसर्जने । . स्त्रीभिरेवेति तद् योज्यं पूर्वरङ्गेऽवदन्परे ॥६०६॥ 921 नरः स्त्रियोऽथवा कुर्युरिदमेव प्रवेशने । यथाभिनेयं स्थानं हि प्रविष्टेष्विति केचन ॥६०७॥ 922 रंगभूमि पर उतरने के आरम्भ में, पुष्पांजलि समर्पित करने में और विघ्न-शान्ति के लिए अभिनय के आरम्भ में किये जाने वाले कृत्य नान्दी पाठ आदि में स्त्रियों को ही उसका विनियोग करना चाहिए। किन्तु अन्य आचार्यों का कहना है कि स्त्री या पुरुष, कोई भी उसका विनियोग कर सकता है। प्रवेश करने तथा प्रविष्ट होने के अभिनय में भी कुछ आचार्य उसका विनियोग बताते हैं । आयतानन्तरं योज्या रगावतरणादयः । यथोचितं तदा ज्ञेयाः प्रचारा हस्तपादजाः । 923 भट्टाभिनवगुप्तस्य मयैतन्मतमोरितम् ॥६०८॥ आयत स्थानक के अनन्तर रंगभूमि पर उतरने आदि की योजना करनी चाहिए। उस समय हाथ-पैर की संचालनक्रिया को भली भांति समझ लेना चाहिए। यह निरूपण भट्ट अभिनव गुप्त (अभिनवभारती टीका के रचयिता) के मत से किया गया है। २. अवहित्य और उसका विनियोग 924 एतदेवावहित्थाख्य स्थानमयोविपर्ययात् । केचिद्विपश्चितोऽत्राहुव्यत्यासं कटिहस्तयोः ॥६०६॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक प्रकरण अत्राधिदेवता दुर्गादोनों पैरों को विपरीत क्रम से रखने पर अवहित्य स्थानक बनता है। यहाँ कोई विद्वान् कटि और हस्त में विपर्यय बताते हैं । दुर्गा इस आसन की अधिष्ठातृ देवी हैं । -तद् रोषे विस्मयेऽपि च । .925 चिन्तालज्जावितर्केषु संलापेऽपि स्वभावजे ॥१०॥ स्वा [ङ्गा] वलोकने स्त्रीणां निजसौभाग्यगर्वतः । 926 वीक्षणे वरमार्गस्य [लीला] लावण्ययोरपि । विलासस्याप्यथाकारगोपनस्यापि सूचकम् ॥६११॥ 927 क्रोध, विस्मय, चिन्ता, लज्जा, वितर्क, स्वाभाविक वार्तालाप, स्त्रियों के अपने सौभाग्य के गर्व से अपने अंगों के अवलोकन करने, वर के मार्ग, लीला तथा सौन्दर्य को टकटकी (लगाकर) देखने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। विलास तथा आकार को छिपाने के अभिनय में भी उसका प्रयोग होता है। ३. अश्वकान्त और उसका विनियोग 929 एकस्याघ्रः समस्यान्यः पार्णिदेशमुपागतः । सूचीपादोऽथवा स्वीयपार्वे तालान्तरे स्थितः ॥६१२॥ 928 समो यत्र तदाचष्ठाश्वक्रान्तं वीरसिहजः । जब एक सम पैर की एड़ी के पास दूसरा सूची पैर अवस्थित हो; अथवा एक सम पैर दूसरे पार्श्ववर्ती पैर के एक ताल के अन्तर पर स्थित हो, तो अशोकमल्ल के मत से उसे अश्वक्रान्त स्थानक कहते हैं। तदश्वारोहणारम्भे ललिते विभ्रमे तथा । त्रुमशाखावलम्बे च संलापेऽपि निसर्गजे ॥१३॥ स्खलितेऽपि स्खलद्वासोधारणे गोप्यगोपने ।। 930 पुष्पगुच्छग्रहेऽप्येतत्सरस्वत्यस्य देवता ॥९१४॥ अश्वारोहण के आरम्भ, ललित हाव-भाव, वृक्षशाखा से लटकने, स्वाभाविक वार्तालाप, गिरने, गिरते हुए वस्त्र धारण करने, गोपनीय वस्तु को छिपाने और फूलों का गुच्छा पकड़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। इस आसन को अधिष्ठातृ देवी सरस्वती हैं। R Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. गतागत नृत्याध्यायः नर्तकी गमनोन्मुखी । यत्राङ्घ्रिमेकमुद्धृत्य निरोधात्तु गतिस्थित्योरुदास्ते तद् गतागतम् ॥१५॥ जहाँ नर्तकी एक पैर को उठा कर आकाश की ओर मुँह किये गति और स्थिति को रोकने से (संयमन करने से ) उदासीन हो, वहाँ गतागत स्थानक होता है । ५. वलित और उसका विनियोग यत्रेषद्वलितं गात्रमङ्घ्रिबंलितदिग्भवः । कनीयस्योर्वीमाश्लिष्येत्पराङ्गुष्ठेन तां यदा । तदा तद् वलितं स्थानं साभिलाषनिरीक्षणे ॥१६॥ 933 जब शरीर कुछ झुका हुआ हो; पैर बल खाया हुआ हो; और कानी उँगली ( कनीय) तथा अँगूठा धरती से चिपके हुए हों, तो उसे वलित स्थानक कहते हैं। उत्कण्ठापूर्वक देखने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ६. मोटित एकः पादः समोऽन्यस्तु कुञ्चितोर्ध्वतलाङ्गुलिः । यदा करौ कर्कटाख्यावूर्ध्वगौ मोटितं तदा ॥१७॥ 931 तदेवाङ्गपरावृत्त्या पृष्ठतो विनिवर्तितम् ॥ १८ ॥ जब पृष्ठ भाग से अंगों की अदला-बदली की जाय, तो उसे विनिवर्तित स्थानक कहते हैं । ८. प्रोन्नत और उसका विनियोग २५० 934 जब एक समस्थित पैर की उँगलियाँ और दूसरे कुंचित पैर की उँगलियाँ ऊपर को उठी हों तथा दोनों हाथ कर्कट मुद्रा में ऊर्ध्वगामी हों, तो उसे मोटित स्थानक कहते हैं । ७. विनिवर्तित 932 पादाग्राभ्यां समानाभ्यां तथाङ्गुलितलैः स्थितिः । या कायमायतीकृत्य तत् स्थानं प्रोन्नतं मतम् ॥ १६ ॥ जब शरीर को लम्बा करके पैरों के समान अग्रभागों तथा अँगुलितलों पर खड़ा हुआ जाय, तो उसे प्रोत स्थानक कहते हैं । 935 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानक प्रकरण च । नासादनले धायें भित्त्याद्यन्तरितेऽपि प्रांशुग्राह्यफलादीनां ग्रहणेऽपि तदीरितम् ॥२०॥ नाक तक (ऊपर उठे ) जल, धारण करने योग्य वस्तु, दीवार आदि की ओट में होने तथा लम्बे मनुष्य द्वारा पकड़े जाने योग्य फल आदि के लेने के अभिनय में उसका विनियोग होता है । तेईस देशी स्थानक (३) १. समपाद वितस्त्यन्तरितावङ्घ्री ऋजू साहजिकं वपुः । तत्र तत् स्थानमादिष्टं समपादं मनीषिभिः ॥२१॥ जहाँ दोनों पैर एक बित्ते के अन्तर पर तथा सीधे हों और शरीर स्वाभाविक स्थिति में हो, उसे मनीषियों ने समपाद स्थानक कहा है । २. स्वस्तिक 936 यत्राङ्घ्री नूपुरस्थाने स्वस्तिकौ कुञ्चितौ यदा । मिथो लग्नकनिष्ठौ च तत् तदा स्वस्तिकं मतम् ॥ २२ ॥ जब दोनों कुंचित पैर नूपुरस्थान पर स्वस्तिकाकार हों और दोनों की कानी (कनिष्ठा) उँगलियाँ परस्पर सटी हुई हों, तब उसे स्वस्तिक स्थानक कहते हैं । ३. संहत और उसका विनियोग एतन्नियुज्यते धीरैः पुष्पांजलि समर्पित करने में धीर पुरुष इस स्थानक का विनियोग बताते हैं । ४. वर्धमानक पुष्पाञ्जलिविसर्जने ॥२३॥ 937 स्वाभाविकं यत्र गात्रमप्रयोरङ्गुष्ठकौ यदा । गुल्फावपि मिथः श्लिष्टौ तत् स्थानं संहतं तदा । जब शरीर स्वाभाविक स्थिति में हो और दोनों पैरों के अँगूठे तथा टखने परस्पर सटे हुए हों, तो उसे संहत स्थानक कहते हैं । पार्ष्णिश्लिष्टौ तिरश्चीनौ पादौ स्तो वर्धमानके ॥ २४ ॥ जब दोनों पैर तिरछे हों और उनकी एड़ियाँ सटी हुई हों, तब उसे वर्धमानक स्थानक कहते हैं । 938 939 940 . २५१ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः 942 ५. नन्द्यावर्त षडङ्गुलं यदैतस्य पादयोरन्तरं भवेत् । 941 वितस्तिमात्रं तत् स्थानं नन्द्यावर्त [तदोदितम्] ॥२५॥ • जब वर्धमान स्थानक के पैरों में छह अँगुल या एक बित्ते का अन्तर हो, तब उसे नन्द्यावर्त स्थानक कहते हैं । ६. एकपाद जानुशीर्षे बहिःपार्वे समपादस्य चेत्परः । संश्लिष्टो बाह्यपाइँन तदा स्यादेकपादकम् ॥६२६॥ जब समपाद स्थानक के घुटने के अग्रभाग में तथा बाहर पार्श्वभाग में दूसरा पैर बाहरी पार्श्वभाग से सट जाय, तो उसे एकपाद स्थानक कहते हैं । ७. चतुरस्त्र अष्टादशाङ्गुलं यत्र पादयोरन्तरं द्वयोः । -943 नन्द्यावर्तस्य चेत्स्थानं चतुरस्रमिदं तदा ॥२७॥ जब नन्द्यावर्त स्थानक के दोनों पैरों में अठारह अँगुल का अन्तर हो, तब उसे चतुरस्र स्थानक कहते हैं। . ८. पृष्ठोत्तानतल एकः पश्चाद्वराश्लिष्ठागुलिपृष्ठो यदा परः । 944 समः पुरस्ताद् यत्रेदं पृष्ठोत्तानतलं तदा ॥२८॥ जब, बिलग हुई उँगलियों वाला एक पैर पीछे रहे और दूसरा सम पैर आगे रहे, तो उसे पष्ठोतानतल स्थानक कहते हैं। १. पाणिविद्ध अगृष्ठसंहता पार्णिः पार्णिविद्धे मता सताम् ॥२६॥ 945 जब एड़ी अंगूठे से लगी रहे तो उसे पार्णिविद्ध स्थानक कहते हैं। १०. समसूचि पाणिजङ्घोरुसंश्लिष्ट नतौ पादौ प्रसारितौ । तिर्यश्चौ तौ तदा यत्र तदा स्यात् समसूचि तत् ॥६३०॥ 946 जब तिरछे फैले हुए दोनों पैर एड़ी, जाँघ और घुटनों से सटकर झुक जायँ, तब उसे समसूचि स्थानक कहते हैं। २५२ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. विषमसूचि स्थानक प्रकरण प्रसारितौ पुरः । यत्र युगपच्चेत्सूचीपादौ पश्चादपि तदा प्रोक्तं [स्थानं विषमसूचि ] तत् । केचित् पादौ क्षितिश्लिष्टजानुगु [ल्फौ ब] भाषिरे ॥१३१॥ यदि सूची मुद्रा में दोनों पैर एक साथ आगे या पीछे फैला दिये जायें, तो उसे विषमसूचि स्थानक कहते हैं । कुछ आचार्य पृथ्वी से सटे हुए घुटने तथा टखने वाले पैरों को विषमसूचि स्थानक कहते हैं । १२. खण्डसूचि कः कुञ्चितः पादः परस्तिर्यक् [ प्रसारि] तः । क्षितिश्लिष्टोरुपाणिश्चेत्तदोक्तं खण्डसूचि तत् ॥ ३२ ॥ 947 948 यदि एक पैर सिकुड़ा हुआ हो और दूसरा पैर तिरछा फैला हुआ हो तथा जाँघ और एड़ी पृथ्वी से सटी हुई हों, तो उसे खण्ड सूचि स्थानक कहते हैं । १३. पाष्णिपार्श्वगत 949 [पार्ष्णि ] पार्श्वगतेऽन्यस्यान्तः पार्ष्णिः पार्श्वतो भवेत् ॥१३३॥ यदि एक पैर की एड़ी दूसरे पैर के नीचे बगल में रखी जाय, तो उसे पाष्णिपार्श्वगत स्थानक कहते हैं । १४. एक पार्श्वगत [ अ ] तः समपादस्य मनागङ्घ्रिः परो यदा । तिर्यग्बहिः पार्श्वगतः एकपार्श्वगतं त [ दा] ॥१३४॥ 950 जब समस्थित एक पैर के आगे दूसरा पैर कुछ तिरछा करके बाहरी बगल में रख दिया जाता है, तब उसे एकपादवंगत स्थानक कहते हैं । १५. परावृत्त उभौ भूत्वा तिरश्चीनौ चरणावेतयोर्यदा । एकस्याङ्गुष्ठको यत्र परस्य च कनिष्ठिका | पार्श्वक मिश्रिते द्वे स्तः परावृत्तमिदं तदा ||३५|| जब दोनों पैर तिरछे रहें; उनमें से एक का अंगुष्ठ और दूसरे की कनिष्ठिका एक बगल से मिली रहें, तब उसे परावत स्थानक कहते हैं । 95) २५३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. एक जानुनत नृत्याध्यायः एकजानुनते त्वेकः समोऽङ्घ्रिपरोऽन्तरे । तिर्यक्कुचितजानुः स्या [ च्चतु] रङ्गुलसम्मिते ॥९३६॥ जब एक पैर स्वाभाविक स्थिति में हो और दूसरा पैर चार अंगुल की दूरी पर तिरछे तथा मुड़े हुए घुटने से युक्त हो, तो उसे एकजानुनत स्थानक कहते हैं । १७. ब्राह्म ब्राह्मे समोऽ‌ङ्घ्रिरेकोऽन्यः पृष्ठतः कु [ञ्चितः] कृतः । जानुसन्धिसमत्वेनोत्क्षिप्तः पादो यदि एक पैर स्वाभाविक स्थिति में हो दूसरे को पृष्ठभाग से मोड़ कर घुटने के जोड़ की बराबरी में ऊपर उठा दिया जाय, तो उसे ब्राह्म स्थानक कहते हैं । १८. वैष्णव बुधैर्मतः ॥३७॥ एकं [ पादं] समं कृत्वा किञ्चिच्चेत् कुञ्चितोऽपरः । प्रसारितः पुनस्तिर्यक् तदोक्तं वैष्णवं बुधैः ॥९३८ ॥ २५४ 952 953 जब एक पैर को समस्थित करके दूसरे को कुछ मोड़कर पुनः तिरछा फैला दिया जाय, तब उसे विद्वान् लोग वैष्णव स्थानक कहते हैं । १९. शेव स्थाने कूर्मासने जानुबाह्यगुल्फमि [लत्क्षि ]तिः । दक्षिणाङ्घ्रिः समो वामस्तदैवेतन मतं समाम् ॥१४०॥ 954 यदा समस्य वामाङ्ग्रेर्जानुशीर्षसमः परः । उत्क्षिप्तः कुञ्चितश्चैव तत् तदा शैवमीरितम् ॥१३६॥ जब दाहिना पैर समस्थित बायें पैर के घुटने के अग्रभाग के बराबर ऊपर उठा तथा मुड़ा हुआ हो, तब उसे शिव स्थानक कहते हैं । २०. कूर्मासन 955 956 यदि बायाँ पैर समस्थित हो और दाहिना पैर घुटने तथा टखने से मिलते हुए पृथिवी पर अवस्थित हो, तो उसे सज्जनों ने कूर्मासन स्थानक कहा है । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. गारुड स्थानक प्रकरण पुरोङ्घ्रिः कुञ्चितो वामो [दक्षिणो जानुना ] क्षितिम् । स्पृशेद् यदि तदा सद्भिर्गारुडं तदुदीरितम् ॥ ४१ ॥ जब बाँये पैर का अग्रभाग मुड़ा हो और दाहिना पैर घुटने से पृथिवी का स्पर्श करता हो, तब सज्जनों ने उसे गारुड स्थानक कहा है । २२. वृषभासन १. सम संयुते वियुते यद्वा भूमिश्लिष्टे तु जानुनी । [वृषभासनमाख्यातं सौष्ठवाधिष्ठितं तदा ] ||६४२ ॥ 957 जब दोनों घुटने संयुक्त या वियुक्त हों; किन्तु भूमि से सटे हुए हों और सौष्ठव से युक्त हों, तब उसे वृषभासन स्थानक कहते हैं । २३. नागबन्ध [दक्षिणां तु यदा जङ्घां वामोरुः पृष्ठदेशगाम् । निदध्यादुपविष्टः सन् नागबन्धं तदादिशेत् ] । 958 उत्तानास्यं त्रस्त मुक्तहस्तं सुप्तं समं भवेत् ॥६४३॥ यदि मुँह उत्तान और हाथ ढीला तथा खुला हुआ हो, तो उसे समसुप्त स्थानक कहते हैं । २. नत और उसका विनियोग यदि भूमि पर बैठे हुए स्थिति में बायें घुटने को पीठ की ओर गयी हुई दाहिनी पिंडली पर रख दिया जाय, तो उसे नागबन्ध स्थानक कहते हैं । छह सुप्तस्थानक (४) 959 960 त्रस्तहस्तयुगं सुतं मनाक्प्रसृतजङ्घकम् । यत् तन् नतं श्रमालस्यखेदादिषु निरूपितम् ॥१४४॥ 961 यदि दोनों हाथ ढीले हों और जंघा थोड़ी फैली हुई हो, तो उसे नत सुप्त स्थानक कहते हैं । श्रम, आलस्य तथा खेद आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । २५५ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. आकुञ्चित और उसका विनियोग नृत्याध्यायः श्रीकुञ्चत्कायमाविद्धजानु त्वाकुञ्चितं मतम् । शीतार्ताभिनयेऽशोक मल्लेन सुविपश्चिता ॥ ४५ ॥ 962 जहाँ शरीर कुछ सिकुड़ा हुआ हो और घुटने मुड़े हुए हों, वहाँ आकुञ्चित सुप्त स्थानक होता है। विद्वान् अशोक मल्ल ने शीत-पीड़ित के अभिनय में उसका विनियोग बताया है । ४. प्रसारित उपधाय यदा बाहुं सुप्यते यत्र तत् प्रोक्तं सम्प्रसार्य तु जानुनी । सुखसुप्ते प्रसारितम् ॥९४६॥ 963 जब बाँह को तकिया बनाकर और घुटनों को फैलाकर सुख से सोया जाय, तो उसे प्रसारित सुप्त स्थानक कहते हैं । ५. विवर्तत प्रधस्ताद्वदनं सुप्तं सद्भिरुक्तं विवर्ततम् ॥४७॥ मुँह को नीचे करके सोने पर विवर्तित सुप्त स्थानक होता है, ऐसा सज्चनों का अभिमत है । ६. उवाहित और उसका विनियोग अंसे निधाय शीर्ष चेत्कूर्परेण धरातलम् । श्राश्रित्य शयनं यत्र स्थानमुद्वाहितं तदा । लीलयावस्थितौ सद्भिनरयोजिमहीभुजाम् ॥१४८॥ 965 जहाँ कन्धे पर सिर रखकर कुहनी से पृथ्वीतल का आश्रय लेकर शयन किया जाय, तो उसे उवाहित सुप्त स्थानक कहते हैं । राजाओं की लीलापूर्वक अवस्थिति के अभिनय में इस आसन का विनियोग होता है । २५६ समवेत रूप में बावन प्रकार के स्थानकों का निरूपण समाप्त 1 964 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण | दस Page #268 --------------------------------------------------------------------------  Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारियों का निरूपण चारी (चेष्ठाकृतिविशेष भावाभिव्यंजन) गत्यर्थाच्चरते[र्धातोभावेऽर्थे करणेऽथवा । अस्त्रीजातौ ततः ङोषि सत्ति चारोति सिध्यति ॥४६॥ 966 गमनार्थक चर् घातु से भाव अथवा करण अर्थ में अण् प्रत्यय तथा जीष् होने पर स्त्रीलिंग में चारी प्रयोग निष्पन्न होता है। या नर्तनेऽध्रिजकोरुकटिना युगपत्कृतः । चेष्टाकृतिविशेषः सा चारी सद्धिरुदीरिता ॥५०॥ 967 नृत्यकाल में पैर, जंघा, उरु और कटि द्वारा एक साथ जो चेष्ठाकृतिविशेष भावाभिव्यंजन होता है, विद्वानों ने उसे चारी नाम से कहा है। चारियों के भेद व्यायच्छत्तो मिथश्चार्यो यद्यथालक्ष्म निर्मिताः । अङ्गोपेतास्ततोऽन्वर्थो व्यायामः स चतुर्विधः ॥६५१॥ 968 चारी च करणं खण्डो मण्डलं च क्रमादिति । स्यादेकाध्रिप्रचारो यः सा चारी परिकीर्तिता ॥५२॥ 969 द्वयध्रिप्रचारः करणं खण्डस्तु करणस्त्रिभिः । खण्डस्त्रिभिश्चतुर्भिर्वा मण्डलं स्यात् क्रमेण तु ॥५३॥ 970 त्र्यस्त्रे ताले सद्भिरेतच्चतुरस्र तथोदितम् ।। अंगों के परस्पर प्रचार-प्रसार के अनुसार चारियों की रचना होती है। इसलिए अर्थानु रूप (अन्वर्थ) उसे व्यायाम भी कहा जाता है, जो कि चार प्रकार का होता है : १. चारी, २.करण, ३. खण और ४. मडल। एक पैर के संचरण को चारी, दोनों पैरों के संचरण को करण, तीन करणों के एक साथ संचरण को खण और तीन २५९ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः या चार खण्डों के एक साथ संचरण को मण्डल कहते हैं । यत्र, ताल और चतुरस्र परिमाण में सज्जनों ने क्रमशः उनका प्रयोग बताया है । भूमिचारी के भेद परा ।। ५५ ।। समपादाडिता बद्धा स्पन्दिता विच्यवा तथा ॥ ६५४ ॥ जनितोत्सन्दिता चाषगतिरध्यर्धका परा । एकाक्रीडिताख्या च शकटास्याभिधा उरुवृत्ता स्थितावर्ता चार्यपस्पन्दिता तथा । समोत्सरितमत्तल्ली मत्तल्लीति क्रमादिमाः ॥ ५६ ॥ चार्य: षोडश भौम्य -स्ताकाशिकीरधुना ब्रु । aftaar avataा भ्रमरी च मृगप्लुता ॥५७॥ पार्श्वकान्तोर्ध्वजानुश्च भुजङ्गत्रासिता परा । अाता दण्डपादाच विद्युद्भ्रान्ता च सूच्यपि ॥ ५८ ॥ दोलापादा तथोद्वृत्ताविद्धा नूपुरपादिका । श्रक्षिप्ताख्येति सम्प्रोक्ता श्राकाशिक्यश्च षोडश ॥ ६५६ ॥ 971 972 भूमिचारी के सोलह भेद होते है : १. समपादा, २ . अड्डिता, ३ . बद्धा, ४. स्पन्दिता, ५. विच्यवा, ६. जनिता, ७. उत्सन्दिता, ८. चाषगति, ९. अर्ध्याधिका, १०. एलकाक्रीडिता, ११. शकटास्या, १२ उरूद्वत्ता, १३. स्थितावर्ता, १४. अपस्पन्दिता, १५. समोत्सरितमत्तल्ली और १६. मत्तल्ली । आकाशचारी के भेद चार्यो भूमिलिताः मार्यो द्वात्रिंशन् मुनिसंमता । इस प्रकार भरत मुनि के मत से दोनों चारियों के बत्तीस भेद होते हैं । २६० 973 974 975 976 ar आकाशचारियों का निरूपण किया जाता है । उनके भी सोलह प्रकार होते हैं : १. अतिक्रान्ता, २. अपक्रान्ता, ३. भ्रमरी, ४. मृगप्लुता, ५. पार्श्वक्रान्ता, ६. ऊर्ध्वजानु, ७. भुजंगत्रासिता, ८. अलाता, ९. दण्डपादा, १०. विद्युद्भ्रान्ता, ११ सूची, १२. दोलापादा, १३. उबूत्ता, १४. आविद्धा, १५, नूपुरपादिका और १६. आक्षिप्ता । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण वेशीचारी (भूमिगत) के भेद अथ देशीप्रसिद्धाः यास्ताश्चारीरभिदध्महे ॥९६०॥ 977 रथचका तलोद्वत्ता मराला पाणिरेचिता । परावृत्ततला तिर्यमुखा न पुरविद्धिका ॥९६१॥ 978 कातरा करिहस्ता च हरिणत्रासिता परा । अर्धमण्डलिकाप्यूरुताडिता च मदालसा ॥९६२॥ सञ्चारितोत्कुञ्चितापकुञ्चिता स्फुरिता परा । स्तम्भकीडनिका तिर्यक् कुञ्चिता तलदर्शिनी ॥६६३॥ 980 खुत्ता लजितजङ्घा च स्वस्तिका च कुलीरिका । निकुट्टकः पुराट्यर्धपुराटी स्फुरिका ततः ॥९६४॥ 981 सारिका च लताक्षेपोऽन्याडस्खलितिका तदा । ऊरवेणी च विश्लिष्टा समस्खलितिकेत्यपि ॥६६॥ 982 संघट्टितेत्यमूभीम्यः पञ्चत्रिंशदुदीरिताः । अब देशी नाम से प्रसिद्ध चारियों का निरूपण किया जाता है। उनके पैतीस भेद होते हैं : १. रथचक्रा, २.तलोवृत्ता, ३. मराला, ४. पाणिरेचिता, ५. परावृत्ततला, ६. तिर्यमुखा, ७. नूपुरविद्धिका, ८. कातरा ९. करिहस्ता, १०. हरिणत्रासिका, ११. अर्धमण्डलिका, १२. उरताडिता, १३. मदालसा, १४. संचारिता, १५. उत्कञ्चिता, १६. अपकञ्चिता, १७. स्फुरिता, १८. स्तम्भकीडनिका, १९. तिर्यककृञ्चिता, २.०. तलदर्शिनी, २१. खुत्ता, २२. लंधितजंघा, २३. स्वस्तिका, २४. कुलोरिका, २५. निकुट्टक, २६, पुराटिका, २७, अर्घपुराटिका, २८. स्फुरिका, २९. सारिका, ३०. लताक्षेप, ३१. अड्डस्खलितिका, ३२. अरुवेणी, ३३. विश्लिष्टा, ३४. समस्खलितिका और ३५. संघट्टिता । देशीचारी (आकाशगत) के भेद दण्डपादा पुरःक्षेपाऽपक्षेपा हरिणप्लुता ॥६६॥ 983 बिद्युभ्रान्ता च विक्षेपा जङ्घावर्ताज्रिर्ताडिता । अलाता डमरी विद्धा जङ्घालवनिका परा ॥९६७॥ 984 सूची प्रावृतमुल्लालो वेष्टनोद्वेष्टने तथा । २६१ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः उत्क्षेपश्च तथा पृष्ठोत्क्षेप एकोनविंशतिः ॥६६॥ 985 अमूराकाशिकास्ताश्च चतुष्पश्चाशदीरिताः । आकाशगत देशी चारी के उन्नीस भेद होते हैं : १. दण्डपादा, २. पुरःक्षेपा, ३. अपक्षेपा, ४. हरिणप्लुता, ५. विद्यभ्रान्ता, ६. विक्षेपा, ७. जंघावर्ता, ८. अंधिताडिता, ९. अलाता, १०. उमरी, ११. विद्धा, १२. जंघालंघनिका, १३. सूची, १४. प्रावृत, १५. उल्लाल, १६. बेष्टन, १७. उद्वेष्टन, १८. उत्क्षेप और १९. पृष्ठोत्क्षेप । उभय्योऽप्यथ सर्वास्ताः मार्गदेशीस्थिताः इमाः । 986 षडशीतिर्मताश्चार्यस्तासां लक्ष्माण्यहं ब्रुवे ॥६६॥ दोनों भूमिगत तथा आकाशगत देशी चारियों के चौवन भेदों और भूमिचारियों तथा आकाशचारियों के बत्तीस भेदों को मिला देने से चारियों के कुल छियासी भेद होते है । अब उनके लक्षण-विनियोगों का निरूपण किया जाता है। सोलह भूमिचारियाँ (१) १. समपादा अघ्रोनिरन्तरौ तुल्यनखौ कृत्वा यदि स्थितः । 987 समपादस्थानकेन समपादा मता ता ॥९७०॥ जब समपाद स्थानक के द्वारा दोनों चरणों को अव्यवहित तथा तुल्यनख करके रखा जाय (अर्थात् सटाकर इस प्रकार रखा जाय, जिससे दोनों के अग्रभाग बराबर माप में हों), तब उसे समपादा भूमिचारी कहते हैं। प्रचारयोग्यतामात्राद् यत् समाधत्त कश्चन । 988 स्थानकत्वेऽपि चारोत्वमस्यास्तत्र सतां मुदे ॥६७१॥ युक्त्यानयवमन्येषां चारीत्वं सुवचं यतः । 989 स्थानकानामतश्चिन्त्यं समाधानं बुधैरिह ॥९७२॥ समाधत्ताशोकमल्लः संगीतविदुषांवरः । 990 समपादस्थानहेतोश्चारीत्वं चलनादिह ॥९७३॥ यहां आशंका होती है कि उक्त लक्षण में स्थानक का अर्थ स्थिरता है और चारी का अर्थ चलना होता है। इन विरुद्ध धर्मों का समावेश कैसे होगा? इसका उत्तर कोई (आचार्य) सज्जनों के सन्तोषार्थ यह २६२ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारीप्रकरण कहकर देते हैं कि समपादों में चलने की योग्यता तो है, इसलिए स्थानक में भी चारीत्व है। किन्तु इस युक्ति से 'दूसरे स्थानकों में भी चारीत्व है'---ऐसा कहना आसान हो जाएगा; इसलिए विद्वानों को यहाँ समाधान ढूंढ़ना चाहिए । यहाँ संगीत के श्रेष्ठ विद्वान् अशोकमल्ल ने समाधान किया है कि बराबर परिमाण में पैरों को रखकर चलना ही समपादा चारी है। (इस लक्षण में कोई त्रुटि नहीं है।) २. अड्डिता समाङ्ग्रेः पुरतः पश्चादन्योऽग्रतलसञ्चरः। 991 निघृष्टोध्रिः क्रमाद् यत्र सा धीररड्डिता मता ॥९७४॥ जहाँ समपाद के आगे और पीछे दूसरा पैर अग्रभाग पर चले, फिर क्रमश: एक-एक पैर घसीटा जाय, तो उसे अड़िता भूमिचारी कहते हैं। . ३. बद्धा कृत्वोर्वोश्चलनं जास्वस्तिकेन समन्वितम् ।। 992 स्वस्तिकेन विना चाघ्रितलाने मण्डलभ्रमात् ॥९७५॥ स्वं स्वं पाश्र्व गते यत्र सोक्ता वद्धति सूरिभिः । 993 मिलिते प्रोचिरे लक्ष्यलक्ष्मणी केचिदत्र हि ॥९७६॥ जहाँ ऊरुओं के संचरण को जंघाओं की स्वस्तिकमुद्रा से युक्त करके (अथवा) बिना स्वस्तिक के भी, चरणतल के अग्रभाग में मण्डलाकार घुमाकर अपने-अपने पार्श्व में पहुँचा दिया जाय, वहाँ विद्वानों ने उसे बद्धा भूमिचारी कहा है। कोई आचार्य यहाँ लक्ष्य और लक्षण को सम्मिलित रूप में बताते हैं। ४. स्पन्दिता वामः समो निषण्णोरुरन्यस्तिर्यक् प्रसारितः । 994 पञ्चतालान्तरं पादो यत्र सा स्पन्दिता मता ॥९७७॥ जहाँ बायाँ पैर सम हो, ऊरु बैठा हुआ हो और दूसरा पैर पांच तालों के अन्तर पर तिरछा फैला हुआ हो, तो उसे स्पन्दिता भूमिचारी कहते हैं । ५. विच्यवा चरणौ समपादाया विच्युत्य क्षितिकुट्टनम् । 995 कुरुतश्चेत् तलाण सा तदा विच्यवोदिता ॥९७८॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः जब समपादाचारी के दोनों चरण अपने स्थान से हटकर अपने निचले अग्रभाग से पृथ्वी को कूटते हों, तो उसे विच्या भूमिचारी कहते हैं । ६. जनिता संज्ञितः । यत्र पादो भवेदग्रतल [ सञ्चर ] हृदि मुष्टिकरोsन्यो ग्रीवा यथाशोभं भवेद्यदि ॥६७६॥ सा तदा जनिता चारी विद्वद्भिः समुदीरिता । पादक्रिया चास्यामिति कर्तव्यता परा ॥ ८० ॥ मुख्या जहाँ एक पैर अग्रतल पर हो, हृदय पर मुष्टि नामक हाथ हो और ग्रीवा सुशोभित हो, वहाँ विद्वानों ने उसे after भूमिचारी कहा है । इसमें मुख्य चरण - क्रिया परम कर्तव्यता मानी गयी है । ७. उत्सन्दिता यत्राङ्गुल्याः कनीयस्था भागेनाङ्गुष्ठकस्य च । क्रमेण रेचकस्यानुकृत्या पादो गतागतम् ॥६८१॥ विधत्ते सोत्सन्दिताख्या सद्भिश्चारी निरूपिता । केचिन्नृत्तकरं ह्यत्र रेचितं सम्बभाषिरे ॥ ६८२ ॥ 996 997 998 999 जहाँ कानी उँगली तथा अँगूठे के एक भाग से क्रमशः रेचक के अनुकरण द्वारा पैर बाहर-भीतरहै, उसे विद्वानों ने उत्सन्दिता भूमिचारी कहा है । यहाँ कोई विद्वान् रेचित नामक नृत्य- हस्त का प्रयोग बताते हैं । ८. चावगति तालान्तरे पुरो गत्वा सव्येऽङ्घ्रौ पृष्ठगामिनि । तालद्वयान्तरेऽथाङ्ङ्घ्री समावुत्प्लुत्य किञ्चन ॥१८३॥ अपगम्योपगच्छेतामुपगम्यापगच्छतः 1 यस्यां सैषा चाषगतिर्भीतिर्गत्यादिषु स्मृताः ॥ ६८४ ॥ जहाँ दाहिना पैर एक ताल के अन्तर पर आगे-आगे चले और बाँया पैर पीछे-पीछे चलें; फिर दो तालों के अन्तर पर दोनों समस्थित और कुछ उछलकर एवं हटकर समीप आ जाँय और समीप आकर फिर हट जाँय ; ऐसी क्रिया को चाषगति भूमिचारी कहते हैं । भय और गमन आदि के अभिनय में इसका विनियोग किया जाता है। २६४ 1000 1001 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. अर्ध्याधिका चारी प्रकरण सव्याघ्रः पाष्णिदेशं चेद् वामः पादः समाश्रितः । श्रथ सव्योsपसृत्याङ्घ्रिः सार्धंतालान्तरे स्थितः ॥ ६८५ ॥ त्र्यस्त्रभावेन पार्श्वे स्वे सव्यो वामाङ्घ्रिपाणिगः । ततोऽपसृत्य वामाङ्घ्रिः सार्धतालान्तरे तथा । स्थितः सार्ध्याधिका चारी तदावाचि विचक्षणः ||६८६ ॥ जहाँ दाहिने पैर की एड़ी के आश्रित होकर बायाँ पैर चले; और फिर दाहिना पैर हटकर डेढ़ ताल की दूरी पर स्थित हो; अनन्तर दाहिना पैर त्र्यत्र भाव से अपने पार्श्व में बायें पैर की एड़ी की तरफ गमन करे; तत्पश्चात् बायाँ पैर हटकर डेढ़ ताल की दूरी पर स्थित हो; ऐसी क्रिया को विद्वानों ने अर्घ्याधिका भूमिचारी कहा है । 1004 १०. एलकाक्रीडिता ३४ मनागुत्प्लुत्य चेत्पादौ यत्राग्रस्तलसञ्चरौ । पर्यायात् पततश्चारी सैलकाक्रीडिता तदा ॥८७॥ 1005 जहाँ अग्रतलसंचर नामक दोनों पैर थोड़ा उछलकर अनुक्रम से गिरते हों, उसे एलकाक्रीडिता भूमिचारी कहते हैं । ११. शकटास्या पूर्वभागं शरीरस्य यदा धृत्वा प्रयत्नतः ॥ ६८८ ॥ प्रसारितो भवेद् यत्र पादोऽग्रतलसञ्चरः । वक्ष उद्वाहितं सोक्ता शकटास्या बुधैस्तदा ॥८६॥ 1002 1003 पाणिः स्याच्चरणस्याग्रतलसञ्चारकस्य चेत् । पराङ्घ्रिपृष्ठाभिमुखी यद्वा व्यत्यासतो भवेत् ॥ ९६०॥ जब शरीर के अगले भाग को यत्नपूर्वक पकड़कर अग्रतलसंचर पैर फैला दिया जाय और उद्वाहित वक्ष की मुद्रा बनायी जाय, तब उसे विद्वान् लोग शकटास्था भूमिचारी कहते हैं । १२. उद्वृत्ता 1006 1007 २६५ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 1009 नतजानुर्यत्र जङ्घा वलिताभ्यन्यजविकम् । 1008 सोरूद्वत्ता तदा चारी बुधादिषु स्मृता ॥६६१॥ जब अग्रतलसंचर पाद-मुद्रा की एड़ी दूसरे पैर की एड़ी के सम्मुख हो; अथवा विपरीत क्रम से हो; घुटना झुका हुआ हो और जंघा बल खायी हुई हो; तब से विद्वानों ने उसे उरूवृत्ता भूमिचारी कहा है । ईर्ष्या आदि के अभिनय में उसका विनियोग किया जाता है। १३. स्थितावर्ता गत्वान्यपादपार्श्व चेद् यत्राग्रतलसञ्चरः । अन्तर्जानु स्वस्तिकत्वं प्राप्तोऽन्यश्च्युतिपूर्वकः । । । तथा स्वपार्श्वनीता सा स्थितावर्ता तदोदिता ॥६६२॥ 1010 जहाँ अग्रतलसंचर पाद मुद्रा दूसरे पैर के पार्श्व में जाकर घुटने के नीचे स्वस्तिक मुद्रा को प्राप्त कर ले और दूसरा पैर हट कर अपने पार्श्व में ले आया जाय, तो उसे स्थितावर्ता भूमिचारी कहते हैं । १४. अपस्पन्दिता स्यादपस्पन्दिता चारी स्पन्दिताघ्रिविपर्ययात् ॥६६३॥ चलायमान चरणों के परिवर्तन से अपस्पन्दिता भूमिचारी होती है। १५. समोत्सरितमत्तल्ली निहिते परपादस्य मध्येऽग्रतलसञ्चरे । 1011 कृते जङ्घा स्वस्तिके च परेऽग्रतलसञ्चरे ॥४॥ पादेऽज्री यत्र घूर्णन्तावपसृत्योपसर्पतः । 1012 समोत्सरितमत्तल्ली सा चारी मध्यमे मदे ॥६६॥ जब अग्रतलसंचर पाद-मुद्रा को दूसरे पैर के बीच में रखा जाय; फिर दूसरे अग्रतलसंचर को जंघा के साथ स्वस्तिकाकार बनाया जाय; तत्पश्चात् दोनों पैर घूमते हुए हटकर समीप आ जाय, तो उसे समोत्सरितमत्तल्लो भूमिचारी कहते हैं । मध्यम मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १६. मत्तल्ली क्षितिलग्नाखिलतलौ जनास्वस्तिकयोगिनौ । 1013 अर्धव्यस्रो च यत्राी घूर्णन्तावुपसर्पतः । यदापसरतोऽसौ स्यान्मत्तल्ली तरुणे मदे ॥६६॥ 1014 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण यदि दोनों चरणों का सम्पूर्ण तलभाग पृथ्वी से सटा हुआ हो; जंघाएँ स्वस्तिक मुद्रा में हों; फिर दोनों चरण अर्घ यस स्थानक के रूप में होकर घूमते हुए उपसर्पण और अपसर्पण करें, तो उसे मत्तल्लो भूमिचारी कहते हैं । तरुण मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। विनियोग नाटये नृत्ये तथा नृत्ते नियुद्धेऽपि भवन्त्यमूः । नाट्यवेदेनादिमूलवेदेन परिकीर्तिताः ॥६६७॥ 1015 . नाट्य (अभिनय), नृत्य (ताल, लय तथा रस के अनुसार किया जाने वाला अभिनय), नृत्त (केवल अंगविक्षेपपूर्वक किया जाने वाला अभिनय) और बाहुयुद्ध के भाव-प्रदर्शन में भी इन चारियों का उपयोग किया जाता है। इनका वर्णन नाट्यवेद के मूल स्रोत वेदों में पाया जाता है। सोलह आकाशचारियाँ (२) १. अतिकान्ता अ रेकस्य गुल्फे चेदन्यमुद्धृत्य कुश्चितम् । प्रसार्य पुरतः किञ्चिदथोत्क्षिप्य निपातयेत् ॥६६॥ 1016 अग्ने लोकानुसारेण चतुस्तालान्तरादितः । प्रतिक्रान्ता तदा चारो विपश्चिद्भिः प्रकीत्तिता IEEET 1017 जब एक पैर के टखने पर दूसरे पैर के मुड़े हुए (कुञ्चित) टखने को लाकर सामने फैला दिया जाय और फिर लोक-रीति के अनुसार चार तालों की दूरी पर उसे उछाल कर सामने गिरा दिया जाय, तो विद्वानों ने उसे अतिक्रान्ता आकाशचारी कहा है। २. अपक्रान्ता बद्धां विरच्य चारों चेदध्रिमुख त्य कुश्चितम् । पार्वे न्यस्येत् तदा चारीमपक्रान्तां जगुर्बुधाः ॥१०००॥ 1018 यदि बद्धा चारी की रचना करके कुञ्चित पैर को निकाल कर पार्श्व में रख दिया जाय, तो विद्वानों ने उसे अपक्रान्ता आकाशचारी कहा है। ३. ममरी अतिक्रान्ताङ्घ्रिमारच्य व्यत्रं चेत्परिवर्तयेत् । २६७ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुस्याध्यायः 1020 ऊरुजानुत्रिकमधोऽपराङ्घ्रितलतस्तनुः 1019 भ्राम्यते सकला यत्र सा चारी भ्रमरी तदा ॥१००१॥ यदि अतिक्रान्ता चारी से युक्त चरण की रचना करके ऊरु, जानु और कटिदेश को त्र्यस स्थानक में परिवर्तित कर दिया जाय; तत्पश्चात् दूसरे पैर के तलवे से शरीर को घुमा लिया जाय, तो उसे भ्रमरी आकाशचारी कहते हैं। ४. मृगप्लुता अघ्रि कुञ्चितमुश्यस्योत्प्लुत्योय॑न्तं निपात्य च । अञ्चितस्य परस्याऽर्जङ्घां पश्चाद्यदि क्षिपेत् ।। मृगप्लता तदा चारी स्याद् विदूषककर्तृका ॥१००२॥ 1021 जब कुञ्चित पैर की रचना करके उछल कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया जाय और दूसरे अञ्चित पैर की जंघा को परिक्षिप्त किया जाय, तब उसे मगप्लता आकाशचारी कहते हैं। विदूषक के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५. पार्श्वक्रान्ता उन्नीय निजपावेन पादं कुञ्चितसंज्ञकम् । 1022 उा चेत् पातयेत् पार्ष्या पार्श्वक्रान्ता तदोदिता ॥१००३॥ लोके प्रसिद्धा सा पार्श्वदण्डपादेतिसंज्ञया । 1023 पादं परोरुपर्यन्तमुदस्योद्घट्टितं क्षितौ । क्षिपेदस्यामिति परे प्राहुर्तृत्तविचक्षणाः ॥१०६४॥ 1024 यदि कुञ्चित पैर को अपने पार्श्व से ऊपर उठाकर एड़ी के बल धरती पर पटक दिया जाय, तो पावक्रान्ता आकाशचारी बनती है। यह चारी लोक में पार्श्वदण्डपादा नाम से प्रसिद्ध है। एक पैर को दूसरे पैर के ऊरु तक उठाकर उद्घट्टित पाद पृथ्वी पर पटकने से यह चारी बनती है, ऐसा नृत्ताचार्यों ने कहा है। ६. ऊर्ध्वजानु जानु यावत् स्तनसमं कुञ्चितं तावदुत्क्षिपेत् । अज्रियंत्रापरः स्तब्धः सोर्ध्वजानुरुदीरिता ॥१००५॥ 1025 २६८ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण यदि कुञ्चित पैर को तब तक ऊपर उठाया जाय जब तक उसका घुटना स्तन के बराबर ऊँचा न उठ जाय और दूसरा पैर स्थिर रहे ; ऐसी क्रिया को ऊर्ध्वजानु आकाशचारी कहते हैं । ७. भुजंगत्रासिता परोरुमूलक्षेत्रान्तमज्रिमुत्क्षिप्य . कुञ्चितम् । नितम्बाभिसुखीं यत्र पाष्णि जानु स्वपार्श्वगम् ॥१००६॥ 1026 उत्तानिततलं पादं कटीजानुविवर्तनार्य । विदध्याद्यदि सान्वर्था भुजंगत्रासिता तदा ॥१००७॥ 1027 यदि दूसरे ऊरु के मूल भाग तक कुञ्चित पैर को ऊपर उठाकर एड़ी को नितम्ब के सम्मुख किया जाय तथा घुटने को अपने पार्श्व में पहुंचा दिया जाय; फिर चरण को कटि तथा घुटने के पास घुमाकर उसके तलवे को उत्तान कर दिया जाय; तो ऐसा करने पर वह अर्थानुरूप भुजंगत्रासिता आकाशचारी बनती है । ८. अलाता पृष्ठप्रसृतपादस्य परोरोः सम्मुखं तलम् । कृत्वा पाणिः स्वपार्वे भूक्षिप्ताऽलाता निरूपिता ॥१००८॥ 1028 यदि पीठ की ओर फैले हुए वलित पैर के तलवे को दूसरे घुटने के सम्मुख करके एड़ी को अपने पार्श्व में गिरा दिया जाय, तो अलाता आकाशचारी बनती है। ९. दण्डपादा पाष्णिदेशे स्थापयित्वा चरणं नूपुराभिधम् । यत्र स्वकायाभिमुखं जान्वग्रं पुरतो जवात् । 1029 यदा प्रसारयेद् दण्डपादा साभिहिता तदा ॥१००६॥ जब नूपुरपाद को एड़ी के पास रखकर घुटने के अग्रभाग को अपने शरीर के सम्मुख अति वेग से आगे की ओर फैला दिया जाय, तब उसे दण्डपादा आकाशचारी कहते हैं। १०. विद्युद्दान्ता वलितः पृष्ठतः पादः शीशे स्पृष्ट्वाथ सर्वतः । 1030 भ्रान्त्वा च प्रसृतो यत्र विद्युभ्रान्ता तदोदिता ॥१०१०॥ जब वलित पैर को पीछे की ओर अग्रभाग में रगड़ दिया जाय और तत्पश्चात् चारों ओर मण्डलविद्ध किया जाय, तो विद्यमान्ता आकाशचारी बनती है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ११. सूची कुञ्चिताघ्रि समुत्क्षिप्य प्रसायँतस्य जङ्घिकाम् । 1031 परा र्जानुपर्यन्तमूरुपर्यन्तमेव च ॥१०११॥ अग्रयोगेन चेदेतमध्रि यत्र निपातयेत् । 1032 समवाचि तदा सूची सा नृत्तसुविचक्षणैः ॥१०१२॥ जब कञ्चित पैर को ऊपर उठाकर उसकी जंघा को दूसरे पैर के घटने तक या ऊरु तक फैलाकर अग्रयोग से उस पैर को नीचे गिरा दिया जाय, तब नाट्याचार्यों ने उसे सूची आकाशचारी कहा है। १२. दोलापादा कुञ्चितं पादमुद्धत्य पार्श्वयोर्दोलयेत् ततः । 1033 यत्र पार्ष्या निजे पार्वे तं क्षिपेच्चेत् तदोदिता । दोलापादाभिधा त्वेषा वीरसिंहसुसूनुना ॥१०१३॥ 1034 जब कुञ्चित पैर को उछालकर दोनों पावों में हिलाया-डलाया जाय; उसके बाद उसे एड़ी से अपने पार्श्व में फेंका या गिरा दिया जाय, तो अशोकमल्ल ने उसे दोलापादा आकाशचारी कहा है। १३. उद्वत्ता प्राविद्धाङ्क्रिस्थितान्योरुपाष्णिकं प्रविधापयेत् । उत्प्लुत्य भ्रमरों दत्वा धरायां विनिपातयेत् ॥१०१४॥ 1035 यत्रान्याध्रि समुद्धृत्य तदोवृत्ता भवेदसौ । अस्या नामान्तरं केचिच्चिरावर्तेत्यवादिषुः ॥१०१५॥ 1036 जब मुड़े हुए (आविद्ध) एक पैर को ऊरु सहित, दूसरे पैर की एड़ी पर अवस्थित किया जाय; फिर उछल कर तथा चक्कर काट कर दूसरे पैर को उठा देने के बाद गिरा दिया जाय, तो उसे उदवत्ता आकाशचारी कहते हैं । कोई इसे चिरावर्ता अपर नाम से अभिहित करते हैं। १४. आविद्धा जङ्घास्वस्तिकविश्लेषात् कुञ्चितं चरणं पुरः । वक्रमेकं प्रसार्य स्वपार्वे तु यदि पातयेत् । 1037 उपपाष्र्ण्यन्तरं पार्ष्या तदाविद्धति कीर्तिता ॥१०१६॥ २७० Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण यदि स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित जंघाओं को अलग-अलग करके एक वक्र कुञ्चित पैर के आगे फैलाकर फिर अपने पार्श्व में एड़ी से गिरा दिया जाय, तो उसे आविद्धा आकाशचारी कहते हैं। १५. नुपुरपादिका अञ्चितं चरणं पश्चादापयित्वाऽस्य पाणिना। 1038 स्पृशेत् स्फिजं यदि ततस्तमेवाञ्चितजङ्घकम् ॥१०१७॥ यस्यां निपातयेदप्रतलेन वसुधातले । 1039 तामाचष्टाशोकमल्लस्तदा नूपुरपादिकाम् ॥१०१८॥ यदि एक अंचित चरण को पीछे उछालकर एड़ी से नितम्ब का स्पर्श किया जाय और उसी मुड़ी हुई जंघा वाले (अंचित) चरण को निचले अग्रभाग के बल पथ्वी पर गिरा दिया जाय, तो उसे अशोकमल्ल ने नपुरपादिका आकाशचारी कहा है। १६. आक्षिप्ता त्रितालान्तरमुत्क्षिप्य पादमानीय कुञ्चितम् । 1040 पान्तिरं ततस्तं चेन्जङ्घास्वस्तिकयोगतः । यत्रोयं पातयेत्पार्ष्या साक्षिप्ताख्या मता तदा ॥१०१६॥ 1041 यदि एक कुंचित पैर को तीन तालों की दूरी तक ऊपर उछाल कर दूसरे पार्श्व में लाया जाय और फिर स्वस्तिकाकार जंघा के योग से उसे एड़ी के बल पृथ्वी पर गिरा दिया जाय, तो उससे आक्षिप्ता आकाशचारी बनती है। विनियोग .. नाव्य नृत्ये गतौ युद्धे नियुद्ध ऽपि प्रयोक्तृभिः । प्रयोक्तव्या इमाश्चार्यो ललिताङ्गक्रियायुताः ॥१०२०॥ 1042 अभिनेताओं को नाट्य, नृत्य, गमन, युद्ध तथा बाहुयुद्ध के अभिनय में भी, ललित आंगिक चेष्ठाओं से युक्त इन चारियों का प्रयोग करना चाहिए । क्वचिद ः प्रधानत्वं कचित्पाणेः कचिद् द्वयोः । - यथाप्रयोगशोभं हि परिज्ञयं मनीषिभिः ॥१०२१॥ 1043 बुद्धिमान् अभिनेताओं को प्रयोग-सौष्ठव के अनुसार कहीं पैर की, कहीं हाथ की और कहीं दोनों की प्रधानता से चारियों का विनियोग करना चाहिए । २५१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधान्यं यत्र पादस्य करस्तदनुगो भवेत् । भवेच्चेद्धस्तको मुख्यः पादस्तदनुगस्तदा । यत्रोभयोः प्रधानत्वं तत्र तौ समगौ मतौ ॥ १०२२॥ जहाँ पैर की प्रधानता हो, वहाँ हाथ उसका अनुगामी होना चाहिए । जहाँ हाथ की मुख्यता हो, वहाँ पैर उसका अनुगामी होना चाहिए । जहाँ दोनों की प्रधानता हो, वहाँ दोनों का समान रूप से प्रयोग करना चाहिए । नृत्याध्यायः यतः पादस्ततः पाणिर्यतः पाणिस्ततस्त्रिकम् । गतिमवदित्वैवं चार्यामङ्गानि योजयेत् ॥१०२३॥ जहाँ पर पैर का प्रयोग हो, वहाँ पर हाथ का भी और जहाँ पर हाथ का प्रयोग हो वहाँ पर कटिदेश का भी प्रयोग होना चाहिए। इस प्रकार पैर की गति समझ कर चारी में अन्य अंगों की योजना करनी चाहिए । गत्वा गत्वा यथा चार्यां चरणो भुवि तिष्ठति । कृत्वा कृत्वा स्वकर्तव्यं करस्तद्वत्कटीतटे ॥ १०२४ ॥ १. रथचक्रा अर्धचन्द्रक नाटये पक्षप्रद्योतको यद्वा 1044 चारी में जिस प्रकार चरण जा-जाकर भूमि पर अवस्थित होता है, उसी प्रकार हाथ अपनी क्रियाओं को करके कमर पर अवस्थित होता है । नृत्तं स्यात् पक्षवञ्चितः । कटिक्षेत्रगतः करः ॥। १०२५॥ 1045 स्थानकं चतुरस्रं चेद् विधाया‌घ्री प्रगच्छतः । श्लिष्टौ पुरोऽथवा पश्चाद् रथचक्रा तदा मता ॥ १०२६॥ 1046 ना में अर्धचन्द्र हस्त-मुद्रा का और नृत्त में पक्षवंचितक या पक्षप्रद्योतक हस्त मुद्रा का प्रयोग होता है । इन दोनों अभिनयों में हाथ कटिदेश पर अवस्थित रहता है । पैंतीस देशी भूमिचारियाँ (३) 1047 1048 जब चतुरस्र स्थानक की रचना करके सटे हुए दोनों पैरों को आगे या पीछे चलाया जाय, तब उसे रथचक्रा चारी कहते हैं । २७२ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. तलवृत्ता चारी प्रकरण पुरश्चेत्सर्पतस्तूर्णमङ्गुलीपृष्ठभागतः । पादाग्रे सा तदादिष्टा तलोद्वृत्ता मनीषिभिः ॥ १०२७ ॥ जब दोनों पैरों के अग्रभाग अँगुलियों के पृष्ठभाग पर ( आश्रित होकर) शीघ्रतापूर्वक आगे की ओर चलें, तब विद्वानों ने उसे तलोत्ता चारी कहा है । ३. मराला नन्द्यावर्तस्थितावङ्घी पाष्णिप्रपदरेचितौ । प्रसार्यते पुरो यत्र सा मरालोदिता बुधैः ॥ १०२८ ॥ नन्द्यावर्त नामक स्थानक और रेचित मुद्रा में अवस्थित दोनों पैर एड़ी तथा अग्रभाग में जहाँ सामने फैलाये जाते हैं, वहाँ विद्वानों ने उसे मराला चारी कहा है । ४. पाणिरेचिता 1049 ३५ पाष्णिपार्श्वगताख्येन स्थिातास्थानेन यत्र चेत् । रेचिता क्रियते पाणिः सा तदा पाणिरेचिता ॥ १०२ ॥ पाष्णिपार्श्वगत स्थानक में अवस्थित एड़ी जब रेचित की जाती है, तब उसे पाष्णि रेचिता चारी कहते हैं । ५. परावृत्ततला पृष्ठोत्तानतलो यत्र बहिरङ्घ्रिः प्रसारितः । चारी सा कथिता धीरैः परावृत्ततलाभिधा ॥ १०३०॥ 1050 स्थित्वा चेद् वर्धमानने पादौ तिर्यक् प्रसर्पतः । वामदक्षिणयोस्तूर्णं तदा तिर्यङ्मुखा मता ॥ १०३१॥ 1051 जहाँ तलवे को पीठ की ओर उत्तान करके पैर को बाहर फैला दिया जाता है, उसे धीर पुरुष परावृत्ततला चारी कहते हैं । ६. तियंड् मुखा 1052 1053 यदि वर्धमान स्थानक में अवस्थित होकर दोनों पैर वाम-दक्षिण पावों में शीघ्रता के साथ तिरछे फैला दिये जाय, तो उसे तियं मुखा चारी कहते हैं । २७३ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ७. नूपुरविद्धिका संश्रित्य स्वस्तिकं पार्योस्तथा पादानयोर्यदि । 1054 यत्राठ्ठी रेचितौ सा स्यात्तदा नूपुरविद्धिका ॥१०३२॥ जब एडियों तथा पैरों के अग्रभागों के स्वस्तिक स्थानकों का सहारा लेकर दोनों पैर रेचित किये जाते हैं, तब उसे नूपुरविद्धिका चारी कहते हैं । ८. कातरा नन्द्यावर्ते स्थिताघ्रिभ्यामपसृत्या तु कातरा ॥१०३३॥ 1055 नन्द्यावर्त स्थानक में अवस्थित पैरों के अलग कर देने से कातरा चारी होती है। ९. करिहस्ता संहतस्थानकेनाख़ी स्थित्वोवी यत्र घर्षतः । पार्वाभ्यां चेत् तदा सद्भिः करिहस्ताभिधीयते ॥१०३४॥ 1056 जब संहत स्थानक में अवस्थित होकर दोनों पैर दोनों पार्यों से पृथ्वी को रगड़ते हैं, तब उसे सज्जन लोग करिहस्ता चारी कहते हैं।' १०. हरिणीत्रासिता कुञ्चिते वलितप्रान्ते तले स्वस्तिकबन्धने । अङ्घयोः कृत्वा यदोत्प्लुत्य नियते यत्र सा तदा ।। 1057 हरिणीत्रासिता चारी समवाचि विचक्षणः ॥१०३५॥ जब कंचित पैरों के प्रान्तभाग बल खाये हुए हों तथा तलवे स्वस्तिकाकार में बँधे हों और वे उछलकर एक जगह स्थिर हो जाय, तो उसे विद्वानों ने हरिणीत्रासिता चारी कहा है। ११. अर्धमण्डलिका क्षितिघृष्टौ बहिः प्राप्तौ पादौ यत्र शनैः क्रमात् । 1058 प्रावते यदा सा स्यादर्धमण्डलिका तदा ॥१०३६॥ जहाँ दोनों पैरों को पृथ्वी पर रगड़ कर बाहर करके क्रमश: धीरे-धीरे घुमाया जाता है, तब वहाँ उसे अर्घमण्डलिका चारी कहते हैं । १२. ऊरताडिता स्थित्वैकपादस्थानेन क्षितिस्थेनाघ्रिणा यदा। 1059 यत्रोरुस्ताङ्यते चारी तदासाबूरुताडिता ॥१०३७॥ २७४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण जब एकपाद स्थानक में अवस्थित होकर पृथ्वी पर रखे हुए पैर से ऊरु को पीटा जाता है, तब उसे ऊरुताडिता चारी कहते हैं । १३. मदालसा यस्याभितस्ततः अलसौ सा तदा पादौ धीरैनिरवाचि मदालसा ॥१०३८ ॥ यदि मतवाले की तरह, अलसाये हुए दोनों पैरों को सब ओर रख जाय, तो घीर पुरुष उसे मदालसा चारी कहते हैं । १४. संचारिता स्थापयेन्मत्तवद्यदि । प्राकुञ्चिताङ्घ्रिमुत्क्षिप्य सकृदन्येन योजयेत् । तिर्यक् सञ्चारयेदन्यं तदा सञ्चारिता मता ॥ १०३६ ॥ श्राकुञ्च्य चरणावूर्ध्वं यत्रोत्क्षिप्य पुरः क्षिपेत् । ऐकैकं चेत् तदोक्ता सोत्कुञ्चितान्वर्थनामभाक् ॥१०४०॥ 1060 जब कुछ मुड़े हुए एक पैर को ऊपर उठाकर बार-बार दूसरे पैर से मिला दिया जाय तथा दूसरे पैर को तिरछा चलाया जाय, तो उसे संचारिता चारी कहते हैं । १५. उत्कुंचिता 1061 यत्राकुञ्चितपादाभ्यां क्रमात् पार्श्वहतिर्भवेत् । प्राहापकुञ्चितामेनां वीरसिंहात्मजः सुधीः ॥ १०४१ ॥ 1062 जब दोनों चरणों को थोड़ा मोड़कर तथा ऊपर उठाकर एक-एक को आगे फेंका जाय, तब उसे अर्थानुरूप नाम वाली उत्कुञ्चिता चारी कहते हैं । १६. अपकुंचिता 1063 जहाँ कुछ मुड़े हुए दोनों चरणों से क्रमशः पावों को पीटा जाय, वहाँ वीरसिंह के विद्वान् पुत्र अशोकमल्ल ने उसे अपकुञ्चिता चारी कहा है । १७. स्फुरिता स्फुरिताग्रे मृतौ वेगाद् भूस्पृशोरङ्घ्रिपार्श्वयोः || १०४२ ॥ 1064 भूमि का स्पर्श करते हुए चरणों के पावों को वेग से आगे फैलाने पर स्फुरिता चारी बनती है । २७५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. स्तम्भक्रीडनिका नृत्याध्यायः तिर्यक्प्रसृत पादस्य पार्श्व परतलेन चेत् । यत्र स्पृशेन्मुहुः सोक्ता स्तम्भक्रीडनिका तदा ॥१०४३॥ 1065 जहाँ तिरछे फैले हुए एक पैर के पार्श्व को दूसरे पैर का तलवा बार-बार स्पर्श करे, वहाँ उसे स्तम्भक्रीडनिका चारी कहते हैं । १९. तिर्थकुकुंचिता अङ्घ्रि तिर्यञ्चमाकुञ्च्य न्यस्येद्यत्र समवोचदिमां तिर्यक्कुञ्चितां जहाँ एक पैर को तिरछा करके कुछ सिकोड़ कर बार-बार ( भूमि पर ) रखा जाय, वहाँ उसे अशोक मल्ल ने तिर्यक्कुञ्चिता चारी कहा है । २०. तलदशनी मुहुर्मुहुः । वीरसिंहजः || १०४४ ॥ 1066 चरणौ संहतस्थौ चेत्तिर्यग्विच्युत्य भूतलम् । स्पृशतो बाह्यपाश्वभ्यां स्यात्तदा तलर्दाशिनी ॥१०४५॥ 1067 जब संहत स्थानक में स्थित दोनों चरण तिरछे अलग होकर बाहरी पावों से भूतल का स्पर्श करें, तब उसे तलर्दाशिनी चारी कहते हैं । २१. खुत्ता २७६ पादाग्रेण क्षितौ घातो यत्र खुत्तेति सा मता ॥१०४६॥ जहाँ चरणों के अग्रभाग से पृथ्वी पर आघात किया जाय, वहाँ उसे खुत्ता चारी कहते हैं । २२. लंघितजंघिका खण्डसूचिः स्थितः पादो वेगेनाकृष्य लङ्घ्यते । यत्रान्यचरणेनैषा भवेल्लङ्घितजङ्घका ||१०४७॥ जहाँ खण्डसूचि स्थानक में अवस्थित एक पैर को वेग से खींचकर दूसरा पैर लाँघ जाता है, वहाँ उसे लंघितजंघिका चारी कहते हैं । २३. स्वस्तिका जहाँ पैर स्वस्तिकाकार धारण करें, वहाँ उसे स्वस्तिका चारी कहते हैं । 1068 स्वस्तिकाकृतिभागंङ्घ्रियंत्र सा स्वस्तिका मता ॥ १०४८ ॥ 1069 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण २४. कलोरिका नन्द्यावर्त्तस्थानकस्थावङघ्री तिर्यक्प्रसर्पतः ।। यदा यत्र तदा सद्धिरसौ प्रोक्ता कुलीरिका ॥१०४६॥ 1070 जब दोनों चरण नन्द्यावर्त स्थानक में अवस्थित होकर तिरछे चलें, तब उसे सज्जन लोग कुलोरिका चारी कहते हैं। २५. निकुट्टक कुचितेनाघ्रिणाग्रेण गतिस्तु स्याग्निकुट्टकः ॥१०५०॥ मुड़े हुए पैर के अग्रभाग से चलना निकुट्टक चारी कहलाता है । २६. पुराटिका पुराटिका मिथोऽध्रिभ्यामुवृत्ताभ्यां निकुट्टनम् ॥१०५१॥ 1071 उठे हुए चरणों से परस्पर कूटना पुराटिका चारी कहलाती है । २७. अर्षपुराटिका यत्रोद्वत्तेन पादेन निकुट्टेन निकुट्नम् ।। परा रुद्ध तस्यैषा भवेदर्धपुराटिका ॥१०५२॥ 1072 जहाँ उठे हुए एक चरण से दूसरे अनावृत चरण को कूटा जाय, वहाँ अर्धपुराटिका चारी कहलाती है। २८. स्फुरिका पुरः प्रसर्पतः पादौ समौ चेत् स्फुरिका तदा ॥१०५३॥ जब सम नामक दोनों पैर आगे चलते हैं, तब उसे स्फुरिका चारी कहते हैं । २९. सारिका पुरः सरति यत्राज्रिरेकः सा सारिकोदिता ॥१०५४॥ 1073 जहाँ एक पैर आगे चलता है, उसे सारिका चारी कहते हैं । ३०. लताक्षेप पश्चात्प्रक्षिप्य पादं चेत्पुरस्ताच्च प्रसार्यतम् । यत्रोवों कुट्टयेत्तेन लताक्षेपस्तदा त्वसौ ॥१०५५॥ 1074 जहाँ एक पैर को पीछे फेंककर आगे फैला दिया जाय और उससे पृथ्वी को कूटा जाय, तो उसे लताक्षेप चारी कहते हैं। २७७ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्याया ३१. अड्डस्खलितिका ___स्खलितोऽज्रिर्यत्र तिर्यगड्डस्खलितिका तु सा ॥१०५६॥ जब पैर तिरछा गिरता है, वहां अड्डस्खलितिका चारी होती है। ३२. ऊरवेणी पादौ स्वस्तिकबन्धेन स्थित्वाङ्ग्री घर्षतो धराम् । 1075 पार्वाभ्यां चेत्तदा धीररूरवेणी निरूपिता ॥१०५७॥ जब दोनों चरण स्वस्तिक स्थानक में अवस्थित होकर पाश्वों से पृथ्वी को घिसते हैं, तब धीर पुरुष उसे ऊरवेणी चारी कहते हैं। ३३. विश्लिष्टा स्थित्वाख़ी पाणिविद्धन चेद्विश्लिष्योपगच्छतः । 1076 यद्वापगच्छतो यत्र सा विश्लिष्टा तदोदिता ॥१०५८॥ जहाँ पाष्णि नामक स्थानक में अवस्थित होकर दोनों पैर अलग होकर निकट आ जाय या दूर हो जाँय तो उसे विश्लिष्टा चारी कहते हैं। ३४. समस्खलितिका अग्रतः पृष्ठतस्तिर्यक पादौ चेत्स्खलतः समम् । 1077 यत्र सोक्ता तदा चारी समस्खलितिका[बुधः] ॥१०५६॥ जब दोनों पैर आगे-पीछे तिरछे होकर एक साथ गिरें, तब उसे विद्वान् लोग समस्खलितिका चारी कहते हैं। ३५. संघट्टिता स्थित्वा विषमसूच्याख्यस्थानेनोत्प्लुत्य चेत् पतन् । 1078 क्षितौ संघट्टयेत् पादौ तदा संघट्टिता मता ॥१०६०॥ यदि विषमसूचि स्थानक में अवस्थित होकर फिर उछल कर गिरते हुए पैरों से पृथ्वी पर चोट की जाय, तो उस क्रिया को संघट्टिता चारी कहते हैं। उन्नीस देशी आकाशचारियाँ (४) १. दण्डपादा अधिं स्वस्तिकविश्लिष्टं निर्यगूवं प्रसारयेत् । 1079 यत्र सा दण्डपादाख्या चारी प्रोक्ता मनीषिभिः ॥१०६१॥ २७८ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारीप्रकरण जहाँ स्वस्तिक मद्रा से हटे हए पैर को तिरछा ऊपर फैला दिया जाय, वहाँ मनीषियों ने उसे दण्डपादा चारी कहा है। २. पुरःक्षेपा कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य विस्तारत्वरया पुरः । 1080 क्षिपेत् क्षितौ यदा चारी पुरःक्षेपा तदोदिता ॥१०६२॥ कुञ्चित मुद्रा में पैर को ऊपर उठाकर यदि विस्तार की शीघ्रता से आगे पृथ्वी पर फेंक दिया जाय तो पुरःक्षेपा चारी बनती है। ३. अपक्षेपा बाह्यपाāन संस्पृश्य पृष्ठमूरोर्यदीतरः । 1081 अज्रिरेति नितम्बान्तमपक्षपा तदा मता ॥१०६३॥ यदि ऊरु के पृष्ठभाग को दूसरा पैर, बाहर वाले पार्श्व से स्पर्श करके नितम्ब के अन्त तक पहुँच जाय तो उसे अपक्षेपा चारी कहते हैं। ४. हरिणप्लुता उत्प्लुत्य चरणौ यस्यामवनौ विनिपातयेत् । 1082 समाचष्ट नृपाशोकमल्लस्तां हरिणप्लुताम् । एकाध्रिपातनं त्वस्यां मन्वतेऽन्ये मनीषिणः ॥१०६४॥ 1083 जिस (चारी) में दोनों चरण उछलकर पृथ्वी पर गिर पड़ें, उसे राजा अशोकमल्ल ने हरिणप्लुता चारी कहा है । दूसरे मनीषी लोग उसमें एक ही चरण को गिराना मानते हैं । ५. विद्युद्घान्ता पुरस्तात्पादमुत्क्षिप्य भालस्योपरि सत्वरम् । संभ्राम्योया क्षिपेद्यत्र विद्युभ्रान्ता भवेदसौ ॥१०६५॥ 1084 जहाँ पैर को आगे शीघ्रता से उठाकर तथा ललाट के ऊपर घुमाकर पृथ्वी पर फेंक दिया जाय, वहाँ उसे विद्युद्घान्ता चारी कहते हैं। ६. विक्षेपा पुरस्तादन्तरिक्षेऽनि चेत्प्रसार्य मुहुर्मुहुः । कुर्यादाकुञ्चितं यत्र सा विक्षेपा तदोदिता ॥१०६६॥ 1085 २७९ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः जब आगे आकाश में पैर को बार-बार फैलाकर सिकोड़ लिया जाय, तब उसे विक्षेपा चारी कहते हैं । ७. जंघावर्ता अन्तर्भ्रान्त्या बहिर्भ्रान्त्या क्रमेणाङ्घ्रिस्तलं यदि । यत्रान्यजानुनः पृष्ठे पार्श्वेऽपि क्षिप्यते तदा । जङ्घावर्ताभिधा सोक्ता चारी चारीविचक्षणः ॥ १०६७॥ जब क्रमशः भीतर-बाहर घुमाकर ( एक पैर के ) तलवे को दूसरे ( पैर के ) घुटने के पृष्ठभाग या पार्श्वभाग पर रखा जाय, तब उसे चारी के विद्वान् जंघावर्ता चारी कहते हैं । ८. अँप्रिताडिता विस्तार्याघ्री समुत्प्लुत्य मिथस्ताडयतस्तले । गगने चेत् तदा चारी मतान्वर्थाङ्घ्रिताडिता ॥ १०६८ ।। २८० 1086 जब आकाश में पैरों को फैलाकर तथा उछलकर परस्पर तलवे को पीटा जाय, तब उसे अर्थ के अनुरूप अँप्रिताडिता चारी कहते हैं । ९. अलाता किञ्चित्पृष्ठगतः पादः परपादेन लङ्घ्यते । यदि द्रुतं तदालाता विद्वद्भिः परिकीर्तिता ॥ १०६६॥ 1087 यदि पीठ की ओर थोड़ा गया हुआ एक पैर दूसरे पैर के द्वारा शीघ्रता से लाँघा जाय, तो विद्वान् लोग उसे अलाता चारी कहते हैं । १० डमरी स्वस्तिकाकृतयोरङ्घ्योर्यत्रैको दोलितो मनाक् । परः पुरः कुञ्चितश्चेत्सा विद्धोक्ता बुधैस्तदा ॥१०७१ ॥ 1088 जानुदघ्नं समुत्क्षिप्य कुञ्चितं चरणं यदि । सत्वरं भ्रामयेदन्तर्बहिश्च डमरी तदा ॥१०७०॥ यदि कुञ्चित चरण को घुटने तक उठाकर बाहर-भीतर शीघ्रता से घुमाया जाय, तो वह डमरी चारी कहलाती है । ११. विद्वा 1089 1090 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण यदि स्वस्तिकाकार पैरों में एक को थोड़ा हिलाया जाय और दूसरे पैर को आगे मोड़ दिया जाय, तो वह विद्धा चारी कहलाती है। १२. अंघालंघनिका माकुञ्चिताघ्रिमन्येन पादेन दिवि लङ्घयेत् ।। 1091 यत्रासौ कथिता चारी जङ्घालवनिका बुधः ॥१०७२॥ यदि किञ्चित् मुड़े हुए एक पर को दूसरे पैर से आकाश में लांघा जाय, तो उसे विद्वान् लोग जंघालंघनिका चारी कहते हैं। १३. सूची पार्श्वेनोरो विनिक्षिप्य चरणं चेत् प्रसारयेत् । 1092 तीक्ष्णाग्रं यत्र सा सूची तदोक्ता वृत्तवेदिभिः ॥१०७३॥ यदि पार्श्व से छाती को दबाकर तीक्ष्ण अग्रभाग वाले चरण को फैला दिया जाय, तो नृत्त के विद्वान् उसे सूची चारी कहते हैं। १४. प्रावत यत्राज्रिरुद्धृतो मूतिर्वलिता ललिता भवेत् । ... तदुक्तं प्रावृतं सद्भिः कुसुमायुधजीवनम् ॥१०७४॥ जहाँ एक पैर उठा लिया जाय और झुकाया हुआ शरीर सुन्दर दीखता हो, वहाँ सज्जन लोग उसे कामदेव . का जीवन स्वरूप प्रावृत्त चारी कहते हैं । १५. उल्लाल उल्लालनं क्रमेणाज्रयोदिव्युल्लाल उदीरितः ॥१०७५॥ 1094 पैरों को क्रमशः हिलाने को उल्लाल चारी कहते हैं । १६. वेष्टन पादेनकेन यद्यन्यं वेष्टयेद्वेष्टनं तदा । एतदेव परे प्राहुलनं वृ (?) त्तवेदिनः ॥१०७६॥ 1095 यदि एक पैर से दूसरे पैर को वेष्टित कर लिया जाय तो उसे वेष्टन चारी कहते हैं। दूसरे नृत्त-पण्डित इसी को वलन चारी (भी) कहते हैं । 1093 २८१ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः १७. उद्वेष्टन वेष्ठयित्वा यदा ः स्यात् पृष्टदेशे प्रसारणम् । तदोद्वेष्टनमाख्यातमशोकेन महीभुजा ॥१०७७॥ 1096 जब एक पैर को वेष्टित करके पृष्टदेश में फैला दिया जाय, तब राजा अशोकमल्ल उसे उद्वेष्टन चारी कहते हैं । १८ उत्क्षेप अफ़ेराकुञ्चितस्याने पृष्ठे चोत्क्षेपणे यदा । क्रियते जानुपर्यन्तं तदोत्क्षयोऽभिधीयते ॥१०७८॥ 1097 जब कुछ मुड़े हुए पैर को आगे और पीछे घुटने तक ऊपर उठाया जाय, तब उसे उत्क्षेप चारी कहते हैं। १९. पृष्टोत्क्षेप योष पृष्ठ एव स्यात् पृष्ठोत्क्षेपस्तदा मतः ॥१०७६॥ यदि यह उत्क्षेप केवल पीछे की ओर ही किया जाय तो उसे पृष्ठोत्क्षेप चारी कहते हैं । - पच्चीस मुडुपचारियाँ (५) अङगुलीपृष्ठभागं हि नृत्तज्ञा मुडुपं जगुः । 1098 चार्यते तेन मुडुपचारीत्यन्वर्थसंज्ञिका ॥१०८०॥ नाट्याचार्यों ने अंगुली के पृष्ठभाग को मुडुप कहा है। उससे चेष्टा प्रकट के जाती है । इसलिए (उसकी) मुडपचारी यह अन्वर्यसंज्ञा (अर्थानुरूप नाम) है। निरुक्तिमेवं केऽप्याहुरन्ये संज्ञां डविथवत् । 1099 अन्य विद्वान् मुडुपचारी शब्द की निरुक्ति (व्याख्याविशेष) इस प्रकार करते हैं और दूसरे आचार्य डवित्थ शब्द की तरह इसकी (अव्युत्पन्न) संज्ञा बताते हैं। मुडुपोपपदाश्चार्यः सन्ति यद्यप्यनेकशः ॥१०८१॥ तथाप्यमूर्मया काश्चिल्लिख्यन्ते कोहलोदिताः । 1100 यद्यपि मुडुप से सम्बद्ध चारियाँ अनेकानेक हैं, तथापि यहाँ आचार्य कोहल द्वारा प्रतिपादित कुछ चारियों का उल्लेख किया जा रहा है। मुडपचारी के भेद पुरःपश्चात्सरा चारी तथा पश्चात्पुरःसरा ॥१०८२॥ १. देखिए : 'लोहितोदिता' भरतकोश, पृ० ९११ । - - २८२ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण 1101 1103 1104 1106 मध्यचक्राभिधा चारी तथैकपदकुट्टिता । पदद्वयनिकुट्टान्या पादस्थितिनिकुट्टिता ॥१०८३॥ [क्रमपादनिकुट्टा च समपादनिकुट्टिता । 1102 चारी डमरुकुट्टाख्या डमरुद्वयकुट्टिता] । पुरःक्षेपनिकुट्टा च पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता । पार्श्वक्षेपनिकुट्टान्या चक्रकुट्टनिका परा ॥१०८४॥ मध्यस्थापनकुट्टा च चतुष्कोणनिकुट्टिता । चारी त्रिकोणचारान्या तिरश्चीननिकुट्टिका ॥१०८५॥ अनुलोमविलोमा च प्रतिलोमानुलोमका । 1105 पुरस्ताल्लुठिता पृष्ठलुठिता चक्र(? वक्र)कुट्टिता ॥१०८६॥ पार्श्वद्वयचरी मध्यलुठिताख्या परा तथा । श्रीमताशोकमल्लेनेत्युद्दिष्टाः पञ्चविंशतिः ॥१०८७॥ श्रीमान् अशोकमल्ल ने मुडुपचारी के पचीस भेद बताये हैं : १. पुरःपश्चात्सरा, २. पश्चात्पुरःसरा, ३. मध्यचक्रा, ४. एकपदकुट्टिता, ५. पदद्वयनिकुट्टा, ६. पादस्थितिनिकुट्टिता, ७. क्रमपादनिकुट्टिका, ८. समपादनिकुट्टिता, ९. डमरुट्टिता, १०. डमरुद्वयकुट्टिता, ११. पुरःक्षेपनिकुट्टिता, १२. पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता १३. पार्श्वक्षेपनिकुट्टिता, १४. चक्रकुट्टनिका, १५. मध्यस्थापनकुट्टा, १६. चतुष्कोणनिकुट्टिता, १७. त्रिकोणचारी, १८. तिरश्चीनकुट्टिता, १९. अनुलोमविलोमका, २०. प्रतिलोमानुलोमका, २१. पुरस्ताल्लुठिता, २२. पृष्ठलुठिता, २३. चक्रकुट्टिता, २४. पार्श्वद्वयचरी और २५. मध्यलुठिता । इमा मुडपचार्योऽथ लक्षणं प्रतिपाद्यते ॥१०८८॥ 1107 ये मुडुपचारियाँ हैं । अब इनके लक्षण बताते हैं ।। १. पुरःपश्चात्सरा तलेनादौ निकुट्याथ पुरः पश्चाग्निवेशितः । प्रज्रिरगुलिपृष्ठेन स्वस्थाने कुट्टितो यदा । 1108 पुरःपश्चात्सरा चारी तदान्वर्था निरूपिता ॥१०८६॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नश्याध्यायः पहले तलवे से कूटकर पैर को आगे और पीछे करके रखा जाय; और पश्चात् उँगलियों के पृष्ठभाग से एक पैर को अपने स्थान पर कूटा जाय । ऐसा करने से अर्थ के अनुरूप पुरःपश्चातसरा चारी बनती है। २. पश्चात्पुरः सरा एषा पश्चात्पुरःक्षेपान्मता पश्चात्पुरःसरा ॥१०६०॥ 1109 यदि पैर को पीछे और आगे करके चलाया जाय, तो वह पश्चात्पुरः सरा चारी कहलाती है। ३. मध्यचक्रा कुट्टितः स्थापितो यत्र भ्रमितः कुट्टितः पुनः । स्थाने सा मध्यचक्रेति चारी प्रोक्ता विचक्षणः ॥१०६१॥. .1110 जहाँ पैर कूटा जाय, रखा जाय, घुमाया जाय और फिर स्थान पर कूटा जाय, तो उसे विद्वानों ने मध्यचक्राचारी कहा है। ४. एकपदकुट्टिता स्वपार्वेकुट्टितः पूर्व स्थापितोगुलिपृष्ठतः । कुट्टितश्चेत्पुनः स्थाने तदैकपदकुट्टिता ॥१०६२॥ ll पहले एक पैर अपने पार्श्व में कूटा जाय; उसके बाद उँगलियों के पृष्ठभाग से अवस्थित किया जाय; और पुनः स्थान में कूटा जाय, तो उसे एकपदकुट्टिता चारी कहते हैं। ५. पदद्वयनिकुट्टा पदद्वयनिकुट्टा स्यात् सैवाङ्घ्रिद्वयनिर्मिता ॥१०६३॥ यदि दोनों पैरों से उक्त चारी बनायी जाय, तो उसे पवद्वयनिकुट्टा चारी कहते हैं। ६. पादस्थितिनिकुट्टिता यस्यां निकुट्टितः पादः स्थितोऽथाङ्गुलिपृष्ठतः । 1112 इतस्ततः कुट्टितः सा पादस्थितिनिकुट्टिता ॥१०६४॥ जिस चारी में कूटा हुआ एक पैर उँगलियों के पृष्ठभाग से अवस्थित होकर (पुनः) इधर-उधर कूटा जाय, उसे पादस्थितिनिकिटता चारी कहते हैं । ७. क्रमपादनिकुट्टिका एवं द्वयनिकृता सैव क्रमपादनिकुट्टिका ॥१०६५॥ 1113 २८४ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी प्रकरण उक्त प्रकार से यदि दोनों पैरों को सम्पन्न किया जाय, तो उसे क्रमपादनिकुट्टिका चारी कहते हैं । ८. समपावनिकुट्टिता निकुट्टितौ समौ पादौ स्थितावङ्गुलिपृष्ठयोः । यदा तदा मताऽन्वर्था समपादनिकुट्टिता ॥ १०६६॥ 1114 जब सम नामक दोनों पैर कूटे जाकर उँगलियों के पृष्ठभाग पर अवस्थित हों, तो उसे अर्थानुरूप समपावनिकुट्टिता चारी कहते हैं । ९. डमरुकुट्टिता पादश्चेत्कुट्टितः पूर्वं लुठितोङ्गुलिपृष्ठतः । पश्चात्रिकुट्टितः स्थाने तदा डमरुकुट्टिता ॥ १०६७॥ 1115 यदि एक पैर पहले कूटा जाकर उँगलियों के पृष्ठ भाग पर लोट जाय और पश्चात् स्थान पर कूटा जाय, तो उसे डमरुकुट्टिता चारी कहते हैं । १०. डमरुद्वयकुट्टिता पादयुग्मकृता सैव डमरुकुट्टिता ॥ १०६८॥ यदि उक्त चारी में दोनों पैर उक्त प्रकार की क्रिया से सम्पन्न हों, तो उसे उमरुद्वयकुट्टिता चारी कहते हैं । ११. पुरःक्षेपनिकुट्टिता पूर्वं पुरतोङ्गुलिपृष्ठतः । [ चरण: ] कुट्टितः स्थापितः कुट्टितः स्थाने पुरःक्षेपनिकुट्टिता ॥ १०६६॥ यदि पहले चरण को कूटकर आगे की ओर उँगलियों के पृष्ठभाग से स्थापित किया जाय और फिर स्थान पर कूटा जाय तो, उसे पुरःक्षेपनिकुट्टिता चारी कहते हैं । १२. पश्चारक्षेपनि कुट्टिता पश्चात्क्षेपाद्भवेदेषा पश्चात्क्षेप निकुट्टिता ॥ ११००॥ उक्त चारी में पैर को पीछे की ओर चलाने से पश्चात्क्षेपपनिकुट्टिता चारी बनती है । १३. पाश्वंक्षेपनिकुट्टिता पार्श्वतः क्षेपणादेव बगल की ओर उक्त प्रकार चलाने से पार्श्वक्षेपनिकुट्टिता चारी बनती है । 1116 पार्श्वक्ष पनिकुट्टिता ॥११०१॥ 1117 २८५ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः १४. चक्रकुट्टनिका यदाघ्रि कुट्टितं पाश्वाभ्रामयित्वा निवेशयेत् । 1118 ततः स्थाने कुट्टयेच्च चक्रकुट्टनिका तदा ॥११०२॥ जब कूटे हुए पैर को बगल में घुमाकर रखा जाय और उसे फिर स्थान पर कूटा जाय, तो उसे चक्रकुट्टनिका चारी कहते हैं। १५. मध्यस्थापनकुट्टा पादश्चेत्कुट्टितः पूर्व पुरः पश्चाग्निवेशितः । 1119 मध्ये निवेशितश्चाथ पुनस्तत्रैव कुट्टितः । मध्यस्थापनकुटेति तदान्वर्था प्रकीर्तिता ॥११०३॥ 1120 यदि पहले पैर को कटकर आगे-पीछे स्थापित किया जाय और फिर मध्य में स्थापित कर पुनः वहीं पर कुटा जाय, तो उसे अर्थ के अनुरूप मध्यस्थापनकुट्टा चारी कहते हैं। १६. चतुष्कोणनिकुट्टिता यत्राद्भिः कुट्टितः पूर्व पुरः पश्चान्निवेशितः । व्यस्रभावात्पुनश्चापि पुरः पश्चात्तदान्यथा । 1121 स्थाने च कुट्टितः सा स्याच्चतुष्कोणनिकुट्टिता ॥११०४॥ जहाँ एक पैर को पहले कूटकर आगे-पीछे स्थापित किया जाय; फिर त्रिकोणभाव से आगे-पीछे रखा जाय; पुनः विपरीत भाव से स्थान पर कूटा जाय; ऐसी क्रिया को चतुष्कोणनिकुट्टिता चारी कहते हैं । १७. त्रिकोणचारी प्रििनवेशितो यत्र स्थापितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । 1122 निकुट्टितः पुरः पावें पृष्ठे वाथ निवेशितः ॥११०५॥ अज्रिरगुलिपृष्ठेन पुनः स्थाने च कुट्टितः । 1123 सोक्ता त्रिकोणचारीति सद्भिरन्वर्थनामभाक् ॥११०६॥ जहाँ पैर को प्रविष्ट करके उँगुलियों के पृष्ठभाग से स्थापित किया जाय; फिर कूटकर आगे या बगल में या पीछे प्रविष्ट किया जाय%; अनन्तर उँगलियों के पृष्ठभाग से पुनः उसे स्थान पर कूटा जाय; ऐसी क्रिया को अर्थ के अनुरूप त्रिकोणचारी चारी कहते हैं । २८६ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारी प्रकरण 1124 1125 1126 १८. तिरश्चीनकुट्टिता प्रनिनिकुट्टितः पूर्व स्वपार्श्वपरपार्श्वयोः । मध्ये निवेशितः पश्चात्तिर्यक् तत्रैव कुट्टितः ॥११०७॥ यत्र सा स्यात्तिरश्चोनकुट्टितान्वर्थनामभाक् । पहले पैर को अपने पार्श्व तया दूसरे (पैर) के पार्श्व में कूटकर मध्य में स्थापित किया जाय; पश्चात् वहीं पर उसे तिरछा करके कटा जाय; ऐसी क्रिपा को अर्थ के अनुरूप तिरश्चीनकुट्टिता चारी कहते हैं । १९. अनुलोमविलोमका चारी त्रिकोणचारी चैदनुलोमविलोमगा। स्वस्थाने स्थापितपदा ततस्तत्रापि कुट्टिता । तदा निगदिता सद्धिरनुलोमविलोमका ॥११०८।। यदि त्रिकोणचारी नामक चारी अनुलोम (यथाक्रम) और विलोम (विपरीतक्रम) को प्राप्त कर अपने स्थान ' में स्थापित चरण वाली बनती है, तथा वहाँ कूटी भी जाती है, तो उसे सज्जन लोग अनुलोमविलोमका चारी कहते हैं। २०. प्रतिलोमानुलोमका ___ व्यत्यासादचिता सैव प्रतिलोमानुलोमका ॥११०६॥ 1127 उक्त चारी को व्यतिक्रम करके बनाने से प्रतिलोमानुलोमका चारी होती है । २१. पुरस्ताल्लुठिता पुरस्ताल्लुठिता सा स्याद्यत्राङ्क्रिटुंठितः पुरः ॥१११०॥ जहाँ पर आगे लोटता है वहाँ पुरस्ताल्लुठिता चारी होती है । २२. पृष्ठलुठिता ....पादश्चेत्कुञ्चितः पृष्ठे लुठितोऽगुलिपृष्ठतः । पुनश्च लुठितः स्थाने स्यात् पृष्ठजुठिता तदा ॥११११॥ यदि पैर पृष्ठभाग में सिकुड़ा हुआ हो; उँगलियों के पृष्ठभाग से लोटा हुआ हो; और स्थान पर पुनः लोट जाय, तो उसे पृष्ठठिता चारी कहते हैं । 1128 २८७ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः २३. चक्रकुट्टिता कुट्टयित्वा तु विन्यस्य भ्रामितो लुठितो यदि । 1129 कुट्टितोऽनिःपुनःस्थाने तदोक्ताचक्र(? वक्र)कुट्टिता॥१११२॥ यदि पैर को कूटकर स्थापित करके घुमाया तथा लोटाया जाय और पुनः स्थान पर कूटा जाय, तो उसे चक्रकुट्टिता चारी कहते हैं। २४. पार्श्वद्वयचरी कुट्टितोऽगुलिपृष्ठे च स्थितोऽम्रिरितरस्ततः । 1130 स्वस्तिकाद्विच्युतः पूर्वः स्वपार्वे च निकुट्टितः । एवमयन्तरेणापि पार्श्वद्वयचरी तदा ॥१११३॥ 1131 . यदि कूटा हुआ पैर उंगुलियों के पृष्ठभाग में स्थित हों; दूसरा पैर स्वस्तिकमुद्रा से अलग हो; पहला अपने पार्श्व में कूटा जाय; इस प्रकार दूसरे पैर से भी किया जाय; ऐसी क्रिया को पार्श्वद्वयचारी कहते हैं । २५. मध्यलुठिता कुट्टितः स्थापितोऽङ्घ्रिश्चेल्लुठितश्च निकुट्टितः । समादिष्टा तदा मध्यलुठिता वृत्तवेदिभिः ॥१११४॥ 1132 यदि एक पैर कूटा जाय, रखा जाय,लोटाया जाय और फिर कूटा जाय तो नृत्त के ज्ञाताओं ने उसे मध्यलपिठिता चारी कहा है। प्रायशोऽमूः प्रयुज्यन्ते तालनृत्यविचक्षणः । एताः समासतः प्रोक्ता ज्ञेया एवं परा अपि ॥१११५॥ 1133 ताल और नृत्य के विद्वान् इन चारियों का प्रयोग बहुलता से करते हैं । इनको संक्षेप में बताया गया है । इस प्रकार अन्य चारियों को भी जान लेना चाहिए। समवेत रूप में एक सौ ग्यारह मार्गदेशीस्थित चारियों का निरूपण समाप्त २८८ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण | ग्यारह Page #300 --------------------------------------------------------------------------  Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरणों का निरूपण करण ( हस्त-पाद-संयुक्त अभिनय ) योऽङ्गोपाङ्गकरप्रचारकरणः सन्तोषितः स्थानकैः । चारीभिश्च मनोहरो सुररिपुर्गोपाङ्गनाभिविभुः । नत्वाहं तमकिञ्चनं परिलसत्पीताम्बरालङ्कृतम् । संच करणं तु सम्प्रति मुदे नृत्तार्थिनां नृत्तवित् ॥ १११६ ॥ 1135 जो मनमोहन श्रीकृष्ण अंगों तथा उपाँगों सहित हस्त-संचालन-रूप करणों, स्थानकों और चारियों के प्रयोग से गोपांगनाओं द्वारा सन्तुष्ट (प्रसन्न ) किये गये, उन अकिंचन तथा पीताम्बर से अलंकृत भगवान् को नमस्कार करके अब मैं नृत्तवित्, नृत्तार्थियों के मनोरंजन के लिए करण का निरूपण करता हूँ । श्रविच्छिन्नरसा पाणिपादादेर्या निरन्तरा । क्रिया तनृत्तकरणं कीर्तितं 1134 नृत्तवेदिभिः ॥ १११७॥ 1136 हाथ-पैर आदि ( के संचालन) से निरन्तर एवं अविच्छिन्न रूप से रस का अभिभावन करने वाली जो क्रिया है, नाट्याचार्यों ने उसे अभिनय का करण कहा है । करण के भेद भेदान् कतिपयानस्य व्याहरे मुनिसम्मतान् ॥ १११८ ॥ 1137 भरत मुनि द्वारा कथित या अभीष्ट उसके (करण के) कतिपय भेदों का मैं यहाँ निरूपण कर रहा हूँ । तलपुष्पपुटं वक्षःस्वस्तिकं वतितं तथा । मण्डलस्वस्तिकं लीनमुन्मत्तं वलितोरु च ॥ १११६ ॥ स्वस्तिकं स्वस्तिकान्यर्धदिव पृष्ठोपपदानि च । प्राक्षिप्तरेचितालातभुजङ्गत्रासितानि च ॥ ११२०॥ 1138 २९१ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नश्याध्यायः कटीसमं कटोच्छिन्नं घूणितं च निकुञ्चितम् । 1139 निकुट्टाधनिकुट्ट च विक्षिप्ताक्षिप्तकं तथा ॥११२१॥ अपविद्धं समनखं तथा स्वस्तिकरेचितम् । 1140 मत्तल्लि चार्धमत्तल्लि वलितं चार्धरेचितम् ॥११२२॥ ऊर्ध्वजानुकठिभ्रान्तं छिन्नं पादापविद्धकम् । 1141 भ्रमरं द[ण्ड] पक्षं च नूपुरं ललितं ततः ॥११२३॥ व्यंसितं चतुरं कान्तं भुजङ्गात्रस्तरेचितम् । 1142 भुजङ्गाञ्चितमाक्षिप्तोद्धट्टिते दण्डरेचितम् ॥११२४॥ वृश्चिकं वृश्चिकाये च स्यातां रेचितकुट्टिते ॥११२५॥ 1143 लतावृश्चिकवैशाखरेचिते चक्रमण्डलम् । प्रावर्तकुञ्चिते दोलापादं तलविलासितम् ॥११२६॥ 1144 विवृत्तविनिवृत्ते च ललाटतिलकं ततः । विवर्तितमतिकान्तं विद्युभ्रान्तं निशुम्भितम् ॥११२७॥ 1145 उरोमण्डल विक्षिप्ते ततः पार्श्वनिकुट्टकम् । तलसंस्फोटितं गण्डसूचि सूच्यर्धसूचिनी ॥११२८॥ 1146 गजक्रीडितकं पार्श्वजानु स्याद् गरुडप्लुतम् । गृध्रावलीनकं दण्डपादं सन्नतसर्पिते ॥११२६॥ 1147 मयूरललितं सूचीविद्ध प्रेङ्खोलितं तथा । स्खलितं परिवृत्तं च करिहस्तं प्रसपितम् ॥११३०॥ 1148 पार्श्वक्रान्तं निवेशं च नितम्बं हरिणप्लुतम् । सिंहविक्रीडितं सिंहाकर्षितं जनितं तथा ॥११३१॥ 1149 [अवहित्थमथोवृत्तं तलसंघट्टितं तथा] । लोलितं शकटास्यं च वृषभक्रीडितं तथा ॥११३२॥ 1150 २९२ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्तकरण प्रकरण एलकाक्रीडितं तद्वद्विष्कम्भोपसृताभिधे । विष्णुकान्तमपक्रान्तमूरूवृत्ताञ्चिते ततः ॥११३३॥ 1161 सम्भ्रान्ताभिधमप्यन्यन्मदस्खलिमतर्गलम् । स्याद्रेचकनिकट्टाख्यं ततो नागापसर्पितम् ॥११३४॥ 1152 गङ्गावतरणं चेति शतमष्टोत्तरं मया । करणानां समुद्दिष्टं लक्ष्यलक्षणवेदिना ॥११३५॥ 1153 उनके नाम हैं : १. तलपुष्पपुट, २. वक्षःस्वस्तिक, ३. वर्तित, ४. मण्डलस्वस्तिक, ५. लीन, ६. उन्मत्त, ७. वलितोर, ८. स्वस्तिक, ९. अर्षस्वस्तिक, १०. दिकस्वस्तिक, ११. पृष्ठस्वस्तिक, १२. आक्षिप्तरेचित, १३. अलात, १४. भुजंगत्रासित, १५. कटीसम, १६. कटीच्छिन्न, १७. णित, १८. निकृञ्चित, १९. निकुट्टक, २०. अर्धनिकुट्टक, २१. विक्षिप्तक, २२. अपविद्ध, २३. समनख, २४. स्वस्तिकरेचित, २५. मत्तल्लि, २६. अर्धमत्तल्लि, २७. वलित, २८. अपरेचित, २९. ऊर्ध्वजान, ३०. कटिमान्त, ३१. छिन्न, ३२. पादापविद्धक, ३३. भमर, ३४. दण्डपक्ष, ३५. नूपुर, ३६. ललित, ३७. व्यंसित, ३८. चतुर, ३९. कान्त, ४०. भुजंगवस्तरेचित, ४१. भुजंगाञ्चित, ४२. आक्षिप्त, ४३. उद्घट्टित, ४४. वण्डरेखित, ४५. वृश्चिक, ४६. वृश्चिकरचित, ४७. वृश्चिककुट्टित, ४८. लतावृश्चिक, ४९. वैशाखरेचित, ५०. चक्र मण्डल, ५१. आवर्त, ५२. कञ्चित, ५३. दोलापाव, ५४. तलविलासित, ५५. विवृत्त, ५६. विनिवत्त, ५७. ललाटतिलक, ५८. विवतित, ५९. अतिकान्त, ६०. विद्यद्भान्त, ६१. निशुन्भित, १२. उरीमण्डल, ६३. विक्षिप्त, ६४. पावनिकुट्टक, ६५. तलसंस्फोटित, ६६. गण्डसूचि, ६७. सूचि ६८. अर्षसूचि, ६९. गजक्रीडितक, ७०. पार्वजानु, ७१. गरुडप्लुत, ७२. मधावलीनक, ७३. वण्डपाद, ७४. सन्नत, ७५. सर्पित, ७६. मयूरललित, ७७. सूचीविद्ध, ७८. प्रेडखोलित, ७९. स्खलित, ८०. परिवृत्त, ८१. करिहस्त, ८२. प्रसर्पित, ८३. पावक्रान्त, ८४. निवेश, ८५. नितम्ब, ८६. हरिणप्लुत ८७. सिंहविक्रीडित, ८८. सिंहाकर्षित, ८९. जनित, ९०. अवहित्य, ९१. उत्त, ९२. तलसंघट्टित, ९३. लोलित, ९४. शकटास्य, ९५. वृषभक्रीडित, ९६. एलकाक्रीडित, ९७. विष्कम्भ, ९८. उपसृत, ९९.विष्णकान्त, १००. अपक्रान्त, १०१. ऊरूवृत्त, १०२. अञ्चित, १०३. सम्भ्रान्त, १०४. मवस्खलितक, १०५. अर्गल, १०६. रेचकनिकटक, १०७. नागापसर्पित और१०८. गंगावतरण । इन एक सौ आठ करणों को लक्ष्य एवं लक्षण के ज्ञाता मैंने बता दिया । अन्य भेदोपभेद प्रानन्त्यात् स्थानचारीणाममीषामप्यनन्ततः । प्रतस्तानि न शक्यन्ते वक्तुं साकल्यतो बुधैः ॥११३६॥ 1164 १९३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः स्थानकों, चारियों और करणों के भी अनन्त भेदोपभेद हैं। अत: विद्वज्जन भी उन सबका वर्णन करने में असमर्थ हैं। अङ्गाहारोपयोगीनि करणानि कियन्त्यपि । लक्ष्यन्ते लक्ष्मविदुषामधुना साधुना मया ॥११३७॥ 1155 अब मैं नाट्य-लक्षणों के वेत्ता विद्वानों के लिए नृत्योपयोगी कुछ करणों का लक्षण-विनियोग बता रहा हूँ। बाहुल्यानर्तनारम्भे समावज्री लताकरौ । अङ्गं तु चतुरस्र स्याद्विशेषस्त्वधुनोच्यते ॥११३८॥ 1156 नृत्य के आरम्भ में बहुधा सम स्थिति पैरों, लताकर हाथों और चतुरस्र अंग का उपयोग किया जाता है । अब उनके सम्बन्ध में विशेष निर्देश किया जा रहा है। १. तलपुष्पपुट और उसका विनियोग विनिःसरति सव्येऽज्रौ चार्याध्यधिकया समम् । व्यावृत्तितः करद्वन्द्वे सव्यं पार्श्व समाश्रिते ॥११३६॥ 1157 परिवृत्त ततस्तस्मिन् सन्नतं पार्श्वमागते । यत्र तत्कुचदेशस्थो हस्तः पुष्पपुटाभिधः ॥११४०॥ 1158 तलपुष्पपुटं त्वेतत् पादेऽग्रतलसञ्चरे । अध्यधिका नामक चारी के साथ बाँयें पैर के बाहर की ओर निकल जाने पर, दोनों हाथों को घमाकर बायें पार्व में अवस्थित कर देने पर, फिर उनको परिवृत्त कर सन्नत नामक पार्श्व के निकट पहुँच जाने पर, पुष्पपुट हस्त मद्रा को कचों के पास अवस्थित कर देना चाहिए। ऐसी क्रिया को तलपुष्पपुट करण कहते हैं । इस करण में अग्रतलसंचर नामक पैर का प्रयोग करना चाहिए। रङ्गे पुष्पाञ्जलिक्षेपे लज्जायामपि सुभ्र वाम् ॥११४१॥ 1159 (सूत्रधार द्वारा) रंगमंच पर पुष्पांजलि-समर्पण और सुन्दरियों के लज्जा के भाव-प्रदर्शन में तलपुष्पपुट करण का विनियोग करना चाहिए । २. वक्षःस्वस्तिक और उसका विनियोग चतुरस्रकरौ वक्षःस्थले कृत्वाथ रेचितौ । व्यावृत्त्या च समानीयाभुग्ने वक्षसि चेदिमौ ॥११४२॥ 1160 २९४ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण क्रियेते स्वस्तिको यत्र स्वस्तिको चरणावपि । वक्षःस्वस्तिकमुक्तं तदनाभुग्नांसकं तदा । 1161 जब चतुरस्र मुद्रा में दोनों हाथों को वक्षस्थल पर करके रेचितावस्था में आर-पार घुमाकर और उन्हें आभुग्न (झुकाकर) वक्ष पर रख दिया जाय ; तदनन्तर दोनों हाथों और दोनों पैरों को स्वस्तिकाकार बना दिया जाय; तो इस क्रिया को वक्षःस्वस्तिक करण कहते हैं । इसमें कन्धा झुका हुआ नहीं होना चाहिए। लज्जानुतापयोरस्य प्रयोगः परिकीर्तितः ॥११४३॥ लज्जा और पश्चात्ताप के अभिनय में वक्षःस्वस्तिक करण का विनियोग करना चाहिए । ३. वतित और उसका विनियोग वक्षस्यभिमुखौ हस्तावालग्नमणिबन्धको । 1162 स्वस्तिको युगपद्यत्र व्यावृत्तपरिवत्तितौ ॥११४४॥ कृत्वोत्तानाबूरुयुगे पातयेद्वर्तितं त्वदः । 1163 यदि दोनों हाथों को सम्मुखावस्था में रखकर कलाइयों को किञ्चित् वक्ष पर सटा दिया जाय; और तदनन्तर स्वस्तिकाकार मुद्रा में दोनों को एक साथ आवृत-परिवत कर घुमा दिया जाय; तदनन्तर दोनों हाथों की हथेलियों को उत्तान करके दोनों जाँघों पर गिरा दिया जाय; तो उसे वर्तित करण कहते हैं। पातयेच्चेत्पताको द्वावसूयायां मतं तदा ॥११४४॥ अधोमुखौ निघृष्टौ तौ क्रोधाभिनयने मतौ । 1164 अभिनेयवशादेवं शुकतुण्डादयः कराः ॥११४६॥ दोनों हाथों की पताक मुद्रा में इस वर्तित करण का विनियोग असूया के अभिनय में करना चाहिए । यदि उन्हें अंधोमख करके गिरा दिया जाय तो मतान्तर से उनका विनियोग क्रोध के अभिनय में किया जाता है। कुछ आचार्यों के मत से अभिनय वस्तु के अनुसार वर्तित करण में शुकतुण्ड आदि हस्तों का प्रयोग किया जाता है । केचिदत्रावदन् पादं तलपुष्पपुटोदितम् । 1165 परे करानुगं प्राहुः पादं करणपण्डिताः ॥११४७॥ कुछ आचार्यों का मत है कि उक्त विनियोगों में तलपुष्पपुट करण की पादमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए; किन्तु दूसरे करण-विशेषज्ञ नाट्याचार्यों का कहना है कि हस्तमुद्रा के अनुरूप पादमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. मण्डलस्वस्तिक और उसका विनियोग साधं [T] विच्यवां कृत्वा चतुरस्रौ करौ ततः । 1168 उद्वेष्टितक्रियापूर्वमूर्ध्वमण्डलिहस्तकौ ॥११४८॥ प्रयुज्य स्वस्तिकौ यत्र कुर्यात् स्थाने तु मण्डलम् । 1167 मण्डलस्वस्तिकमिदम्यदि विच्यवा नामक चारी तथा चतुरस्र दोनों हस्तों की रचना करके चारों ओर घेरने की प्रक्रिया के साथ ऊर्ध्वमण्डल स्थिति में हाथों को प्रयुक्त किया जाय; और तदनन्तर दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में और मण्डल नामक स्थान की रचना की जाय; तो उसे मण्डलस्वस्तिक करण कहते हैं। ' -प्रसिद्धार्थनिरीक्षणे ॥११४६॥ किसी प्रसिद्ध वस्तु के निरीक्षण के अभिनय में मण्डलस्वस्तिक करण का विनियोग होता है। ५. लीन और उसका विनियोग ऊर्ध्वमण्डलिनौ पाणी विधायोरस्स्थितोऽञ्जलिः । 1168 यदा निकुश्चितं स्कन्धयुगं ग्रीवा नता भवेत् । तदा लोनम्यदि ऊर्ध्वमण्डलिन नामक दोनों हाथों की रचना करके हथेलियों से अंजलि बनाकर, दोनों कन्धों को निकचित और नता ग्रीवा का निर्माण किया जाय; तो वह लीन करण होता है। -वल्लभायाः प्रार्थनायां नियुज्यते ॥११५०॥ 1169 प्रेयसी से अनुनय-विनय करने के अभिनय में लीन करण का विनियोग होता है। ६. उन्मत्त और उसका विनियोग यत्र विद्धाभिधा चारी चरणस्त्वञ्चिताभिधः । क्रमेण रेचितो हस्तस्तदुन्मत्तमुदीरितम् । 1170 जहाँ विद्धा नामक चारी, अंचित नामक चरण और रेचित नामक हस्त की क्रमश: रचना की जाय, वहाँ उन्मत्त करण होता है । सौभाग्यादिसमुद्भते गर्वे स्त्रीणामिदं मतम् ॥११५१॥ स्त्रियों के सौभाग्य आदि से उत्पन्न गर्व के अभिनय में उन्मत्त करण का विनियोग किया जाता है। २९६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1171 ७. वलितोर और उसका विनियोग कृत्वोरसि समं पाणी व्यावृत्तपरिवर्तितौ । सहाक्षिप्ताख्यया चार्या यत्रोरौ परिवृत्तितः ॥११५२॥ पानीय शुकतुण्डाख्यौ क्रियेतेऽधोमुखौ करौ। 1172 बद्धया स्थितिरेवं चेत् स्यात्तदा वलितोरु तत् । यदि वक्षस्थल पर दोनों हाथों को एक साथ व्यावृत्त तथा परिवृत्त बनाया जाय और आक्षिप्ता नामक चारी के साथ परिवर्तन द्वारा ऊरु पर लाकर शुकतुण्ड मुद्रा में दोनों हाथों को अबोमुख करके रखा जाय; तदनन्तर बद्धा नामक चारी द्वारा स्थिति की जाय, तो उसे वलितोह करण कहते हैं । एतन्नियुज्यते धीरैर्लज्जायां मुग्धयोषिताम् ॥११५३॥ 1173 मुग्धा नामक नायिका की लज्य के अभिनय में घोर पुरुष वलितोष करण का विनियोग कहते हैं । ८. स्वस्तिक और उसका विनियोग उद्वेष्टय निर्गतौ यत्र करौ व्यावर्तितौ समम् । उत्प्लुत्य पाणिचरणरचितः स्वस्तिको भवेत् । 1174 यदि दोनों हाथों को चारों ओर से घुमा कर एक साथ ही व्यावर्तितावस्था में किया जाय और उछलकर हाथों की भाँति पैरों की भी स्वस्तिक मुद्रा में रचना की जाय, तो उसे स्वस्तिक करण कहते हैं । तत्स्वस्तिकं सराभस्य निषेधान्वेषणादिषु ॥११५४॥ सब प्रकार की दुर्भावनाओं को दूर करने तथा अन्वेषण आदि के अभिनय में स्वस्तिक करण का विनियोग होता है। ९. अर्षस्वस्तिक और उसका विनियोग चरणः स्वस्तिकः सव्यः करः करिकराभिधः । 1175 खटको हृदि वामश्चेत्तदाधस्वस्तिकं मतम् ॥११५५॥ ... यदि एक पैर को स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित किया जाय और दाहिना हाथ करिहस्त मुद्रा में तथा बायां हाथ खटक हस्त मुद्रा में हृदय पर रखा जाय, तो उसे अर्षस्वस्तिक करण कहते हैं। ... .. २९७ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः कर करिकर केचिदत्र प्रोचुः कटिस्थितम् । 1176 अर्धचन्द्रकरं सव्यं कुर्याद्वा पक्षवञ्चितम् । पक्षप्रद्योतमथवा कटिदेशगतं विह ॥११५६॥ 1177 कुछ नाट्याचार्यों का अभिमत है कि करिहस्त मद्रा को कटि पर रखना चाहिए। दाहिने हाथ को अर्धचन्द्र मुद्रा में अथवा पक्षवञ्चित मुद्रा में अथवा पक्षप्रद्योत मुद्रा में बनाकर कटि पर अवस्थित करना चाहिए। (अर्धस्वस्तिक इसे इसलिए कहा गया है कि इसमें केवल पैर को ही स्वस्तिक मुद्रा में रखा जाता है)। . १०. विक्स्वस्तिक और उसका विनियोग क्रियते स्वस्तिको यत्र पाणिपादविनिर्मितः । ललिताङ्गश्चतुर्दिक्ष तद् दिक्स्वस्तिकमुच्यते । 1178 यदि हाथ-पैर दोनों को स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित किया जाय और चारों दिशाओं में ललित नामक अंग का निर्माण किया जाय, तो उसे दिक्स्वस्तिक करण कहते हैं । नियुज्यते बुधरेतद् गीतस्य परिवर्तने ॥११५७॥ विद्वानों के मत से गाने के समय शरीर की गति दिखाने में दिक्स्वस्तिक करण का विनियोग होता है। ११. पृष्ठस्वस्तिक और उसका विनियोग चारों कुर्वन्नपक्रान्तां विक्षिप्योद्वेष्टितौ भुजौ । 1179 ततोऽपवेष्टय चाक्षिप्याऽन्याघ्रि सूची विधाय च ॥११५८॥ पादाभ्यां यत्र पाणिभ्यां पृष्ठे स्वस्तिकमाचरेत् । 1180 तत् पृष्ठस्वस्तिकं ज्ञेयम्यदि दोनों उद्वेष्टित भुजाओं को अपक्रान्ता चारी में व्यवस्थित करने के अनन्तर उन्हें अलग-अलग करके पीछे की ओर घुमा दिया जाय; पैर को सूची नामक मुद्रा में अवस्थित किया जाय; तत्पश्चात् दोनों पैरों और दोनों हाथों से पृष्ठ भाग में (पीठ पीछे) स्वस्तिक मुद्रा बनायी जाय, तो उसे पृष्ठस्वस्तिक करण (पीठ पर स्वस्तिक बनाना) कहते हैं । -सराभस्ये निषेधने । अन्यान्वेषणसम्भाषे युद्धस्य च परिक्रमे ॥११५६॥ 1181 २९८ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण सब प्रकार की दुर्भावनाओं को दूर करने, निषेध करने, दूसरे को ढूंढ़ने, संभाषण करने और युद्धस्थल के चारों ओर घूमने के अभिनय में पृष्ठस्वस्तिक करण का विनियोग होता है । ( इस अभिनय में नर्तकी सभास्थल की ओर पीठ भी कर सकती है ) । १२. आक्षिप्त रेचित और उसका विनियोग हृदि स्थितौ करावूर्ध्वं व्यावृत्त्या प्राप्य चेत्ततः । विक्षिप्य पार्श्वयोस्तत्र करमेकमधोमुखम् ॥ ११६०॥ 1182 व्रतभ्रमं हंसपक्षं वक्षस्याक्षिप्य चेत्परम् । करमेवंविधं यत्र रेचयेत्तदनन्तरम् ॥११६१ ॥ 1183 स्यातां सूच्यञ्चितावङ्घ्री तत् तदाक्षिप्तरेचितम् । हृदय पर अवस्थित दोनों हाथों को ऊपर घुमाकर यदि पावों में डाल दिया जाय; तदनन्तर एक हाथ को अधोमुख करके दूसरे हंसपक्ष हस्त को तेजी से घुमाते हुए वक्ष पर फेंक दिया जाय दूसरे हाथ को भी इसी मुद्रा में अवस्थित किया जाय; तदनन्तर दोनों पैरों को सूची और अंचित मुद्राओं में बना दिया जाय; तो उस मुद्रा को आक्षिप्त रेचित करण कहते हैं । दर्शयेदमुना त्यागपरिग्रहपरम्पराम् ॥११६२॥ 1184 त्याग और परिग्रह का भाव प्रकट करने अथवा परम्परानुसार आक्षिप्त रेचित करण का विनियोग होता है । १३. अलात और उसका विनियोग चारी नितम्बश्चतुरस्रकः । यत्राseाताभिधा पाणिः स्याद्दक्षिणे भागेऽथोर्ध्वजानुस्तु वामतः ॥११६३॥ 1185 यदैवमन्यदङ्गं स्यात् तत् तदालातमीरितम् । यदि (पैरों में) अलाता चारी, नितम्ब चतुरस्र स्थिति में, एक हाथ दक्षिण भाग में, बायां घुटना उठा हुआ और अन्य अंग भी यथास्थान हो, तो वहाँ अलात करण होता है । नृत्ये सललिते वीरसिंहजेन महीभुजा ॥११६४॥ 1186 ललित-भाव-सूचक नृत्य में अलात करण का विनियोग होता है, ऐसा अशोकमल्ल ( वीरसिंह सुत) का अभिमत है २९९ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः १४. भुजंगवासित भुजङ्गात्रासितां चारों विधायाघ्रि तु कुञ्चितम् । उत्क्षिप्योरुकटोजानु यदि व्यत्रं विवर्तयेत् ॥११६५॥ 1187 व्यावृत्त्या परिवृत्त्या च यत्रको दोलसंज्ञकः । करोऽन्यः खटकास्यस्तद्भुजङ्गत्रासितं तदा ॥११६६॥ 1188 यदि भजंगत्रासिता चारी में अवस्थित पैर को कुंचित करके तथा कटि और जान को उछाल कर त्रिकोण में घुमाया जाय; और एक हाथ को दोल मुद्रा तथा दूसरे को खटकामुख मुद्रा में अवस्थित करके व्यावृत्त-परिवृत्त (आर-पार) किया जाय, तो उसे भुजंगत्रासित करण (सर्प से भयभीत) कहते हैं । १५. कटीसम और उसका विनियोग कृत्वाक्षिप्तामपक्रान्तां चारी चाथ करावुभौ । स्वस्तिकीकृत्य नाभौ तु दक्षिणं खटकामुखम् ॥११६७॥ 1189 अर्धचन्द्रं परं कटयां कुर्यात् पार्वं तु सन्नतम् । एकमुद्वाहितं त्वन्यदेवमङ्गान्तररपि ॥११६८॥ 1190 प्रावृत्तिर्वैष्णवं स्थानं यत्र तत्स्यात्कटीसमम् । पहले अपक्रान्ता नामक चारी की रचना करके दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाया जाय ; तदनन्तर दाहिने हाथ को खटकामुख मुद्रा में नाभि पर और बायें हाथ को अर्धचन्द्र मुद्रा में कटि पर अवस्थित किया जाय; एक पार्श्व को संनत और दूसरे को उवाहित में रखा जाय; अन्य अंगों को भी यथास्थान व्यवस्थित किया जाय; फिर वैष्णव स्थानक की रचना की जाय । इस नत्य-मुद्रा को कटीसम करण (समान कटी) कहा जाता है। सूत्रधारेण तद्योज्यं जर्जरस्याभिमन्त्रणे ॥११६६॥ 1191 सूत्रधार द्वारा जर्जर का आवाहन करने के अभिनय में कटीसम करण का विनियोग होता है । १६. कटीच्छिन्न और उसका विनियोग पार्श्वतो भ्रमरी कृत्वा मण्डलस्थानमाश्रितः । विधायकां कटौं छिन्नां पल्लवं भुजमूर्धनि ॥११७०॥ 1192 एवमङ्गान्तरेणापि द्विस्त्रिावृत्तयः कृताः । यत्र तत्तु कटीछिन्नं करणं कोतितं बुधैः ॥११७१॥ 1193 ३०० Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुत्तकरण प्रकरण पहले पार्श्व में भ्रमरी नामक चारी बना दी जाय और तदनन्तर मण्डल नामक स्थानक की रचना की जाय; फिर छिन्ना नामक कटि तथा भुजा के शीर्ष भाग में पल्लव नामक हस्त की रचना की जाय; इसी प्रकार अन्य अंगों की भी रचना करके फिर दो-तीन बार आवृत्तियाँ की जायें। इस अभिनय-मुद्रा को विद्वानों ने कटीच्छिन्न करण (टूटी कटि) कहा है। १७. धूणित यत्रोर्ध्वदेशगो हस्तो व्यावृत्त्या दक्षिणस्ततः । परिवृत्त्या त्वधः पार्श्वदेशाभ्रान्ति समाचरेत् ॥११७२॥ 1194 तद्दिकोऽध्रिः समाश्रित्य जङ्घास्वस्तिकतामनु । कुर्याच्चारीमपक्रान्तां दोलाख्यमपरं करम् । 1195 तद् घूणितं केचिदाहुरुत्प्लुत्य स्वस्तिकं त्विह ॥११७३॥ यदि आरम्भ में दाहिने हाथ को ऊपर उठाकर घुमा दिया जाय और बाद में परिवर्तित कर नीचे पाश्र्व भाग में कम्पित कर दिया जाय; फिर उस दिशा में अवस्थित पैर और जंघा में स्वस्तिक मुद्रा की रचना की जाय; तत्पश्चात अपक्रान्ता नामक चारी का आश्रय ग्रहण किया जाय और दूसरे बायें हाथ में दोला मुद्रा धारण की जाय । अभिनय की इस स्थिति को पूणित करण कहते हैं । कुछ आचार्यों का मत है कि इस अभिनय में उछलकर बायें हाथ से स्वस्तिक मुद्रा बनानी चाहिए । १८. निकुञ्चित और उसका विनियोग विधाय वृश्चिकं पादं यत्र तद्दिग्गतं करम् । 1196 शिरस्यरालमारच्य नासादेशार्जवेन चेत् ॥११७४॥ उरस्यरालमपरं तत् तदा स्यानिश्चितम् । 1197 एक पैर से वृश्चिक स्थानक की रचना करके उसी दिशा में हाथ को भी ले जाया जाय; फिर शिर पर (दायें) अराल हस्त को बना कर नासिका की सीध पर रखा जाय; तदनन्तर छाती पर दूसरे (बायें) अराल हस्त की रचना की जाय । इस अभिनय-स्थिति को निकुञ्चित करण कहते हैं। तदौत्सुक्ये वितर्के च गगनोत्पतनादिषु । उत्सुकता, वितर्क और आकाश से गिर जाने आदि के अभिनय में निश्चित करण का विनियोग होता है । केचित्पताकसूच्यास्यावत्र नासाग्रगौ जगुः ॥११७५॥ 1198 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः कुछ विद्वानों का मत है कि निकुञ्चित करण-मुद्रा में पताक तथा सच्यास्य हस्तों को नासिका के अग्रभाग में अवस्थित करना चाहिए । १९. निकुटक कृत्वादौ मण्डलस्थानं चतुरस्रतया करम् । सव्यमुद्वेष्टितेनांसशीर्षमानीय यत्र तत् ॥११७६॥ 1199 पतनोत्पतनोपेतकनिष्ठाद्यगुलीद्वयम् । विदध्यादलपद्म तमङ्घ्रिमुद्घट्टयेत्करम् ॥११७७॥ 1200 सव्यमाविद्धवक्रत्वं नीत्वाथ चतुरस्रकम् । कुर्यादेवं वामपाणिपादं तत् स्यान्निकुट्टकम् । 1201 आरम्भ में मण्डल नामक स्थानक की रचना करके बांये हाथ को चतुरस्र मुद्रा में अवस्थित किया जाय; फिर उसे चारों ओर से घुमावदार बना कर कन्धे के ऊपर लाकर कनिष्ठा तथा अनामिका उँगलियों को क्रमशः गिरने तथा उठने की स्थिति में किया जाय; तत्पश्चात् अलपद्म हस्त की रचना करके एक पैर को अलग किया जाय; फिर दायें हाथ को अविद्धवक्र बनाकर चतुरस्र स्थिति में लाया जाय; यही प्रक्रिया पैर से भी की जाय । अभिनय की इस स्थिति को निकट्टक करण कहते हैं । २०. अर्धनिकुट्टक अनैकेन रचितमिदमनिकट्टकम् ॥११७८॥ यदि निकुट्टक करण की एक ही अंग से रचना की जाय, तो वह अनिकुट्टक करण कहलाता है । २१. विक्षिप्ताक्षिप्तक और उसका विनियोग सव्यावृत्तौ करे सोऽङ्घ्रिबहिविक्षिप्यते यदि । 1202 चतुरस्रस्तदान्योऽथ प्राक्तनः परिवृत्तियुक् ॥११७६॥ पाणिपादः स प्राक्षिप्तो यत्राङ्गमपरं क्रमात् । 1203 एवमेवं भवेदेतद्विक्षिप्ताक्षिप्तकं तदा ॥११८०॥ यदि दायें हाथ को बायीं ओर घुमा दिया जाय और पैर को बाहर की ओर प्रसारित किया जाय; इसी तरह दूसरे चतुरस्र हस्त को भी घमाया जाय; फिर हाथ, पैर और तदनन्तर क्रमशः एक-एक अंग का संचालन किया जाय; तो उस अभिनय-स्थिति को विक्षिप्ताक्षिप्तक करण कहते हैं । ३०२ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण गतागते वदन्त्यस्य नियोगं केऽपि सूरयः । . 1204 स नेष्टो नाट्यविदुषां यतोऽभिनयपाणिभिः ॥११८१॥ नाट्याचार्यों की एक परम्परा जाने-आने के अभिनय में इस करण का विनियोग बताती है; किन्तु दूसरी परम्परा के नाट्याचार्यों को यह अभिमत मान्य नहीं है। उनका कथन है कि इस करण में हस्ताभिनय की प्रमुखता है, और गमनागमन में तो पादों का प्रयोग होता है, जो उचित नहीं है। वाक्यार्थाभिनयः . कार्यः प्राधान्येनाभिनेतृभिः । 1205 इदं तु सद्धिराख्यातं नृत्यमात्रपरं ततः ॥११८२॥ सज्जनों के निर्देश से इस करण में अभिनेताओं को मुख्य रूप से गीत और भाव (वाक्यार्थ) का अभिनय करना चाहिए; क्योंकि अभिनय ही उसका एकमात्र प्रयोजन है। प्रयोज्यमेतन्नाव्यानं विच्छेदे सन्धिगुप्तये। 1206 यदि ताललयादीनां गतीनां च परिक्रमे ॥११८३॥ तथा तालानुसन्धाने तथा युद्धनियुद्धयोः । 1207 चारीस्थानकसंयोगेऽप्येतत्करणमीरितम् ॥११८४॥ अलग होने, सन्धि के गोपन, ताल-लय आदि की गतियाँ, परिक्रमा, ताल के अनुसन्धान, युद्ध, कुस्ती और चारीस्थानक-संयुक्त अभिनय में इस नाट्यांगभूत करण का प्रयोग करना चाहिए । २२. अपविद्ध और उसका विनियोग चतुरस्त्रं समाश्रित्य सव्यं व्यावर्त्य हस्तकम् । 1208 निस्सार्याक्षिप्तया चार्या कृत्वा तद्दिग्भवं करम् । यदि बायें हाथ को चतुरस्र मुद्रा में अवस्थित करके (दाहिनी ओर) घुमाकर और उसी दिशा के दूसरे दायें हाथ को आक्षिप्ता चारी धारण कर उसे बाहर की ओर नि:सारित कर दिया जाय, तो उसे अपविद्ध करण कहते हैं । - [शुकतुण्डं करं तस्यवोरौ तु परिपातयेत् । 1209 . यंत्रापविद्धं तद्वामे वक्षःस्थे खटकामुखे ।] अथवा-यदि बायें हाथ को शुकतुण्ड मुद्रा में बनाकर उसे बायें ही ऊरु पर गिरा दिया जाय और दूसरे दायें हाथ को खटकामुख मुद्रा में अवस्थित कर वायें वक्ष पर रख दिया जाय, तो उसे अपविद्ध करग कहते हैं। १. देखिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ६०२, ३ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्वाध्याया असूयायां तथा कोपे विनियोगोऽस्य दशितः ॥११८५॥ 1210 असूया तथा क्रोध के अभिनय में अपविद्ध करण का विनियोग होता है। २३. समनख और उसका विनियोग यत्र गात्रं स्वभावस्थमजी समनखौ युतौ । लताकरो समनखम्जहाँ शरीर स्वाभाविक स्थिति में वर्तमान हो; दोनों पैर समान नखयुक्त हों; और दोनों हाथ लताहस्त मुद्रा में हों; वहाँ समनख करण होता है। -एतदाद्यप्रवेशने ॥११८६॥ 1211 आद्य वस्तु के प्रवेश करने के अभिनय में समनख करण का विनियोग होता है। २४. स्वस्तिकरेचित और उसका विनियोग चतुरस्रः स्थितो यत्र विधाय त्वरितभ्रमौ । हंपक्षाभिधौ हस्तौ व्यावृत्त्योर्ध्वं शिरःस्थलात् ॥११८७॥ 1212 सम्प्राप्य परिवृत्त्याधः प्राप्तावाविद्धवक्रको । स्वस्तिको हृदयक्षेत्रे क्रियेते तदनन्तरम् ॥११८८॥ 1213 विप्रकोो ततः कट्यां पक्षवश्चितको ततः । पक्षप्रद्योतको हस्तौ चारी तदनुगा ततः ॥११८६॥ 1214 अवहित्थाभिधं स्थानमेतत्स्वस्तिकरेचितम् । पहले चतुरस्त्र मुद्रा में एक हाथ को अवस्थित किया जाय: फिर हंसपक्ष दोनों हाथों को शीघ्रता से घमा दिया जाय; तदनन्तर उन्हें ऊपर मस्तक प्रदेश से घुमाते हुए नीचे लाकर आविद्धवक्र हाथों में परिवर्तित कर दिया जाय; तत्पश्चात दोनों हाथों में स्वस्तिक मुद्रा धारण कर उन्हें हृदय पर रख दिया जाय; पुनः उन्हें वित्रकोण मुद्रा में रच कर कटि में रख दिया जाय; फिर उन्हें क्रमश: पक्षवंचितक और पक्षप्रद्योतक मुद्राओं में अवस्थित किया जाय%; और तदनन्तर चारी और तदनुरूप अवहित्थ स्थानक की रचना की जाय । इस अभिनय-भेद को स्वस्तिकरेचित करण कहते हैं। निरूपितमिदं धीरः हर्षस्थादिनिरूपणे ॥११६०॥ 1215 ३०४ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण आनन्दित व्यक्ति आदि के भावाभिव्यंजन में, पीर पुरुषों के मत से, स्वस्तिक रेचित करण का विनियोग करना चाहिए। २५. मत्तल्लि और उसका विनियोग स्वस्तिकं गुल्फयोर्बवा यत्राद्ध्योरपसर्पणम् । सममुद्वेष्टितौ पाणी तथा तावपवेष्टितौ । 1216 विदध्यादसकृत् तत् स्यान्मत्तल्लियदि दोनों टखनों को स्वस्तिकाकार में बाँधकर पैरों से लुढ़कते हुए चला जाय और साथ ही दोनों हाथों को मोड़कर फिर खोल दिया जाय; इस प्रकार बार-बार करते रहने से जो अभिनय-मुद्रा बनती है, उसे मत्तल्लि करण कहते हैं। -मदसूचकम् ॥११६१॥ मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २६. अर्धमत्तल्लि और उसका विनियोग स्खलितापसृतावघी चेद्वामो रेचितः करः । 1217 परः कटौ तदा चार्धमत्तल्लियदि दोनों पैर फिसलते तथा लुढ़कते हों और बायाँ हाथ रेचित मुद्रा में तथा दाहिना हाथ कटि पर अवस्थित हो, तो उसे अर्धमत्तल्लि करण कहते हैं । -तरुणे मदे ॥११९२॥ अत्यन्त मदमत्तता के अभिनय में अर्धमत्तल्लि करण का विनियोग होता है । २७. वलित अपसर्पति सूच्याख्ये देहदेशात्करे यदा । 1218 अपेतश्चरणः सूची चारी तु भ्रमरी क्रमात् ।। एवमङ्गान्तरेणापि यत्र तद्वलितं तदा ॥११९३॥ 1219 जब शरीर से सूचास्य हस्त अपसर्पित हो और पैर से क्रमशः सूची, चारी तथा भ्रमरी मुद्रा धारण कर गमन किया जाय; और दूसरे अंगों से भी इसी प्रकार की क्रिया की जाय, तब उसे वलित करण कहते हैं । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः २८. अर्षरेचित मण्डलस्थानमाश्रित्य खटकास्यं यदा हृदि । कृत्वा कुर्यात्करं सूची [मुखं चैव] तदन्तिके ॥११६४॥ 1220 तद्दिक्कं पादमुद्घाट्य सन्नतं पार्श्वमाचरेत् । तदापसरणे प्रोक्तं नृत्त रर्धरेचितम् ॥११६५॥ 1221 जब मण्डल स्थानक में अवस्थित होकर खटकामख हस्त को हृदय पर रख दिया जाय; फिर उसे सूचीमुख हस्त बना दिया जाय। जिस दिशा में हाथ हो उसी दिशा में एक पैर को बढ़ाया जायः पार्श्व को सन्नत मुद्रा में अवस्थित किया जाय; उसके बाद पीछे हटा जाय; तब उस क्रिया को अपरेचित करण कहते हैं। २९. ऊर्ध्वजानु ऊर्ध्वजानौ यदा चार्या कुश्चितेऽज्रावसो करः । प्रलपद्मोऽथवारालः पक्षवञ्चितकोऽथवा ॥११९६॥ 1222 ऊर्ध्वास्यः कुचसाम्यस्थजानुनः खटकोऽपरः । वक्षःस्थः स्यात्तदा धोररूर्वजानु प्रकीतितम् ॥११६७॥ 1223 जब ऊर्ध्वजान नामक चारी तथा कुञ्चित नामक पैरों की स्थिति में अलपन या अराल अथवा पक्षवंचितक नामक हाथ ऊर्ध्वमुख रहे और दूसरा खटकामुख हाथ कुच की समानता में अवस्थित, घुटने पर से होते हुए वक्ष पर रख दिया जाय, तो धीर पुरुषों ने उसे ऊर्ध्व जानु करण कहा है। ३०. कटिमान्त और उसका विनियोग अपसर्प द्रुतं वामं चरणं यत्र तस्य तु । पावें न्यस्येत्परं सूची ततश्चेभ्रामयेत्कटिम् ॥११९८॥ 1224 कुर्याद्वा भ्रमरों पाणी व्यावृत्तपरिवर्तितौ । वैष्णवस्थानमन्ते तत् कटिभ्रान्तं तदा मतम् ॥११६६॥ 1225 पीछे हटने की शीघ्रता की स्थिति में बायें चरण को पार्श्व भाग में रख दिया जाय; फिर दूसरे दायें पैर को सूची मुद्रा में कर दिया जाय और तत्पश्चात कटि को घुमाया जाय; अथवा भ्रमरी चारी की रचना कर दोनों हाथों को व्यावृत्त-परिवत किया जाय; अन्त में वैष्णव नामक स्थानक का निर्माण किया जाय; इस क्रिया को कटिमान्त करण कहते हैं । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण तालानामन्तरालेषु गतीनां च परिक्रमे । यतीनां परिपूर्ती च सन्नियुज्यते ॥ १२००॥ 1226 सज्जनों के मतानुसार तालों के मध्य भाग, गतियों के घुमाव और यतियों (संन्यासियों) की पूर्ति के अभिनय में कटिप्रान्त करण का विनियोग होता है । ३१. छिन्न और उसका विनियोग क्रमात् करौ कटीपार्श्वदेशे चेदलपल्लवौ । छिन्ना कटी च वैशाखस्थानं छिन्नं तदोदितम् । 1227 यदि अलपल्लव मुद्रा में दोनों हाथों को क्रमशः कटिपार्श्व में रख दिया जाय; कटि छिन्ना मुद्रा में हो; और अन्त में वैशाख स्थानक की रचना की जाय; तो उसे छिन्न करण कहते हैं । तदङ्गप्रतिसारे स्यात् तथा तालप्रभञ्जने ॥ १२०१ ॥ अंगों को फैलाने और ताल ठोकने के अभिनय में छिन्न करण का विनियोग होता है । ३२. पावापविद्धक खटकास्य यदा पाणी नाभिक्षेत्रे पराङ्मुखौ । सूच्याङ्घ्रिः परपादेन युक्तोऽपक्रान्तया युतः । प्रपरश्चरणोऽथैव तदा पादापविद्धकम् ॥ १२०२ ॥ 1228 1229 जब खटकास्य नामक दोनों हाथ नभिदेश में पराङ्मुख होकर रहें; सूची नामक पैर दूसरे पैर से जुड़ा हो; और दूसरा पैर अपक्रान्ता नामक चारी में हो; तब वह पादापविद्धक करण होता है । ३३. भ्रमर और उसका विनियोग कुर्वन्नाक्षिप्तचार्या पाणिमुद्वेष्टय चेत्ततः । वलितं तु त्रिकं कुर्यात् स्वस्तिकं पादसम्भवम् ॥ १२०३ ॥ 1230 यत्रापराङ्गमेवं स्यादुल्बणावेकदा करौ । तत् तदा भ्रमरं ज्ञेयम् जब पहले हाथ-पैर में आक्षिप्ता नामक चारी को धारण करके त्रिक का वलय किया जाय ( कटि भाग को झुका दिया जाय ); फिर पैरों की स्वस्तिक मुद्रा बना ली जाय; इसी प्रकार अन्य अंगों की भी रचना की जाय; अन्त में एक बार उल्वण हाथों की रचना की जाय; तब उसे भ्रमर करण कहते हैं । ३०७ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः -उद्धृतस्य परिक्रमे ॥१२०४॥ 123] वेग से चक्कर काटने के अभिनय में भ्रमर करण का विनियोग होता है। ३४. दण्डपक्ष चारी यत्रो+जानुः स्यात् करौ स्यातां लताकरौ । तत्रैकं निक्षिपेदूर्ध्वजानूपरि यदा पुनः । 1232 एवमङ्गान्तरेणापि दण्डपक्षमिदं तदा ॥१२०५॥ जहां ऊर्ध्वजानु चारी तथा दोनों लताहस्त हों और फिर एक हाथ को ऊर्ध्वजानु के ऊपर रख दिया जाय; इसी प्रकार अन्य अंगों को भी संचालित किया जाय; वहाँ दण्डपक्ष करण होता है। ३५. नूपुर विरच्य भ्रमरों चारीमथ नपुरपादिकाम् । . 1233 अघ्रिणकेन तत्पाणि विदध्याद्रेचितं यदि । परं लताकरं हस्तं तदोक्तं नूपुरं बुधैः ॥१२०६॥ 1234 यदि एक पैर से भ्रमरी नामक चारी की रचना करने के पश्चात् नूपुरपादिका नामक चारी को बनाया जाय; फिर एक हाथ को रेचित और दूसरे को लता मुद्रा में अवस्थित किया जाय, तो बुधजनों के मतानुसार उसे नपुर करण कहते हैं। ३६. ललित और उसका विनियोग सव्यः करः केशबन्धनितम्बादिकवर्तनाः । यत्राऽथ हस्तको वामो भवेत् करिकरस्ततः ॥१२०७॥ 1235 उद्घट्टितोऽघ्रिरन्याङ्गमप्येवं ललितं तु तत् । जहाँ दायाँ हाथ केशबन्ध तथा नितम्ब आदि वर्तना में हो और बायाँ हाथ कटिहस्त मुद्रा में हो; एक पैर उद्घट्टित और अन्य अंग भी इसी प्रकार संचालित होते हों; वहाँ ललित करण होता है । विलासिनि सुधीधुर्याशोकमल्लेन कीर्तितम् ॥१२०८॥ 1236 नाटपाचार्य अशोकमल्ल के मत से विलासी के अभिनय में ललित करण का विनियोग होता है। ३०८ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्तकरण प्रकरण ३७. व्यंसित और उसका विनियोग पाणिमुद्वेष्टय यत्रकोऽधोगतो विप्रकीर्णितः । परावृत्त्य परस्ताहगूवं हृदयगस्ततः ॥१२०६॥ 1237 उत्तानितो रेचितः स्यादेकोऽन्योऽधोमुखस्तथा । स्थानमालीढसंज्ञं चेत् तत्तदा व्यंसितं मतम् । 1238 जहाँ एक हाथ को उद्वेष्टित करके दूसरे विप्रकीर्ण हस्त को उसके नीचे लाया जाय; फिर घुमाकर उसे ऊपर हृदय पर अवस्थित किया जाय; तत्पश्चात् एक रेचित हाथ को उत्तान और दूसरे को अधोमुख किया जाय; फिर आलीढ़ स्थानक धारण किया जाय; वहाँ व्यंसित करण होता है। नियोज्यं वायुसून्वादिबृहत्कपिपरिक्रमे ॥१२१०॥ हनुमान तथा बालि, सुग्रीव (बृहत्कपि) आदि के अभिनय में व्यंसित करण का विनियोग होता है । ३८. चतुर और उसका विनियोग यत्रालपल्लवो वामो हृदयक्षेत्रसंस्थयोः । 1239 करयोश्चतुरोऽन्योऽथ पादस्तूद्घट्टितो यदि ॥१२११॥ -चतुरमीरितम् । जहां दोनों हाथ हृदय में अवस्थित हों; बायाँ अलपल्लव और दायाँ चतुर मुद्रा में हो; और एक पैर उद्घट्टित हो; वहाँ चतुर करण होता है। तदा विस्मयसूचायामिदम् 1240 वैदूषिक्यां नृपागण्याशोकमल्लेन धीमता ॥१२१२॥ विद्वान् राजा अशोकमल्ल के मत से विस्मय, असूया तथा विद्वता के अभिनय में चतुर हस्त का विनियोग होता है। ३९. कान्त यत्रातिक्रान्तचार्याज्रि पात्यमानं निकुञ्च्य चेत् । 1241 पृष्ठतः स्थापयित्वा तु पुरोदेशे प्रसारयेत् ॥१२१३॥ व्यावर्त्य तत्करं न्यस्योरस्यतः परिवृत्तितः । 1242 ३०९ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः freeम्य तद्वदाक्षिप्य हृदि तं खटकामुखम् । कुर्यादेव पराङ्गं च तत् तदाक्रान्तमीरितम् ॥१२१४॥ 1243 जहाँ अतिक्रान्ता चारी के द्वारा एक पैर को पतित करते हुए सिकोड़ कर पीठ की ओर स्थापित करके आगे की ओर प्रसारित किया जाय; फिर उसे घुमाकर वक्ष की ओर ले जाया जाय; और तत्पश्चात् वहाँ से हटाकर उसे खटकामुख मुद्रा में हृदय पर अवस्थित किया जाय; इसी प्रकार दूसरे पैर को भी किया जाय; वहाँ कान्त करण होता है । ४०. भुजंगत्रस्तरेचित भुजङ्गत्रासिता यत्र चारी स्याद् रेचितौ करौ । वामपार्श्वे तदाख्यातं भुजङ्गत्रस्त रेचितम् ॥१२१५ || 1244 जहाँ पैरों में भुजंगत्रासिता चारी हो और दोनों रेचित हाथ वाम पार्श्व में अवस्थित हों, वहाँ भुजंगत्रस्त रेचित करण होता है । ४१. भुजंगाञ्चित सव्याङ्घ्रिणा यदा चारी भुजङ्गत्रासिताभिधा । रेचितः स्यात् करः सव्यो वामपाणिर्लताकरः । यत्र धीरस्तदाख्यातं भुजङ्गाश्चितकं त्वदः ॥१२१६॥ ३१० जहाँ दाहिने पैर से भुजंगत्रासिता चारी बनायी जाय; दाहिना हाथ रेचित मुद्रा और बायाँ हाथ लताहस्त मुद्रा में हो; धीर पुरुषों के मत से, वहाँ भुजंगाञ्चित करण होता है । . ४२. आक्षिप्त और उसका विनियोग चार्याक्षिप्ता यदा क्षिप्तः खटकश्चतुरोऽथवा । तदाक्षिप्तमिदं धीरे जब पैर आक्षिप्ता चारी में और हाथ खटक या चतुर मुद्रा में हों, धीर पुरुषों के मत से उसे आक्षिप्त करण कहते हैं । - विदूषकगतौ विदूषक की चाल के अभिनय में आक्षिप्त करण का विनियोग होता है । 1245 स्मृतम् ॥१२१७॥ 1246 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1248 ४३. उद्घट्टित यदोद्घट्टितपादः स्यात्तत्पावं सन्नतं करौ। 1247 तालिकाकरणोद्युक्तौ तत्तदोद्घट्टितं मतम् ॥१२१८॥ जब पैर उद्घट्टित , पार्श्व सन्नत और दोनों हाथ तालिका बनाने में तत्पर हों, तो उसे उद्घट्टित करण कहते हैं। ४४. दण्डरेचित और उसका विनियोग दण्डपादा यदा चारी दण्डपक्षाभिधौ करौ । तदा प्रमोदनृत्ते स्यात्करणं दण्डरेचितम् । प्रयोगं केचिदिच्छन्ति तस्योद्धतपरिक्रमे ॥१२१६॥ 1249 जब पैर दण्डपादा चारी और दोनों हाथ दण्डपक्ष मुद्रा में हों, तब उसे दण्डरेचित करण कहते हैं। प्रमोदनत्त के अभिनय में उसका विनियोग होता है । उद्धत व्यक्ति के घूमने के अभिनय में भी कोई आचार्य उसका विनियोग बताते हैं । . ४५. वृश्चिक और उसका विनियोग करौ करिकरौ पश्चाद् दूरे वृश्चिकपुच्छवत् । अनिश्चेत् सन्नतं पृष्ठं तदा वृश्चिकमीरितम् । 1250 यदि दोनों हाथ पीठ पोछ (कन्धं के समतर) कटिहस्त मुद्रा और एक पैर (उनके कुछ) दूर पर बिच्छू की पूंछ (डंक) की तरह अवस्थित हों; पृष्ठ भाग सन्नत हो; तो वहाँ वृश्चिक करण होता है । - इदमैरावणादीनामाकाशगमने मतम् ॥१२२०॥ इन्द्र के हाथी (ऐरावत) और आकाश में उड़ने के अभिनय में वृश्चिक करण का विनियोग होता है । ४६. वृश्चिकरेचित और उसका विनियोग वश्चिकेऽङघ्रौ यदा पाणी स्वस्तिकोभूय रेचितौ । 1251 विश्लिष्यापि तदाकाशगतौ वृश्चिकरेचितम् ॥१२२१॥ जब दोनों पर वृश्चिक और दोनों हाथ स्वस्तिक होकर फिर उन्हें खोलकर रेचित में किया जाय, तब उसे वृश्चिकरेचित करण कहते हैं। आकाश में उड़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ४७. वृश्चिक कुट्टित और उसका विनियोग वृश्चिकं चेद्विधायाघ्र भुजशीर्षे करौ क्रमात् । प्रलपद्मौ निकुट्टघेते तदा वृश्चिककुट्टितम् । यदि एक पैर वृश्चिक मुद्रा और दोनों हाथों को क्रमश: अलपद्म तथा निकुट्ट में धारण किया जाय, तो उसे वृश्चिक कुट्टित करण कहते हैं । साश्चर्याकाशगमनवाञ्छादौ तत्प्रयुज्यते || १२२२|| 1253 आश्चर्य के साथ आकाश गमन और इच्छा आदि के अभिनय में वृश्चिककुट्टित. करण का विनियोग होता है । ४८. लतावृश्चिक और उसका विनियोग 1252 वृश्चिकेऽङ्घ्रियंदा वामः करश्चेत्स्याल्लताकरः । तदा लतावृश्किम् - ३१२ जब एक (दाहिना) पर वृश्चिक मुद्रा में और बायाँ हाथ लताहस्त मुद्रा में हो, तब उसे लतावृश्चिक करण कहते हैं । - तदाकाशोत्पतने आकाश में उड़ने के आशय में लतावृश्चिक करण का विनियोग होता है । ४९. वैशाखरेचित मतम् ॥१२२३ || 1254 रेचितं यत्र पाण्यङ्घ्रिकटिग्रीवं यदा भवेत् । वैशाखस्थानके तत् स्यात् तदा वैशाखरेचितम् ॥१२२४ ॥ 1255 जहाँ दोनों हाथ, पैर, कमर तथा ग्रीवा रेचित में रखे जाँय और वैशाख स्थानक की रचना की जाय, तब उसे वैशाखरेचित करण कहते हैं । ५०. चक्रमण्डल और उसका विनियोग चरयित्वाडितां चारों चक्राकारं भ्रमेद्यदि । यत्र दोलाख्यहस्ताभ्यां देहेनान्तर्नतेन चेत् ॥ १२२५॥ 1256 तत्तदा सद्भिराख्यातं करणं चक्रमण्डलम् । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण 1258 यदि अडिडता चारी बनाकर और दोनों हाथों को दोलाहस्त में प्रयुक्त कर पूरा शरीर अन्दर की ओर झका दिया जाय तथा दोनों हाथों को जमीन में टेक दिया जाय और तब उसे चक्राकार में घुमाया जाय, तो उसे चक्रमण्डल करण कहते हैं । [भवेत्] तद् वरिवस्यायां तथोद्धतपरिक्रमे ॥१२२६॥ 1257 पूजा और शीघ्रतापूर्वक परिक्रमा के अभिनय में चक्रमण्डल करण का विनियोग होता है । ५१. आवर्त और उसका विनियोग चाषगत्या समं चार्या हस्तौ दोलाभिधौ यदि । विधायोद्वेष्टितौ यत्र कुर्यात्तावपवेष्टितौ । तदावर्तमिदं प्रोक्तं धीरैःयदि चाषगति चारी के समान ही दोनों दोला हस्तों की रचना करके उन्हें उद्वेष्टित (खोला) तथा अपवेष्टित (बन्द) कर दिया जाय, तो विद्वान उसे आवर्त करण कहते हैं । -भीत्यपसर्पणे ॥१२२७॥ भयपूर्वक पीछे हटने के अभिनय में आवर्त करण का विनियोग होता है । ५२. कुञ्चित और उसका विनियोग . वामपार्वे यदोत्तानोऽलपद्माकारतां दधत् । 1259 करः सव्योऽथ वामोऽग्रतलसञ्चरसंज्ञकः । प्राङ्घ्रिस्तदा कुश्चितं स्यात्जब अलपद्म दाहिना हस्त बायें पाव में उत्तान करके रख दिया जाय और बायाँ पैर अग्रतलसंचर मद्रा में (पीट की ओर घूमा हुआ नत रूप में) अवस्थित किया जाय, तब उसे कुञ्चित करण कहते हैं । -सानन्दसुरगोचरम् ॥१२२८॥ 1260 आनन्दपूर्वक देवताओं के प्रत्यक्ष (पूजन, आवाहन) करने में कुञ्चित हस्त का विनियोग होता है । ५३. दोलापाद यत्रोर्ध्वजानुश्चारी स्याहोलापादाभिधापि च । करो . दोलाभिधश्चत्तहोलापादमुदीरितम् ॥१२२६॥ 1261 ३१३ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ पैरों को ऊर्ध्वजानु तथा दोलापाद (पैर झुलाना) चारियों में अवस्थित किया जाय और हाथ भी उसी ( दोल) का अनुसरण करे, वहाँ दोलापाद करण होता है । ५४. तलविलासित और उसका विनियोग नृत्याध्यायः श्रङ्घ्रिस्तुर्ध्वाङ्गुलितलः पार्श्वे तूर्ध्वं प्रसारितः । पताकश्वेदे मङ्गान्तरे क्रमात् । तदा तलविलासितम् ॥१२३०॥ तदग्रगः सूत्रधारादिविषयं जब एक पैर की उंगलियों का तल भाग ऊपर उठा हो और पैर पादर्व में ऊपर की ओर प्रसारित किया गया हो; तदनन्तर उसके आगे पताक हस्त हो; और इसी प्रकार अन्य अंगों की भी रचना की जाय, तो उसे तलविलासित करण कहते हैं । सूत्रधार आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५५. विवृत्त और उसका विनियोग चार्या चरणमाक्षिप्यासकृदाक्षिप्तया यदा । विधाय हस्तौ व्यावृत्तिपरिवर्तनसंयुतौ ॥१२३१॥ यत्र ततस्तौ रेचयेन्नटः । समाख्यातम् - जब नर्तक या अभिनेता आक्षिप्ता नामक चारी के द्वारा पैर को बार-बार फेंक कर दोनों हाथों को व्यावर्तित तथा परिवर्तित करता है; और पुनः भ्रमरी की रचना करने के उपरान्त दोनों हाथों को रेचित में कर दिया जाता है, तब इसे विवृत्त करण कहते हैं । परिक्रमे ॥१२३२॥ ११४ विदध्याद्भ्रमरों तद्विवृत्त - उद्धतस्य उद्धत गति के अभिनय में विवृत करण का विनियोग होता है । ५६. विनिवृत्त और उसका विनियोग यत्र सूच्य‌ङ्घ्रिणान्योऽङ्घ्रिः पाष्र्णो स्वस्तिकमाचरेत् । ततस्त्रिकस्य चलनं व्यावृत्तिपरिवृत्तितः ॥१२३३॥ एकपार्श्वे विधायाथ चारों बद्धाभिधां करौ । रेचितौ तौ चरेत् तत् स्याद्विनिवृत्तम् 1262 1263 1264 1265 1266 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्तकरण प्रकरण जहाँ सूची नामक एक पैर के साथ दूसरा पैर एड़ी में स्वस्तिक मुद्रा धारण किये हो; कटि प्रदेश को व्यावृत्त तथा परिवृत्त किया जाय; फिर एक पार्श्व में बद्धा चारी को धारण किया जाय; और अन्त में दोनों हाथों की रेचित में रचना की जाय; तो उसे विनिवृत्त करण कहते हैं । -परिक्रमे ॥१२३४॥ परिक्रमा करने के अभिनय में विनिवृत्त करण का विनियोग होता है । ५७. ललाटतिलक और उसका विनियोग वृश्चिकार्यदाङ्गुष्ठः पादस्य तिलकं लिखेत् । ललाटेऽथ तदा ज्ञेयं ललाटतिलकं बुधैः । यदि वृश्चिक पैर का अंगूठा ललाट पर पैर का तिलक लिखे, तब विद्वान् लोग उसे ललाटतिलक करण समझें । 1267 विद्याधरगतावेतन्नियोज्यं - नृत्तवेदिभिः || १२३५॥ 1268 नृत्तवेत्ताओं को चाहिए कि विद्याधर की गति के अभिनय में वे ललाटतिलक करण का विनियोग करें । ५८. विवर्तित कुर्यात्त्रिकविवर्त्तनम् । पाणिपादं समाक्षिप्य रेचितं च परं पाणि यत्रतत्स्याद्विवत्तितम् ॥१२३६ ॥ 1269 यदि एक हाथ और एक पैर को चलाकर कटिदेश में घुमाया जाय; और फिर दूसरे हाथ को रेचित में परिणत किया जाय; तो उसे विर्वार्तत करण कहा जाता है । ५९. अतिक्रान्त प्रतिक्रान्तं विधायाघ्र पुरो यत्र प्रसारयेत् । करौ प्रयोगयोग्यौ च तदतिक्रान्तमुच्यते ॥१२३७॥ 1270 जहाँ पैर को अतिक्रान्त क्रम करके उसे आगे फैला दिया जाय और दोनों हाथों को भी उसी के अनुसार संचालित किया जाय, वहाँ अतिकान्त करण होता है । ६०. विद्युद्भ्रान्त और उसका विनियोग विद्युद्भ्रान्ता यत्र विद्युद्भ्रान्तमिदं चारी करौ तदनुगामिनौ । प्रोक्तम् ३१५ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः जहाँ पैर विद्युभ्रान्ता चारी में हो और दोनों हाथ भी उसी का अनुगमन करें। वहाँ विद्यदभ्रान्त करण होता है। -उद्धतस्य परिक्रमे । 1271 तीव्र वेग से घमने के अभिनय में विद्युम्रान्त करण का विनियोग होता है । अनौचित्यात्पुरः केचिदुशन्तिचरणक्रियम् ॥१२३८॥ कुछ नाट्याचार्यों का मत है कि विद्यद्धान्त करण में पहले पैर का संचालन होना चाहिए । ६१. निशुम्भित और उसका विनियोग कञ्चितोध्रिः पाष्णिदेशे द्वितीयचरणस्य चेत् । 1272 वक्षः समुन्नतं यत्र खटकास्य करस्य तु ॥१२३६॥ अङ्गुलिमध्यमा भाले करोति तिलकं तदा । 1273 तनिशुम्भितमाख्यातम्यदि एक निकञ्चित पैर को दूसरे पैर की एड़ी पर रख दिया जाय, छाती उठा ली जाय और खटकास्य मद्रा को हाथ की मध्यमा उँगली से ललाट पर तिलक रचना की जाय, तो उसे निशम्भित करण कहते हैं । -ईशाभिनयगोचरम् ॥१२४०॥ भगवान शंकर के अभिनय में निम्भित करण का विनियोग होता है। खटकास्यकरस्थाने त्रिपताकोऽथवाव हि। 1274 प्राहात्राधोमुखं सूचीकरं कोत्तिधरः सुधीः । उशन्ति चरणं केचित् सूची नृत्तविचक्षणाः ॥१२४१॥ 1275 पण्डित कीर्तिधर इस करण में खटकास्य के स्थान पर विपताक या अघोमुख सूची हस्त का विनियोग बताते हैं । कुछ नाट्याचार्यों का मत है कि उसमें सूचीपाद का प्रयोग किया जाना चाहिए । ६२. उरोमण्डल बद्धां चारों स्थितावर्ता रचयन् रचयेत्करौ । उरोमण्डलिनौ यत्र तदुरोमण्डलं भवेत् ॥१२४२॥ 1276 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण जहाँ स्थितावर्ता नामक चारी और उरोमण्डलिन नामक दोनों हाथों की रचना की जाय, वहाँ उरोमण्डल करण होता है । ६३. विक्षिप्त और उसका विनियोग विद्युद्भ्रान्तां दण्डपादां चारों च क्रमतो यदि । विधायोद्वेष्टने नापवेष्ठनेनापि हस्तकौ ॥१२४३|| 1277 एकाध्वयायिनौ यत्र रेचयन्पुरतोऽनु च । पार्श्व [वि] क्षिपेत् तत् स्याद्विक्षिप्तकरणं तदा । 1278 यदि क्रमशः समुद्भ्भ्रान्ता और दण्डपादा चारियों को बनाकर दोनों हाथों को उद्वेष्टित तथा अपवेष्टित द्वारा समस्थिति में लाया जाय; पुनः उन्हें रेचित कर आगे-पीछे तथा अगल-बगल में चलाया तथा फेंका जाय; तो उसे विक्षिप्त करण कहते हैं । परिक्रमे ॥१२४४ ॥ विनियोगोऽस्य कथित उद्धतस्य उद्धतपूर्ण गति में विक्षिप्त करण का विनियोग होता है । ६४. पार्श्वनिकुट्टक और उसका विनियोग विधाय स्वस्तिको हस्तौ यत्रोवस्यस्तयोः करः । एको निकुट्टितः पार्श्वे द्वितीयोऽधोमुखस्तथा ॥१२४५॥ पादावेतत्पार्श्वनिकुट्टकम् । तद्वनिकुट्टितौ 1280 यदि दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में बनाकर उनमें से एक को ऊर्ध्वमुख करके पार्श्व में कुट्टित किया जाय और दूसरे को अधोमुख करके दूसरे पार्श्व में कुट्टित किया जाय; उसी प्रकार दोनों पैरों को भी कुट्टि किया जाय तो उसे पार्श्वनिकुट्टक करण कहते हैं । सद्भिः सञ्चरणाभ्यासे प्रकाशेन समीरितम् ॥ १२४६ ॥ चलने या घूमने के अभ्यास के अभिनय में सज्जनों ने पाइर्वनिकुट्टक करण का विनियोग बताया है । ६५. तलसंस्फोरित 1279 दण्डपादाख्ययाथवा । प्रतिक्रान्ताख्यया चार्या क्षिप्रमुत्क्षिप्य पादेऽग्रे पात्यमाने यदा करौ । 1281 ३१७ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः सशब्दां कुरुतस्तालों तलसंस्फोटितं तदा ।। १२४७॥ 1282 यदि अतिकान्ता या दण्डपादा चारी के द्वारा एक पैर को तेजी से ऊपर उठा कर आगे फेंक दिया जाय • और दोनों हाथों से ताली बजायी जाय, तो उसे तलसंस्फोटित करण कहते हैं । ६६. गण्डसूचि और उसका विनियोग अङ्घ्रिः सूची नतं पार्श्व खटकास्यो हृदि स्थितः । यत्र गण्डे [भ] वेद्वामोऽलपद्मौ गण्डसूच्यदः || १२४८ || 1283 परे जगुः । पद्मरस्थाने सूचीपादं परेऽभिनयहस्तकम् । केचित्सूची नृत्तपाणि 1284 जहाँ पैर सूची मुद्रा में पार्श्व नत तथा दायाँ खटकामुख हस्त हृदय पर और बायाँ अलपद्म हस्त कपोल पर अवस्थित हो, वहाँ गण्डसूचि करण होता है । अन्य आचार्य अलपद्म हस्त के स्थान पर सूचीपाद का निर्देश करते हैं । कुछ आचार्यों के मत से सूची नामक नृत्तहस्त का और कुछ के मत से केवल अभिनय - हस्त का ही विनियोग करना चाहिए । अनेनाभिनयेद्धीरः कपोलाभरणादिकम् ॥१२४६॥ धीर पुरुष को कपोल और आभरण आदि के अभिनय में गण्डसूचि करण का विनियोग करना चाहिए । ६७. सूचि और उसका विनियोग कुञ्चितोङ्घ्रिः समुत्क्षिप्य स्थाप्यते [ भूमिस्पृशं ]न् । प्रथोरःस्थो भवेदेकः खटकास्याभिधः करः ॥१२५०।। परोऽलपद्मः शीर्षस्थोऽन्याङ्गमेवं क्रमाद्यदा । तदैतत्करणं ३१८ - विस्मयाभिनये विस्मय के अभिनय में सूचि करण का विनियोग होता है । ६८. अर्धसूचि एकाङ्गनिर्मितं त्वेतदर्धसूचि 1285 सूचि - यदि कुञ्चित पैर को ऊपर उठाकर भूमि का स्पर्श किये बिना ही स्थापित किया जाय; खटकास्य एक हाथ को वक्ष पर और अलपद्म दूसरे हाथ को शिर पर रख दिया जाय; अन्य अंग भी इसी क्रम से संचालित हों; तो उसे सूचि करण कहते हैं । मतम् ॥१२५१॥ 1286 मतं बुधैः ॥१२५२ ॥ 1287 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण उक्त सूचि करण यदि एक अंग से बनाया जाय तो उसे विद्वान् अर्धसूचि करण कहते हैं। ६९. गजक्रोडितक दोलापादा यदा चारी करः करिकराभिधः । व्यापारवान् कर्णदेशे गजक्रीडितकं तदा ॥१२५३॥ 1288 यदि पैर दोलापाद चारी में और हाथ कटिहस्त में वर्तमान रहकर वे कान के पास क्रियाशील रहें, तो उसे गजक्रीडितक करण कहते हैं । ७०. पार्वजानु और उसका विनियोग ऊरुपृष्ठे समस्याघ्रः पादश्चेत्स्थापितः परः । अर्धचन्द्रः करः कट्यां मुष्टिस्तूरसि हस्तकः । 1289 यत्रतत्पार्श्वजानूक्तम्यदि एक पैर सम (साधारण) स्थिति में हो और दूसरा पैर जाँघ पर रख दिया जाय; एक हाथ अर्धचन्द्र में कटि पर तथा दूसरा मुष्टि मुद्रा में छाती पर रख दिया जाय; तो उसे पार्वजानु करण कहते हैं । -सद्भिर्युद्धनियुद्धयोः ॥१२५४॥ सज्जनों के मत से युद्ध तथा कुस्ती के अभिनय में पार्वजानु करण का विनियोग होता है । ७१. गरुडप्लुत । लतारेचितको यत्र करौ पादस्तु वृश्चिकः । 1290 वक्षः समुन्नतं चेत् स्यात् तत् तदा गरुडप्लुतम् ॥१२५५॥ यदि दोनों हाथीं को लता रेचितक में रख दिया जाय; पैर वृश्चिक में कर दिया जाय; और छाती समुन्नत (भली भाँति उठी हुई) हो, तो वहाँ गरुडप्लुत करण होता है । ७२. गृध्रावलौनक और उसका विनियोग पृष्ठप्रसारितस्या रङ्गुष्ठो भुवमाश्रितः । 1291 लताकरौ करौ चेत्स्यात्तदा गृध्रावलीनकम् । यदि पैर को पीछे की ओर फैलाकर घुटने को कुछ मोड़ दिया जाय और अंगूठा भूमि को स्पर्श करता हो; दोनों हाथ लता हस्त मुद्रा में हों; तो वहाँ गृध्रावलीनक करण होता है । .. तदवाचि महापक्षियुद्धाभिनयने बुधैः ॥१२५६॥ 1292 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः विद्वानों के मत से गरुड़ आदि बड़े पक्षियों के युद्ध के अभिनय में गध्रावलीनक करण का विनियोग होता है। ७३. दण्डपाद और उसका विनियोग यत्र नूपुरपादाख्या दण्डपादाभिधा तथा । चारो स्यादथ चेत् क्षिप्रं पाणिः स्थाप्येत दण्डवत् । 1293 तत्तदा दण्डपादं स्यात्यदि पैरों से नपुरपादा और दण्डपादा नामक चारियाँ बना ली जायँ; हाथ को वेग से दण्डवत् रखा जाय; तो उसे दण्डपाद करण कहते हैं । -साटोपे तु परिक्रमे ॥१२५७॥ आडम्बर सहित (या अभिमानपूर्ण) गति के अभिनय में दण्डपाद करण का विनियोग होता है। ७४. सन्नत और उसका विनियोग मृगप्लुतां विधायाघ्रिः स्वस्तिकः पुरतः करौ। 1294 दोलौ यदा सन्नतं स्यात्यदि मगप्लुता की रचना करके पैरों को स्वस्तिक में आगे रख दिया जाय और दोनों हाथों को दोला मुद्रा में किया जाय, तो उसे सन्नत करण कहते हैं । -नीचापसरणे तदा ॥१२५८॥ नीचों को हटाने के अभिनय में सन्नत करण का विनियोग होता है। ७५. सपित और उसका विनियोग पराऽरञ्चिते पादे त्वपसर्पति मस्तकम् । 1295 नामितं रेचितः पाणिरसौ तपार्श्वके यदि ॥१२५६॥ एवं पराङ्ग यत्रेदं सपितं करणं तदा । 1296 यदि दोनों पैर अञ्चित में, मस्तक अपसर्प में हो; एक हाथ नमित और दूसरा रेचित होकर उसके पार्श्व में अवस्थित रहे; और अन्य अंग भी उसी का अनुसरण करे, तो वहाँ सर्पित करण होता है। उपसृत्यापसरणे मत्तस्य परिकीतितम् ॥१२६०॥ ३२० Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुत्तकरण प्रकरण 1299 मदमत्तता या भाववेग में लड़खड़ाकर अपसारित करके चलने के अभिनय में सपित करण का विनियोग होता है। ७६. मयूरललित पाचरेद् रेचितौ हस्ताबूरावाकुञ्च्य वृश्चिकम् । 1297 अघ्रि यत्र भ्रमरिकां विदध्यान्नर्तको यदि । तत्तदा करणं प्रोक्तं मयूरललिताभिधम् ॥१२६१॥ 1298 यदि अभिनेता दोनों हाथों में रेचित की रचना कर फिर पैर को जाँघ पर सिकोड़ कर वृश्चिक बनाये; अन्त में भ्रमरिका चारी धारण करे; तो उसे मयूरललित करण कहते हैं । ७७. सूचीविद्ध और उसका विनियोग पक्षवञ्चितकः कट्यां यद्वा स्यादर्धचन्द्रकः । वक्षःस्थः खटकास्योऽन्यः सूच्यध्रिः परपाष्णिगः । यत्रतत्करणं सूचीविद्धम्यदि पक्षवंचितक या अर्धचन्द्र एक हस्त कटि पर और खटकास्य दूसरा हस्त वक्ष पर अवस्थित हो; एक सूचीपाद दूसरे सूचीपाद के समान एड़ी पर रहे; तो उसे सूचीविद्ध करण कहते हैं । -चिन्तादिषु स्मृतम् ॥१२६२॥ चिन्ता आदि के अभिनय में सूचीविद्ध करण का विनियोग होता है। ७८. प्रेङ खोलित और उसका विनियोग . दोलापादं विधायकपादेनाथ पराघ्रिणा । उत्प्लुत्य भ्रमरों यत्र विदध्यानर्तको यदि । प्रेडोलितं तदायदि अभिनेता एक पैर से दोलापाद की रचना कर दूसरे पैर से उछलकर भ्रमरी का अवलम्बन करे; तो उसे प्रेङखोलित करण कहते हैं । -योज्यमेतल्लीलापरिक्रमे ॥१२६३॥ 1301 1300 लीला की गति प्रदर्शित करने में प्रेडखोलित करण का विनियोग हो Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ७९. स्खलित गत्यागतौ यदा दोलापादाङ्ग्रेसपक्षकः । अनुगच्छेदेवमङ्गमपरं स्खलितं तदा ॥१२६४॥ 1302 • यदि एक पैर से दोलापाद बनाकर दूसरे पैर से हंसपक्षक धारण किया जाय; और हाथ भी तदनसार चलाये जायें; तो उसे स्खलित करण कहते हैं। ८०. परिवृत्त उर्ध्वमण्डलिनौ पाणी चार्या बद्घाख्यया यदि । सूचीपादो विवृत्तः स्याद्यनाथ भ्रमरों भवेत् । .. 1303 तदेदं परिवृत्ताख्यं करणं समुदीरितम् ॥१२६५॥ यदि दोनों हाथ ऊर्ध्वमण्डल मुद्रा में हों; पर बद्धा चारी में होकर सूची चारी में घुमाया जाय; और तदनन्तर त्रिक भी भ्रमरी में हो; तो उसे परिवृत्त करण कहते हैं। ८१. करिहस्त खटकास्यः करो वामो हृद्यन्योद्वेष्टनेन चेत् । 1304 कर्णेऽन्यस्त्रिपताकोऽथ सपादः पुरतोऽञ्चितः । निर्गच्छति तदेतत्स्यात्करणं करिहस्तकम् ॥१२६६॥ 1305 यदि खटकास्य नामक बाँया हाथ दूसरे हाथ से उद्वेष्टित होकर हृदय पर रहे; फिर दूसरा दाँया त्रिपताक हाथ कान पर रहे; और अञ्चित नामक पैर आगे निकल कर संचलित हो; तो उसे करिहस्त करण कहते हैं। ८२. प्रसपित और उसका विनियोग रेचितो यः करः सोऽज्रिर्यत्र घर्षन् भुवं व्रजेत् । शनैः शनैरन्यपादादपरश्चेल्लताकरः । 1306 प्रपितमिदं धीरस्तदायदि एक हाथ रेचित में और दूसरा लता में रखा जाय; दोनों पर प्रसर्प में धीरे-धीरे भूमि पर संचालित किये जाँय; तो धीर पुरुषों के मत में उसे प्रसपित करण कहते हैं । -खगगतौ मतम् ॥१२६७॥ आकाशचारी जीवों की गति के अभिनय में प्रापित करण का विनियोग होता है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण ८३. पार्श्वक्रान्त और उसका विनियोग पार्श्वक्रान्ता यदा चारी पाणी पादानुगामिनौ । 1307 पाक्क्रान्तं तदायदि पैर पार्श्वक्रान्ता चारी में हों और दोनों हाथों को भी उसी मुद्रा में संचालित किया जाय; तो उसे पार्श्वक्रान्त करण कहते हैं । . -रौद्रभीमादीनां परिक्रमे ॥१२६८॥ रौद्र रस और भीम आदि वीर पुरुषों के अभिनय में पाश्वंक्रान्त करण का विनियोग होता है। ८४. निवेश हस्तौ वक्षःस्थितौ यत्र वक्षो निर्भुग्नसंज्ञितम् । 1308 स्थानकं मण्डलं सद्भिनिवेशं तदुदीरितम् ॥१२६९॥ यदि दोनों हाथ छाती पर रख दिये जाँय ; वक्ष निर्भुग्न (सीधा तना हुआ) हो; और मण्डल स्थानक बना लिया जाय; तो सज्जनों के अनुसार उसे निवेश करण कहते हैं । ८५. नितम्ब अधोमुखागुली पाणी पताको प्राप्य मूर्धनि । 1309 निष्क्रम्य परिवृत्त्योर्ध्वं स्कन्धयोः स्वीययोस्ततः ॥१२७०॥। न्यस्यान्योन्यमुखौ यत्र स्वगात्राभिमुखाङ्गुली। 1310 .. कुर्यात् नितम्बहस्तौ तनितम्बकरणं मतम् ॥१२७१।। यदि दोनों पताक हस्तों को अधोमुख करके शिर पर रख दिया जाय; तदुपरान्त उन दोनों हस्तों को अपने दोनों कन्धों के ऊपर निकाल कर घुमा दिया जाय; फिर दोनों को आमने-सामने करके उनकी उँगलियों को अपने शरीर के सम्मुख रख दिया जाय; और उन्हें नितम्बाकार बना दिया जाय ; तो उस मुद्रा को नितम्ब करण कहते हैं। ८६. हरिणप्लुत और उसका विनियोग हरिणप्लुतया चार्या भवेतां यदि हस्तकौ । खटकामुखदोलाख्यौ तदेतद्धरिणप्लुतम् । . 1311 ३२३ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः उक्तं श्रीमदशोकेनयदि पैर हरिणप्लुत चारी में और दोनों हाथ खटकामुख तथा दोला में अवस्थित किये जाय; तो नपति अशोकमल्ल ने उसे हरिणप्लत करण कहा है। -हरिणप्लुतिगोचरम् ॥१२७२॥ 1312 हरिणों की छलाँग के अभिनय में हरिणप्लुत करण का विनियोग होता है । ८७. सिंहविक्रीडित और उसका विनियोग पुरः कृत्वालातपादं यत्र हन्तुमिवोद्यतः । पाणिस्तथापराङ्ग स्यात्सिहविक्रीडितं तदा । 1313 यदि पैर में अलात बनाकर उसे आगे करके और हाथ को मारने की स्थिति में किया जाय; तथा दूसरे हाथपैरों को भी तदनुसार संचालित किया जाय, तो वहाँ सिंहविक्रीडित करण होता है। रौद्रगत्यामिदं प्रोक्तं नृत्तविद्याविशारदः ॥१२७३॥ नाट्याचार्यों ने रौद्र गति के अभिनय में सिंहविक्रीडित करण का विनियोग कहा है। ८८. सिंहाकर्षित और उसका विनियोग वामोऽध्रिर्वृश्चिकः पद्मकोशौ यद्वोर्णनाभको । 1314 पराङ्घौ वृश्चिकीकृतो भङ्क्त्वा चेत्प्राक्तनौ करौ । पुनस्तथा कृतौ सिंहे सिंहाकर्षितकं तदा ॥१२७४॥ 1315 यदि बाँया पैर वश्चिक में; दोनों हाथ पद्मकोश या ऊर्णनाभ में किये जायें; फिर दूसरे पैर पर, वश्चिकाकार दोनों हाथों को भंग करके फिर उन्हें वृश्चिकाकार बना दिया जाय (अर्थात् इस क्रिया को बार-बार दुहराया जाय); तो उसे सिंहाकर्षित करण कहते हैं । सिंह के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ८९. जनित और उसका विनियोग जनिता यत्र चारी स्यान्मुष्टिर्वक्षःस्थलेऽपरः । करौ लताकरस्तत् स्यादारम्भे जनितं कृते ॥१२७५॥ 1316 यदि पैरों में जनिता चारी, हाथ वक्षस्थ पर और दूसरा हाथ लता मुद्रा में हो; तो उसे जनित करण कहते हैं। (सब प्रकार के) अभिनयों के आरम्भ करने में इस करण का विनियोग होता है। ३२४ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्तकरण प्रकरण ९०. अवहित्य और उसका विनियोग चारीमारच्य जनितां चेदरालालपल्लवौ । भालवक्षःस्थितौ हस्तौ क्रमादभिमुखाङ्गुली ॥१२७६॥ 1317 विधायोद्वेष्टितेनाथ पार्श्वगौ परिवृत्तितः । ततोपवेष्टय वक्षोगौ परिवृत्त्या पुनस्तथा ॥१२७७॥ 1318 न्यस्येते सम्मुखौ यत्र मिथस्तदवहित्थकम् । पैरों में जनिता चारी की रचना करके यदि अराल और पल्लव दोनों हाथों को क्रमशः ललाट तथा वक्ष पर रख दिया जाय; उनकी उँगलियाँ एक-दूसरे के आमने-सामने कर दी जाँय ; फिर उन्हें उद्वेष्टित करके पार्श्व में घुमा कर अलग कर दिया जाय और छाती पर रख दिया जाय; तत्पश्चात पुनः घुमाकर दोनों को पूर्ववत् आमनेसामने रख दिया जाय; तो उस मुद्रा को अवहित्थ करण कहते हैं। गोपनाप्रायवाक्यार्थगोचरं परिकीतितम् ॥१२७८॥ 1319 इदं परेऽवहित्थाख्यं करयोगाद्वभाषिरे । चिन्तादौर्बल्यविषयं नृत्तविद्याविशारदाः ॥१२७६॥ 1320 अगोचर अर्थयुक्त वाक्यों के अभिनय में बहुधा अवहित्थ करण का विनियोग होता है। कुछ नृत्ताचार्यों का कहना है कि इस अवहित्य करण को, हाथ के योग से, चिन्ता तथा दुर्बलता का भाव प्रकट करने के अभिनय में प्रयुक्त किया जाता है। ९१. उद्धृत्त प्रसार्याक्षिप्यते क्षिप्रं पाणिपादं यदेकदा ।। अङ्गमुवृत्तचारीकमुद्वृत्तं तदुदीरितम् ॥१२८०॥ 1321 यदि एक हाथ-पैर को एक ही बार में शीघ्रतापूर्वक फैलाकर आक्षिप्त कर दिया जाय; दूसरे पैर और हाथ में उद्धृता चारी और धड़ भी उद्वृत्त कर दिया जाय; अर्थात् उठा दिया जाय; तो उसे उद्वृत्त करण कहते हैं । ९२. तलसंघटित दोलापादाभिधां चारीमाचरन् यदि हस्तकौ । सङ्घट्टिततलौ कृत्वा पताको वैष्णवे स्थितः ॥१२८१॥ 1322 ३२५ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः स्थानकेऽथ करंसव्यं कट्यां न्यस्येत् ततः पराम् । : विदध्याद्रेचितं पाणि तलसट्टितं तदा ॥१२८२॥ 1323 यदि दोलापाद नामक चारी की रचना करके दोनों पताक हस्तों की हथेलियों को मिला दिया जाय; फिर वैष्णव स्थानक धारण किया जाय; तत्पश्चात दाहिने हाथ को कटि पर रख कर दूसरे बाँये हाथ को रेचित में कर दिया जाय; तो उस मुद्रा को तल संघटित करण कहते हैं । ९३. लोलित यदैको रेचितो हस्तोऽन्योऽलपद्मो हृदि स्थितः । शिरस्तु लोलितं पार्श्वद्वये विश्रान्तिमत् ततः । 1324 वैष्णवं स्थानकं यत्र तदा तल्लोलितं मतम् ॥१२८३॥ यदि एक हाथ रेचित और दूसरा अलपद्म बना कर हृदय पर रख दिया जाय; फिर शिर को भी लोलित करके उसे (क्रमशः) दोनों पावों में अवस्थित किया जाय; तदनन्तर वैष्णव स्थानक की रचना की जाय; तो उसे लोलित करण कहते हैं। ९४. शकटास्य और उसका विनियोग शकटास्याभिधा चारी पाणिरेकोऽघ्रिणा समम् । 1325 प्रसृतोऽथ परो हस्तः खटकास्यो हृदि स्थितः । यत्रेद्रं शकटास्यं स्याद्यदि शकटास्य चारी की रचना करके एक हाथ एक पैर के समान फैला हो और दुसरा खटकास्य मुद्रा में हृदय पर अवस्थित हो; तो वहाँ शकटास्य करण होता है। -बालखेलनगोचरम् ॥१२८४ ॥ 1326 बालक्रीड़ा के अभिनय में शकटास्य करण का विनियोग होता है। ९५. वृषभक्रीडित चारी कुर्वन्नलातां चेदाचरेद्रेचितौ करौ । व्यावर्त्तनेन चाकुञ्च्य स्थापयेद् भुजशीर्षयोः । 1327 अलपद्माकृती कृत्वा वृषभक्रीडितं तदा ॥१२८५॥ ३२६ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरण यदि अलात चारी की रचना करके दोनों हाथों को रेचित में कर दिया जाय; फिर उन्हें अलपद्म में परिणत करके घुमाव के साथ भीतर की ओर सिकोड़ कर भुजा और सिर पर रख दिया जाय तो उसे वृक्रीडित करण कहते हैं । ९६. एलकाक्रीडित और उसका विनियोग एलकाक्रीडिता चेद्दोलखटका मुखौ । सन्नतं वलितं चाङ्गमेलकाक्रीडितं तदा । यदि एकाक्रीडिता चारी की रचना करके दोनों हाथों को दोल तथा खटकामुख में कर दिया जाय; शरीर झुका तथा वलित हो; तो उसे एलकाक्रीडित करण कहते हैं । गमने त्वधमानां तन्नियोज्यं नृत्तवेदिभिः ॥ १२८६ ॥ 1329 नाट्याचार्यों के मत से तुच्छ व्यक्तियों की गति के अभिनय में एलकाक्रीडित करण का विनियोग होता है । ९७. विष्कम्भ चारी 1328 करः । अपसृत्य यदा वामं सव्यः सूचीमुखः उपगच्छेत्रिकुट्टघेत सपादोऽन्यः करो हृदि ॥ १२८७॥ 1330 विधायैवं पराङ्गं च सूचीपादस्तु दक्षिणः । एषोऽलपल्लवः पाणिरपरः पूर्ववद्भवेत् । पौनः पुन्येन यत्रैवं विष्कम्भं तदोदितम् ॥१२८८ ॥ कृत्वा क्षिप्ताभिधां वामभागे चारों ततः करम् । व्यावृत्तं परिवृत्तं च सव्ये पार्श्वे नते यदि ॥ १२८६ ॥ अरालतां नयेदेनं तदोपसृतमीरितम् । 1331 यदि बाँये हाथ को हटाकर उसे दाहिने सूचीमुख हाथ के समीप लाया जाय और पैर सहित कुट्टित किया जाय; फिर दूसरे दाहिने हाथ को हृदय पर अवस्थित किया जाय; शरीर को भी तद्वत् संचालित किया जाय; तत्पश्चात् दाँयें सूचीपाद और बाँयें अलपल्लव हस्त को बार-बार इसी प्रकार किया जाय ; तो उसे विष्कम्भ करण कहते हैं । ९८. उपसृत और उसका विनियोग 1332 1333 ३२७ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः यदि बाँये पैर से आक्षिप्ता चारी का निर्माण कर हाथ को व्यावृत्त तथा परिवृत्त किया जाय; दाहिने पार्श्व को नत किया जाय; फिर उसे अराल मुद्रा में परिणत कर दिया जाय; तो उसे उपसृत करण कहते हैं। श्रीमदशोकमल्लेन विनयेनोपसर्पणे ॥१२६०॥ नपति अशोकमल्ल के अनुसार विनयपूर्वक समीप आने के अभिनय में उपसत करण का विनियोग होता है। ९९. विष्णुक्रान्त और उसका विनियोग यत्रोवं प्रसरत्यग्रे चरणश्चलनोन्मुखः । 1334 कुञ्चितोऽथ यदा स्यातां हस्तकौ रेचितौ तदा । विष्णुकान्तमिदं प्रोक्तम्आगे चलने के लिए उन्मुख कार की ओर प्रसारित पर यदि मोड़ दिया जाय और दोनों हाथों को रेचित कर दिया जाय; तो उसे विष्णुकान्त करण कहते हैं । ___ -विष्णुक्रमणगोचरम् ॥१२६१॥ 1335 भगवान् विष्णु की गति के अभिनय में विष्णुकान्त करण का विनियोग होता है। १००. अपक्रान्त बद्धां चारीमपक्रान्तां चाचरन् रचयेत्करौ । प्रयोगानुगतौ यत्र तदपक्रान्तमीरितम् ॥१२६२॥ 1336 यदि बद्धा और अपक्रान्ता चारियों की रचना करते हए (अर्थात् दोनों जाँघों से वलित करके टाँगें अपक्रान्त क्रम में चलायी जाय); दोनों हाथों को भी तदनुसार संचालित किया जाय ; तो उसे अपक्रान्त करण कहते हैं। १०१. ऊरूवृत्त और उसका विनियोग चार्योरुद्वृत्तया सार्धमरालखटकामुखौ । यत्रोरुपृष्ठयोय॑स्येद्वर्तनापूर्व को करौ ॥१२६३॥ 1337 ऊरूवृत्तमिदं प्रोक्तम्यदि ऊरुदवत्ता चारी के साथ अराल और खटकामुख हस्तों को वर्तना क्रिया के उपरान्त, ऊरु के पृष्ठभाग पर रख दिया जाय; तो उसे ऊरुवृत्त करण कहते हैं । १२८ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्तकरण प्रकरणं प्रार्थनायामपि नृपाशोकमल्लेन धीमता ॥ १२९४ ॥ 1338 नृपति अशोकमल्ल के मत से ईर्ष्या, प्रणय- कोप और प्रार्थना के अभिनय में ऊबुत करण का विनियोग होता है । १०२. अञ्चित और उसका विनियोग - ईर्ष्याप्रणयकोपयोः । नासिकाक्षेत्रसंश्रितः । करिहस्तो यदा धत्तेऽलपद्मत्वं तदाश्चितम् । 1339 यदि करिहस्त हाथ व्यावृत्त-परिवृत्त द्वारा ( अर्थात् घुमाकर तथा मोड़कर) नासिका स्थान पर पहुँच कर अलपद्महस्त का स्वरूप धारण कर लेता है, तो उसे अञ्चित करण कहते हैं । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां श्रात्मनः कौतुकादेतत् सम्मुस्यावलोकने ॥ १२५॥ जब कोई नर्तकी अन्य नर्तकी के सामने अपने कौतुकवश ताकती है, तब उस अभिनय में अञ्चित करण का विनियोग होता है । (अथवा अपने कौतुकवश सामने ताकने के आशय में उसका विनियोग होता है ) १०३. सम्भ्रान्त और उसका विनियोग विधायाविद्धचारों चेव्यावर्त्य परिवृत्तितः । स्थापयेदूरुपृष्ठके । श्रलपद्माभिधं पाणि सम्भ्रान्तमादिष्टम् - तदा यदि अविद्धा चारी की रचना करके अलपद्म हस्त को चारों ओर घुमाकर ऊरु के पृष्ठ भाग पर रख दिया जाय, तो उसे सम्भ्रान्त करण कहते हैं । ४२ भयपूर्ण या घबराहट युक्त की गति के अभिनय में सम्भ्रान्त करण का विनियोग होता है । १०४. मदस्खलित और उसका विनियोग - ससाध्वसपरिक्रमे ॥ १२६॥ 1341 1340 स्वस्तिकीभूय यत्राङ्घ्री क्रमेणैवापसर्पतः । परिवाहित संज्ञं च शिरो दोलाभिधौ करौ । इदं मदस्खलितकं कथितम् 1342 यदि दोनों पैर स्वस्तिक मुद्रा में क्रमशः पीछे की ओर हटते जांय, शिर परिवाहित में और दोनों हाथ डोला में हों, उसे मदस्खलित करण कहते हैं । ३२९ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्याध्यायः -मध्यमे मदे ॥१२९७॥ मध्यम मद के अभिनय में मव्यस्खलित करण का विनियोग होता है ।। १०५. अर्गल और उसका विनियोग वामस्याघ्रःकनिष्ठायाःभागेऽज्रिीदक्षिणःस्थितः। 1343 अथान्यः स्तब्धजङ्घः सन् सार्धतालद्वयान्तरे ॥१२९८॥ प्रसारितोऽथ पाणिः सन् स्तब्धबाहुः स्वपार्श्वके । 1344 यदालपल्लवः किश्चित्प्रसृतानोऽपरस्तदा । अर्गलं गदितं धीरःयदि बाय पैर की कनिष्ठा उँगली के अग्रभाग में दाहिना पैर अवस्थित किया जाय; दूसरे पैर को जंघा निश्चल रहे; एक पैर दूसरे पैर के ढाई ताल आगे रख दिया जाय; उसके बाद एक हाथ की बाँह निश्चल रहे और वह अपने पार्श्व में अलपल्लव मुद्रा में हो; दूसरा हाथ (पैरों की उक्त स्थिति के अनुरूप) अग्रभाग में कुछ प्रसृत होकर अवस्थित रहे ; तो विद्वानों के मत से उसे अर्गल करण कहा जाता है। -अङ्गन्दादि परिक्रमे ॥१२६६॥ 1345 अंगद आदि की गति के अभिनय में अर्गल करण का विनियोग होता है। १०६. रेचकनिकुट्टक सव्यः स्याद्रचितः पाणिः सपादस्तु निकुट्टितः । वामो दोलाकरो यत्र तद्र चकनिकुट्टकम् ॥१३००॥ 1346 यदि दाहिना रेचित हस्त, पैर सहित कूटा जाय और बाये हाथ दोलाकर मुद्रा में हो, तो उसे रेचकनिकुट्टक करण कहते हैं। १०७. नागापसपित और उसका विनियोग [हस्तौ चेद् रेचितौ स्यातां शिरस्तु परिवाहितम्']। स्वस्तिकीभूय चेदज्री कुरुतोऽपसृति तदा । 1347 नागापसपितं प्रोक्तं नृत्तः - यदि दोनों हाय रेचित मुद्रा में हों, शिर परिवाहित हो और दोनों पैर स्वस्तिक होकर पीछे की ओर चलें, तो नत्तवेत्ताओं ने उसे नागापसपित करण कहा है। १. देलिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ७४५ (अबियार संस्करण) । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुत्तकरण प्रकरण -तरुणे मदे ॥१३०१॥ तरुण मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १०८. गंगावतरण और उसका विनियोग अज्रस्तु क्षेपनिक्षेपो भवेतां चेद्यथा यथा । 1348 तथा पाणी पताकाख्यावुभावुन्नतिसन्नती ॥१३०२॥ कुरुतः संनतं शीर्ष गङ्गावतणं तदा । 1349 पैर जैसे-जैसे चलें, तदनुसार दोनों पताक हस्त उन्नति तथा अवनति को धारण करें और शिर संनत मुद्रा में अवस्थित हो, तो ऐसी क्रिया को गंगावतरण करण कहते हैं । गङ्गावतरणे योज्यमिदं नृत्तविचक्षणः ॥१३०३॥ नाट्याचार्यों ने गंगा जी के पृथ्वी पर उतरने के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। करण प्रयोग के विशेष निर्देश वामो बाहुल्यतः कार्यः करः करणकर्तृभिः । 1350 वक्षःस्थः करणेष्वन्यो ज्ञेयस्तत्करणानुगः ॥१३०४॥ अनुक्तनियमेऽप्येषा परिभाषोदिता बुधः । 1351 करणेऽनुक्तचारीके चारी तच्चरणानुगा । ज्ञेया ज्ञेयोऽथवा पादः करानुगतिसुन्दरः ॥१३०५॥ 1352 करणों के निर्माताओं या प्रयोक्ताओं को चाहिए कि वे बायें हाथ का प्रयोग अधिक करें। करणों में दाहिने हाथ को छाती पर रखें और वह करणों का अनुगामी हो। किसी नियम विशेष का निर्देश न करते हुए भी विद्वानों ने यह परिभाषा (सामान्य नियम) बतायी है । जहाँ करण में चारी का उल्लेख न किया गया हो, वहाँ करण के पैर के अनुसार चारी को योजना कर लेनी चाहिए; अथवा हस्त-संचालन के अनुसार पैर की सुन्दर रचना करनी चाहिए। एक सौ आठ नृत्तकरणों का निरूपण समाप्त ३३१ Page #342 --------------------------------------------------------------------------  Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्प्लुतिकरणों का निरूपण | बारह Page #344 --------------------------------------------------------------------------  Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1354 उत्प्लुतिकरणों का निरूपण अथोद्दिशति देशीविद् देशीस्थकरणानि च । उत्प्लुत्याद्यानि भूमीन्द्रो वैरिहा वीरसिंहजः ॥१३०६॥ 1353 देश-विशेष की गतिविधियों को जानने वाले शत्रुहन्ता महाराज वीरसिंह-पुत्र अशोकमल्ल ने देशविशेष में किये जाने वाले उत्प्लुति आदि करणों को (इस प्रकार) निरूपित किया है । उछल कर किये जाने वाले करणों (उत्प्लुतिकरण) के भेद अञ्चितं करणं पूर्वमेकपादाञ्चितं परम् । समपादाञ्चितं तिर्यगञ्चितं भैरवाश्चितम् । भ्रान्तपादाञ्चितं दण्डप्रणामाञ्चितकं तथा ॥१३०७॥ अञ्चितं कर्तरीपूर्व लङ्कादाहाञ्चितं तथा । 1365 समकतर्यञ्चितं च बलिबन्धाञ्चितं तथा ॥१३०८॥ अथ क्षेत्राञ्चितं तद्वदन्यत् स्कन्धाञ्चिताभिधम् । 1356 करणं चालगं चोलिगं स्यादन्तरालगम् ॥१३०६॥ कूर्मालगं लोहडी स्यादेकपादादिलोहडी । 1357 विचित्रलोहडी बाहुबन्धलोहड्यपीतरा ॥१३१०॥ कर्ताद्या लोहडी च समकतरिलोहडी । 1358 चतुर्मुखादिरन्यास्याल्लोहडी चालगाञ्चितम् ॥१३११॥ जलादिशयनं दर्पशरणं नागबन्धकम् । अथ स्यान्मत्स्यकरणं तिर्थक्करणमेव च ॥१३१२॥ कपालचूर्णनं तिर्यक्स्वस्तिकं नतपृष्ठकम् । कराचं स्पर्शनं स्कन्धभ्रान्तमेणप्लुतं तथा ॥१३१३॥ लोहड्पञ्चितकं तद्वत्सूच्यन्तमथ लक्षणम् । 1361 1359 1360 ३३५ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः उत्प्लुतिकरणों के अड़तीस भेद होते हैं : १. अञ्चित, २. एकपादाञ्चित, ३. समपादाञ्चित, ४. तियंगचित, ५. भैरवाञ्चित, ६. भ्रान्तपादाञ्चित ७ दण्डप्रणामाञ्चित, ८. कर्त्तर्यञ्चित, ९. लंकावाहाउिचत, १०. समञ्चित ११. बालिबन्धाञ्चित, १२. क्षेत्राञ्चित, १३. स्कन्धाञ्चित, १४. अलग, १५. ऊर्ध्वालग, १६. अन्तरालग, १७. कूर्मालग, १८. लोहडी १९. एकपादलोहडी २०. विचित्रलोहडी, २१. बाहुबन्धलोहडी, २२. कर्त्तरीलोहडी, २३. समकर्त्तरीलोहडी, २४. चतुर्मु खलोहडी, २५. अलगाञ्चित, २६. जलशयन, २७. दर्पशरण, २८. नागबन्ध, २९. मत्स्यकरण ३० तिर्यक्करण, ३१. तिर्थक्स्वस्तिक, ३२. कपालचूर्णन, ३३. नतपृष्ठक, ३४. करस्पर्श, ३५. स्कन्धभ्रान्त, ३६. एणप्लुत, ३७. लोहडयाञ्चित और ३८. सूच्यन्त । उच्यते क्रमतोऽमीषां मया लक्ष्यानुसारतः ॥१३१४॥ अब लक्ष्य के अनुसार इन करणों का क्रमशः लक्षण निरूपित किया जा रहा है । १. अञ्चित विधाय समपादाख्यं स्थानमुत्तानितो यदा । उत्पतेदञ्चितं प्रोक्तं तदा करणवेदिभिः ॥ १३१५॥ जब समपाद नामक स्थानक को बनाकर उत्तान होकर उछला जाय, तब करण के ज्ञाताओं ने उसे अञ्चित करण बताया है। २. एकपादाञ्चित विद्वानों ने एकपादाञ्चित करण को अर्थ के अनुरूप बताया है । ३. समपादाञ्चित एकपादाञ्चितं प्रोक्तमन्वर्थं करणं बुधः ॥१३१६ ॥ 1363 1362 कृत्वोवस्यौ समौ पादौ स्कन्धेनाक्रम्य भूतलम् । पादाबुल्ला लन्यत्र परिवर्तनमाचरेत् । तिर्यकक्रमादिदं प्रोक्तं समपादाञ्चितं बुधैः ॥१३१७॥ यदि सम नामक दोनों चरणों को ऊर्ध्वमुख करके कन्धे से भूतल को छूकर दोनों चरणों को सहलाते हुए तिरछे क्रम से घुमाया जाय, तो उसे विद्वानों ने समपादाञ्चित करण कहा है। ४. तियंगञ्चित तिर्यगञ्चितम् ॥ १३१८ ॥ 1365 समपादात्कृते तिर्यगुत्प्लवे समस्थित पैर से तिरछा कूदने पर तिर्यगञ्चित करण होता है । ३३६ 1364 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्प्लतिकरणों का निरूपण ५. भैरवाञ्चित ऊरुस्थितकपादस्योत्प्लवने भैरवाञ्चितम् ॥१३१६॥ ऊरु पर एक पैर को रखकर उछलने से भैरवाञ्चित करण होता है । ६. शान्तपादाञ्चित प्राक्रम्यासद्वयेनोवों भ्रामयित्वा तु दक्षिणम् । 1366 अघ्रिं तदीयपृष्ठेन वामा स्तु निपीडयेत् ॥१३२०॥ जङ्घामध्य [मथा] रच्याश्चितं कृतविवर्तनम् । 1367 पादावुल्लालयेद्यत्र भ्रान्तपादाञ्चितं त्विदम् ॥१३२१॥ यदि दोनों कन्धों से पृथ्वी का स्पर्श करके दाहिने पैर को घुमाकर उसके पृष्ठभाग से बायें पैर को पीडित किया जाय; फिर घुमाये हुए अञ्चित पैर को जंघा के बीच में करके दोनों पैरों को सहलाया जाय; तो ऐसा करने से भान्तपादाञ्चित करण बनता है। ७. दण्डप्रणामाञ्चित उत्प्लुत्याञ्चितवद्यत्र धरायां दण्डवत्पतेत् । 1368 तदुक्तं करणं दण्डप्रणामाञ्चितसंज्ञकम् ॥१३२२॥ अञ्चित करण की तरह उछलकर पृथ्वी पर डंडे की भाँति गिरने से दण्डप्रणामाञ्चित करण होता है। ८. कर्तर्यञ्चित कर्तर्यञ्चितमेतत्स्यायनाघ्रिस्वस्तिकाञ्चितम् ॥१३२३॥ 1369 जहाँ पैरों को स्वस्तिकाकार करके अञ्चित करण बनाया जाता है वहाँ कर्तयञ्चित करण होता है । ९. लंकावाहाञ्चित अञ्चितं रचयन्देहविवृत्योरुपराङ्मुखः । महीतले यदासीनो विदध्यादुत्कटासनम् । 1370 तदा करणमादिष्टं लङ्कादाहाञ्चिताभिधम् ॥१३२४॥ जब अञ्चित करण की रचना करते हुए शरीर को घुमाकर ऊरु की ओर से मुंह फेरकर पृथ्वी पर बैठकर उत्टक आसन लगाया जाता है, तब लंकादाहाञ्चित करण होता है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुस्वाध्यायः १०. समकतयञ्चित समपादं समाधाय यदा कृत्वाञ्चितं नटः । 1371 रचयेत्स्वस्तिको तत्सत्समकर्मरिकाञ्चितम् ॥१३२५॥ जब नट सम स्थित पैर की रचना करके अञ्चित करण करने के उपरान्त स्वस्तिक हाथों का निर्माण करता है, तब समकर्तयञ्चित करण होता है । ११. बलिबन्धाञ्चित कृत्वाग्रे गजदन्तं तु विदध्यादञ्चितं यदा । 1372 बलिबन्धाञ्चितं ज्ञेयं तदा करणकोविदः ॥१३२६॥ जब पहले गजदन्त नामक हाथ की रचना करके अञ्चित करण किया जाता है तब उसे करणवेत्ता विद्वानों को बलिबन्धाञ्चित करण जानना चाहिए । १२. क्षेत्राञ्चित प्रादौ प्रान्ते च यत्र स्यादञ्चितस्योत्कटासनम् । 1373 इदं क्षेत्राञ्चितं प्रोक्तमशोकेन महीभुजा ॥१३२७॥ जहाँ अञ्चित करण के आदि और प्रान्त में उत्कटासन किया जाता है, वहाँ राजा अशोकमल्ल ने क्षेत्राञ्चित करण बताया है। १३. स्कन्धाञ्चित रचयित्वाञ्चितं यत्र स्कन्धालिङ्गिन्तभूतलः । . 1374 तिर्यगुल्लालयन्पादाववतिष्ठेत . सत्वरम् । इदं स्कन्धाञ्चितं प्रोक्तं करणं प्राक्तनैर्बुधः ॥१३२८॥ 1375 पुरातन आचार्यों का मत है कि जहाँ अञ्चित की रचना करके कन्धों से पृथ्वी का आलिंगन किया जाय और तिरछे पैरों को सहलाते हुए शीघ्रता से उठा जाय; तो वहाँ स्कन्धाञ्चित करण होता है। १४. अलग अधोमुखः समुत्प्लुत्य निपत्य पुरतो यदा । कुक्कुटासनमाबध्य स्थितश्चे [दलगं तदा] ॥१३२६॥ 1376 जब मुंह नीचे की ओर किये उछलकर तथा सामने गिरकर एवं कुक्कुटासन बाँधकर स्थित हुआ जाय, तो वहां अलग करण होता है। ३८ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्प्लुतिकरणों का निरूपण १५. ऊलिग समाङ लवंता स्थित्यां निपत्योलिगं मतम् ॥१३३०॥ गिरकर स्थित होने में यदि सम नामक पैर ऊपर की ओर रहे तो ऊलिग करण होता है। १६. अन्तरालग विधायालगमुत्तानोरःस्थलो भुवि चेत् पतेत् । 1377 शिरसा पृष्ठतः। श्रोणेः संस्पर्शादन्तरालगम् ॥१३३१॥ अलग करण की रचना करके यदि छाती को उत्तान किये सिर के बल भूमि पर गिरा जाय और पीछे की ओर से कटि का स्पर्श किया जाय, तो वहाँ अन्तरालग करण होता है। १७. कूर्मालग कर्मासनं चेदलगे तदा कर्मालगं मतम् ॥१३३२॥ 1378 यदि अलग करण में कूर्मालग लया लिया जाय तो, वह कूर्मालग करण कहलाता है । १८. लोहडी समावज्री विधायाथ विवर्त्य त्रिकमाचरेत् । तिर्यगुत्प्लवनं यत्र सद्भिः सा लोहडी मता। 1379 'लोहडी लुठितं केचिदेतामेव प्रचक्षते ॥१३३३॥ सम स्थित दोनों पैरों की रचना करके तीन बार घुमाकर जहाँ तिरछा कूदा जाय, वहाँ लोहडी करण होता है । इसी लोहडी को कोई विद्वान लठित कहते हैं । १९. एकपादलोहडी एकपादेन रचिता संकपादादिलोहडी ॥१३३४॥ 1380 जो लोहडी एक पैर से रची जाती है उसे एकपादलोहडी करण कहते हैं । २०. विचित्रलोहडी गात्रस्य चक्रवद्भ्रान्तिस्तिर्यपाोपलक्षिता । यत्र सोक्ता विचित्राद्या लोहडी नृत्तवेदिभिः ॥१३३५॥ 1381 नावाचार्यों को अभिमत है कि जहाँ शरीर को चक्र की तरह घुमाया जाय और पार्श्व तिरछा दिखाई पड़े, वहाँ विचित्रलोहडी करण होता है। ३३९ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः २१. वाहुबन्धलोहडी गजदन्तयुता त्वेषा बाहुबन्धादिलोहडी ॥१३३६॥ . जिस लोहडी में गजदन्त नामक हाथ का प्रयोग किया जाता है, वह बाहुबन्धलोहडी कहलाती है । २२. कर्तरीलोहडी __ स्वस्तिकाघ्रि कृता त्वेषा कर्तरीलोहडी मता ॥१३३७॥ 1382 जो लोहडी स्वस्तिकाकार पैरों से की जाती है, वह कर्तरीलोहडी कहलाती है । २३. समकर्तरीलोहडी . प्रादौ प्रान्ते च यस्याः स्तः समौ स्वस्तिकतां गतौ । पादौ सा लोहडी ज्ञेया समकत्तरिपूर्वका ॥१३३८॥ 1383 जिस लोहडी के आदि और प्रान्तभाग में दोनों सम नामक पैर स्वस्तिक मुद्रा को धारण करें, वह समकर्तरीलोहड़ी कहलाती है। २४. चतुर्मुखलोहडी लोहडी या चतुर्दिक्षु सा चतुर्मुखलोहडी ॥१३३६॥ जो लोहडी चारों दिशाओं में की जाती है, वह चतुर्मुख लोहडी कहलाती है। २५. अलगाञ्चित कृत्वालगं यदावेगादञ्चितं रचयेन्नटः। 1384 तदालगाश्चितं ज्ञेयं सद्धिरन्वर्थनामकम् ॥१३४०॥ जब अलग करण की रचना करके नट वेग से अञ्चित पैर की रचना करता है, तब सज्जन लोग उसे अर्थ के अनुरूप नाम वाला अलगाञ्चित करण समझते हैं। २६. जलशयन जलादिशयनं तत्स्याद्यत्रास्ते जलशायिवत् ॥१३४१॥ 1385 जिस करण में, जल में सोने वाले की तरह अवस्थित होना पड़ता है, उसे जलशयन करण कहते हैं। २७. दर्पशरण ___ वैष्णवस्थानमाधाय पतेत्पावन चेद् भुवि । तदाचष्ट नृपो दर्पशरणं वीरसिंहजः ॥१३४२॥ 1386 यदि वैष्णव स्थानक का आश्रय लेकर बगल से पृथ्वी पर गिरा जाय, तो राजा वीरसिंह के पुत्र अशोकमल्ल ने उसे दर्पशरण करण कहा है। ३४० Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्प्लुतिकरणों का निरूपण 1389 २८. नागबन्ध [स्या दर्पसरणस्यान्ते नागबन्धवदासनम् । यत्र तन्नागबन्धाख्यं करणं तद्विदो विदुः । 1387 जहाँ दर्पशरण के अन्त में नागबन्ध के समान आसन लगाया जाय, वहाँ करणों के ज्ञाताओं ने उसे नागबन्ध करण कहा है । २९. मत्स्यकरण उत्प्लुतेमध्यमावृत्या कुरुते वामपार्श्वतः । परिवत्ति तदा यत्र तन्मत्स्यकरणं भवेत् । 1388 जहाँ उछलने के मध्य बार-बार वाम पार्श्व की ओर से चक्कर लगाया जाय, वहाँ मत्स्यकरण होता है । यद्वा कस्यापि करणस्यान्ते तु क्षितिमण्डले । उत्तानशयतो मध्यं नितम्बोन्नतिपूर्वकम् । प्रावर्त्य वामपावेन मत्स्यवत्परिवर्त्य च । अन्ते समुत्प्लुति कृत्वा पादोल्लालनया क्षणात् । 1390 उत्तिष्ठेद्यत्र तदपि मत्स्यायं करणं भवेत् । अथवा किसी करण के अन्त में पृथ्वी पर उत्तान सोकर नितम्ब को उठाये हुए मध्यभाग को घुमाकर वामपार्श्व से मछली की तरह उलटकर तथा अन्त में उछलकर पैर को सहलाते हुए क्षण भर में उठा जाय, तो यह भी मत्स्यकरण कहलाता है। ३०. तिर्यक् करण यत्रकेनैव पादेन तिर्यगुत्प्लुत्य भूतले । 1391 निपत्यकाघ्रिणा तिष्ठत्तत्तिर्यककरणं भवेत् । जहाँ एक ही पैर से तिरछा उछलकर पृथ्वी पर गिरकर एक पैर पर खड़ा हुआ जाय, वहाँ तिर्यक् करण होता है। ३१. तिर्यस्वस्तिक तिर्यस्वस्तिकमुत्प्लुत्य स्यात्तिर्यकस्वस्तिके कृते । तिरछी स्वस्तिक मुद्रा में उछलने से तिर्यस्वस्तिक करण होता है । १. देखिए : भरतकोश। 1392 ३४१ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्याध्यायः ३२. कपालचूर्णन लोहडीमलगं यद्वा विधाय धरणीतलम् । स्पृष्ट्वैव शिरसा यत्र परिवृति करोति चेत् । 1393 कपालचूर्णनं नाम करणं तत्प्रचक्षते । लोहडी या अलग नामक करण को करके पृथ्वीतल को छूकर जहाँ सिर को घुमाया जाता है, वहाँ कपालचूर्णन करण होता है। ३३. नतपृष्ठक कपालचूर्णने जाते वक्षस्युत्तानिते नते । 1394 नतपृष्ठं परैरुक्तं वङ्कोलकरणं त्विदम् । कपालचूर्णन करण के हो जाने पर तथा नत नामक वक्ष के उत्तान करने पर नतपृष्ठ करण होता है । दूसरे आचार्यों ने इसे वह कोलकरण कहा है। ३४ करस्पर्श अलगं विधाय करणं हस्तेनाश्रित्य तर्तकी भूमिम् । 1395 परिवर्तेन यदेदं स्पर्शनमुक्तं कराचं तत् । यदि नर्तकी अलग करण की रचना करके हाथ से घूमते हुए भूमि का आश्रय ग्रहण करे, तो वह करस्पर्श करण कहलाता है। ३५. स्कन्धमान्त पृथ्व्यां स्थित्वांसयुग्मेन कृत्वा चैवोत्कटासनम् । 1396 करणञ्चाञ्चितं कृत्वा धृत्वाङ्गान्तरसञ्चरे । बाहुभ्यां भुवमाक्रम्य भ्रामं भ्रामं च पूर्ववत् । 1397 तिष्ठेत्प्रतिदिशं यत्र तत्स्कन्धभ्रान्तमुच्यते । दोनों कन्धों से भूमि पर अवस्थित होकर उत्कटासन तथा अञ्चित करण करके दूसरे अंगों को चलायमान करते हुए भुजाओं से पृथ्वी को आक्रान्त किया जाय और पूर्ववत् प्रत्येक दिशा में घूम-घूम कर खड़ा हुआ जाय, तो वहाँ स्कन्धमान्त करण होता है । ३४२ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्प्लुतिकरणों का निरूपण ३६. एणप्लुत कृत्वोत्प्लवनं सूचीमन्यतमा स्वे विधाय चेद्भजते । 1398 भूमावूलस्थानं यदोत्कटासनं तदाप्लुतं चैणवम् । जब उछलने के पश्चात् सूची नामक चारी करके भूमि पर ऊर्ध्व स्थान वाले उत्कटासन को किया जाता है तब एगप्लुत करण होता है। ३७. लोहड्यञ्चित विधाय लोहडौं पश्चादञ्चितं क्रियते द्रुतम् । 1399 यत्र तत्करणं प्रोक्तं लोहड्यञ्चितसंज्ञिकम् । जहाँ लोहडी करण करने के पश्चात् शीघ्रता से अञ्चित करण किया जाता है वहाँ लोहड्यञ्चित करण होता है। ३८. सच्यन्त करणे यत्र यत्रान्ते समसूच्यादि सूचिषु । 1400 एकं कुर्यात्तदा तत्तत्सूच्यन्तमिति कथ्यते । करण में जहाँ-जहाँ अन्त में समसूचि आदि सूचि स्थानकों में से किसी एक को सम्पन्न किया जाता है, वहाँ-वहाँ सूच्यन्त करण होता है। अड़तीस उत्प्लुतिकरणों का निरूपण समाप्त Page #354 --------------------------------------------------------------------------  Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगहार रेचक मण्डल प्रकरण | तेरह Page #356 --------------------------------------------------------------------------  Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगार ( अंग - विक्षेप) अंगारों का निरूपण प्रयोक्तव्यान् दृष्टादृष्टफलानपि । 'पूर्वर अङ्गहारान्प्रवक्ष्यामि नामतो लक्ष्मतस्तथा । पूर्वरंग ( नाटक आदि की आरम्भिक क्रिया) में प्रयोग करने योग्य तथा दृष्ट एवं अदृष्ट फल वाले अंगहारों ( अंग-विक्षेपों) के नाम तथा लक्षणों का निरूपण किया जा रहा है । अङ्गानामुचिते देशे प्रापणं सविलासकम् । मातृकोत्क र सम्पाद्यमङ्गहारोऽभिधीयते 1 भातृका -समूह के योग से सम्पन्न होने वाले अंगों को हाव-भाव के साथ समुचित स्थान पर पहुंचाना अंगहार कहलाता है । यद्वा हारो हरस्यायं प्रयोगोऽङ्गेरिति स्मृतः । करणाभ्यां मातृका स्यात् कलापः करणैस्त्रिभिः । चतुभिः खण्डको ज्ञेयः संघातः पञ्चभिर्मतः । इति सङ्घविशेषेण संज्ञा मेदान्परे जगुः । 1401 करणन्यूनताधिक्यं तेषां मेने मुनिः स्वयम् । द्वाभ्यां त्रिचतुराभिर्वेत्येतद्वा शब्दसूचितम् । 1402 1403 1404 अथवा, हरस्य अयम् इति हारः इस व्युत्पत्ति के अनुसार हार का अर्थ है प्रयोग । अंगों से प्रयोग यह अंगहार शब्द का अर्थ है । दो करणों के योग से मातृका बनती है; तीन करणों के योग से कलाप; चार करणों के योग से खण्डक; और पाँच करणों के योग से संघात का निर्माण होता है । इस प्रकार अंगों के समूह-विशेष के कारण अन्यान्य आचार्यों ने अंगहारों के अनेक भेद बताये हैं । 1405 उन अंगहारों में करणों की न्यूनता तथा अधिकता को स्वयं भरत मुनि ने स्वीकार किया है। दो या तीन अथवा चार मातृकाओं के योग से अंगहार का सम्पादन करना चाहिए, यह उन्होंने शब्द द्वारा सूचित किया है । १. देखिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ७९५-८१४ । ३४७ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः 1409 अंगहार के भेद स्थिरहस्तोऽथ पर्यस्तः सूचीविद्धोऽपराजितः । 1406 वैशाखरेचितः पार्श्वस्वस्तिको भ्रमरोऽपरः । आक्षिप्तकः परिच्छिन्नो मदाद्विलसितस्ततः । 1407 पालीढाच्छुरितौ पार्श्वच्छेदसंज्ञोऽपसपितः । मत्ताक्रीडस्तथा विद्युभ्रान्तोऽमी षोडशोदिताः । 1408 चतुरस्रेण मानेनाङ्गहारा मुनिसत्तमः । १. स्थिरहस्त, २. पर्यस्त, ३. सूचीविख, ४. अपराजित, ५. वैशाखरेचित, ६. पार्श्वस्वस्तिक, ७. ममर, ८. आक्षिप्तक, ९. परिच्छिन्न, १०. मदविलसित, ११. आलीट, १२. आच्छरित, १३. पावच्छेद, १४. अपपित, १५. मतकीड तथा १६. विद्युमात-इन सोलह अंगहारों को मुनिवरों ने चतुरस्र मान के हिसाब से बताया है। विष्कम्भापसृतौ (तो)मत्तस्खलितो गतिमण्डलः । अपविद्धश्च विष्कम्भोद्घट्टिताक्षिप्तरेचिताः । रेचितोऽर्धनिकुट्टश्च वृश्चिकापसृतस्ततः । 1410 अलातकः परावृत्तः परिवृत्तादिरेचिंतः । उद्वत्तकश्च सम्भ्रान्तसंज्ञः स्वस्तिकरेचितः । षोडशेति यस्लमाना द्वात्रिंशदुभये मताः । १. विष्कम्भापसृत, २. मत्तस्खलित, ३. गतिमण्डल, ४. अपविद्ध, ५. विष्कम्भ, ६. उद्घट्टित, ७. आक्षिप्तरेचित, ८. रेचित, ९. अर्षनिकुट, १०. वृश्चिकापसृत, ११. अलातक, १२. परावृत्त, १३. परिवृत्तरेक्ति, १४. उत्तक, १५. सम्मान्त और १६. स्वस्तिकरेचित-ये सोलह अंगहार श्यसमान के हिसाब से बताये गये हैं । दोनों मानों के अंगहारों को मिलाकर कुल बत्तीस अंगहार होते हैं । करणवातसन्दर्भानन्त्यात्तेषामनन्तता । 1412 द्वात्रिंशत्ते तथाऽप्युक्ताः प्राधान्यविनियोगतः । करण-समूह के सन्दों के अनन्त होने से अंगहार अनन्त होते हैं । तो भी प्रधानता के हिसाब से बत्तीस बताये गये हैं। 1411 ३४८ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगहारों का निरूपण एककं करणं कार्य कलया गुरुरूपया। 1413 सर्वेषामङ्गहाराणामित्याह करणाग्रणीः । गरु रूप कला के क्रम से सभी अंगहारों के एक-एक करण का निर्माण करना चाहिए, यह करणों के विशेषज्ञों का अभिमत है। १. स्थिरहस्त चतुरस्र मान में सोलह अंगहार (१) लीनं समनखं कृत्वा व्यंसितं चात्र विच्युतौ । 1414 करौ कृत्वौज्झितालीढः प्रत्यालीढं व्रजेत्ततः । निकुट्टकोरूवृत्ताख्यस्वस्तिकाक्षिप्तकान्यथ । 1415 नितम्बं करिहस्तं च कटीच्छिन्नमिति क्रमात् । करणः स्थिरहस्तः स्याद्दशभिः शिववल्लभः । 1416 अङ्गहारेषु सर्वेषु प्रत्यालीढान्तमादितः । प्रयोक्तव्यमिति प्राहुः केचिन्नाट्यविशारदाः । 1417 १. लोन, २. समनख, तथा ३. व्यंसित करणों को करके दोनों हाथों को अलग-अलग करे; फिर आलीढ नामक स्थानक को छोड़कर प्रत्यालीढ नामक स्थानक को प्राप्त करे; अनन्तर ४. निकुट्टक, ५.ऊरूवत्त ६. स्वस्तिक, ७. आक्षिप्त, ८. नितम्ब, ९. करिहस्त और १०. कटीच्छिन्न--कुल दस करणों को क्रमश: करने से स्थिरहस्त अंगहार बनता है, जो शिव को प्रिय है। कोई नाट्य-पण्डित कहते हैं कि सभी अंगहारों में आदि से प्रत्यालीढ तक सभी करणों का प्रयोग करना चाहिए । २. पर्यस्तक तलपुष्पपुटं पूर्वमपविद्धं च वर्तितम् । निकुट्टकोरुदूवृत्तात्याक्षिप्तत्तोरोमण्डलान्यथ । 1418 नितम्बं करिहस्तं च कटीच्छिन्नमिति क्रमात् । दशभिः करणरेभिः प्रोक्तः पर्यस्तको बुधैः । 1419 १. तलपुष्पपुट, २. अपविद्ध, ३. वर्तित, ४. निकुट्टक, ५. ऊरूवृत्त, ६. आक्षिप्त, ७. उरोमण्डल, ८. नितम्ब, ९. करिहस्त और १०.कटीच्छिन्न-क्रमश: इन दस करणों की रचना से पर्यस्तक अंगहार का निर्माण करना चाहिए, ऐसा विद्वानों ने कहा है। ३४९ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. सूचीविद्ध नृत्याध्यायः अर्धसूच्यथ विक्षिप्तमावर्त च निकुट्टकम् ऊरूद्वृत्तमथाऽऽक्षिप्तमुरोमण्डलसंज्ञकम् ] करिहस्तं कटीच्छिन्नं यत्रैतानि क्रमान्नव 1 सोऽङ्गहारोऽङ्गहारज्ञैः सूचीविद्धः प्रकीर्तितः ।। १३४३ ॥ 1421 १. अर्धसूची, २. विक्षिप्त, ३. आवर्त, ४. निकुट्टक, ५. ऊरूत्त, ६. आक्षिप्त, ७. उरोमण्डल, ८. करिहस्त और ९. कटीच्छिन -- जिसमें ये नौ करण प्रयुक्त होते हैं, उस अंगहार को, अंगहारों के ज्ञाताओं ने सूचीद्धि कहा है । ४. अपराजित ३५० 1420 करणं दण्डपादाख्यं प्रसर्पितम् । ततो व्यंसितं च निकुट्टकं चार्धनिकुट्टाक्षिप्तके ततः ॥ १३४४॥ 1422 उरोमण्डलसंज्ञ च करणं करिहस्तकम् । कटिच्छिन्नं च नवभिरेभिः स्यादपराजितः ।। १३४५॥ 1423 १. दण्डपाद, २. व्यंसित, ३. असर्पित, ४. निकुट्टक, ५. अर्धनिकट ६. आक्षिप्त, ७. उरोमण्डल, ८. करिहस्त और ९. कटिच्छिन्न -- जिसमें इन नौ करणों की रचना से अपराजित अंगहार का निर्माण होता है। ५. मदविलसित मदस्लखितमत्तल्लितल संस्फोटितानि चेत् । रचयेत् त्रिश्चतुः पञ्चकृत्वो वा चित्रितान्यथ ॥ १३४६ ।। 1424 निकुट्टो वृत्तके तु विदध्यात् करिहस्तकम् । कटिच्छिन्नं च सम्प्रोक्तो मदाद्विलसितस्तदा ॥ १३४७॥ 1425 मदस्खलित, मतास्लि और तलसंस्फोटित --इन करणों की तीन, चार या पांच बार रचना करके निकुट्टक, ऊत्त, करिहस्त और कटिच्छिन्न करणों को करने से मदविलसित अंगहार बनता है । ६. मत्तक्रीड भ्रमरं नूपुरं चैव भुजङ्गत्रासितं कृत्वा यदा । दक्षिणभागेन यत्र वैशाखरेचितम् ॥१३४८॥ 1426 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगहारोका निरूपण प्राक्षिप्तं च तथा छिन्नं वामतो भ्रमरं पुनः । नितम्बं करिहस्तं च कटिच्छिन्नं समाचरेत् ॥१३४६॥ 1427 तदाङ्गहारो दशभिरमीभिः करणरसौ । मत्तक्रीडोऽथ गणनाम्यासेन भ्रमरस्य सः । 1428 एकादशभिरादिष्टो बुधः शङ्करशङ्करः ॥१३५०॥ जब दक्षिण भाग से १. ममर, २. नूपुर, ३. भुजंगवासित, ४. वैशाखरेचित, ५. आक्षिप्त तथा ६. छिन्न करणों की रचना करके वामभाग से पुनः ७. भमर, ८. नितम्ब, ९. करिहस्त तथा १०. कटिच्छिन्न-इन दस करणों की रचना की जाती है, तब मत्तक्रीड अंगहार बनता है। यहाँ विद्वानों का कहना है कि ग्रमर की एक बार और गणना करने से ११. करणों से मत्तक्रीड अंगहार बनता है, जो शंकर को प्रिय है। . ७. भामर नपुराक्षिप्तके छिन्नसूचीनी च नितम्बकम् । 1429 करिहस्तं च करणमुरोमण्डलसंज्ञकम् । कटिच्छिन्नं च करणरमीभिभ्रमरो भवेत् ॥१३५१॥ 1430 १. नुपुर, २. आशिप्तक, ३. छिन्नसूचि, ४. नितम्ब, ५. करिहस्त, ६. उरोमण्डल और ७. कटिच्छिन्न-इन करणों की रचना से समर अंगहार बनता है। ८. विद्युद्धान्त वामतश्चेदर्धसूचि विद्युभ्रान्तं तु सव्यतः । पुनरेतद् द्वयं चाङ्गविपर्यासाद् विधाय च ॥१३५२॥ 1431 प्रथाच्छिन्नमतिक्रान्तं वामाङ्गेऽथ समा[चरेत् । तला(?लता)धं वृश्चिकं पश्चात् कटिच्छिन्नमिति क्रमात् ॥१३५३॥ षड्भिस्तु करणरेभिविद्युभ्रान्तो मतस्तदा । 1432 प्रायद्विकरणाभ्यासगणने स मतोऽष्टभिः ॥१३५४॥ 1433 वामभाग से अर्षसूचि, दक्षिण भाग से विद्यमान्त और पुनः इन दोनों को अंगपरिवर्तन द्वारा सम्पन्न करके वामभाग में छित्र तथा अतिकान्त करणों की रचना करे; पश्चात् लतावृश्चिक और कटिच्छिन्न को क्रमशः ३५१ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः सम्पन्न करे; इन छह करणों से विद्यभ्रान्त अंगहार बनता है। यहाँ प्रारंभ के दो करणों को दुहरा देने से गणना में आठ करण होते हैं। ९. परिच्छिन्न कृत्वा समनखं यत्र छिन्नं सम्भ्रान्तके ततः । वामाने भ्रमरं चार्धसूचि चेद् रचयेत् ततः ॥१३५५॥ 1434 अतिक्रान्तं भुजङ्गाद्यं त्रासितं करिहस्तकम् । कटिच्छिन्नं च कुर्यात् स परिच्छिन्नस्तदा मतः ॥१३५६॥ 1435 जहाँ समनख करण को करके छिन्न तथा संभ्रान्तक की रचना की जाय; वाम अंग में भ्रमर तथा अर्धसूचि को बनावे और पश्चात् अतिक्रान्त, भुजंगत्रासित, करिहस्त और कटिच्छिन्न का निर्माण किया जाय, तो परिच्छिन्न अंगहार बनता है। १०. पावच्छेद कुट्टितं वृश्चिकाद्यं चेर्वजानु च नूपुरम् । पाक्षिप्तस्वस्तिकं कृत्वा परिवृत्ति त्रिकस्य च ॥१३५७॥ 1436 उरोमण्डलकं पश्चात् नितम्बकरिहस्तके । कटिच्छिन्नं च रचयेत् पार्श्वच्छेदस्तदा मतः ॥१३५८॥ 1437 पहले कुट्टित, वृश्चिक, ऊर्ध्वजानु, नूपुर और आक्षिप्तस्वस्तिक करणों को करके कटिभाग को घुमाकर पश्चात् उरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त तथा कटिच्छिन्न करणों की रचना की जाय, तो पावच्छेद अंगहार बनता है। ११. अपसपित अपक्रान्तं व्यंसितं च पाण्योरेवं यदा क्रिया । करिहस्तकमर्धाचं सूचि विक्षिप्तकं ततः ॥१३५६॥ 1438 कटिच्छिन्नं च करणमुरुद्वृत्तमतः परम् । प्राक्षिप्तं करि[हस्तं च कटिच्छिन्नं पुनस्तदा ॥१३६०॥ 1439 सप्तभिः करणैरेभिरपसपितको मतः । अन्त्यद्विकरणाभ्यासगणने नवभिर्मतः ॥१३६१॥ 1440 ३५२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगारों का निरूपण पहले अपक्रान्त और व्यंसित हाथों की रचना की जाय; तत्पश्चात् करिहस्त, अर्धसूचि, विक्षिप्तक, कटिच्छि ऊरूद्धृत और आक्षिप्त को किया जाय पुनः करिहस्त तथा कटिच्छिन्न करण धारण किया जाय; तो अपरूपक अंगहार होता है। करिहस्त और कटिच्छिन्न को दोहरा देने से यहाँ करणों की संख्या नौ (? दस ) हो जाती है । १२. आक्षिप्त नूपुरं उरोमण्डलकं टिच्छिन्नमपि जहाँ नूपुर, विक्षिप्त, अलात, क्षिप्तक, उरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त और कटिच्छिन्न करणों की क्रमशः रचना की जाय, वहाँ विद्वानों ने आक्षिप्त अंगहार बताया है । १३. आच्छुरित यत्र विक्षिप्तमलातक्षिप्त के ततः । चाथ नितम्बं करिहस्तकम् । ज्ञेयोऽमीभिराक्षिप्तको बुधैः ॥ १३६२ ॥ नूपुरं भ्रमरं चाथ व्यंसितं तदनन्तरम् । अलातकं नितम्बं च सूच्यथो करिहस्तकम् । कटिच्छिन्नं चाङ्गहारोऽमीभिराच्छुरिताभिधः ॥१३६३॥ 1443 नूपुर, भ्रमर, व्यंसित, अलात, नितम्ब, सूचि, करिहस्त तथा कटिच्छिन्न नामक करणों की क्रमशः रचना से आच्छुरित अंगहार बनता है । १४. आलीढ़ पार्श्वयुग्मेन भुजङ्गत्रासितोन्मत्ते 1441 विधाय व्यंसितं वामे निकुटं नूपुरं यदा । श्रन्यतोऽलातमाक्षिप्तमुरोमण्डलकं तथा । करिहस्त टिच्छिन्ने कुर्यादालीढकस्तदा ॥ १३६४॥ जब वाम भाग में व्यंसित, निकुट्ट तथा नूपुर नामक करण किये जाते हैं और दक्षिण भाग में अलात, आक्षिप्त, उरोमण्डलक, करिहस्त और कटिच्छिन्न नामक करण रचे जाते हैं, तब आलोढ़ अंगहार बनता है । १५. वंशाखरेचित वैशाखरेचितं यत्र नूपुरम् । मण्डलस्वस्तिकं ततः ॥ १३६५॥ 1442 1444 1445 ३५.३ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः निकुट्टोरूवृत्त केचित्क्षिप्तोरोमण्डले ततः । करिहस्तं कटिच्छिन्नमित्येभिर्दशभिः क्रमात् । वैशाखरेचितोऽसौ स्यादङ्गहारो जहाँ दोनों पावों में क्रमश: वैशाखरेचित, नूपुर, भुजंगत्रासित, उन्मत्त, मण्डलस्वस्तिक, निकट, ऊरूवृत्त, रोमण्डल, करिहस्त और कटिच्छिन्न- इन दश करणों की रचना की जाय, वहाँ वैशाखरेचित अंगहार बनता है, जो शंकर को प्रिय हैं । १६. पार्श्वस्वरितक १. अपविद्ध दिवस्वस्तिकमथैकेन farrafस्तकं 1446 हरप्रियः || १३६६ || 1447 गात्रेणार्धनिकुट्टकम् । पुनरथान्याङ्गनार्धनिकुट्टकम् ॥ १३६७॥ 1448 ततोऽपविद्धोरूवृत्ताक्षिप्तकानि नितम्बकम् । करिहस्तकटीछिन्नैः करणेरष्टभिः क्रमात् । एभिः स्यादङ्गहारोऽयं पार्श्वस्वस्तिकसंज्ञकः ॥ १३६८ ॥ एक अंग से दिक्स्वस्तिक, अर्धनिकुट्टक, पुनः दिक्स्वस्तिक; फिर अन्य अंग से अर्धनिकुट्टक, तदनन्तर अद्धि, रू., आक्षिप्त, नितम्ब, करिहरत तथा कटिच्छिन्न- क्रमश: इन आठ करणों की रचना की जाय, तो वहाँ पार्श्वस्वस्तिक अंगहार सम्पन्न होता है । यत्र मान में सोलह अंगहार ( २ ) श्रपविद्धं ततः सूचीविद्धमुद्वेष्टिते करे । चार्या बद्धाख्यया सार्धं भ्रामयेत् चेत् त्रिकं ततः ॥१३६६॥ ऊरूवृत्तमुरः पूर्वं मण्डलं च ततः परम् । कटीच्छिन्नमपविद्धस्तदोदितः ॥ १३७० ॥ 1449 1450 1451 पञ्चमं तु यदि उद्वेष्टित हाथ में अपविद्ध तथा सूचीविद्ध करणों को रचकर बद्धा नामक चारी के साथ कटिदेश को घुमाया जाय; उसके बाद ऊरूद्वत्त, उरोमण्डल तथा पाँचवे कटीच्छिन्न करण की रचना की जाय; तो वहाँ अपविद्ध अंगहार बनता है । ३५४ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगहारों का निरूपण 1453 २. परावृत्त जनितं दक्षिणाञ्जेन शकटास्यमतः परम् । 1452 अलातभ्रमरे कुर्यात् वाममङ्गे निकुट्टितम् ॥१३७१॥ करिहस्तं कटीच्छिन्नं क्रमादेतानि यत्र षट् । परावृत्तः सोऽङ्गहारः सदा शङ्करशङ्करः । नमनोन्नमनं प्रोक्तं गात्रस्येह निकुट्टितम् ॥१३७२॥ 1454 . यदि दाहिने अंग से जनित, और बायें अंग से शकटास्य, अलात भमर करणों की रचना की जाय; फिर निकटित करके करिहस्त और कटोच्छिन्न--क्रमशः इन (सब मिलाकर) छह करणों के निर्माण से परावृत्त अंगहार सम्पन्न होता है, जो सदा शंकर को सन्तुष्ट करता है । अंग का झुकाना और उठाना यहाँ निकुटित कहलाता है। ३. रेचित आदौ स्वस्तिकपूर्व स्याद् रेचितं तदनन्तरम् । अर्धाद्यं रेचितं वक्षः स्वस्तिकोन्मत्तके ततः ॥१३७३॥ 1455 प्राक्षिप्तरेचितं चार्धमत्तल्लिकरणं ततः । रेचकाद्यं निकुट्ट च भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ॥१३७४॥ 1456 नूपुरं च ततः कृत्वा कुर्याद् वैशाखरेचितम् । भुजङ्गाञ्चितकं दण्डरेचितं करणं ततः ॥१३७५॥ 1457 चक्रमण्डलकं पश्चाद् वृश्चिकाद्यं तु रेचितम् । व्यंसितं च विवृत्तं च विनिवृत्तविवर्तिते ॥१३७६॥ 1458 गरु[ड] प्लुतसंज्ञं च करणं ललितं तथा । मयूराद्यं ततः पश्चात् सपितं स्खलितं तथा ॥१३७७॥ 1459 प्रसपितं तलाद्यं तु संघट्टितमतः परम् । वृषभक्रीडितं चाथ लोलितं चेति विशतिः ॥१३७८॥ 1460 या षड्भिरधिकामीषां करणानामुदीरिता । रचयित्वा चतुर्दिक्षु भागस्तं विषमैनटः ॥१३७६॥ 1461 ३५५ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः परिवृत्तिप्रकारेण ततः प्रान्ते समाश्रयेत् । उरोमण्डलकं पाश्चात् कटिच्छिन्नं स रेचितः ॥१३८०॥ 1462 पहले स्वस्तिकरेचित, पश्चात् अर्थरचित, तदनन्तर वक्षःस्वस्तिक, उन्मत्त, आक्षिप्तरेचित, अर्धमत्तल्लि, रेचकनिकटटक. भजंगवस्तरेचित, नपर, वैशाखरेचित, भुजंगाञ्चित, दण्डरेचित, चक्रमण्डल. वष्णिकरेचित, व्यंसित, विवृत्त, विनिवृत्त, विवर्तित, गरुडलुप्त, मयूरललित, सर्पित, रखलित, प्रसपित, तलसंघटिटत, वृषभक्रीडित और लोलित--इन छब्बीस करणों को क्रमश: चारों दिशाओं में रचकर नर्तक इनके विषम भाग करके घुमाते हुए किनारे में ले आये । तदुपरान्त उरोमण्डल और कटिच्छिन्न करणों की रचना करे; ऐसा करने से रेचित नामक अंगहार बनता है। ४. आक्षिप्तरेचित रचयेच्चातुरी योगाद् यत्र स्वस्तिकरेचितम् । पृष्ठाद्यं स्वस्तिकं चाथ दिक्स्वस्तिकमतः परम् ॥१३८१॥ 1463 कटीच्छिन्नं समं पश्चाद् धूणितं भ्रमरं[त] तः । रेचितं वृश्चिकाद्यं च ततः पावनिकुट्टकम् । 1464 उरोमण्डलसंज्ञं च करणं सन्नतं ततः । सिंहाकर्षितकं नामापसपितमथात्र तु ॥१३८२॥ 1465 वक्षःस्वस्तिकमिच्छन्ति केचिन्नृत्तमनीषिणः । दण्डपक्षं ललाटाद्यं तिलकं करणं ततः ॥१३८३॥ 1466 विलासितं तलाद्यं च निशुम्भितमतः परम् । विद्यभ्रान्तं च करणं गजक्रीडितकं ततः ॥१३८४॥ 1467 नितम्बं विष्णुक्रान्तोरूवृत्ताक्षिप्तमतः परम् । उरोमण्डलकं पश्चात् नितम्बं करिहस्तकम् ॥१३८५॥ 1468 कटीच्छिन्नं भवेत् नो वा सा स्यादाक्षिप्तरेचितः । पञ्चविंशतिसंख्याकैः करणैः प्राक्तने मते ॥१३८६॥ 1469 अनावृत्त्या नितम्बस्य तथोरोमण्डलस्य च । प्रावृत्त्या त्वनयोरेव सप्तविंशतिभिर्भवेत् ॥१३८७॥ 1470 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगहारों का निरूपण ये वक्षःस्वस्तिककटीच्छिन्ने नेच्छन्ति सूरयः । तन्मतेऽपि तदभ्यासात् पञ्चविंशतिभिर्भवेत् ॥१३८८॥ 1471 पहले चतुरता से स्वरितकरेचित की रचना की जाय; उसके बाद पृष्ठस्वस्तिक, विस्वस्तिक, कटीरिछन, धूणित, भ्रमर, वृश्चिकरेचित, पार्शनिकुट्टक, उरोमण्डल, सन्नत, सिंहाकर्षित, नागापसर्पित, वक्षःस्वस्तिक, दण्डपक्ष, ललाटतिलक, निम्भित, विधुभ्रान्त, गजकोडित, नितम्ब, विष्णुकान्त, ऊरूवृत्त, आक्षिप्त, ऊरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त और कटीरिछन्न अथवा उसके बिना भी--इन पचीस करणों से आक्षिप्तरेचित अंगहार बनता है। किन्तु यह पचीस संख्या तब होगी जब नितम्ब तथा रोमण्डल को दोहराया नहीं जाएगा। इनको दोहरा देने से करणों की संख्या सत्ताईस हो जाती है। जो विद्वान् वक्षःस्वस्तिक तथा कटीच्छिन्न करणों को यहाँ नहीं चाहते हैं, उनके मत में भी उक्त दोनों करणों को दोहरा देने से पच्चीस संख्या हो जाती है। ५. उवृत्त विधाय नूपुरं यत्र भुजङ्गाञ्चितकं ततः । गृध्रावलीनकं पश्चाद्विक्षिप्तोवृत्तके तथा ॥१३८६॥ 1472 एकाङ्गेन ततः कुर्यादूरुवृत्तं नितम्बकम् । लताद्यं वृश्चिकं चाथ कटीच्छिन्नमिति क्रमात् ॥१३६०॥ 1473 नवभिः करणरेभिरुवृत्तोऽसौ मतो बुधः । विक्षिप्तोवृत्तयोरेषोऽभ्यासेन द्वयधिको भवेत् ॥१३६१॥ 1474 पहले नूपुर करण करके भुजंगाञ्चित, गृधावलीनक, विक्षिप्त तथा उद्वृत्त करणों की रचना की जाय; फिर एक अंग से ऊरूवृत्त, नितम्ब, लतावृश्चिक और कटीच्छिन्न---इन नौ करणों को क्रमशः किया जाय, तो उद्धृत अंगहार बनता है। यहाँ विक्षिप्त और उद्वत्त करणों को दोहरा देने से दो अधिक करण हो जाते हैं। ६. उद्घटित निकुटं करणं पश्चादुरोमण्डलसंज्ञकम् । नितम्बकरिहस्ते च कटोच्छिन्नमिति क्रमात् । पञ्चभिः करणरेभिरुद्घट्टित उवीरितः ॥१३६२॥ 1475 ३५७ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्याध्याया निकट, उरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त और कटीच्छिन्न--इन पांच करणों को क्रमशः करने से उद्घटित अंगहार बनता है। ७. अलात स्वस्तिकं करणं पूर्वमथ द्विव्यंसितं ततः । 1476 अलातं चोर्ध्व जानु स्यान्निकुञ्चितमतः परम् ॥१३६३॥ अर्धसूच्यथ विक्षिप्तोवृत्तकाक्षिप्तकानि च । 1477 करिहस्तं कटोच्छिन्नं भवन्त्येतान्यलातके । एकादश तथाभ्यासगणने व्यंसितेऽधिकम् ॥१३६४॥ 1478 पहले स्वस्तिक करण, पश्चात् दो व्यंसित, अलात, ऊर्ध्वजान, निकुञ्चित, अर्धसूचि, विक्षिप्त, उदृत्त, आक्षिप्त, करिहस्त और कटीच्छिन्न--ये ग्यारह करण क्रमश: अलात अंगहार में प्रयुक्त होते हैं । यहाँ व्यंसित को दो बार दोहरा देने से करणों की संख्या एक अधिक अर्थात बारह हो जाती है। ८. सम्धान्त विक्षिप्ताञ्चितके दण्डपूर्व सूचि ततः परम् । गङ्गावतरणं चाथ सूच्यथो दण्डपादकम् ॥१३६५॥ 1479 वामाङ्गरचितं पश्चाच्चतुरं भ्रमरं ततः । नपुराक्षिप्तके चार्धस्वस्तिकं च नितम्बकम् ॥१३६६॥ 1480 करिहस्तमुरः पूर्व मण्डलं कटिपूर्वकम् । छिन्नं चेति क्रमादेभिः पञ्चाद्यैर्दशभिर्मतः । 1481 सम्भ्रान्तनामको धीरैरङ्गहारो हरप्रियः ॥१३९७॥ विक्षिप्त, अञ्चित. दण्डसचि. गंगावरण, सचि. दण्डपाद, वाम अंग में रचे जायँ; तत्पश्चात चतर भ्रमर नपुर, आक्षिप्त, अर्धस्वस्तिक, नितम्ब, करिहस्त, उरोमण्डल और कटिच्छिन्न--इन पन्द्रह करणों को क्रमश: प्रयुक्त किया जाय, तो सम्भ्रान्त अंगहार बनता है, जो शंकर को प्रिय है। ९. अर्धनिकुट्ट नूपुरं करणं पूर्व विवृत्तं तदनन्तरम् । 1482 निकुट्टार्धनिकुट्टाधरेचितानि ततः परम् ॥१३६८॥ ३५८ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगहारों का निरूपण रेचकाद्यं निकुटं च करणं ललिताभिधम् । 1483 वैशाखरेचितं [पश्चात् चतुरं दण्डरेचितम्] ॥१३६६॥ वृश्चिकाचं कुट्टितं च ततः पार्श्वनिकुट्टकम् । 1484 सम्भ्रान्तोद्घट्टिताख्योरोमण्डलानि ततः परम् ॥१४००॥ करिहस्तकटिच्छिन्ने यत्रतानि क्रमादसौ । 1485 भवेदनिकुट्टाख्यस्त्वङ्गहारः शिवप्रियः ॥१४०१॥ पहले नूपुर करण, पश्चात् निकुट, अर्धनिकुट्ट, अपरेचित, रेचकनिकुट, ललित, वैशाखरेचित, चतुर, दण्डरेचित, वृश्चिककुट्टित, पार्शनिकुट्टक, संभ्रान्त, उद्घट्टित, उरोमण्डल, करिहरत और कटिच्छिन्न--ये करण क्रमशः, शंकर के प्रिय, अर्बनिकुट्ट नामक अंगहार में प्रयुक्त होते हैं । १०. परिवृत्तरेचित नितम्बं स्वस्तिकाद्यं तु रेचितं तदनन्तरम् । 1486 विक्षिप्ताक्षिप्तकं चाथ लतावृश्चिकसंज्ञकम् ॥१४०२॥ उन्मत्तकरिहस्ते च भुजङ्गत्रासितं ततः । 1487 आक्षिप्तं करिहस्तं च नितम्बं च नवेत्यथ ॥१४०३॥ भ्रमरेण सहेमानि परिवत्त्याश्रयेत् ततः । 1488 स्थित्वा दिगन्तरास्यस्तु व्याव]तरयोदिशोः ॥१४०४॥ करिहस्तं कटिच्छिन्नं विदध्यात् पूर्वदिक् स्थितः । 1489 यत्रासो परिवृत्ताद्यो रेचितः परिकीर्तितः ॥१४०५॥ गङ्गावतरणं त्यक्त्वा तथा नागापसर्पितम् । 1490 परिवृत्तविधिज्ञेयः सर्वत्रैवाङ्गहारकैः ॥१४०६॥ नितम्ब, स्वस्तिकरेचित, विक्षिप्त, आक्षिप्त, लतावृश्चिक, उन्मत्त, करिहस्त, भुजंगत्रासित, आक्षिप्त, करिहरत और नितम्ब-इन करणों को भ्रमर के साथ घुमाकर अन्य दिशा में मख करके अवस्थित हो; फिर अन्य दो दिशाओं में घूमकर पूर्व दिशा में खड़ा होकर करिहस्त एवं कटिच्छिन्न करणों की रचना करे; ऐसा करने से परिवृत्तरेचित अंगहार बनता है। गंगावतरण और नागापपित नामक करणों को छोड़कर सर्वत्र अंगहार करने वालों को परिवत्त का प्रकार जान लेना चाहिए । ३५१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ११. स्वस्तिकरेचित वैशाखरेचितं पूर्व वृश्चिकं चाथ तद् द्वयम् । 1491 सव्यसव्येतराङ्गाभ्यां निकुटुं सलताकरम् ॥१४०७॥ तुर्य यत्र कटीच्छिन्नमसौ स्वस्तिकरेचितः । 1402 अभ्यासादाद्ययोरत्र करणानि भवन्ति षट् । स्वस्तिकापसृत केचिदिममेव प्रचक्षते ॥१४०८॥ 1493 पहले वैशाखरेचित, पश्चात् वृश्चिक, अनन्तर दाहिने-बायें अंगों से लताकर हाथ के साथ निकट और चौथे कटीच्छन्न नामक करणों के करने से स्वस्तिकरेचित अंगहार बनता है। यहाँ वैशाखरेचित और वृश्चिक को दोहरा देने से छह करण हो जाते हैं। कोई आचार्य इसी अंगहार को स्वस्तिकापसत कहते हैं। १२. विष्कम्भापसृत निकुट्टाधुनिकुट्टे द्वे कृत्वा पार्श्वद्वयेन चेत् । भुजङ्गत्रासितं कुर्याद् भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ॥१४०६॥ 1494 प्राक्षिप्तकमुरःपूर्व मण्डलं च लताकरौं । सप्तमं तु कटीच्छिन्नं विष्कम्भापसृतस्तदा ॥१४१०॥ 1495 दोनों पार्श्व से निझुट तथा अर्बनिकुट्ट नामक करणों को करके भुजंगत्रासित, भजंगवस्तरेचित, आक्षिप्त, उरोमण्डल, दोनों लताकर नामक हाथ और सातवें कटीच्छिन्न नामक करण के करने से विष्कम्भापसत अंगहार बनता है। १३. विष्कम्भक निकुट्टकं विधायाथ निकुश्चितमथाञ्चितम् । ऊरूवृत्तकमप्यर्धनिकुट्ट तदनन्तरम् ॥१४११॥ 1496 भुजङ्गत्रासितं पाणिमुद्वेष्ट्य भ्रमरं ततः । करिहस्तकटीच्छिन्ने कुर्याद् विष्कम्भकस्तु सः ॥१४१२॥ 1497 निकुट्टक करण को करने के पश्चात् अञ्चित, ऊरूद्वत्त, अर्धनिकट और भुजंगत्रासित करणों की रचना की जाय; अनन्तर एक हाथ को उद्वेष्टित करके भ्रमर करिहस्त तथा कटीच्छिन्न करणों को बनाया जाय, तो विष्कम्भक अंगहार होता है । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. गतिमण्डल मण्डलस्वस्तिकं उद्घट्टितं च कटीच्छिन्नममोभिः स्यादष्टभिर्गतिमण्डलः ॥ १४१३॥ त्वाद्यं नूपुरोन्मत्तेके ततः । मत्तल्ल्याक्षिप्तोरोमण्डलान्यथ । मण्डलस्वस्तिक, नूपुर, उन्मत्त, उद्घट्टित, मत्तल्लि, आक्षिप्त, उरोमण्डल और कटीच्छिन्न-- इन आठ करणों के क्रमशः प्रयोग से गतिमण्डल अंगहार बनता है । १५. वृश्चिकासृत अंगहारों का निरूपण करण-समूह गया है । ४६ स्याल्लतावृश्चिकं पूर्वं यत्र पश्चान्निकुञ्चितम् । मतल्लि च नितम्बं च करिहस्तं ततः परम् । कटीच्छिन्नं षष्ठमसौ वृश्चिकापसृतो भवेत् ॥१४१४ ॥ 1500 लतावृश्चिक, निकुञ्चित, मत्तलि, नितम्ब, करिहस्त और छठा कटीच्छिन्न-इन करणों की क्रमशः रचना से वृश्चिकासृत अंगहार बनता है । १६. मत्तस्खलित मत्तल्यथो गण्डसूचि ततो लीनापविद्धके । तलसंस्फोटितं चाथ करिहस्तमतः परम् । कटीच्छिन्नं क्रमान्मत्तस्खलितः सप्तभिर्भवेत् ॥ १४१५ ॥ 1498 मत्तल्लि, गण्जसूचि, लीन, अपविद्ध, तलसंस्फोटित, करिहस्त और कटीच्छिन्न-इन सातों करणों को क्रमशः करने से मतस्वलित अंगहार बनता है । 1499 दृष्टादृष्टफला दृष्टनियोगा सर्वत्रैवाङ्गहारेषु कलया मुख्यभावतः । गुरुरूपया ॥ १४१७॥ 1501 करणोत्करसन्दर्भानन्त्यादेतदनन्तता यद्यप्यस्ति तथाप्येते समासात् समुदीरिताः ॥१४१६॥ के सन्दर्भ से अंगहारों की संख्या अनन्त हो जाती है; फिर भी यहाँ उनका संक्षेप में निरूपण किया 1502 1503 ३६१ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः योज्यं करणमेकैकमिति तज्ज्ञाः [प्रचक्ष] ते । 1504 अङ्गेषु पूर्वरङ्गस्य तथा चोत्थापनादिषु ॥१४१८॥ . मृदङ्गप्रमुखैर्वाद्यैर्लयतालानुगामिभिः 1505 वर्धमानासारितेषु पाणिकागीतिकादिषु ॥१४१६॥ पुरुषरङ्गहारास्ते परं श्रेयोऽभिकाक्षिभिः । 1506 प्रयोक्तव्याः शिवस्याग्ने यथाविधि मनीषिभिः ॥१४२०॥ अंगहार मुख्य भाव से दृष्टफल (जिनके परिणाम देखे गये हों), अदृष्टफल (जिनके परिणाम देखे न गये हों) और दष्टनियोग (जिनकी प्रवृत्ति देखी गई हो) होते हैं। सभी जगह अंगहरों में गुरुरूप कला के द्वारा एक-एक करण की योजना करनी चाहिए, ऐसा उसके विशेषज्ञ कहते हैं । कल्याण चाहने वाले मनीषी पुरुष लय और ताल का अनुगमन करने वाले मृदंग आदि वाद्यों के द्वारा वर्धमान, आसानित और पाणिका गीत आदि के अवसर पर शंकर के आगे उन अंगहारों का विधिपूर्वक प्रयोग करें। बत्तीस अंगहारों का निरूपण समाप्त । चार प्रकार के रेचकों का निरूपण अथाहं रेचकान् वक्ष्ये चतुरान् मुनिसम्मतान् । 1507 पाणिकण्ठक्टीपादविशेषेणसमुद्भवान् ॥१४२१॥ अब, भरत मुनि के अभीष्ट हस्त, कण्ठ, कटि और पाद विशेष से उत्पन्न चार प्रकार के रेचकों का निरूपण किया जाता है। १. पाणिरेचक त्वरया परितो भ्रान्ति यदा स्याद्धंसपक्षयोः । 1508 पर्यायेण तदा धीरैरादिष्टः । पाणिरेचकः ॥१४२२॥ अथवा स्यादसौ पाणेविरलप्रसृताङ्गुलेः । 1509 ३६२ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेचकों का निरूपण यदि हंसपक्ष मद्रा में दोनों हाथों को बारी-बारी से शीघ्रतापूर्वक चारों ओर घुमाया जाय, तो धीर पुरुषों ने उसे पाणिरेचक कहा है। अथवा, बिरल (अलग-अलग) तथा फैली हुई उँगलियों वाले हाथ को तिरछा घमाया जाय, तो वह (भी) पाणिरेचक कहलाता है । २. कष्ठरेचक तिर्यग्भ्रान्तिरथो यः स्यात् कण्ठस्य विधुतभ्रमः ॥१४२३॥ स कण्ठरेचकः प्रोक्तः कण्ठरेचककोविदः । 1510 यदि कण्ठ को तिर्यक् रूप में कम्पित करके घुमा दिया जाय, तो कण्ठरेचकवेत्ताओं ने उसे कण्ठरेचक कहा है। ३. कटिरेचक सर्वतो भ्रमणात् कट्याः कथितः कटिरेचकः ॥१४२४॥ यदि कटि को चारों ओर घमाया जाय, तो उसे कटिरेचक कहा जाता है। . 1511 ४. पादरेचक या त्वन्तर्बहिरङ्गुष्ठानस्य पानिरन्तरा । नमनोन्नमनोपेता गतिः सा पादरेचकः ॥१४२५॥ यदि अंगूठे के अग्रभाग तथा एड़ी के बाहर-भीतर निरन्तर रूप से झुकने-उठने की गति की जाय, तो उसे पादरेचक कहते हैं। धीरधुर्योऽशोकमल्लश्चतुरश्चतुरोदितान् । 1612 रेचकांश्चतुरोऽवोचज्जितारातिर्महीपतिः ॥१४२६॥ धीराग्रणी, चतुर, शत्रुजयी महाराज अशोकमल्ल ने, बुद्धिमान् व्यक्तियों द्वारा कथित, (उक्त प्रकार से) चार रेचकों का निरूपण किया है । चार प्रकार के रेचकों का निरूपण समाप्त । ३६३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः मण्डलों का निरूपण मण्डल (गति) के भेद 'अतिक्रान्तं वामविद्धं क्रान्तं ललितसञ्चरम् । 1513 सूचीविद्धमलातं च [विचित्रं] विहृतं तथा ॥१४२७॥ ललितं दण्डपादं च दशोद्दिष्टानि सूरिभिः । 1514 मण्डलान्यान्तरिक्षाणीतिविद्वानों ने आकाशगत मण्डल के दस भेद बताये हैं :१. अतिक्रान्त, २. वामविद्ध, ३. क्रान्त, ४. ललितसञ्चर, ५. सूचीविद्ध, ६. अलात, ७. विचित्र, ८. विहत, ९. ललित और १०. दण्डपाद । __ -अथ भौमान्यनुक्रमात् ॥१४२८॥ 1515 भ्रमरं शकटास्यं च पिष्ठकुट्टमथाडितम् । समोत्सरितमावर्तमेलकाक्रीडितं तदा ॥१४२६॥ 1518 प्रास्कन्दितं चाषगतमध्यर्धमिति सूरिभिः । दशोद्दिष्टान्यथामीषां लक्ष्माणि व्याहरे क्रमात् ॥१४३०॥ 1617 विद्वानों ने मिगत मण्डल के दस भेदों का क्रमश: इस प्रकार उल्लेख किया है. : १. भमर, २. शकटास्य, ३. पिष्टकुटटक, ४. अडित, ५. समोत्सरित, ६. आवर्त, ७. एलकाक्रीडित, ८. आस्कन्दित, ९. चाषगति और १०. अभ्यर्ष । अब क्रमश: उनके लक्षण-विनियोग का निरूपण किया जा रहा है। दस आकाशगत मण्डल (१) १. अतिक्रान्त जनितो दक्षिणः पादः शकटास्यः स एव च । प्रथालातो भवेद् वामः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥१४३१॥ 1518 अथ वामो भवेत् सूची स एव भ्रमरस्तथा । अथ सव्योऽध्रिवृत्तो वामोऽलातोथ चेदुभौ ॥१४३२॥ 1519 चरणौ छिन्नकरणमाश्रितौ तदनन्तरम् । वामाङ्गनिर्मिता वाथ भ्रमरी यत्र जायते ॥१४३३॥ 1520 ३६४ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलों का निरूपण अथातिक्रान्तको वामो दण्डपादः परस्तदा । तन्मण्डलमतिकान्तं समवोचन् विचक्षणाः ॥१४३४॥ 1521 . दाहिना पैर जनित तथा शकटास्य करणों में अवस्थित हो और बायाँ पैर अलात करण बना हो; फिर दाहिना पैर पार्वकान्त तथा बायाँ पैर सूची और भ्रमर बना हो; पुनः दाहिना पैर उबृत्त और बायाँ पैर अलात हो; दोनों चरण छिन्नकरण का सहारा लिये हों; तदनन्तर वाम अंग में भ्रमरी नामक चारी की रचना की जाय; फिर बायाँ पर अतिकान्त करण और दाहिना पैर दण्डपाद बनाया जाय; तो ऐसी क्रिया को विद्वानों ने अतिक्रान्त आकाशमण्डल कहा है। [च'मत्काराय चारीणामानुपूर्येण या क्रिया । तन्मण्डलमिति प्रोक्तमखण्डमतिशालिभिः । 1622 चमत्कार उत्पन्न करने के लिए चारियों को क्रमशः क्रियान्वित करना ही मण्डल कहलाता है, ऐसा विद्वानों का मत है। भौममाकाशिकं चेति तत्पुद्विविधं भवेत् । प्राचुर्याद्भौमचारीणां भौममण्डलमुच्यते । 1523 आकाशचारी बाहुल्यादाकाशिकमिति स्मृतम् । भौमाकाशिकभेदानामुद्देशोऽत्र विधीयते ।। 1524 फिर उस मण्डल के दो भेद हैं : १. भौम और २. आकाशिक । अधिकता के कारण भौम चारियों को भौममण्डल और आकाशचारियों को आकाशिकमण्डल कहा गया है। यहाँ भौम और आकाशिक नाम-भेद से उद्देश्य का विधान किया गया है। भ्रमरं च तदावर्तमास्कन्दितमथाडितम् । । समोत्सरितमत्यर्धमेलकाक्रीडितं तथा । शकटास्यं पिष्टकुष्टं ततश्वाषगताभिधम् । भौमानि मण्डलानीति दशोद्दिष्टान्यनुक्रमात् । 1526 भौम मण्डल के क्रमशः दस नाम बताये गये हैं : १. भामर, २. आवर्त, ३. आस्कन्दित, ४. अड्डित, ५. समोत्सरित, ६. अत्यर्ष, ७. एलकाक्रीडित,८. शकटास्य, ९ पिष्टकट्ट और १०. चाषगत । १. देखिए : अशोक-भरतकोश, १०४५४ । 1525 ३६५ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः अतिक्रान्तं दण्डपादं क्रान्तं च विहृतं तथा । सूचीविद्ध वामविद्ध तदा ललितसञ्चरम् । 1527 विचित्रं ललितं चैव ततश्चालातमित्यपि । एतान्याकाशिकानि स्युः मण्डलानि दश क्रमात् । 1528 आकाशिक मण्डल के भी क्रमश: दस नाम हैं : १. अतिक्रान्त, २. दण्डपाद, ३. कान्त, ४. विहृत, ५. सूचीविद्ध, ६. वामविद्ध, ७. ललितसञ्चर, ८. विचित्र, ९. ललित और १०. अलात । २. वामविद्ध सूची स्वाद् दक्षिणः पादो वामोऽतिक्रान्ततां गतः । दक्षिणो दण्डपादोऽन्य सूच्यघ्रिभ्रमरः क्रमात् ॥१४३५॥ 1529 पार्श्वक्रान्तस्तु सव्यःस्याद् वामस्त्वाक्षिप्ततां गतः । दक्षिणो दण्डपादः स्यादूरूवृत्तोऽप्यथ क्रमात् ॥१४३६॥ 1530 पादः सूची भवेद् वामस्ततोऽसौ भ्रमरो भवेत् । आलातोऽप्यथ सव्यः स्यात् पार्श्वक्रान्तोऽथ वामकः । अतिक्रान्तो यत्र वामविद्धमेतत् प्रकीर्तितम् ॥१४३७॥ 1531 दाहिना पैर सूची हो और बायाँ पैर अतिक्रान्त हो; फिर दाहिना पैर दण्डपाद और बायाँ पैर क्रमशः सूची तथा भ्रमर हो; पुनः दाहिना पैर पार्श्वकान्त हो और बायाँ पैर आक्षिप्त; दाहिना पैर क्रमश: दण्डपाद तथा करूदवत्त हो और बायाँ पैर सूची तथा भ्रमर हो; फिर दाहिना पैर अलात तथा पार्श्वक्रान्त हो और बायाँ पैर अतिक्रान्त हो; तो ऐसी स्थिति में वामविद्ध आकाशमण्डल होता है। ३.क्रान्त 1532 सूच्यध्रिदक्षिणो वामोऽपक्रान्तो दक्षिणो भवेत् । पार्श्वक्रान्तस्ततो वामः परितो मण्डलभ्रमः ॥१४३८॥ अथ वामो भवेत् सूची परोपऽक्रान्ततां गतः । यत्र तन् मुनिभिः क्रान्तं स्वभावगमने मतम् ॥१४३६॥ 1533 ३६६ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलों का निरूपण दाहिना पैर सूची करण हो और बायाँ अपक्रान्त करण हो; फिर दाहिना पैर पार्श्वक्रान्त हो और बायाँ पैर चारों ओर मण्डलाकार में घुमाया जाय; फिर बायाँ पैर सूची हो और दाहिना पैर अपक्रान्त हो; तो इस क्रिया को भरत आदि मुनियों ने क्रान्त आकाशमण्डल कहा । इसका विनियोग स्वाभाविक चाल के अभिनय में किया जाता है । ४. ललितसञ्चर ऊर्ध्वजानुस्ततः सूची दक्षिणोऽङ्घ्रिः क्रमात् ततः । अपक्रान्तोऽपरः पार्श्वक्रान्तः स्याद् दक्षिणस्ततः ॥१४४०॥ सूची भ्रमरको वामः क्रमाद‌ङ्घ्रिस्तु दक्षिणः । पार्श्वकान्तस्ततो वामोऽतिक्रान्तो दक्षिणः पुनः ॥ १४४१ ॥ सूची वामोऽप्यपक्रान्तः पार्श्वक्रान्तश्च दक्षिणः । प्रतित्रान्तस्तु वामोऽङ्घ्री द्वौ छिन्नकरणाश्रयौ ॥१४४२॥ वामाङ् घ्रिनिर्मिता बाह्यभ्रमर्यन्ते यदा तदा । सञ्चरं ललिताद्यं स्यान्मण्डलं शिववल्लभम् ॥१४४३॥ दाहिना पैर क्रमशः ऊर्ध्वजानु तथा सूची करण बना हो और बायाँ पैर अपक्रान्त बना हो; तदनन्तर दाहिना पैर पार्श्वकान्त और बायाँ पैर क्रमशः सूची तथा भ्रमर बना हो; फिर दाहिना पैर पार्श्वक्रान्त और बायाँ अतित हो; पुनः दाहिना पैर सूची तथा बायाँ पैर अवक्रान्त हो; फिर दाहिना पैर पार्श्वक्रान्त और बायाँ पैर अतिक्रान्त हो; दोनों पैर छिन्न करण का आश्रय लिये हुए हों; अन्त में बायें पैर से बाहर भ्रमरी नामक 'चारी बनायी जाय; तो ललितसञ्चर आकाशमण्डल बनता है, जो शंकर को प्रिय है । ५. सूचीविद्ध 1534 1535 1536 1537 दक्षिणे यत्र सूची स्याद् भ्रमरोऽप्यथ जायते । पार्श्वक्रान्तस्ततो वामोऽतिक्रान्तश्चरणः परः || १४४४ ॥ सूची स्यादथ वामोऽङ्घ्रिरपक्रान्तः स्वरूपधृक् । पार्श्वक्रान्तोऽपरस्तद्धि सूचीविद्ध प्रकीर्तितम् ॥१४४५॥ जहाँ दाहिना पैर सूची तथा भ्रमर मुद्रा में हो और बायाँ पैर पार्श्वक्रान्त हो; फिर दाहिना पैर अतिक्रान्त तथा सूची में हो और बायाँ पैर अपक्रान्त का स्वरूप धारण किये हुए हो; पुनः दाहिना पैर पाश्वंक्रान्त हो; तो सूचीविद्ध आकाशमण्डल बनता है । 1538 1539 ३६७ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ६. अलात कुर्याद्वामाघ्रिणा सूची भ्रमरी दक्षिणाघ्रिणा । 1540 भुजङ्गात्रासितां चारीमलातामपराज्रिणा ॥१४४६॥ षड्वारमथवा सप्तकृत्वः कृत्वा क्रमादिमाः । 1541 क्षिप्रं भ्रान्त्वा चतुदिक्षु समन्तान्मण्डलाकृतिः ॥१४४७॥ अपक्रान्तां दक्षिणेन वामेन त्वघ्रिणा यदा । 1542 अतिक्रान्ताभ्रमरिके विधत्ते ललितः क्रमैः । तदालातं मण्डलं स्यात्सदा शङ्करशङ्करम् ॥१४४६॥ 1543 बायें पैर से सची तथा भमरी नामक चारियों को तथा दाहिने पैर से भजंगत्रासिता नामक चारी को और फिर बायें पैर से अलाता नामक चारी को छह बार या सात बार क्रमश: करके चारों दिशाओं में मण्डलाकार में शीघ्रतापूर्वक घुमाकर दाहिने पैर से अपक्रान्ता नामक चारी को और बायें पैर से अतिक्रान्ता एवं भ्रमरिका नामक चारियों को सुन्दर ढंग से करने पर अलात नामक आकाशमण्डल बनता है, जो सदा शंकर को प्रिय है। ७. विचित्र जनितो दक्षिणोऽध्रिः स्यादूरूवृत्तोऽपि विच्यवः । अथ सप्तस्थितावर्तोव्यावर्तोदितभेदवान् ॥१४४६॥ 1544 वामोऽध्रिः स्पन्दितोऽथ स्यात् पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः ।। भुजङ्गत्रासितोऽन्यः स्यादतिक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥१४५०॥ 1545 उद्वत्तकोऽप्यसौ वामस्त्वलातो दक्षिणः पुनः । पार्श्वक्रान्तोऽथ सूच्यज्रिर्वामो विक्षिप्य दक्षिणम् । 1546 अपक्रान्तो भवेद् वामो यत्र तत् स्याद् विचित्रकम् ॥१४५१॥ दाहिना पैर जनिता, ऊरूदवत्ता, विच्यवा, सात स्थितावर्ता और दो आवर्ता चारियों के भेद से युक्त हों; बायाँ पैर स्पन्दिता चारी से यक्त हो, दाहिना पैर पावक्रान्ता चारी से यक्त हो; फिर बायाँ पैर भजगत्रासिता से युक्त हो; दाहिना पैर अतिक्रान्ता से युक्त हो, बायाँ पैर उदवत्ता से यक्त हो; पूनः दाहिना पैर अलाता से युक्त हो; फिर बायाँ पैर पावक्रान्ता से युक्त हो; तो विचित्र आकाशमण्डल होता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलों का निरूपण ८. विहृत दक्षिणो विच्यवीभूयः क्रमादुत्स्पन्दितस्ततः । 1547 पार्श्वक्रान्तोऽप्यथो वामः स्पन्दितस्तदनन्तरम् ॥१४५२॥ भवेत् सव्योऽङ्घ्रिरुवृत्तो वामोऽलातत्वमागतः । 1548 सूच्यज्रिर्दक्षिणो वामः पार्श्वक्रान्तत्वमाश्रितः ॥१४५३॥ आक्षिप्तो दक्षिणो यत्र भ्रान्त्वा सव्यापसव्यतः । 1649 आश्रितो दण्डपादत्वमथः वामः क्रमाद् यदि ॥१४५४॥ सूच्य िभ्रमरश्चाथ भुजङ्गात्रासितोऽपरः । 1550 अतिक्रान्तस्तु वामः स्यात् तत् तदा विहृतं मतम् ॥१४५५॥ दाहिना पैर विच्यवा चारी से युक्त होकर क्रमशः स्पन्दिता तथा पार्श्वक्रान्ता से युक्त हो; तदनन्तर बायाँ पैर स्पन्दिता से युक्त हो, दाहिना पैर उदवत्ता से युक्त हो; बायाँ पैर अलाता से युक्त हो, दाहिना पैर सूचो से युक्त हो; फिर बायाँ पैर पावक्रान्ता से यक्त हो, दाहिना पैर आक्षिप्ता से युक्त होकर दायें-बायें घूमकर दण्डपादा से युक्त हो जाय; फिर बायाँ पर क्रमश: सूचो तथा भमरी से युक्त हो; दाहिना पैर भुजंगत्रासिता से युक्त हो और बायाँ पर अतिक्रान्ता से युक्त हो; तो विहुत आकाशमण्डल होता है। ९. ललित दक्षिणश्चरणः सूची वामोऽपक्रान्ततां गतः । 1551 पार्श्वक्रान्तो भवेत् सव्यो भुजङ्गात्रासितोऽप्यसौ ॥१४५६॥ अतिक्रान्तः पुनर्वामः स्यादाक्षिप्तस्तु दक्षिणः । . 1552 वामः क्रमादतिक्रान्त ऊरुवृत्तोऽप्यलातकः ॥१४५७॥ पार्श्वक्रान्तो दक्षिणः स्यात् सूची वामोऽथ दक्षिणः। 1553 अपक्रान्तोऽथ वामोऽघ्रिरतिक्रान्तत्वमाश्रितः । सञ्चरेल्ललितं यत्र तन्मतं ललितं बुधैः ॥१४५८॥ 1554 दाहिना चरण सूची से युक्त हो, बायाँ चरण अपक्रान्ता से युक्त हो; दाहिना चरण पार्श्वक्रान्ता तथा भुजंगत्रासिता से युक्त हो, बायाँ चरण अतिक्रान्ता से युक्त हो; पुनः दाहिना आक्षिप्ता से युक्त हो, वायाँ क्रमशः अतिक्रान्ता, ऊरूद्वत्ता तथा अलाता से युक्त हो; फिर दाहिना पार्श्वक्रान्ता से और बायाँ सूची से मुक्त हो; तदनन्तर ३६९ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नस्याध्यायः दाहिना अपक्रान्ता से युक्त हो और बायाँ अतिक्रान्ता से यक्त होकर सून्दर ढंग से संचरण करे; तो उसे विद्वानों ने ललित आकाशमण्डल बताया है । १०. दण्डपाद जनितो दण्डपादश्च दक्षिणोऽङ्घ्रिः क्रमात् ततः । सूची स्याद् भ्रमरश्चान्योऽथोद्वत्तो दक्षिणस्ततः ॥१४५६॥ 1555 वामोऽलातोऽथ चरणः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः । भुजङ्गत्रासितोऽप्येष ततोऽतिक्रान्ततः गतः ॥१४६०॥ 1556 वामोऽथ दण्डपादस्तु सूची चान्यस्ततो यदा। वामः स्याद् भ्रमरो यत्र दण्डपादमिदं तदा ॥१४६१॥ 1557 दाहिना पैर क्रमश: जनिता, दण्डपादा तथा सूची नामक चारियों से युक्त हो, बायाँ पैर भ्रमरी से यक्त हो; फिर दाहिना पैर उद्वत्ता से युक्त और बायाँ पैर अलाता से युक्त हो; पुनः दाहिना पैर पार्श्वमान्ता, भुजंगत्रासिता तथा अतिक्रान्ता से युक्त हो, और बायाँ पैर दण्डपादा से युक्त हो; पुनः दाहिना पैर सची से युक्त हो, और बायाँ पैर भ्रमरी से युक्त हो; तो दण्डपाद आकाशमण्डल होता है। दस भूमिगत मण्डल (२) , १. समर दक्षिणो जनितोऽथाघ्रिामः स्यात् स्पन्दितस्ततः । दक्षिणः शकटास्योऽथ वामोऽपि स्पन्दितोऽथवा ॥१४६२॥ 1658 दक्षिणो भ्रमरः पादः स्याद् वामः स्पन्दितस्ततः । दक्षिणः शकटास्यः स्याद् वामश्चाषगतो भवेत् ॥१४६३॥ 1559 परस्तु भ्रमरोऽथाङ्घ्रिाम स्यात् स्पन्दितो यदि । तदोक्तं भ्रमरं धीरैर्मण्डलं शिववल्लभम् ॥१४६४॥ 1560 दाहिना पैर जनिता नामक चारी से युक्त और बायाँ पैर स्पन्दिता से युक्त हो; फिर दाहिना शकटास्या से तथा बायाँ स्पन्दिता से युक्त हो; पुनः दाहिना भमरी से युक्त हो, बाँया स्पन्दिता से युक्त हो; फिर दाहिना शकटास्या से युक्त और बायाँ चाषगति से युक्त हो; तत्पश्चात् दाहिना भ्रमरी से युक्त और बाँया स्पन्विता से युक्त हो; तो धीर पुरुषों ने उसे भमरी भूमिमण्डल कहा है, जो शंकर को प्रिय है। ३७० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलों का निरूपण २. शकटास्य दक्षिणो जनितोऽथ स्यात् स्थितावर्तः स एव चेत् । शकटास्यस्ततोऽसौ स्यादेलकाक्रीडितस्ततः ॥१४६५॥ 1661 ऊरूवृत्तोऽड्डितोऽङ्घ्रिःस्याज्जनितोऽपि ततो भवेत् । शकटास्योऽथ वामोऽध्रिः स्पन्दितस्तदनन्तरम् ॥१४६६॥ 1562 शकटास्यस्ततः पादो यावन्मण्डलपूरणम् । क्रमतो यत्र जायन्ते शकटास्यं तदीरितम् ॥१४६७॥ 1563 दाहिना पैर क्रमशः जनिता, स्थितावर्ता, शकटास्या, एलकाक्रीडिता, ऊरुद्वता, अडिडता, पुनः जनिता तथा शकटास्या नामक चारियों से युक्त हो और बायाँ पैर क्रमश: स्पन्दिता एवं मण्डल के पूर्ण होकर शकटास्या से युक्त हो; तो शकटास्य भूमिमण्डल होता है। ३. पिष्टकट्टक दक्षिणोऽद्धिर्भवेत् सूची वामोऽपक्रान्तकस्ततः । क्रमान्मुहुः सव्यवामौ भुजङ्गात्रासितौ ततः । मण्डलभ्रमणं प्रान्ते यत्रेदं पिष्टकुट्टकम् ॥१४६८॥ दाहिना पैर सूची से युक्त तथा बायाँ पैर अपक्रान्ता से युक्त हो; फिर दोनों दाहिना और बायाँ क्रमशः भुजंगवासिता से युक्त हो और उन्हें मण्डलाकार में घुमाया जाय; तो पिष्टकुट्टक भूमिमण्डल होता है। ४. अजित उद्घट्टितोऽथ बद्धः स्यात् समोत्सरितपूर्वकः । मत्तल्लिरर्धमत्तल्लिरपक्रान्तश्च दक्षिणः ॥१४६६॥ उत्तश्च ततो विद्युभ्रान्तश्च भ्रमरस्ततः । 1666 स्पन्दितोऽप्यथ वामः स्याच्छकटास्योऽथ दक्षिणः ॥१४७०॥ भवेद् द्विश्चरणश्चाषगतिश्च तदनन्तरम् । 1567 वामोऽड्डितोऽयधिकश्च क्रमाच्चाषगतिः परः ॥१४७१॥ समोत्सरितमत्तल्लिमत्तल्लिभ्रंमरः पुनः । 1568 1564 1565 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नश्याध्यायः वामोऽथ स्पन्दितीभूय विधत्ते स्फोटनं भुवः । दक्षिणो यदि पादः स्यादडितं मण्डलं तदा ॥१४७२॥ 1569 दाहिना पैर क्रमश: उद्घटिता बद्धा, समोत्सरितमत्तहिल, अर्धमत्तरिल तथा अपक्रान्ता नामक चारियों से युक्त हो और बायाँ पैर क्रमशः उवृत्ता, विद्यभ्रमाता, भ्रमरी तथा स्पन्दिता से यवत हो; फिर दाहिना पर शकटास्या तथा चाषगति से युक्त होकर दो बार प्रयुक्त हो और बायाँ पैर क्रमश: अडिडता तथा अध्यधिका से युक्त हो; फिर दाहिना पैर चापगति से युक्त हो तथा बायाँ पैर क्रमशः समोत्सारितमत्तहिल, मत्तल्लि तथा भ्रमरी से युक्त हो और दाहिना पैर स्पन्दिता से युक्त होकर पृथ्वी पर चोट करे; तो अड्डिता भूमिमण्डल होता है। ५. समोत्तरित समपादं समाश्रित्य सम्प्रसार्य करौ ततः । निरन्तरौ विधायो वावेष्ट योद्वेष्ट्य च क्रमात् ॥१४७३॥ 1570 न्यस्येत् कटीतटेऽथाङ्ग्री भ्रामयेत् सव्यवामको । क्रमादथ पुरो वाममध्रि यत्र प्रसारयेत् ॥१४७४॥ 1571 एवं भ्रान्त्वा चतुर्दिक्षु मण्डलभ्रमणं क्रमात् । समोत्सरितमेतत् स्यात् मण्डलं शिवशङ्करम् ॥१४७५॥ 1572 सम स्थिति पैर का आथय लेकर दोनों हाथों को फैलाकर तथा सटाकर ऊपर करके क्रमश: आवेष्टित तथा उद्वेष्टित करके कटि पर रख दिया जाय ; अनन्तर दाहिने और वायें पैरों को क्रमशः घुमाकर बायें पैर को आगे फैला दिया जाय; इस प्रकार चारों दिशाओं में मण्डलाकार घुमाने से समोत्सरित भूमिमण्डल बनता है, जो शंकर को प्रिय है। ६. आवर्त 1573 [दक्षिणो जनितो वामः स्थितावर्तस्ततः परम् । शकटास्यो भवेत् पश्चादेडकाक्रीडितायः] । ऊरूवृत्तोऽड्डितः पश्चाच्चारी स्याज्जनिताभिधा। समोत्सरितमत्तल्लिः क्रमात् पादस्तु दक्षिणः ॥१४७६॥ 1574 १. देखिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ११५४, (आडियार संरकरण ) । ३७२ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलों का निरूपण शकटास्यस्ततोऽनूरूवृत्तोऽध्रिः स्यादथापरः । अघ्रिश्चाषगतिद्विः स्यात् स्पन्दितो दक्षिणस्ततः ॥१४७७॥ 1675 शकटास्यो भवेद्वामः पराज्रिभ्रमरोऽथ चेत् । अघ्रिश्चाषगतिमिस्तदावर्तमुदीरितम् ॥१४७८॥ 1576 दाहिना पैर जनिता चारी से युक्त हो तथा बायाँ स्थितावर्ता से युक्त होकर शकाटाल्या, एडकाकोरिता, ऊरूवृत्ता, अड्डिता, पुनः जनिता तथा स्मोत्सरितमत्तत्ली से क्रमशः युक्त हो; दाहिना पैर शकटास्या तथा ऊरूद्वत्ता से युक्त हो और बायाँ पर चाषगति में दो बार यक्त हो; पुनः दाहिना पैर स्पन्दितासे तथा बायाँ पैर शकटास्या से युक्त हो; फिर दाहिना भ्रमरी से युक्त हो और बायाँ चाषगति से युक्त हो; तो आवर्त भूमिमण्डल होता है। ७. एलकाकोडित भूमिश्लिष्ट्रयदा पादैः सूचीविद्धं समाश्रितः । एलकाक्रीडितः सूचीविद्धरपि पुनः पुनः ॥१४७६॥ 1677 सम्पूर्णभ्रमणः प्राग्वत् सूचीविद्धस्ततोऽध्रिभिः । पाक्षिप्तर्मण्डलभ्रान्त्या चतुर्दिश्ववसानके । 1678 तदेलकाक्रीडिताख्यमाख्यातं मण्डलं बुधैः ॥१४८०॥ भूमि से सटे हुए पैर सूचीविद्ध नामक करण का आश्रय लेकर एलकाक्रीडित तथा पुनः-पुनः सूचीविड करणों से युक्त होकर पूर्ण रूप घुमाये जाते हुए आक्षिप्त करणों में अवस्थित किये जाय; फिर अन्त में चारों दिशाओं में मण्डलाकर घुमाने से एलकाक्रीडित भूमिमण्डल बनता है, ऐसा विद्वानों का कहना है । ८. आस्कन्वित दक्षिणो भ्रमरः पादस्ततो वामोऽड्डितो भवेत् । 1579 दक्षिणः शकटास्यत्वं प्राप्तोऽरुवृत्ततां व्रजेत् ॥१४८१॥ यदा वामोऽध्यधिकः स्याद् भ्रमरो दक्षिणः पुनः । 1580 स्पन्दितः शकटास्यः स्याद् वामस्तेन महीतलम् प्रास्फोटितं स्फुटं यत्र तदास्कन्दितमीरितम् ॥१४८२॥ 1681 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः दाहिना पैर भमरी चारी से युक्त तथा बायाँ पैर अड्डिता से युक्त हो; फिर दाहिना अकटास्या तथा ऊरूवत्ता से और बायाँ अध्यधिका से युक्त हो; दाहिना पुनः भ्रमरी से युक्त हो, और बायाँ स्पन्दिता तथा शकटास्या से युक्त हो; उससे पृथ्वी पर स्पष्ट रूप से पटकने की आवाज हो; तो आरकन्वित भमि मण्डल बनता है। ९. चाषगत सर्वे चाषगताः पादा यदान्ते मण्डलभ्रमः । तदा चाषगतं ज्ञेयं नियुद्ध मण्डलं बुधैः ॥१४८३॥ 1582 जब पैर चावगनि नामक चारी से युक्त हो और अन्त में मण्डलाकार घुमाया जाय; तो चाषगत भूमिमण्डल बनता है । विद्वानों ने इसका विनियोग कुश्ती के अभिनय में बताया है। १०. अध्यर्ध क्रमादध्रिदक्षिणः स्याज्जनितः स्पन्दितस्ततः । अड्डितोक्तचतुर्भेदो वामः स्यादथ दक्षिणः ॥१४८४॥ 1583 शकटास्यश्चतुर्दिक्षु मण्डलभ्रमणं यदा । भवेदन्ते तदा धीरैरध्यधं परिकीर्तितम् ॥१४८५॥ 1584 दाहिना पैर क्रमशः जनिता तथा स्पन्दिता से युक्त और बायाँ पैर अड्डिता के चार भेदों से युक्त हो; फिर दाहिना पैर शकटास्या से युक्त होकर अन्त में चारों दिशाओं में मण्डलाकार घुमाया जाय; तो धीर पुरुष उसे अध्यर्ध भूमिमण्डल कहते हैं । चारी नाम्ना प्रविज्ञेयश्चरणस्तु मनीषिभिः । चरणन्यूनताधिक्यं मन्वते नेह दोषकृत् । 1585 अतो न्यूनेऽधिके चाङ्ग्रौ न दुष्टं मण्डलं मतम् ॥१४८६॥ मनोषियों को यहाँ चारी के नाम से चरण को समझना चाहिए । यहाँ विद्वान् लोग चरण की न्यनता या अधिकता को दोषकारक नहीं मानते हैं । इसलिए चरण के न्यन और अधिक होने पर भी मण्डल निर्दष्ट है। समवेत रूप में बीस मण्डलों का निरूपण समाप्त। ३७४ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण | चौदह Page #386 --------------------------------------------------------------------------  Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1587 मार्गस्थित लास्यांगों का निरूपण (१) मार्गस्थित लास्यांगों (आंगिक अभिनयों) के भेद स्थितपाठ्यमथासीनं सैन्धवं पुष्पमण्डिका । 1586 प्रच्छेदकः शेषपदं द्विमूढं च त्रिमूढकम् ॥१४८७॥ वैभाविकं चित्रपदमुक्तप्रत्युक्तकं तथा । उत्तमोत्तमकं चेति द्वयधिकानि दशाब्रुवन् ॥१४८८॥ क्रमान्मार्गस्थितानीति लास्याङ्गान्यथ लक्षणम् । 1588 प्रोच्यतेऽशोकमल्लेन तेषां लक्ष्मानुसारतः ॥१४८६॥ अशोकमल्ल ने मार्गस्थित लास्यांगों के बारह भेद बताये हैं : १. स्थितपाठ्य, २. आसीन, ३. सन्धव, ४. पुष्प मण्डिका, ५. प्रच्छेदक, ६. शेषपद, ७. द्विमूढ, ८. त्रिमूढ, ९. वैभाविक, १०. चित्रपद, ११. उक्त प्रत्युक्त और १२. उत्तमोत्तम । अब उनकी गतिविधियों के अनुसार उनके लक्षण-विनियोगों का निरुपण किया जा रहा है। १. स्थितपाठय [यदा] कन्दर्पतप्ताङ्गी तन्वी [वि] रहविह्वला। 1589 स्थिता पठेत् प्राकृतं चेत् स्थितपाठयं तदोदितम् ॥१४६०॥ जब कामपीडित तथा विरह से व्याकुल युवती खड़ी होकर प्राकृत भाषा का पद्यपाठ करे, तब स्थितपाठ्य लास्यांग होता है। यथामयणप्यहुकोवताविनाए मह सोदाई कुरंगलोषणाए। 1590 सहि वल्लहसंगवंचिदाए सरणं पुम्मदलाइ जीवियस्स' ॥१४६१॥ जैसे; हे सखी ! कामदेव के क्रोध से जलायी हुई, (अतएव) डरी हुई और प्रियतम के सहवास से वंचित की हुई मुझ मगनयनी के प्राणों के रक्षक कमलदल ही हो सकते हैं। मदनप्रभुकोपतापिताया मम भीतायाः कुरङ्गालोचनायाः । सखि वल्लभसङ्घवञ्चितायाः शरणं पद्मदलानि जीवस्य ॥ (नृत्यरत्नकोश, वाल्यूम २, पृष्ठ १९९, श्लोक ७) । ३७७ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. आसीन नृत्याध्यायः यत्राङ्गना खण्डितास्ते चिन्ताशोकसमाकुला । वजिताभिनयैर्वाक्यैस्तदासीनं मतं बुधैः ॥१४२॥ जहाँ खण्डिता नायिका चिन्ता और शोक से व्याकुल तथा अभिनय एवं वचनों से रहित होकर बैठी रहती है, वहाँ बुधजन आसीन लास्यांग बनाते हैं । यथा प्रसरति दिनमणितेजसि विगलित तमसि प्रकाशिते नभसि । 1592 नीताधररागं पश्य वयस्ये समागतं रमणम् ॥१४३॥ जैसे; हे सखी ! की किरणों के फैल जाने तथा अंधकार के नष्ट हो जाने पर और आकाश के प्रकाशित हो जाने पर अधर की लालिमा से रहित होकर आये हुए कान्त को देखो । भालेऽलक्तकमञ्जिताधरमुरः कर्पूरमुद्रं वहन् । निःशुङ्कः पतिरभ्युपैति वियति प्रत्यग्रसूर्योदये ॥ चिन्तासागरसन्निमग्नमनसा नीता मया यामिनी । किं कुर्वे सखि कैतवं कलयता मुग्धामुना वश्चिता ॥ १४६४ ॥ ३७८ 1591 यत्र पात्रं कालहीनं नाट्यपाठ्यविवजितम् । भाषासिन्धुभवाच्चैतत् सैन्धवं समुदीरितम् ॥ १४६५ ॥ ललाट पर महावर, लालिमा रहित अघर और कर्पूर से अंकित वक्षःस्थल धारण किये हुए (मेरे) पति आकाश में सद्यः सूर्योदय हो जाने पर निःशंक होकर (मेरे) पास आ रहे हैं । चिन्ता रूपी सागर में डूबे हुए मन वाली मैंने (सारी) रात बिता दी । सखी ! क्या करूँ ? इस छलिये ने भोली-भाली मुझको ठग लिया । ३. सैन्धव 1593 विचित्रं यत्र कान्तानां गीतं वाद्यं च नर्तनम् । मनोवाक्कायचेष्टाभिर्हीनं सा पुष्पमण्डका ॥१४६॥ 1594 जहाँ पात्र समय से रहित, नाट्य- पाठ्य से अनभिज्ञ हो और भाषा सिन्धु देश की हो, वहाँ सैन्धव लास्यांग होता है । ४. पुष्पमण्डिका 1595 1596 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण जहाँ कान्तों का गीत, वाद्य तथा नृत्य विचित्र हो और कायिक ( आंगिक), वाचिक एवं मानसिक (आहार्यं ) चेष्टाओं से शून्य हो, वहाँ पुष्पमडिका लास्यांग होता है । ५. प्रच्छेदक यत्राङ्गनाः परित्यक्तलज्जाश्चन्द्रातितापिताः । कृतापराधकान् यान्ति प्रियान् प्रच्छेदकस्तु सः ॥ १४६७॥ जहाँ चन्द्रमा से अत्यन्त तप्त रमणियाँ लज्जा का परित्याग करके अपराधी प्रियतमों के पास जाती हैं, वहाँ प्रच्छेदक लास्यांग होता है । यथा सखि स्फुरति यामिनी शशिनमुन्नयांशुभिर् ज्वलद्भिरिव मामयं स्पृशति मानमुन्मूलयन् । प्रतो विगतलज्जया सुरतसंग रे सज्जया । मयापि विदितागसं प्रियमुपासितुं गम्यते ॥ १४६८ ॥ 1597 1598 चित्रार्थं श्लेषभावाढ्यं मुखप्रतिमुखान्वितम् । यद्वाक्यं तद् द्वि[मू]ढाख्यं लास्याङ्गं कथितं बुधैः । १५००॥ 1599 जैसे; हे सखी ! रात्रि चन्द्रमा को उठाकर चमक रही है और यह चन्द्रमा मानों अपनी जाज्वल्यमान किरणों मेरे मान का उन्मूलन करते हुए मुझे छू रहा है। इसलिए मैं निर्लज्ज होक रतियुद्ध की तैयारी करके अपराधी प्रियतम के पास जा रही हूँ । ६. शेषपद तताद्यनुगता गाननिष्णाता यत्र गायकाः । गायन्ति सुखसंस्थानास्तच्छेषपदमीरितम् ॥१४६॥ ( वीणा, सारंगी आदि ) वांद्यों का अनुगमन करने वाले गानविद्या में निष्णात गायक जहाँ सुख से बैठकर गाते हैं वहाँ शेषपद लास्यांग होता है । ७. द्विमूढ 1600 1601 विचित्र अर्थों वाला, श्लेषालंकार से युक्त और मुख एवं प्रतिमुख संधियों से युक्त जो वाक्य होता है, उसे बुधजन द्विमूद लास्यांग कहते हैं । ३७९ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः यथाअङ्करितां मम हृदये प्रेमलता रमणजलधरो मुदितः। 1602 सिञ्चति जीवनस्वनैरिह वचनैरुन्नति नेतुम् ॥१५०१॥ जैसे; मेरे हृदय में अंकुरित हुई प्रेम रूपी लता को बढ़ाने के लिए प्रियतम रूपी बादल वचन रूपी जलधारा से सींच रहा है। ८. त्रिमूढ रम्यवर्णनिबद्ध यद् बहुभावसमन्वितम् । 1603 अलङ्कृतं तुल्यवृत्तं [वाक्यं तत् स्यात् त्रिमूढकम् ॥१५०२॥ जो रमणीय अक्षरों में निबद्ध हो; अनेक भावों से युक्त हो; अलंकार से पूर्ण हो; और समान वृत्त' वाला हो, उसे त्रिमूढ लास्यांग कहते हैं। यथाभयहर्षरोषरोदनवद [न]-सम्भेदनानि कुर्वाणौ। 1604 स्मरसङ्गरसङ्गमितौ जितमिति नौ मन्मथो हसति ॥१५०३॥ भय, हर्ष, क्रोध, रुदन, कथन और संभेदनये सब करते हुए तथा रतियुद्ध में लगे हुए हम दोनों को जीत लियायह कहकर कन्दर्प हँस रहा है। कुचोन्नमनचातुरीचलितकञ्चुकीबन्धया , 1605 कपोलपुलकावलीकलितयाऽऽयतापाङ्गया । विमोहनविवर्तनविदितसङ्गन्या संगमे 1606 त्वयाभिलषिते कथं सुमुखि मानमालम्बसे ॥१५०४॥ हे सुमुखी ! कुचों को उत्तुंग बनाने की चतुरता से चोली पहनने वाली कपोलों पर रोमांच से युक्त लम्बी तिरछी चितवन वाली और ज्ञात सहवास वाली तुम मोहक हाव-भावों द्वारा मेरे सहवास की इच्छा प्रकट करके मान सयुक्त लम्बी तिरछी माहक हाव-भावों द्वारा मेरे अवलम्बन क्यों कर रही ९. वैभाविक प्रियं स्वप्ने समालोक्य पञ्चबाणनिपीडिता। 1607 विचित्रान् रचयेद् भावान् यदा वैभाविकं तदा ॥१५०५॥ जब नायिका स्वप्न में प्रियतम को देखकर कामबाण से पीड़ित होती हुई अनेक प्रकार के भावों की रचना करे, तब वभाविक लास्यांग होता है । ३८० Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण यथा कर्ण नैशिकं सखि मया कान्तश्चिरं प्रोषितो निद्रामुद्रितनेत्रापि शयने साक्षादिवावेक्षितः । मायासङ्गमभङ्गभीरुतरये वोन्मज्ज्य लज्जाजलात् कण्ठग्राहमनिन्दितः परिवृतः प्रोल्लासितो मोदितः ॥ १५०६ । । 1008 1609 जैसे; हे सखी ! अब रात का वृत्तान्त सुनों ! चिरकाल से परदेश गये हुए प्रियतम को, निद्रा से मुंदी हुई आँखें होने पर भी, मैंने पलंग पर साक्षात् की तरह देखा । तब मानों ऐन्द्रजालिक संगम के नष्ट होने से अत्यन्त डरी हुई मैंने लज्जा रूपी जल से निकलकर प्रियतम के गले से लिपटकर घेर लिया और खूब आमोद-प्रमोद किया । १०. चित्रपद यत्र चित्रकृतं कान्तं कान्ता कामकृतव्यथा । दृष्ट्वा खिद्यति चेदुक्तमिदं चित्रपदं तदा ।। १५०७ ॥ जहाँ चित्र में नायक को देखकर नायिका कामपीड़ा से खिन्न हो जाती है, वहाँ चित्रपद लास्यांग होता है । सरोषस्य साधिक्षेपपदं 1610 यथा कान्तं चित्रपटे विलिख्य विदधे यावत् तयालापनम् लब्धो जीवनवासरैः कतीपयैस्त्यक्ष्यामि न त्वामिति । तावन् मज्जदनल्पबाष्प सलिले सम्भिन्नभिन्नाक्षरम् खेदस्वेदकपाटको टिघटितं कण्ठे विशीर्णं वचः ।। १५०८ ॥ जैसे; चित्रपट पर प्रियतम को लिखकर जब तक नायिका यह कहने लगी कि मिलने पर तुम्हें जीवन के कतिपय दिनों तक नहीं छोडूंगी, तब तक अत्यधिक अश्रुजल में डूब जाने से छिन्न-भिन्न अक्षरों वाला तथा खेद के कारण बहने वाले पसीने-रूपी किवाड़ों के सिरे से टकराया हुआ वचन कण्ठ में ही विगलित हो गया । ११. उक्तप्रत्युक्त प्रसादकं यदा । नानार्थगीतसहितमुक्तप्रत्युक्तकं तदा ॥ १५० ॥ जब क्रुद्ध व्यक्ति को प्रसन्न करने वाला आक्षेपयुक्त तथा अनेक अर्थों सहित वचन प्रयुक्त होता है, तब उक्त प्रत्युक्त लास्यांग होता है । 1611 1612 1613 ३८१ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः 1614 यथाप्राप्तो वसन्तसमयः समयानभिज्ञ रोषं परित्यज भजस्वमयि प्रसादम् । उत्तुङ्गपीवरपयोधरभूरिभारा 1615 माराधितोऽपि नहि रक्षितुमीहसे माम् ॥१५१०॥ हे समय से अनभिज्ञ कान्त ! वसन्तकाल आ गया है । (इसलिए) रोष का परित्याग करो। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। क्या, मनाये जाने पर भी, तुम उन्नत तथा स्यूल कुचों वाली मुझको (अपना) नहीं रखना चाहते हो? १२. उत्तमोत्तम युक्तं चित्ररसर्वाक्यं चित्र वैश्च मञ्जुलम् ।। 1616 तथाभिनयनैर्युक्तमुत्तमोत्तमकं मतम् ॥१५११॥ विभिन्न प्रकार के रसों तथा भावों से युक्त, सुन्दर तथा अनेक प्रकार के अभिनयों से युक्त वाक्य उत्तमोतम लास्यांग कहलाता है। यथासहर्षमवलोकनं विहितभीतमालिङ्गनम् 1617 सरोषमपि भाषणं सजललोचनं रोदनम् । इति प्रथमसंगमे चतुरचित्तचेतोहरो 1618 विचित्ररससङ्करो जयति कोऽपि वामभ्रवः ॥१५१२॥ जैसे ; हर्षपूर्वक देखना, भयपूर्वक आलिंगन करना, क्रोधपूर्वक बोलना और सजलनेत्रपूर्वक रोना--यह ललना के प्रथम सहवास में चतुर व्यक्ति के चित्त को हरने वाला अनेक रसों का सम्मिश्रण विलक्षण होता है । देशी लास्यांगों का निरूपण (२) देशी लास्यांगों के भेद चालिश्चालिवटस्तूकं मनो लेढिरुरोङ्कणम् । 1619 ढिल्लाई त्रिकलिः किन्तु देशीकारं निजापनम् ॥१५१३॥ उल्लासस्थसको भावः सुकलासं लयस्तथा । 1620 ढालश्छेवाङ्गहारश्च लवितं विहसी तथा ॥१५१४॥ ३८२ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण नीकी नमनिका शङ्का वितडं गीतवाद्यता । 1621 विवर्तनं रथ(?थर)हरं स्थापना सौष्ठवं ततः ॥१५१५॥ सुवा मसृणतोपारस्तथाङ्गानङ्गमित्यपि । 1622 कोमलिका चाभिनयस्ततो मुखरसस्तथा ॥१५१६॥ एवं सप्ताधिकास्त्रिशल्लास्याङ्गानां समासतः । 1623 देश्याद्यानाम्-. देशी लास्यांगों के संक्षेप में सैतीस भेद इस प्रकार है : १. चालि, २. चालिवट, ३. तूक, ४. मनस, ५. लेडि, ६. उरोडकण ७. ढिल्लाई,८. त्रिकलि, ९. किन्तु, १०. देशीकार, ११. निजापन, १२. उल्लास, १३. थसक, १४. भाव, १५. सकलास, १६. लय, १७. ढाल, १८. छेवा, १९. अंगहार, २०. लंधित, २१. विहसी, २२. नीकी, २३. नमनिका, २४. शंका, २५. वितड, २६. गीतवाद्यता, २७. विवर्तन, २८. थरहर, २९. स्थापना, ३०. सौष्ठव, ३१. नुवा, ३२. मसूणता, ३३. उपार, ३४. अंगानंग, ३५. अभिनय, ३६. कोमलिका और ३७. मुखरस। __-अर्थतेषां लक्ष्यलक्षणवेदिना । लक्ष्माण्यशोकमल्लेन कथ्यन्ते साधुनाधुना ॥१५१७॥ 1624 लक्ष-लक्षणों के ज्ञाता साधु अशोकमल्ल अब उनके लक्षणों का निरूपण कर रहे हैं। १. चालि बाहुकट्यूरुपादानामेकदा चालनं . यदा । ... तालतौल्ययुतं नातिमन्दं नातिद्रुतं तथा ॥१५१८॥ 1625 मधुरं सविलासं च कोमलं व्यस्रभावभाक् । तदा चालि समाचष्टाशोकमल्लो नृपाग्रणीः ॥१५१९॥ 1626 जब बाँह, कमर, जांघ और पैर को एक ही समय ताल-मात्रा के साथ न बहुत मन्द और न बहुत शीघ्र गति से मधुरता, हावभाव, कोमलता तथा व्यस्रभाव पूर्वक चलाया जाय, तब महाराज अशोकमल्ल उसे चालि नामक लास्यांग कहते हैं । २. चालिवट शैघ्यसांमुख्यबहुला सैव चालिवटो मतः ॥१५२०॥ ३८३ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः जब चालि लास्यांग में शीघ्रता और सम्मुखता का बाहुल्य होता हो, तब वही चालिवट लास्यांग कहलाता है। ३. तुक द्रुतमन्दादिभावेन चालनं हावपूर्वकम् । 1627 लीलावतंसयुतयोः कर्णयोस्तूकमीरितम् ॥१५२१॥ लीला के लिए धारण किये गये आभूषणों से युक्त दोनों कानों को शीघ्र तथा मन्द गति से हाव-भाव पूर्वक चलाया जाय, तो तृक लास्यांग कहलाता है। ४. मन शृङ्गारससम्पन्नः कोऽप्यपूर्वो गुणो यदा । .. 1628 लक्ष्यते शिक्षिताद् योऽतिसूक्ष्मोऽभिनयभावभाक् ॥१५२२॥ . अन्य एव तु नाट्याङ्गक्रियायोगाद्यदा लयैः । 1629 तदा मनो मनोहारि सुमनोभिरिदं मतम् ॥१५२३॥ जब शृंगार रस से सम्पन्न कोई अपूर्व गुण, जो अत्यन्त सूक्ष्म तथा अभिनय के भाव का द्योतक हो और नाट्यांगक्रिया के योग से दूसरा ही हो, शिक्षित व्यक्ति से लय के साथ दिखाई पड़े, तब मनस्वी लोगों ने उसे सुन्दर मन नामक लास्यांग कहा है। ५. लेढि कोमलं मधुरं तिर्यक् सविलासं च यद् भवेत् । 1630 एकदा चालनं बाहुकटीनां सा लेढिर्मता ॥१५२४॥ सौन्दर्यभरसंपन्नः संगीतप्राप्तिसम्भवः । 1631 आनन्दातिशयः कोऽपि लेढिरित्यपरे जगुः ॥१५२५॥ बाँह और कमर का एक साथ संचालन, जो कोमल, मधुर, तिरछा तथा हाव-भावपूर्वक हो, लेढि नामक लास्यांग कहलाता है। दूसरे आचार्यों का मत है कि सौन्दर्य के भार से सम्पन्न और संगीत के संयोग से व्यत्पन्न एवं अतिशय आनन्द से युक्त लास्यांग लेडि कहलाता है । ६. उरोडकण 1632 अंसयोः स्तनयोस्तालसम्मितं चालनं भवेत् । पर्यायादेकदा वा यद् द्रुतं यद् वा विलम्बितम् ॥१५२६॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण क्रमादधः पुनः पश्चादूर्ध्वमेतदुरोङ्कणम् । इदमेव नटाः प्राहुस्त्रङ्गशब्देन कोविदाः ॥ १५२७॥ मनाक् सुललितं तिर्यक् चालनं यत् कुचांसयोः । विलम्बेनाविलम्बेन तद्वचुः केप्युरोङ्कणम् ॥१५२८ ॥ यत्र पात्रं द्रुतं गात्रं कम्पयेत् तालकालतः । मनाङ् मनोहरं केचिदूचुरे तदुरोङ्कणम् । इदमेव रचे नाम्नाचक्षन्ते साम्प्रदायिकाः || १५२६ ॥ ४९ नर्तकी तनुते नृते यदाङ्गं स्तोकसौष्ठवम् । भावा हृदयोपेता विलासमधुरान्वितम् । लाभावालसं यत्र सा ढिल्लाई तदा मता ॥ १५३०॥ 1633 1636 यदि कंधों तथा स्तनों को ताल- मात्रा के प्रमाण से क्रमशः या एक समय शीघ्रता से या विलम्ब से क्रमश: नीचे और ऊपर की ओर चलाया जाय, तो उसे उरोकंण लास्यांग कहते हैं । इसी को विज्ञ नर्तक जंग शब्द से अति करते हैं । कोई आचार्य कहते हैं कि कुचों तथा कंधों को घोड़ा सुन्दर ढंग से तिरछा करके विलम्ब से या शीघ्रता से जो चलाया जाता है, वह उरोकंण कहलाता है। अन्य विद्वानों का कहना है कि जहाँ अभिनेता ताल- मात्रा के प्रमाण से शरीर को कुछ सुन्दरतापूर्वक शीघ्रता से कम्पित करता है, वहाँ उरोकंण लास्यांग . होता है। इसी को नाट्य-सम्प्रदाय के आचार्य रचे नाम से पुकारते हैं । ७. ढिल्लाई 1634 ॥१५३१॥ चार्यां स्थानेऽथवा ताललयानुगतिभिर्यदा । विधुता कम्पिताधूतपरिवाहितकम्पितैः पञ्चभिर्मूर्धभियंत्र पात्रं चित्तानि पश्यताम् । श्रानन्दयत्यसौ सद्भिस्तदा त्रिकलिरीरितः ॥ १५३२॥ 1635 जब नृत्य में भावों से सरस हृदयवाली नर्तकी विलास के माधुर्य से युक्त और शृंगार- सूचक हाव-भावों से अलसाये हुए अंग को किञ्चित् सुन्दरता के साथ फैलाती है, तब उसे ढिल्लाई लास्यांग कहते हैं । ८. त्रिकलि 1637 1638 1639 ३८५ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः जब चारी में या स्थानक में ताल-लय का अनुगमन करने वाले, विद्युत, आकम्पित, आधुत, परिवाहित और कम्पित नामक पाँच मस्तक मुद्राओं द्वारा अभिनेता देखने वालों के चित्त को आनन्दित कर देता है, तब सज्जन लोग उसे त्रिकलि लास्यांग कहते हैं । ९. किन्तु यत्राङ्गना गीततालतुलितं चालनं यदा । 1640 भ्र वयोः स्तनयोःकट्याः कुर्यात् किन्तु तदा त्विदम् ॥१५३३॥ जहाँ रमणी गीत के ताल के अनुसार भौंहों, स्तनों तथा कटि का संचालन करती है, वहां किन्तु नामक लास्यांग होता है। १०. देशीकार मनोहरं यदग्राम्यं तत्तद्देशानुसारतः । 1641 नानारीत्यन्वितं नृतं देशीकारमिदं जगुः ॥१५३४॥ मनोहर, ग्राम्य से भिन्न और तत्तत् देश के अनुसार अनेक प्रकार की रीतियों से युक्त नृत को देशीकार लास्यांग । कहते हैं । ११. निजापन पात्रे यत्राप्रत्नेन सौष्ठवं रेखयान्वितम् । 1642 नृत्तति प्रेष्यते दृष्टिः करे सुगतिसुन्दरी । सभ्यातिमोहनीभावसम्पन्ना तन्निजापनम् ॥१५३५॥ 1643 जहाँ आसानी से सुन्दरतापूर्वक रेखा (राग) से अन्वित होकर नृत्य करते हुए पात्र पर दृष्टिपात किया जाय और हाथ में सभासदों (दर्शकों) को मोहित करने वाली अच्छी गति रूपी सुन्दरी हो, तो वहाँ निजापन लास्यांग होता है। १२. उल्लास क्षिप्रं निरूपितांस्तालान् दर्शयेद् भावसूचकैः । द्विगुणस्त्रिगुणैर्यद्वा पात्रं गात्रसमुद्भवः ॥१५३६॥ 1644 सूक्ष्मरसकृदुल्लासर्मनो हरति पश्यताम् । तबोल्लासं समाचष्दं तीरसिंहसुनन्दनः ॥१५३७॥ 1645 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण जब पात्र निरूपण किये गये तालों को शीघ्र दिखावे अथवा भावसूचक दूने-तिगुने अंगोत्पन्न सुक्ष्म उल्लासों द्वारा बारबार देखने वालों का मन हरण कर ले, तब वीरसिंह के पुत्र ने उसे उल्लास लास्यांग कहा है । १३. यसक ललितं स्यात्कुचाधस्तान्नयनं यसको मतः ।। १५३८ || यदि ललित हस्त को कुचों के नीचे ले जाया जाय, तो वह यसक लास्यांग कहलाता है । १४. भाव गीतं नृत्यानुगं यत्र नाट्यं च विल [स]ल्लयम् । समासाद्य मुदं यत्र पात्रं पुष्यन् कलाङ्कुरान् । नृत्येद् विलासमधुरं तदासौ भाव उच्यते ॥ १५३६॥ 1647 जहाँ गीत नृत्य का अनुगामी हो, नृत्य लय से शोभित हो और पात्र हर्ष प्राप्त करके कलांकुरों का पोषण करता हुआ हाव-भाव एवं मधुरता के साथ नृत्य करे, वहाँ भाव नामक लास्यांग होता है । १५. सुकलास लास्याङ्गानि सचारीणि पादादेरपि चालनम् । कृत्वान्तराद्वक्तुर्यान्मेलनं कलाकलापज्ञैः सुकलासं यन्मेलनं मेनिरेऽन्ये यदा 1646 गीतवाद्ययोः ॥१५४०॥ 1648 तदोदितम् । यौगपद्यतः । मनीषिणः || १५४१ ॥ स्थानचारीकराणां गीतवाद्यलयेष्वेतन् यदि लास्यांग चारी से युक्त हों, पैर आदि को भी चलाया जाय और वक्ता का अन्तर करके गीत और वाद्य में मेल कराया जाय, तो कला के विशेषज्ञ लोग उसे सुकलास नामक लास्यांग कहते हैं । दूसरे मनीषी गीत, वाद्य और लय में स्थान, चारी और हाथ के एक साथ मेल को सुकलास लास्यांग मानते हैं । १६. लय श्रितं कञ्चिल्लयं वेगाद् योजयेदितरौ लयौ । पात्रं सविस्मयं यत्र नृत्येऽसौ सम्मतो लयः ।। १५४२ || 1649 1650 जहाँ नृत्य में किसी चालू लय के साथ वेग से अन्य लयों को मिला दिया जाय और पात्र चकित रहे, वहाँ लय नामक लास्यांग होता है 1 ३८७ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्याध्यायः १७. ढाल यदा [त्व] मन्दमुल्लोलकमलोपरि बिन्दुवत् । 1651 नृत्ये यत्राङ्सञ्चारः तदासौ ढाल उच्यते । इममेव बुधाः केचित्ताननाम्ना प्रचक्षते ॥१५४३॥ 1652 जब नृत्य में अत्यन्त चंचल कमल पर जल-विन्दु की तरह अंगों का संचार किया जाता है, तब वह ढाल नामक लास्यांग कहलाता है। इसी को कोई विद्वान तान नाम से अभिहित करते हैं । १८. छेवा सुभ्र वो यत्र नेत्रान्तौ भावगी स्वभावतः । तरलौ नर्तने स्यातामसौ छेवा मता बुधैः ॥१५४४॥ 1653 जहाँ नृत्य में नर्तकी के नेत्रों के कोर स्वभावतः भावभित एवं चंचल हों, वहाँ बुधजन छेवा नामक लास्यांग मानते हैं। १९. अंगहार ललिता यत्र गात्रस्य नतिः पूर्वोत्तरार्धयोः । चापवत् तालसहिता सोऽङ्गहारोऽभिधीयते ॥१५४५॥ 1654 जहां पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध धनुष की तरह अंगों का वलन (झुकना) ताल सहित सुन्दर दिखाई दे, वहां अंगहार लास्यांग होता है। २०. लंधित मुहुर्मुहुः समुल्लय वाद्यस्यावादनं यदा । पात्रं विश्रम्य विश्रम्य नृत्येत् स्याल्लवितं तदा ॥१५४६॥ 1655 जब पात्र वाद्य के शब्द का बार-बार उल्लंघन करके रुक-रुक कर नृत्य करे, तब लंधित लास्यांग होता है। २१. विहसी विहसी तु तदा ज्ञेया यदा स्यात् सुन्दरस्मितम् ॥१५४७॥ जब सुन्दर मुसकराहट के साथ नृत्य किया जाय, तब उसे विहसी लास्यांग कहते हैं । २२. नीको नर्तकी नर्तने गीतवाद्यताल [ल] येष्वपि । 1656 प्रस्खलन्ती यदा नीकी तदा जनमनोहरा ॥१५४८॥ ३८८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण जब नृत्य में नर्तकी गीत, वाद्य, ताल और में लय भी किसी प्रकार की त्रुटि न करती हई जन-मन को आकृष्ट कर ले, तब वह नीकी लास्यांग होता है २३. नमनिका अङ्गानां यत्र पात्रस्य प्रयासव्यतिरेकतः । 1657 नमनं स्यात् प्रयोगेषु दुष्करेष्वपि सा तदा ।। मता नमनिका धीरैः सम्यानन्दविवर्धनी ॥१५४६॥ 1658 जहाँ अत्यन्त कठिन प्रयोगों में बिना प्रयास के भी (स्वाभाविक रूप में)पात्र के अंगों का नमन होता रहता है, धीर पुरुष उसे, सभासदों के आनन्द को बढ़ाने वाली, नमनिका नामक लास्यांग कहते हैं। २४. शंका प्रङ्गानि तावदौद्धत्याचालयित्वा सविभ्रमम् । पुनराहार्य तान्यग्ने पार्श्वयोरपि नर्तकी । 1659 वञ्चयन्तीव चेल्लोकं नृत्येच्छङ्का तदोदिता ॥१५५०॥ जहाँ अंगों को उद्धतता से विलासपूर्वक चलाकर नर्तकी पुनः अंगों को आगे तथा बगलों में भी संचालित करके लोगों को ठगती हुई-सी नृत्य करे, तो वहाँ शंका नामक लास्यांग होता है। २५. वितर. स्वभावाल्ललितं चारीकरणादिबलाद् यदा । 1660 कुरुते कठिनं यत्र तदेवं वितडं मतम् ॥१५५१॥ . जहाँ चारी, करण आदि के बल से कठिन नृत्य को भी स्वाभाविक रूप में सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया जाय, वहाँ वितड नामक लास्यांग होता है। २६. गीतवाचता नृत्येदनुगुणं यत्र नर्तकी गीतवाद्ययोः । 1861 अक्षराणां लयस्यापि समता गीतवाद्यता ॥१५५२॥ जहाँ नर्तकी गीत और वाद्य के अनुकल नृत्य करे और अक्षरों तथा लय की भी संगति रहे, नहाँ गीतावद्यता नामक लास्यांग होता है। २७. विवर्तन वाद्यप्रबन्धवर्णानां यत्र साम्येन नर्तनम् । . 1882 ३८९ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः रचयेद् हस्तकः पात्रं चारीभिः करणैरपि । भ्रमरीभिश्च सम्प्रोक्तं विवर्तनमिदं बुधैः ॥१५५३॥ 1663 जहाँ पात्र वाद्य और गीत के वर्गों के साम्य से हाथों, चारियों, करणों और भ्रमरिथों द्वारा नृत्य प्रस्तुत करे, वहाँ उसे बुधजन विवर्तन नामक लास्यांग कहते हैं। २८. थरहर नर्तने तनुयात् क्षीप्रं कम्पनं कुचयोर्नटी । भुजावधि विलासेन यदा थरहरं तदा ॥१५५४॥ 1664 जब नर्तकी नृत्यकाल में कुचों के कम्पन को हाव-भाव के साथ शीघ्रतापूर्वक बाँहों तक फैलाती है, तब थरहर नामक लास्यांग होता है। २९. स्थापना या स्थितिललिता भूमौ सरेखमुखरागभाक् । समाधै नर्तनेऽङ्गानां प्राहुस्तां स्थापनां बुधाः ॥१५५५॥ 1665 नत्य के बराबर आधे भाग में भूमि पर अंगों को ऐसे सुन्दर ढंग से स्थापित किया जाय, जिसमें रेखा सहित चेहरे का रंग स्पष्ट दिखायी दे, तो उसे बुधजन स्थापना नामक लास्यांग कहते हैं। ३०. सौष्ठव सौष्ठवस्य पुरोक्तस्य चतुभिर्बाष्टभिमिता । यद् वा द्वादशभिर्यत्रामुलैर्वा खर्वता त्रिधा ॥१५५६॥ 1600 तत्तद्देशानुसारेण कटिकण्ठोरुजानुषु । वाञ्छया वा महीपस्य सद्भिस्तत् सौष्ठवं मतम् ॥१५५७॥ 1667 पहले बताये गये सौष्ठव को चार, आठ या बारह अंगुल के नाप से कटि, कण्ठ, जाँघ और घुटने में तीन बार देशविशेष के अनुसार या राजाज्ञा के अनुसार छोटा कर दिया जाय, तो सज्जन लोगों ने उसे सौष्ठव नामक लास्यांग कहा है। ३१. बुवा यथा मन्दानिलाघाताचलेद्दीपशिखा तथा । चलेयुर्यत्र गात्राणि सा जुवा परिकीर्तिता ॥१५५८॥ 1068 ३९० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्यांग प्रकरण जैसे मंद वाय के झोंके से दीपक की लौ चलायमान हो जाती है, उसी तरह जहाँ अंग चलायमान हों, वहाँ सवा नामक लास्यांग होता है। ३२. मसणता मुग्धां स्निग्धां यदा दृष्टि तनुते रसनिर्भराम् । नृत्यहस्तानुगां नृत्ये तदा मसृणता भवेत् ॥१५५६॥ 1669 जब नृत्य में नृत्य-हस्तों का अनुगमन करने वाली मुग्ध, स्निग्ध तथा रसभरी दृष्टि को फैलाया जाय, तब मसणता, नामक लास्यांग होता है। ३३. उपार पूर्व पूर्वमुपक्रान्ता नृत्यस्यावयवा यदा । भूषावलितसर्वाङ्गा वर्तेरन्नुत्तरोत्तरम् । 1670 तालप्रयोगनैपुण्यात् तदोपारो मतो बुधैः ॥१५६०॥ जब पहले-पहले आरंभ किये गये नृत्य के अवयव आभूषणों से सर्वांग युक्त होकर आगे-आगे ताल-प्रयोग निपुणता से विद्यमान रहें, तब उपार नामक लास्यांग होता है। ३४. अंगामंग अङ्गं लास्याङ्गमादिष्टमनङ्गं ताण्डवं मतम् । 1671 यत्र नृत्येऽनयोर्योगस्तदङ्गानङ्मीरितम् ॥१५६१॥ अंग को लास्यांग और अनंग (काम) को ताण्डव (नृत्य) कहा गया है । जहाँ नृत्य में दोनों का योग होता है वहाँ अङ्गानङ्ग नामक लास्यांग होता है। ३५. अभिनय भावप्रकाशकैरङ्गैर्यथावत् करणादिकम् । 1672 विदध्याद् यत्र पात्रं चेदसावभिनयस्तदा ॥१५६२॥ जहाँ पात्र भावसूचक अंगों से अच्छी तरह करण आदि की रचना करे वहाँ अभिनय नामक लास्यांग होता है। ६. कोमलिका यदा नृत्येङ्गनाङ्गानां क्रियाभिर्वलनादिभिः । 1673 माता प्रेक्ष्यते चित्तात् परा कोमलिका तवा ॥१५६३॥ स Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः जब नत्य में सुन्दरियों के अंगों की बलन आदि क्रियाओं द्वारा चित्त से सरसता लक्षित होती है, तब कोमलिका नामक लास्यांग होता है। ३७. मुखर यत्र पात्रं मुखे कुर्याद् वर्णानां तु विवर्तनम् । 1674 ... तत्तद्रसानुगुण्येन भवेन्मुखरसस्त्वसौ ॥१५६४॥ जहाँ पात्र अपने मुख में तत्तत् रसों के अनुकूल अक्षरों को परिवर्तित करे, वहाँ मुखरस नामक लास्यांग होता है। अन्य भेद अन्येऽपि सन्ति ये भेदा देशीलास्याङ्गन्सश्रयाः । 1675 ग्रन्थविस्तरसंत्रासान्न तेऽस्माभिरिपिताः ॥१५६५॥ देशी लास्यांगों के अन्य जो भेद हैं, उन्हें ग्रन्थ के विस्तार भय से नहीं बताया गया है। लास्यांगों का निरूपण समाप्त ३१२ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलास करण प्रकरण / पन्द्रह Page #404 --------------------------------------------------------------------------  Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कलास करणों का निरूपण कलास (ताल के अनुसार नृत्य) के भेद विद्युत्कलासः खङ्गाद्यः कलासो मृगपूर्वकः । 1676 बकाद्यः प्लवपूर्वश्च हंसाद्यश्चेति षण्मताः ॥१५६॥ कलास के छह भेद होते हैं : १. विद्युत्कलास, २. खड्गकलास, ३. मृगकलास, ४. बककलास, ५. प्लवकलास और ६.हंसकलास । तत्राद्यौ प्लुतमानेन गुरुमानात् ततोऽग्रिमौ । 1677 पञ्चमो लघुमानने षष्ठः स्याद् द्रुतमानतः ॥१५६७॥ उनमें विद्यकलास और खड़ाकलास त्रिमात्रिक ताल के प्रमाण से; मणकलास और बककलास द्विमात्रिक ताल के प्रमाण से ; प्लवकलास एकमात्रिक ताल के प्रमाण से; और हंसकलास अर्धमात्रिक ताल के प्रमाण से सम्पन्न होते हैं। तत्राद्यः षड्विधः खङ्गकलासः स्याचतुर्विधः । 1678 तृतीयस्त्वेकधा तुर्यपश्चमौ च चतुर्विधौ ॥१५६८॥ त्रिधान्तिमः कलासः स्यादेवं द्वाविंशतिर्मताः । 1679 कलासाः क्रमशस्तेषां संचक्षे लक्षणान्यहम् ॥१५६९।। विद्युत्कलास के छह भेद, खड्गकलास के चार भेद, मृगकलास का एक भेद, बककलास और प्लवकलास के चारचार भेद और हंसकलास के तीन भेद होते हैं । इस प्रकार सब को मिलाकर कुल बाईस कलास होते हैं । अब क्रमशः उनके लक्षणों का निरूपण किया जाता है । प्रथम ____ छह विद्युत्कलास (१) मेघपंक्ती यथा विद्युच्चकास्ति सचमत्कृतिः । 1680 तथा यत्र पताकादीन् प्लुतमानकृतान करान् ॥१५७०॥ कलास एक वाद्ययंत्र का नाम है। उसके ताल-प्रमाण के अनुसार हस्तपादादि की विशेष चेष्टाओं की योजना को इस प्रकरण के अन्तर्गत निरूपित किया गया है। ३९५ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः तिर्यगूर्वमधोऽधश्चेदारादातन्वती नटी। 1681 विभाति विद्युदाद्यस्तु कलासः स तदोदितः ॥१५७१॥ वामं करं पताकाख्यं नीत्वा दक्षिणकर्णकम् । 1682 तथा परं करं वामां कटि वामां च जङ्घिकाम् ॥१५७२॥ एतद्व्यत्यासनेनापि कृत्वा पाणिद्वयं ततः । 1683 सम्मुखं रचयेद् विद्युभेद प्राद्यो भवेदसौ ॥१५७३॥ जैसे मेघों की पंक्ति में बिजली चमत्कार के साथ चमकती है, उसी तरह जहाँ त्रिमात्रिक ताल के मान से बनाये हुए पताक आदि हस्तों को तिरछे, ऊपर, नीचे और दुर या समीप फैलाती हई नर्तकी विराजमान होती है, वहाँ प्रथम विद्युत्कलास होता है। बायें हाथ को दाहिने कान, बायें हाथ, बायीं कटि और बायीं जाँघ के पास ले जाकर सामने पताक हस्त की रचना करे । उसको बदलकर भी हाथ की रचना करे; अर्थात् बायें पताक हस्त के बदले दाहिने हाथ को पताक हस्त में परिणत करे। ऐसा करने से भी प्रथम विद्युत्कलास बनता है। द्वितीय विधाय दक्षिणं पाणिमर्धचन्द्र स्वसम्मुखम् । 1684 विलोक्य च नटी कुर्याद् धनुराकृति जानु चेत् । तदा भेदो द्वितीयः स्याद् विद्युदाद्यकलासजः ॥१५७४॥ 1685 अपने सम्मुख दाहिने हाथ को अर्धचन्द्र हस्त में परिणत करके नटी घुटने को धनुष के आकार में प्रस्तुत करे। ऐसा करने से द्वितीय विद्युत्कलास बनता है। तृतीय समदृष्टिर्नटी हस्तमञ्जलि प्रविधापयेत् । अस्याङ्गुलीः प्रसार्याथ पुरतः शिखरं करम् । 1686 कृत्वा प्रसारयेद् बाहू तदा भेदस्तृतीयकः ॥१५७५।। सीधी दृष्टि वाली नर्तकी अञ्जलि हस्त की रचना करके उसकी उँगलियों को फैला दे; फिर सामने शिखर हस्त की रचना करके दोनों भुजाओं को फैला दे । ऐसा करने से तृतीय विद्युत्कलास बनता है। चतुर्थ 1687 केशबन्धौ करौ [क] त्वा क्रमादलिकमूर्धनोः । करौ दक्षिणवामौ चेन्निधाय द्वौ पताकको । ३९६ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलासकरन प्रकरण कुर्यात् तदा भवेद् भेदश्चतुर्थश्च पुरोदितः ॥१५७६॥ 1688 केशबन्ध मद्रा में दोनों हाथों की रचना करके दाहिने और बाँयें हाथों को क्रमश: ललाट और मस्तक पर रख कर दो पताक हस्तों की रचना करे । ऐसा करने से चतुर्थ विद्युत्कलास बनता है। पंचम कृत्वा पुष्ठपुटं पाणिमुच्चस्तं विनिरीक्ष्य च । तदनूत्सङ्गमारच्य चरण दक्षिणं द्रुतम् ॥१५७७॥ 1689 स्पृशेद् दक्षिणहस्तेन वामाघ्रि वामपाणिना । यत्रासौ पञ्चमो भेदः कलासरुदीरितः ॥१५७८।। 1690 पुष्पफ्ट नामक हाथ को ऊँचा करके दो बार निरीक्षण करे; फिर उत्संग नामक हाथ की रचना करके दाहिने हाथ से दाहिने पैर का और बायें हाथ से बायें पैर का स्पर्श करे। ऐसा करने से पंचम विद्युत्कलास बनता है। षष्ठ जुतमानकृताघ्रिश्चेदधो [ऽथ] मकरं करम् । कृत्वा नृत्यति पाणिभ्यां षष्ठो भेदस्तदोदितः ॥१५७६॥ 1691 त्रिमात्रिक ताल के प्रमाण से पैर और नीचे मकर नामक हाथ की रचना करके दोनों हाथों से नृत्य करे। ऐसा करने से षष्ठ विद्युत्कलास बनता है। चार खड्गकलास (२) - प्रथम .. सव्यापसव्यतो यत्र नर्तकी चकिता मुहः । विलोक्य च पुरः पश्चाद् धृतखड्गलतेव सा ॥१५८०॥ 1692 पाचरन्ती प्रचारं चेद् विचित्रमथ हस्तकान् । प्लुतमानकृतानर्धचन्द्रादोन् रचयेत् स्फुटान् । 1693 तदा खड्गकलासोऽसौ विद्वद्भिः परिभाषितः ॥१५८१॥ जहाँ खड्गलता (तलवार) धारण किये हई-सी नर्तकी बायें, दायें, आगे और पीछे देखकर विचित्र चाल चलती हुई त्रिमात्रिक ताल के प्रमाण से अर्षचन्द्र आदि हाथों को सुस्पष्ट रचना करे; वहाँ विद्वानों ने उसे प्रथम खड्गकलास बताया है। ३९७ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय नृत्याध्यायः वामं करं कटौ न्यस्य परं खड्गाकृति करम् । कृत्वा सकम्पं चेदर्धचन्द्रमास्ते तदादिगः ॥ १५८२ ॥ कृत्वा कपोतमूर्ध्वं चेदधोमुष्टि करं ततः । यत्र तिर्यक् पताकाख्यं करं कुर्यात्तदाभिधा । द्वितीया खड्गपूर्वस्य कलासस्य निरूपिता ।। १५८३ ॥ ३९८ 1696 बायें हाथ को कटि पर रखकर दूसरे हाथ को खड्गाकृति (खड्ग जैसा) बनावे; फिर कम्पन सहित अर्धचन्द हस्त की रचना करे ; फिर कपोत हस्त को ऊपर, मुष्टि हस्त को नीचे तथा पताक हस्त को तिरछा करे। ऐसा करने पर द्वितीय खड्गकलास निष्पन्न होता है । तृतीय दोनों त्रिपताकहस्तों की रचना करके आगे चरण-प्रहार करने से तृतीय खड्गकलास बनता है । चतुर्थ 1694 विधाय त्रिपताकौ द्वौ यस्य यश्चरणः पुरः । घातयन्निव तत्रैतं योजयेत्स तृतीयकः ॥१५८४॥ 1697 1695 स्वस्तिकं कर्कटं धृतिमोहघातपातक्रियां मुष्टिपताकपाणी चतुरः । कुर्याच्चतुर्थकः || १५८५॥ 1698 तत्र [वि] धाश्चतुर्धोर्ध्वमधः पार्श्वद्वयोऽपि च । चतुर जन स्वस्तिक, कर्कट, मुष्टि तथा पताक नामक हाथों की रचना करके धैर्य, मोह, घात और पतन क्रिया कोकरे । ऐसा करने से चतुर्थ खविलास होता है । यदि उक्त हस्तों को ऊपर नीचे तथा दोनों पावों में भी संचालित किया जाय तो चतुर्थं खड्गकलास निष्पन्न होता है । एवं खड्कलासस्य भेदाश्चत्वार ईरितः ॥ १५८६ ॥ 1699 इस प्रकार विलास के चारों भेदों का निरूपण कहा गया है । मृगकलास (३) पादाङ्गुलीभिराक्रम्य भुवमुत्थाय मुहुर्मुहुः सन्निपात्य गर्भखिन्नमृगीव जानुनी । चेत् ॥१५८७ ।। 1700 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलासकरण प्रकरण सालस्यगमनोपेता मृगशीर्षकरान्विता । नर्तकी गुरुमानेन हरिणप्लुतया प्लुतम् । 1701 विदध्याद् विचिश्यां यत्र कलासोऽसौ मृगादिगः ॥१५८८॥ यदि पैरों की उँगलियों से पृथ्वी को आक्रान्त करके दो घटनों को उठाकर तथा बार-बार गिराकर, गर्भभार से खिन्न हरिणी की तरह अलसायी हुई चाल वाली, नर्तकी मगशीर्ष नामक हाथ की रचना करके हरिण की छलाँग मारकर चले, तो वह मृगकलास होता है। चार बककलास (४) प्रथम यत्र पक्षौ समानीयौ बकोवाधून्यती करौ । 1702 सव्यापसव्ययोरारात् सन्देशमुकुलाभिधौ ॥१५८६॥ नर्तकी . लघुमानेन कृतासनसमुत्थितिः । 1703 नृत्येत् ससौष्ठवं स स्यात् कलासो बकपूर्वकः ॥१५६०॥ कामपि भ्रमरों कृत्वा संहतस्थानमाश्रिता । 1704 करौ कृत्वाऽलपद्मात्यावरालौ यत्र पादयोः ॥१५६१॥ नीत्वा क्रमेणेकदा वा कम्पयेदच्युताविव । 1705 जलक्लिन्नाथवा सव्यं पाणि मुकुलसंज्ञकम् ॥१५६२॥ मत्स्यग्रहासक्तचित्तबकवद्यदि संब्रजेत् । 1706 पादाग्रेण नटी मन्दं मन्दं पश्चात्पुरोऽपि च । । तदेष भेद प्राद्यः स्याद् बकपूर्वकलासजः ॥१५९३॥ 1707 जैसे बगली अपने पंखों को फड़फड़ाती है, उसी तरह नर्तकी अपने हाथों की मुद्रा बनावे; तत्पश्चात् बायें-दायें क्रम से समीप ही सन्देश और मकुल हस्तमुद्राओं की रचना करे; तदनन्तर एकमात्रिक ताल के प्रमाण से आसन से उठकर सुन्दर ढंग से नृत्य करे । इसी को बककलास कहते हैं । संहत नामक स्थानक के आश्रित किसी ममरी नामक चारी को करके अलपन एवं अराल नामक हाथों की रचना करे; उन्हें पैरों के समीप ले जाकर क्रमश: या एक साथ बिना गिराये ही कम्पित करे; जल से भीगी अथवा यों ही बायें हाथ की मुकुल मुद्रा बनाकर मछली पकड़ने में दत्तचित्त बगली की तरह यदि नर्तकी पैरों के अग्रभाग से धीरे-धीरे पीछे या आगे की ओर चले तो प्रथम बककलास निष्पन्न होता है। ३९९ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः द्वितीय त्रिपताको यदा पाणी विषमासनसंश्रितो । विधाय मण्डिका पादौ यथास्वं च पदे पदे ॥१५६४॥ 1708 नीत्वा तत्र करौ चित्रं सन्देशमथ कुर्वती । पश्यन्त्यग्ने पार्श्वयोश्च चकितेव नटी मुहुः । 1709 तनोति यत्र नृत्तं स बकभेदो द्वितीयकः ॥१५६५॥ जब त्रिपताक दोनों हाथों को विषम आसन पर टिकाकर मण्डिका नामक मद्रा (दे० श्लोक १५९६) रचकर दोनों पैरों को बगलों प्रत्येक पग में ठीक ढंग से रखकर चित्र तथा सन्देश नामक दोनों हाथों को बनाकर आगे और बगलों में चकित होकर बार-बार देखती हुई नर्तकी नृत्य का विस्तार करती है, तब द्वितीय बककलास निष्पन्न होता है। तृतीय सव्यापसव्यतो यत्र वामं दक्षिणतस्तथा । 1710 जानु सत्वरमापात्य भुव्यङ्ग्री स्थापयेद् यदा ॥१५६६॥ मण्डिका सा तदा प्रोक्ताशोकमल्लेन भूभुजा । 1711 विधाय मुकुलं हस्तं क्षिप्रमग्ने शनैरनु ॥१५९७॥ गच्छन्त्यनुपदं तद्वन्नटी स्खलति खिद्यति । 1712 धृतमुक्त यथा मीने बकोऽस्यानुपदं क्रमात् ॥१५९८॥ अलपद्ममरालं च मुकुलं यत्र कुर्वती । 1713 नृत्ये चित्रमसौ भेदो बकस्य स्यात् तृतीयकः ॥१५६६॥ जब बायें-दायें क्रम से दाहिने तरफ से बायें घुटने को शीघ्रता से मोड़कर दोनों पैरों को पृथ्वी पर स्थापित किया जाता है तब राजा अशोकमल्ल उसे मण्डिका कहते हैं। जहाँ मकल हस्त की रचना करके आगे शीघ्रता से और पीछे धीरे से चलती हुई नर्तकी, पकड़ी हुई मछली के छूट जाने पर बगुले की तरह, कदम-बकदम गिरती है और खिन्न होती है तथा अलपन, अराल एवं मुकुल हस्त की रचना करती हुई नाचती है, वहाँ तृतीय बककलास निष्पन्न होता है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उत्तानवञ्चितौ पाणी विधायाथार्धचन्द्रकम् । कट्यां करं निवेश्याथ पादाग्राभ्यां नटी यदा ॥१६०० ॥ रचयन्ती गतीर्नाना [बक] वत् पुरतोऽनु च । पावाङ्गुष्ठकरस्पर्शान्नृत्ये वक्राकृतिस्तदा । तुर्यो भेदो बकाद्यस्य कलासस्य बुधैर्मतः ॥ १६०॥ उत्तवञ्चित नामक दोनों हाथों की रचना करके अर्धचन्द्र हस्त को कटि पर रखकर जब नर्तकी पैरों के अग्रभाग से बगुले की तरह आगे-पीछे अनेक प्रकार की चालों को रचती हुई बत्राकृति होकर पैरों के अंगूठों को हाथ से छूकर नृत्य करती है, तब विद्वानों ने उसे चतुर्थ बककलास कहा है । चार प्लवकलास (५) 1716 प्रथम कलासकरण प्रकरण ५१ 1714 1715 विषमस्था समुत्प्लुत्य समौ पादौ यदा नटी । बिभ्रती सर्वतश्चित्रं त्रिपता [क] करान्विता ॥१६०२ ।। 1717 नृत्येदसौ तदा प्रोक्तः कलासः प्लवपूर्वकः । त्रिपताकौ पताकौ वा कृत्वा नाभिस्थितौ करौ ॥१६०३॥ 1718 पद्भ्यां तालानुगं गच्छेत् पश्चाद्यत्र भवेदसौ । श्राद्यो भेदः प्लवाद्यस्य कलासस्य बुधैर्मतः ।।१६०४॥ 1719 विषमासन से उछलकर सम नामक पैरों को धारण करती हुई नर्तकी जब सब ओर आश्चर्य के साथ त्रिपताक नामक हाथ से युक्त होकर नृत्य करती है, तब प्लवकलास निष्पन्न होता है। जहाँ पश्चात त्रिपताक या पताक नामक दोनों हाथों को नाभि पर रखकर पैरों से ताल का अनुसरण करती हुई नर्तकी चले, वहाँ विद्वानों ने प्रथम लवकलास माना है । द्वितीय पुरोगतम् । विधाय त्रिपताकौ चेद् वाममङ्घ्रि पाणिमेवं विधं वामं लघुमानेन नर्तकी ॥१६०५ ।। 1720 वामतो गम [नं] कृत्वा बध्नीयादासनं समम् । ४० १ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः विषमं वा ततः स्थानात्समुत्प्लुत्य समाज्रिकम् । 1721 गच्छेत् तदा प्लवस्योक्तः सद्धिर्भेदो द्वितीयकः ॥१६०६॥ यदि त्रिपताक नामक दोनों हाथों की रचना करके बायें पैर और बायें हाथ को आगे किये हए नर्तकी एकमात्रिक ताल के प्रमाण से बायीं ओर जाकर सम या विषम नामक आसन को बाँधे; फिर उस स्थान से उछलकर सम पैर से चले । ऐसा करने पर सज्जनों ने द्वितीय प्लवकलास बताया है। तृतीय त्रिपताको कटीक्षेत्रे विधाय सममासनम् । 1722 विषमं वा यदा स्थित्वा स्थित्वोत्प्लुत्य महीतले ॥१६०७॥ दधती चरणौ गच्छेल्लघुमानात् पुरोऽनु वा ।। 1723 पश्यन्तीमवनि ज्ञेयः प्लवभेदस्तृतीयकः ॥१६०८।। त्रिपताक नामक दोनों हाथों को कटिक्षेत्र में रखकर सम या विषमआसन पर स्थित होकर तथा उछलकर पृथ्वी पर पैरों को रखती हुई नर्तकी यदि एकमात्रिक ताल के प्रमाण से आगे या पीछे पृथ्वी को देखती हुई चले, तो वहाँ तृतीय प्लवकलास समझना चाहिए । चतुर्थ यदाने पृष्ठतश्चैव व्युत्क्रमात्क्रमतोऽथवा । 1724 सव्यापसव्ययोर्नृत्यं चतुर्धा सम्प्रजायते । तदा भेदः प्लवस्य स्याच्चतुर्थश्चतुरोदितः ॥१६०६॥ 1725 जब आगे और पीछे व्यतिक्रम या क्रम से बायीं-दायीं ओर चार प्रकार से नृत्य किया जाता है, तब चतुर्थ प्लवकलास निष्पन्न होता है। तीन हंसकलास (६) प्रथम हस्तौ विधाय हंसास्यौ यत्र हंसीवनर्तकी । अतिरम्याज्रिविन्यास नागतिमनोहरम् ॥१६१०॥ 1726 यदा नृत्यति हंसाद्यः कलासः स तदोदितः । नर्तकी दक्षिणे पावें विधाय मकरं करम् ॥१६११॥ 1727 ४०२ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलासकरण प्रकरण ['मकरं दक्षपार्श्वस्थं पताकं वामहस्तकम् । पुरतो यत्र हंसीव यायाद्भेदः स प्रादिमः । 1728 जहाँ हंसास्य नामक दोनों हाथों की रचना करके नर्तकी हंसी की तरह अति रमणीय चरण-विन्यासों से नाना प्रकार की सुन्दर चालें चलती हुई नत्य करती है, वहाँ हंसकलास कहा गया है। यदि नर्तकी दाहिने पार्श्व में मकर हस्त तथा बायें हाथ को पताकहस्त बनाकर आगे हंसी की तरह चले, तो वह प्रथम हंसकलास होता है। द्वितीय मुकुलं हस्तमारभ्या पादाम्यां पृष्ठतो .ब्रजेत् । विचित्रलास्यभेदज्ञा हंसीवासौ द्वितीयकः । 1729 यदि (नर्तकी) मकल नामक हाथ की रचना करके पैरों से पीछ की ओर हंसी की तरह चले, तो लास्यों के भेदों के ज्ञाता उसे द्वितीय हंसकलास मानते हैं । तृतीय 1730 हस्तं हंसास्यमाधाय पार्श्वयोर्ललितां गतिम् । आलापवर्णतालानां क्रमतो यत्र नृत्यति । हंसीवासौ तृतीयोऽयं भेदः प्रोक्तः पुरातनः] । जहाँ हंसास्य नामक हाथ को बनाकर पावों में ललित चाल चलती हुई नर्तकी आलाप, अक्षर तथा ताल के क्रम से हंसी की तरह नाचती है, वहाँ पूर्वाचार्यों ने तृतीय हंसकलास माना है । समवेत रूप में बाईस कलास करणों का निरूपण समाप्त . श्रीसाम्बाशिवार्पणमस्तु १. हंसकलास के ये भेद मूलपाठ में अनुपलब्ध हैं। अत: मैंने उन्हें प्रो० रसिकलाल सी० पारिख और डॉ. प्रियबाला शाह द्वारा सम्पादित श्री कुम्भकर्ण विरचित नृत्यरत्नकोश से उद्धृत किया है-(सम्पादक)। Page #414 --------------------------------------------------------------------------  Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रसूची [१०८ नृत्तकरणों की मुद्राएँ] Page #416 --------------------------------------------------------------------------  Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः WITH DiamoulinHAIRI10 N ALTO DA TIRTOLIN GUANTA सलपुष्पपुट whibilibiuuuuuuu वक्षःस्वस्तिक वर्तित 1 ||||||| immunitammonommuuuuu मण्डलस्वस्तिक mumultualitleImagementAw लोन IMA Weim स्वस्तिक thuminiu m Humm HT RULIANHUIHU.Billumn वलितोर अर्धस्वस्तिक Xok Page #418 --------------------------------------------------------------------------  Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्याध्यायः 7 . ( 4 AS ANS IAS आक्षिप्तरेचित SumemuTuntumLODHULELI दिक्स्वस्तिक पृष्ठस्वस्तिक RADIO VI हाल LumDARARURURAMON SURNATURALLOW . भुजंगत्रासित कटीझम अलात MIRUESH ThuRATSumanuuuneDHILLED कटिछिन्न மேயயேயாடியயாயாயமUmmm घोणत ummmmmmmmmunment निश्चित ४०७ Page #420 --------------------------------------------------------------------------  Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्याध्यायः ISR GA LATERA LoutuRAJEImmununciunend निकट्टक अर्धनिकुट्टक . HAMILITARAMund विक्षिप्ताक्षिप्तक । - SONREL mammmmmumod अपविद्ध समनख ht E NLININDIA . स्वस्तिकरेचित HOM UFANS By RMAN HAPRILLECTION . मत्तल्लि ममत्तल्लि RAMAILORAMERIES बल्लित Page #422 --------------------------------------------------------------------------  Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः ऊवंजान अर्धरेचित कटिभ्रान्त पादापविद्धक . छिन्न . Hommunmun IrurunnimuTHI नुपुर IMULesnuuumund ललित दण्डपक्ष Page #424 --------------------------------------------------------------------------  Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्याध्यायः जला e 1 POS Maina ARTHAR سسسسسسيسسسسللسيسيليا LULLLLLLLLLLLLLLLLLLLTHAN चतुर Le mmunmun क्रान्त व्यंसित . . H Isyxiete MO Eml. UPP ARIA समाhindiT JURImmunmun आक्षिप्त भुजंगप्रस्तरेचित Peshek e JNAA CF Lowrotek ! In m mmmitNLINE उद्घट्टित उपरेचित वृश्चिक ४१३ Page #426 --------------------------------------------------------------------------  Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः miuuuwtuuuuuuuu buillululiuuuuuu111uplus 引文本中han, वृश्चिक रेचित लतावृश्चिक 一次 II. LEF{i LillulululHTI LIHub niuuuuuuuuu Turity वैशाख रेचित आवर्त 4) MIHullulultillululu तलविलासित कुनियत ११५ Page #428 --------------------------------------------------------------------------  Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवृत magad विवर्तत निशुम्भत www नृत्याध्यायः विनिवृत्त अतिक्रान्त उरोमण्डल ring ललाटतिलक Eve विद्युद्भ्रान्तक्रिय विक्षिप्त ४१७ Page #430 --------------------------------------------------------------------------  Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः MARRUIDAI bummunmintHABAR mummaNamamunmun पावनिकुट्टक तलसंस्फोटित गण्डसुचि INSTALLLLLLLLLLLLL सबि . MulturL unsming अर्धसूचि - गजक्रीडितक SHITAURISMEENAHATRA पार्वजानु WILLLLLLLLLLLLLUDHIAN गडप्लत JammuthumtammuIMARRIES गध्रावलीनक ४१९ Page #432 --------------------------------------------------------------------------  Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्याध्यायः ( Alphia SHI LIHubliuhuilluld Alilluluuu Hululu | butillinduhbattlum दण्डपाद 41 LiuHillujah संनत सर्पित 打羽 US F113 Hillululu11111uube मयूरललित सूचीविद्ध Lululu_11111uubulliu111|||| प्रेडखोलित परिवृत्त करिहस्त ४२१ Page #434 --------------------------------------------------------------------------  Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतपित नितम्ब timat सिहाकवित मुख्याध्यायः पाश्वंक्रान्त हरिणप्लुत जनित MAN MAIL have निवेश MA सिहविक्रीडित biec RE अवहित्य ४२३ Page #436 --------------------------------------------------------------------------  Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ayy buuuNIRAULARumar उदवृत्त तलसंघट्टित लोलित Aahiroin LUNLIM ILITAINMEILLILIARATHI शकटास्य वृषभीडित Humanitidurmus एलकाक्रोशित शान्तावालाSEA harARS SRTEL HAUHARMILAIMILLILALILIMIT Jamunmunmun विष्कम्भ उपसृत विष्णुक्रान्त ४२५ Page #438 --------------------------------------------------------------------------  Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः hIMILITATUTORI अञ्चित अपक्रान्त उरूबवृत्त MERO BROAL TOS VEER Weda A وبالمناسبير، اسنا ليلليسيهااايل البطل سياسيينسدالسلسالميعا संभ्रान्त मदस्खलितक अगल रेंचकनिकुट टक. नागापसपित , गंगावतरण ४२७ Page #440 --------------------------------------------------------------------------  Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #442 --------------------------------------------------------------------------  Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोका अंशे निधाय शीर्षं चेत् अंशभालकपोलानाम् अंसग्रहे च सिंहाद्यैः अंसयोः कुचयोर्वापि अंसयोः स्तनयोस्ताल अंसवर्तनिकं प्रोक्तम् असान्त लुठितौ स्वैरम् सावधि स्तनक्षेत्रात् अक्षराणां लयस्यापि अक्षरेषु चलन् कार्ये अक्षुब्धासमतारा या अग्रतः पृष्ठतस्तिर्यक् अग्रतः समपादस्य अग्रगोsस्तलश्चेति अप्रयोगेन चेदेतम् अग्रसंकोचनादेष अग्रे पार्श्वेऽथवोवें वा अग्रे प्रसारितोऽधिश्च अग्रे लोकानुसारेण कुरितां मम हृदये प्रेमलताम् अङकुशाभिनये त्वेष अखण्डिते महालाभे भगं तु चतुरनं स्यात् ५५. श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या श्लोका ९४८ अडगं लास्याङ्गयमादिष्टम् २६५ अङ्गमिष्टं सौष्ठवेन १९५ अङगहारान्प्रवक्ष्यामि २९३ अङगहारेषु सर्वेषु १५२६ अङ्गहारोपयोगीनि ७९२ अङ्गानामुचिते देशे ८२८ अङगानां यत्र पात्रस्य ८५८ अङ्गानि तावदौद्धत्यात् १५५२ अङ्गीनिरन्तरौ तुल्य३३ अङ्गुलिस्फोटनान्मौनात् ४३६ अङ्गुलीपञ्चकेन स्यात् १०५९ अङ्गुलीपृष्ठभागं हि ९३४ अङ्गुल्यप्रस्थितं कार्यम् ६०१ अङगुल्याग्रा यदा गुप्ताः १०१४ अङ्गुल्यमामिकास्पर्शात् ३९ अङ्गुल्यः सरलाः स्तब्धाः २२१ अङ्गुल्या पूर्वपूर्वस्याः ८९७ अङगुष्ठसंहिता पाष्णिः ९९९ अङ्गुष्ठसहिताङगुल्यः १५०१ अङ्गुष्ठस्यापि भेदाः स्युः १५३ अङ्गेषु पूर्वरङगस्य १५५ अङगैर्गतिप्रकारैश्च ११३८ अङनिर्भूषणैर्दुःखैः श्लोक संख्या १५६१ ८८७ ३४३ १३४३ १३४३ १५४९ १५५० ९७० ६६० १९० १०८० १६२ ४५ ९ ५९४ १५० १९१ ५९९ १४१८ ६६९ ६८१ ४३१ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोक संख्या १४४८ १४३७ १६१० १४८६ १४९८ ५११ ४२४ ९३२ ८६८ ८८२ श्लोकार्ध अङगैर्लीनरिवाङगेषु अङगोपेतास्ततोऽन्वर्थो अघि कुञ्चितमुन्यस्य अघि तिर्यञ्चमाकुञ्च्य अङघिरङगुलिपृष्ठेन अघ्रिरेति नितम्बान्तम् अधिनिकुट्टितः पूर्वम् अधिनिवेशितो यत्र अधिर्यत्रापरः स्तधः अडिघश्चाषगतिर्द्धिः स्यात् अधिश्चाषगतिमिः अघि स्वस्तिक विश्लिष्टम् अघ्रो निरन्तरौ तुल्यअङघेराकुञ्चितस्याने अघ्र रेकस्य गुल्फ चेत् अङघ्रयोः कृत्वा यदोत्प्लुत्य अञ्चितं चरण पश्चात् अञ्चितस्य परस्याङघ्रः अड्डितोक्तश्चतुर्भेदः अतस्तानि न शक्यन्ते अतिक्रान्तं दण्डपादम् अतिक्रान्तं भुजङगाद्यम् अतिक्रान्तं बामविद्धम् अतिक्रान्तः पुनर्वामः अतिक्रान्तस्तु वामः स्यात् अतिक्रान्तस्तु वामोऽङग्री अतिक्रान्ताङिघमारच्य अतिक्रान्ता तदा चारी अतिक्रान्ता त्वपक्रान्ता श्लोक संख्या श्लोकार्घ ६७८ अतिक्रान्ता भ्रमरिके ९५१ अतिक्रान्तो यत्र वामः १००२ अतिरम्याङिघ्रविन्यासः १०४४ अतो न्यूनेऽधिके चाङघ्रौ १०८९ अतो विगतलज्जायाः १०६३ अत्यदर्थ समर्थे च ११०७ अत्युत्फुल्लपुटा नासा ११०५ अत्र प्राह समाधानम् १००५ अत्राधि देवता दुर्गा १४७७ अत्रैक कुञ्चितः पादः १४७८ अत्रैव केचिदिच्छन्ति १०६१ अथ ज्ञानेच्छयोस्तोष ९७० अथ देशीप्रसिद्धाः याः १०७८ अथ पक्षस्थितस्त्वसौ ९९८ अथ पुंसां तथा स्त्रीणाम् १०३५ अथवा द्रुतमानेन १०१७ अथ वामो भवेत् सूची १००२ अथ वामो भवेत् सूची १४८४ अथवा स्यादसौ पाणे: ११३६ अथवा स्वस्तिकाकारौ १४२७ अथवेदं त्रिखण्डोक्त१३५६ अथ सप्तस्थितावर्तः १४२७ अथ सक्तेऽङिघ्ररुवृत्तः १४५० अथ सब्योऽपसृत्याङिघ्रः १४५५ अस्थानानि षट् पुंसाम् १४४२ अथाच्छिन्नमतिक्रान्तम् १००१ अथातिक्रान्तको वामः ९९९ अथान्तरे तथा सत्य ९५७ अथान्यः परिवृत्याधो ६५५ ८३१ १४३९ १४३२ १४२३ ३१४ ७७४ १४४९ १४३२ ९८५ ८७७ १३५३ १४ २५८ ४३२ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या १८६ १०४ १६० ११४६ २७३ १९५ २४९ १२६ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्ध ८६८ अधोमुख प्रयोक्तव्यः ३१३ अधोमुखः सद्वर्णेषु १४३१ अधोमुखी भवेद्वामा १४२१ अधोमुखी ललाटस्था ८७८ अधोमुखेन शीर्षण ७८६ अधोमुखो नियोज्योऽथ ३४६ अघोमुखो नियोज्योऽथ ५९५ अधोमुखो भालदेशः ३४६ अधोमुखौ निघृष्टौ तौ ९८ अधोमुखौ पताको चेत् ३९५ अधोमुखौ यथोचित्यम् ६३५ अधोमुखौ विधायाधः २६ अधोमुखौ स्वस्तिकौ तौ ५७ अनंगोद्दीपनं चाथ ५५८ अनत्युच्चं चलत्पादम् २३० अनन्ता भ्रूपुटादीनाम् ८५९ अनयैव दिशा ज्ञेयाः २४२ अनवस्थितसञ्चारा ८८ अनादरेऽधस्तल: ५०४ अनामिका पताकस्य ६२७ अनावृत्त्या नितम्बस्य ९७७ अनुत्पन्नेऽनातुरे ४७२ अनुरागे प्रतिज्ञायाम् ४६२ अनुरूपे प्रसन्ने च ६६१ अनुलोमविलोमा च २४ अनुसृत्य त्रिकोणत्वम् ९८ अनृतोक्ते यथौचित्यम् १९३ अनेन मोक्षयेच्छस्त्रम् ६४१ अन्तःपुरे वामभागे श्लोकार्ध अथापि चेति स्वग्रन्थे अथारालं करं वामम् अथालातो भवेत् वामः अथाहं रेचकान् वक्ष्ये अर्थतेषां क्रमाल्लक्ष्म अर्थतो केशपर्यन्तम् अथो तेषां लक्षणानि अद्यः क्षिप्ता मुहुः पातात् अद्याकर्णय नैशिकं सखि अघः पार्श्वगता कार्या अधमानां गतौ प्रोक्तः अधमोऽभिनयच्छीतम् अधरस्फुरणे त्वेषः अघरस्य प्रकर्तव्यः अधरे दशनैर्दशः अघः शैलशिलोत्पाटे अधस्तत्र व्रजत्येकः अधस्तलत्वमप्याहुः अधस्तले वियोगे तु . अधस्ताद्दर्शनं यत् स्यात् अधस्तात्प्रेक्षणेनापि . अधस्ताद्वदनं सुप्तम् अधस्तात् सञ्चरन्ती या अधस्तात् सञ्चरन्ती सा अधिकोच्छवासनिःश्वासः अधो घर्षन् रताश्वासे अघो मण्डलिता कार्या अधोमुखः कुञ्चिताग्रः अधोमुख पताकाभ्याम् ८५१ GA WG ४७१ ११८ १०७ १३८७ २०६ १०८६ ८०२ १६८ ९०० २२६ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या ४८७ ४८८ १३५९ श्लोका अन्तर्जानु स्वस्तिकत्वम् अन्तनिम्न समाख्यातः अन्तर्बहिः करावूर्ध्वम् अन्तर्बहिश्चक्रचरी अन्तर्भूतं ततस्त्रित्वम् अन्तर्भ्रान्त्या बहिर्भ्रान्त्या अन्तर्याती चेति गुल्फौ अन्तश्च लीलयान्यस्मिन् अन्तस्तिर्यक् चक्रभावान् अन्त्यद्विकरणाभ्यासः अन्य एव तु नाट्घाङगः अन्यकर्णस्थितौ यमअन्यतोऽलातमाक्षिप्तम् अन्याङ्गुलि समीपस्थः अन्येऽपि सन्ति ये भेदाः श्लोक संख्या श्लोकार्ध ९९२ अन्वर्थी पिहितौ प्राप्ती ४१९ अन्वर्थी स्फुरितौ ज्ञेयौ ८४५ अपक्रान्तं व्यंसितं च ८३० अपक्रान्ता दक्षिणेन ६०२ अपक्रान्तोऽथवामोऽङिघ्रः १०६७ अपक्रान्तोऽपरः पार्श्व५९१ अपक्रान्तो भवेद् वामः १४४८ ७७७ अपगम्योपगच्छेताम् ७८१ अपतीताघररागम् १३६१ अपरं करमारच्य १५२३ अपरः पार्श्वयोर्यत्र 0 १४५८ १४४० १४५१ ९८४ १४९३ ८२२ ७६७ १४० १३६९ ७५५ ११२२ १३४३ अन्योऽन्याभिमुखावीअन्योन्याभिमुखेद्वारे अन्योन्याभिमुखौ तौ तु २६९ अपरेण करेणाथ १३६४ अपविद्धं ततः सूची २८ अपविद्धं ततो ज्ञेयम् १५६५ अपविद्धं समनखम् २६५ अपविद्धश्च विष्कम्भाद् १३० अपविद्धस्तथेत्युक्तः १२९ अपसृतं तन्निवृत्त्या ८५९ अप्रत्यक्षा विनिर्देश्या: १२८ अप्रदानेन नेत्रस्य २३६ अभिनीता यथौचित्यम् ३७१ ३३४ अन्योन्याभिमुखौ भ्रान्तौ अन्योन्याभिमुखौ स्याताम् ६१८ अन्योन्याभिमुख हस्ती अन्यो बिडम्बनां धत्त ६९७ ११४७ ८१५ अभिनेयवशादेवम् ७१० अभिनेयवशाद् धीरः ७५३ अन्योर्ध्ववर्तना तद्वत् अन्वक्षरेण हस्तेन अन्वर्थः कम्पितः शीत ३१९ अल्वर्थलक्षणाः पञ्च अन्वर्थ लक्षणोत्क्षिप्ता अन्वर्थाः कुञ्चितास्त्रास अन्वर्थी कुञ्चितौ स्याताम् ७७३ अभिनेयेषूत्तमेषु ५३७ अभिनीतास्वराः सप्त ५६१ अभिनेयो वसन्तस्तु ४७७ अभ्यन्तरप्रवेशेन ५९७ अभ्यन्तरेण तत् प्रोक्तम् ४८६ अभ्यासात्कथितादेव ४३४ ५९५ ६३८ ८३६ ६१३ २८८ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या ७४० ७३९ १०३८ १३९३ १३६३ १३४३ ७६२ ८१५ १३७१ ९६७ ९५८ १४३७ ६५४ ४५४ श्लोकार्ध अभ्यासादाद्ययोरत्र अभ्यासाद् रचितो चेत्स्तः अमी केचित् समासेन अभी नृत्तस्य तु प्राणाः अमूराकाशिकास्ताश्च अयं तु पादविन्यासे अयमन्तःपुरे तु स्यात् अयमेवालपद्मास्यात् अयुक्तनृततुच्छोक्तो अरालकपरावृत्ते अरालवर्तनापूर्वम् अरालेन तथा वाम अरालो वर्तितः पश्चात् अराली विततौ स्वाभिअर्धचन्द्रकरो नाटये अर्घत्र्यस्रो च यत्राङघी अर्घमण्डलपूर्वा च अर्घमण्डलितप्यूरु अर्घसूच्यथ विक्षिप्त . अर्थाद्य रेचितः वक्षः अदेिवतयोश्च स्यात् अलंकृतं तुल्यवृत्तम् अलकापनयने स स्यात् अलकोत्क्षेपणेऽप्येषः अलक्तकादिचरण: अलङ्कारानुपादाने अलपद्मकरे यत्र अलपद्मकरालं च अलपद्मावथे वाथ श्लोक संख्या श्लोकार्ध १४०८ अलपल्लवनामा चेत् ४ अलपल्लवहस्तोत्र ८६१ अलसौ सा तदा धीरः ८६० अलातं चोर्ध्वजानु ९६९ अलातकं नितम्बं च १३८ अलातकः परावृत्तः ११३ अलातचक्रकाख्यं च २०४ अलातचक्रमाख्यातम् २०५ अलातभ्रमरे कुर्यात् ८१३ अलाता डमरी विद्धा २९४ अलाता दण्डपादा च ६३० अलातोऽप्यथ सव्यः स्यात् ७१७ अलिरेणुपतङ्गानाम् २४० अल्पसञ्चारिणी दृष्टि: १०२५ अल्पे फले मिते प्रासे ९९६ अवज्ञायां वहिः क्षिप्तः ७१३ अवश्यं सर्वथास्थान ९६२ अवष्टभ्य भुवं पार्ष्या १३९४ अवहित्थमथोवृत्तम् १३७३ अविच्छिन्नरसा पाणिः १५३ अव्यक्तालोकिनी धीरैः १५०२ अशून्ये तविषेत्यर्थे ११८ अशोकेन समादिष्टा ५४ अश्वेभोष्ट्रखरव्याघ्रः १३५ अष्टबन्धविहाराख्यम् २४२ अष्टबन्धविहाराख्यम् ७१६ अष्टादशाङ्गुले यत्र १५९९ असंयुताविमावूर्वा ३११ असकृद् यत्र तत् प्रोक्तम् । १६८ ७० ११३२ १११७ ४४७ १३४ ७०७ ७६५ ८३८ ९२७ १४९ ७७४ ४३५ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोकार्ध असकृद्वा सकृद्वापि असमग्ने प्रयोक्तव्यः असम्बद्ध बहिः क्षिप्त असान्तिकं ततो गत्वा असावधोमुखः कार्यः असावुडुगणे कार्य: असूयते तथानिष्टे असूयावज्ञयोर्हास्य . असूयोरक्षेपयोश्चोभे असौ च सत्त्वरे दाने असौ दरिद्रे मन्देऽपि असौ देवार्चने स्त्रीणाम् असौ पुरोगतः कार्य: असौ योज्यः सहस्रादौ असौ शराकर्षणे स्यात् असौ शिरसि तद्देश अस्खलन्ती यदा नीकी अस्त्रीजातौ तत: डीषि अस्पृशान्तौ करौ पाश्वौं अस्य क्रियान्तराण्येवम् अस्याङगुली: प्रसार्याथ अस्या नामान्तरं केचित् अस्यान्ये ऽभिनया धीरैः अहमित्यादिनिर्देश श्लोक संख्या ४५०८ १०४० . १०७२ १०३९ ४६० ४६४ ८४८ .. १४०३ १३६० १३४९ १३४३ १३७४ ११२०. श्लोक संख्या श्लोकार्ध ३५२ आकुञ्चत्पुटपक्षमाग्रा १० आकुञ्च्य चरणावलम १६४ आकुञ्चिताङिघ्यमन्येन ३०४ आकुञ्चिताधिमुरिक्षप्य १३६ आकूणितपुटा गूढा ३० आकूणितपुटापाङगा ४५८ आकेशबन्धमुत्क्षिप्तः ५३५ आक्षिप्तं करिहस्तं च . ४७९ आक्षिप्तं करि [ह] स्तं च १८८ आक्षिप्तं च तथा छिन्नम् २३ आक्षिप्तकः परिच्छिन्न: १९२ आक्षिप्तरेचितं चार्ध६८ आक्षिप्तरेचितालात ४४ आक्षिप्तस्वस्तिकं कृत्वा ७२ आक्षिप्तास्येति संप्रोक्ता ५८ आक्षिप्तमण्डलम्रान्त्या १५४८ आक्षिप्तो दक्षिणो यत्र ९४९ आगते दक्षिणे पार्वे २६३ आघूर्णितान्तरा क्षामा -- आघ्राणे कुसुमादीनाम् १५७५ आङिगकाभिनयोऽल्प: -- आचरन्ती प्रचारं चेत् २३० आज्ञाप्रतिज्ञयो थे ११५ आदानेऽसौ फलादीनाम् आदिकूर्मावताराख्यम् १४२७ फु० आदिकूर्मावताराख्यम् ६६६ आदिमध्यावसानेषु १२२ आदिष्टेऽधोमुखः स स्यात् ९४५ आदौ स्वस्तिकपूर्व स्यात् .१३५७ १४८० १४५४ १८१ ५३० ५८७ १५८१ २१७ ६७२ ७५८ ७९४ ८४४ आकाशचारी बाहुल्यात् आकाशवीक्षणात् पादः आकाशाभिनये तूर्ध्वम् आकुञ्चत्कायमाविद्ध १३७३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या ७११ १०१४ ७१८ ८४९ ७२४ ६४४ ६११ श्लोक संख्या श्लोकार्ध १३५४ आविद्धवर्तना केश १६०४ आविद्धादिधस्थितान्योरु ३९१ आविद्धाधोमुखो यत्र १११६ आविद्धापविद्धौ च १५३२ आविद्धी चेत् तदा सोक्ता १५२५ आविष्टो येन भावेन ३६६ आवेष्टितं तदा प्रोक्तम् ११५३ आवेष्टिताभिधं पूर्वम् ९०४ आवृत्त्या त्वनयोरेव ६३४ आश्रितो दण्डपादस्त्वम् ६६० आश्रित्य शयनं यत्र ८६७ आश्लिष्टस्वस्तिकीय ९०८ आश्लिष्टस्वस्तिको हंस ५११ आश्लेषणाच्छरीराणाम् ५१३ आस्कन्दितं चाषगतम् १५६३ आस्फोटितं स्फुटं यत्र १६७ आस्यदेशेऽङगुलिक्षेपात् ६०९ १३८७ १४५४ ९४८ २८९ श्लोकार्य आद्यद्विकरणाभ्यास आद्यो भेदः प्लवाद्यस्य आध्मातमदरं पूर्णम् आनन्त्यात् स्थानचारीणाम् आनन्दयत्यसौ साद्भिः आनन्दातिशयः कोऽपि आनम्रा कुञ्चिता ग्रीवा आनीय शुकतुण्डाख्यौ आभाषणेऽभिलाषेच आभ्यामेव कराभ्यां च आयतस्थानकस्था च आयताख्यावाहित्थाख्ये आयतानन्तरं योज्या आतौं तयोर्ध्वश्वासे च आतौं हास्ये जुगुप्सायाम् आर्द्रता प्रेक्ष्यते चित्तात् आर्द्रापराधके चाथ आलापवर्णतालानाम् (हंसक०) आलिङगनेन पुंसोऽपि आलिङगस्तु धरां वाहुः आलीढं च तथा प्रत्याआलीढ़ाच्छुरितौ पार्श्व आलोकितोल्लोकिते च । आवर्तकुञ्चिते दोला आवतिन्य: पार्श्वगता आवयते यदा सा स्यात् आविद्धश्चेति षड्बाहून् आविद्ध भ्रामितिभ्रमौ आविद्धवक्रयोर्यत्र ३०५ १४३० १४८२ ३३ ६६४ इतराण्यपि कर्माणि ३७३ इतरेतरसंश्लेषात् ८६६ इतस्ततः कुट्टित: सा १३४३ इतस्ततश्चलन्नेष ५०० इति त्रेधा भवेत्सोऽयम ११२६ इति प्रथमसंगमे २०३ इति संघविशेषेण १०३६ इत्थं प्रदर्शयेन्नाट्ये ३७१ इत्याह ग्रहणस्थाने २८३ इत्याह मुनिरन्ये तु ७२४ इत्युक्तं मुनिना सर्व १०९४ १२३ १७० १५१२ १३४३ ६८२ ५६० ८८१ ७०५ ४३७ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या .३४८ ५७५ ९६८ • ७१ श्लोकार्ध इदमर्थे किमर्थे च इदमर्थेऽधोमुखी इदमेव नटाः प्राहुः इदमेव रचे नाम्ना इन्द्राभिनयने त्वेषा इदमेव बुधाः केचित् इमावन्योन्यसंश्लिष्टौ इमा मुडुपचार्योऽथ इमावुभावपि ज्ञेयो इमो कीर्तिधरः प्राह इमो कीर्तिधरः प्राह इमो विच्युतसन्दंशो इमौ शिरःस्थी कर्तव्यो इष्टोऽनिष्टस्तथा मध्यः इहकवचने मानम् ३२० १४८८ १६०० मृत्याध्यायः श्लोक संख्या श्लोकार्ध ११ उत्क्षिप्तापाणिराकुञ्चन् ९६ उत्क्षिप्तमास्यमुद्वाहि १५२८ उत्क्षिप्ता पतितोत्क्षिप्ता १५२९ उत्क्षेपं केचिदुभयोः ९५ उत्क्षेपस्य तथा पृष्ठ १५४३ उत्पन्नेऽप्येवमर्थे १३२ उत्तमे निकटस्थाः स्युः १०८८ उत्तमोऽपि कदाप्येवम् ४८९ उत्तमोत्तमकं चेति ७२९ उत्तानवञ्चिती पाणी २९३ उत्तानस्यं सस्तमुक्त ७९ उत्तानाधोमुखी शश्वत् १४१ उत्तानिततलं पादम् ६१६ उत्तानितोऽथ विश्वासे २६९ उत्तानितोऽधोमुखः स्यात् उत्तानितो मुखस्थ: स्यात् ५१५ उत्तानितो केचिदिमौ ८४ उत्तानोऽधस्तल: पार्श्व २२४ उत्तानोऽधोमुख: पार्श्व उत्तानोऽधोमुखीभूय ८४७ उत्तानो नयनौपम्ये ४६९ उत्तानितो. पताको द्वौ । ४३५ उत्तानो वामभागस्थी ५९६ उत्तापेऽभिघातेऽपि ३० उत्तुङगपीवरपयोधर १८९ उत्प्लुत्य चरणौ यस्याम् ५१२ उत्प्लुत्य भ्रमरी दत्वा ९३९ उत्फुल्लपुटयुग्मा या ३५० उत्फुल्लमध्यमा प्रस्ता ईषच्छ्वासोच्छ्वासयुक्ता ईषत्प्रकम्पितायान्ती ईषवक्रीकृतान्योन्या ६३२ २४४ उक्तैः संसर्गरूपेण उग्रदर्शनविज्ञान उग्रा कुटिभीष्मा या उच्चर्या मुहुरुत्क्षिप्ता उचितश्च्युत सन्दंशः उच्छ्वासे च्युतसन्दंशः उच्छ्वासे सौरभेऽप्येसा उक्षिप्त: कुञ्चितश्चैव उत्क्षिप्तपाणिः प्रसृत १५१० १०६४ १०१४ ४६९ ४३८ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकार्घ १००३ उत्सङग हस्तमाचष्ट उत्सार्योवेष्टितेन स्यात् उदये विवृतास्योऽथ उद्गती मण्डलाकारम् उगिरन्तीव या धैर्यम् उद्घाटितं च मल्लिउद्घट्टितस्तथा पादः उद्घट्टितोऽथ बद्धः स्यात् उद्धृत्याघोमुखकार्यः उद्भिन्ने विच्युत: स स्यात् उद्वतितस्ताण्डवेऽसौ उद्वाहितं तथा सुप्तउद्वाहितविधं चेति उद्वेगसंभ्रमैः शस्त्र: उद्वेगैरास्य संकोचः उद्वेष्टितं विधायापउद्वेष्टितक्रियापूर्वम् उद्वेष्टितक्रियापूर्वम् उद्वेष्टितक्रियापूर्वम् उद्वेष्टितक्रिया पूर्वी उद्वेष्टितो दर्शने स्यात् उद्वेष्टितो भुजोऽसौ स्यात् उद्वेष्टितो परावृत्ती उद्वृत्तश्च ततो विद्युत् उद्वत्तकश्च संभ्रान्ते उद्वृत्तकोऽप्यसौ वामः उद्वृत्तसंज्ञको हस्तौ उद्वृत्ताग्रं भूमिलग्नम् • उवृत्तो वदनोत्क्षेपात् श्लोक संख्या श्लोकार्ध श्लोक संख्या २४१ उन्नतं तद्विपर्यासात् ३३७ उन्नताग्रः परोऽराल: ३१६ २९ उन्नीय निजपान ८२६ उन्मत्तं करिहस्तं च १४०३ ४४५ उन्मादे च तथातों च ४६७ १४१३ उन्मूलने त्वधो गत्वा ३४४ उन्मेषितावलग्नौ स्तः ४८९ १४६९ उपकर्ण यदा तिर्यक ८४६ २०१ उपपाष्र्ण्यन्तरं पाया १०१६ १७८ उपधाय यदा बाहुम् ९४६ ३९७ उभयोऽप्यत्र सर्वास्ता ८७६ उभौ भूत्वा तिरश्चीनी ३२७ उरसः प्राप्य शीर्ष यः ६६३ उर:स्थवर्तनां विद्यात् ७२७ ६४९ उरसो मण्डलाकारः ३८१ २८४ उरूद्वृत्तकमत्यर्घ १४११ ७४७ उरुद्वृत्तमुरः पूर्वम् १३७० ८५७ उम्द्वृत्ता स्थितावर्ता ९५६ ११४८ उरूवृत्तोऽड्डित: स्यात् १४७६ ७४४ उरुवृत्तोऽड्डितोऽघ्रि: १२ उरोमण्डलकं चाथ ३७५ उरोमण्डलकं पश्चात् १३५७ ६५३ उरोमण्डलकं पश्चात् १३८० १४७० उरोमण्डलकं पश्चात् १३८५ १३४३ उरोमण्डलविक्षिप्ते ११२८ १४५१ उरोमण्डलसंज्ञं च १३४५ २६१ उरोमण्डलसंज्ञ च १३८२ ५९९ उरोवर्तनिकात्वेन २८६ ... ५४१ उर्ध्या चेत् पातयेत् पार्ष्या ... १००३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्ध उल्लालनं क्रमेणाध्ययः उल्लासस्यसको भावः उल्वणौ वर्तितौ स्वोक्तउष्णं च भूमिसन्तापम् उष्णात्तु च्छ्वासनिःश्वासौ ऊ ऊरुजानुत्रिकमधः ऊरुद्वयं च हस्तानाम् ऊरुवेणी च विश्लिष्य ऊर्ध्वं गतोवाहिता स्यात् ऊर्ध्वं विलुठितः पूर्वम् ऊर्ध्व गाधोमुखा dat ऊर्ध्वगोऽधोगतश्चाथ ऊर्ध्वजानु कटिभ्रान्तम् ऊर्ध्वजानुस्ततः सूची ऊर्ध्व प्रसारणाद बाह्वो ऊर्ध्वप्रसारितो चेत्स्यात् ऊर्ध्व मण्डलिनी पाणी ऊर्ध्व मण्डलिनौ प्रोक्त ऊर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ ऊर्ध्वमुखस्तथा चाघः ऊर्ध्वमुखो नियोज्योऽसौ ऊर्ध्वमुखो विचित्र स्यात् ऊर्ध्वमुखौ क्रमात् कृत्वा ऊर्ध्वलोके तु सर्वेषाम् ऊर्ध्वविच्युतसन्दंशः ऊर्ध्वविच्युतसन्दंशः ऊर्ध्वग्रौ खटकास्यौ च ऊर्ध्वाङ्गुष्ठावघोवक्त्रो YYo मृत्याच्याक श्लोक संख्या श्लोकार्ध -- ऊर्ध्वाङ्गुष्ठो यदा मुष्टि: १५१४ ऊर्ध्वाधः पतिता कार्या ऊर्ध्वाधः पतिता कार्या ६४६ ऊर्ध्वाधः शीघ्रमायान्ती ५२० ऊर्ध्वाधः शिखरौ हस्तौ ऊर्ध्वाधोमण्डलभ्रान्तौ १००१ ऊर्ध्वा यस्मिन्नलग्नाग्रा ६०५ ऊर्ध्वास्यः शिरसः पश्चात् ९६५ ऊर्ध्वास्योऽसौ कपोलादौ ४०२ ऊर्ध्वोगा तून्नता ग्रीवा ७९९ ऊर्ध्वोत्तानोऽर्ध चन्द्रेऽथ ७८ ऊर्ध्वोत्थितो नाभिदेशात् ६०३ ऊर्ध्वोत्थितौ रोमराजौ ११२३ ऋ १४४० ऋज्वी लोला लेहिनी च ६७४ ऋज्वी सा व्यात्तवक्त्रे या ८० ऋजुरूर्ध्वमुखो योज्यः ११५० ऋजुरूर्ध्वा तु सैकत्वे २८१ ऋजु समो धारणे तु ७२६ ऋतू निमानर्थ क्शात् ६०४ ए २५ एक पादं समं कृत्वा २८ एकः करश्चेदन्यस्य ३१२ एक: करो यदा कर्ण ९२ एक जानुनताख्यं च २७ एकजानते त्वेकः १८७ एकतालान्तरी पादौ २९९ एकदा चालनं बाहु२५१ एकः पादः समोऽन्यस्तु श्लोक संख्या ५३ ९७ १०० ८५ ६० ७९३ १९१ 1 १३५ ३६३ १४३ २ ६३ ५४५ ५४६ ८६ ८३ ४२२ ६४३ ९३८ ७८५ ७८४ - ८७२ ९३६ ८९० १५२४ ९१७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्ध श्लोक संख्या ११३३ ९५५ १४७९ १५८६ १०९५ ४१७ १४७५ २८८ ६०४ ७०३ ६८४ एक: पश्चाद्वराश्लिष्टएक पार्श्वगताख्यं च एकस्य वलने पार्वे एकस्याङगुष्ठको यत्र एकस्याङ : समस्यान्य: एकस्मिन्नाभिदेशस्थे एकाङगुलादध: पाति एकाधिपादमुत्क्षिप्य एकाङगेन ततः कुर्यात, एकादश तथाभ्यासएकादशाभिरादिष्ट: एकैकं करणं कार्यम् एकैकं चेत् तदोक्ता सोत् एकैकमथवा नेत्र . एकोच्छ्वासेन च प्राज्ञ एतच्चिकीर्षितासु स्यात् एतदेव परे प्राहुः एतदेवावहित्थाख्यम् एतद्वयत्यासनेनापि एतद् द्विजाति दत्ताशीः एतन्नियुज्यते धीरैः . . . एतन्नियुज्यते धीरैः एतान्याकाशिकानि स्युः एतयोभ्रमणं वक्षः एताभ्यामेव हस्ताभ्याम् एतावेव परावृत्तौ एतावेव परे प्राहुः एताः समासतः प्रोक्ताः एभिः स्यादङगहारोऽयम् श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्ध. ९२८ एलकाक्रीडितं तद्वत् ८७२ एलकाक्रीडिताख्या च ७७३ एलकाक्रीडितैः सूची ९३५ एवं कर्मान्तराण्यस्य ९१२ एवं खगकलासस्य ७७० एवं द्वयंङधिकृता सैव ५६९ एवं पञ्चविधो धीरैः १०६५ एवं भ्रान्त्वा चतुर्दिक्षुः १३९० एवं यदा तदैवान्यः १३९४ एवं पञ्चदश प्राहुः १३५० एवं योग्येन हस्तेन १३४३ एवं वासकसज्जापि १०४० एवं विनिदिशेत् षड्जम् ८३२ एवं विनिदिशेद्धीमान् ६२३ एवं लोकाद् बुधरुह्या ९०५ एवं सप्ताधिकस्त्रिशत् १०७६ एवं सति पुनयंत्र ९०९ एवमङघन्तरेणापि १५७३ एवमन्ये बुधैरुह्याः ८९१ एवमेकादश ज्ञेया ९२३ एवमेव विशेषज्ञैः ११५३ एष वस्तुग्रहे चौर्यात् । १४२७ फु० एष सुप्तोत्थजम्भायाम २८५ एषा पश्चात्पुरः क्षेपात् ६२७ एषा श्रमे श्वापदानाम् २७९ एषोऽन्नादातुपस्थाने २५९ औ १११५ औत्सुक्यचिन्तानिर्वेद ६८८ ६९२ ५३२ १५१७ ७९८ १११३ २११ ७४३ ५८५ २०० २२१ १०९० १५१ १३६८ ४४१ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , नृत्याध्यायः श्लोकार्ध श्लोक संख्या १७७ ६१४ ९१६ २५४ २९५ ३३८ २३१ १९२ १५०४ ४९५ ६६६ कटाक्षः स्याद्विवर्तनम कटाक्षिणी सहर्षा सा कटिक्षेत्र गतौ कार्यः कटिच्छिन्नं च करणम् कटिच्छिन्नं च करणम् कटिच्छिन्नं च करणः कटिच्छिन्नं च कुर्यात्सः कटिच्छिन्नं च रचयेत् कटिच्छिन्नं च सम्प्रोक्तः कटिच्छिन्नं चाङगहारः कटिच्छिन्नमपि ज्ञेयः कटिदेशगतस्त्वेक कटिदेशगती हस्ती कटिस्थेनार्धचन्द्रेण कटीच्छिन्नं क्रमान्मत्त कटीच्छिन्नममीभिः स्यात् कटीच्छिन्नं भवेन् नो वा कटीच्छिन्नं षष्ठमसौ कटीच्छिन्नं समं पश्चात् कटीजानुसमौ तत्स्यात् कटीदेश करौ न्यस्तो कटीसमं कटीच्छिन्नम् कट्यां करं निवेश्याय कपित्थी हस्तकौ स्याताम् कण्टकोद्धरणे सूक्ष्म कण्ठग्राहमनिन्दितः कथने स्कन्धदेशस्थ: कथाप्रयोगक्षोभं हि श्लोक संख्या श्लोकार्ध कद्रौ तत्सुतविद्यायाम् ४९६ कनिष्ठाद्यङगुलीनां चेत् ४४१ कनीयस्योर्वीमाश्लिष्ये ७० कपाटोद्घाटने त्वेष १३४५ कपित्थस्योत्थिते वक्रे १३६० कपित्यावथवा मुष्टिः १३५१ कम्पितोद्वाहिता छिन्ना १३५६ कपित्थो मुकुलो हस्तम् . . १३५८ कबरीग्रहण स्त्रीणाम् १३४७ कपोलपुलकावली १३६३ कम्पनं चलनं ज्ञेयम् १३६२ कम्पनेन शरीरस्य ७८६ कम्पमानाथ कर्तव्याः ८१६ कम्पिता कम्पनादुक्ता ६८९ कम्पितौ रोमहर्षेषु १४१५ करणं दण्डपादाख्यम् १४१३ करणं न्यूनताधिक्यम् १३८६ करणवातसन्दर्भात १४१४ करणानां समुद्दिष्टम् १३८२ करणाभ्यां मातृका स्यात् ८९५ करणोत्करसन्दर्भात् ३०२ करणः स्थिरहस्तं स्यात् ११२१ करणोद्वेष्टिताख्येन १६०० करप्रचारोऽशोकेन ७१ करयोः क्रियते यत्र १७१ करयोरखिलाङगुल्यो १५०६ करयोर्जायते यत्र ४८ कररेचितरत्नं च १०२१ कररेचितरत्नाख्यम् १३४४ १३४३ १३४३ ११३५ १३४३ १४१६ १३४३ ३०३ ६०० ७९६ २२० ७६४ ८३४ ४४२ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोका करस्तद्दोलमादिष्टम् करस्य शिखरस्य स्यात् करागुल्यो बुधैरुक्ता कराणामेवमन्येषाम् कराभिनयशोभां या करावेवं यत्र तत् स्यात् करावेवमुभौ यत्र करिहस्तं कटिच्छिन्नम् करिहस्तं कटिच्छिन्नम् करिहस्तं कटिच्छिन्नम् करिहस्तं कटिच्छिन्नम् करिहस्तं कटिच्छित्रे करिहस्तकटिच्छिन्ने करिहस्तकटिच्छिन्ने करिहस्तकटीच्छितैः करिहस्तकमर्घाद्यम् करिहस्तं च करणम् करिहस्तमुरः पूर्वम् करो मकरनामा चेत् करो मुष्टिरशोकेन करो यत्र तदुद्दिष्टम्. कर्णदेशस्थ तर्जन्या कर्णयुग्मप्रकीर्णाख्यम् कर्णरागता कार्या कर्णस्थो धनुराक कर्णान्तिकगत कार्यों कर्तयस्याभिघा मुष्टिकर्तर्योऽस्य ततं [ ? ते ] पञ्च कर्मान्तराष्येवमस्य श्लोकानुक्रमfver श्लोक संख्या श्लोका ७८० कर्मणान्दोलनेनाथ ६३ कर्मणा वेष्टिताख्येन ५९२ करौ कृत्वाऽलपद्मा ७५३ करौ कृत्वोज्झितालीढः ७०८ करौ दक्षिणवामी चेत् ८५० करो निवृत्तौ वेगेन ७१९ करौ पताकौ निर्गम्य १३६६ करौ यत्र तदोक्तं तत् १३४३ करौ विलुठितौ भूत्वा १३७२ कलविङकविनोदाख्यम् १४०५ कलहे स्वस्तिकाकारे १३६४ कलासाः क्रमशस्तेषाम् १४०१ कश्चिदन्तर्बहिश्चक १४१२ काङगूल: मंज्ञितस्तस्य १३६८ कागल हस्तकौ कृत्वा १३५९ कातरा करिहस्ता च १३५१ कातरे स्यादथेयत्ता १३९७ कान्तं चित्रपटे विलिख्य ७२० कान्ता हास्या च करुणा ४६ कामपि भ्रमरीं कृत्वा ८५२ कामिनीभिर्यथाकामम् ६२० कामेन ग्रहपाशाभ्याम् ८४६ कार्मुकाकर्षणे योज्यः ९३ कायसंकोचनाद् वह्नेः कास्यदन्तश्चिरस्था या 0061 १४६ कालकाष्ठामुहूर्तेषु ७४२ किं कुर्वे सखि कैतवम् ६९७ किञ्चित्कुञ्चित पक्ष्मात्रा ४० किञ्चित्कुञ्चत्पुटा लक्ष्यात् श्लोक संख्या ७७१ ७१७ १५११ १३४३ १५७६ ८१७ २६२ ८४२ ८०१ ७९६ ८९ १५६९ ८१५ ३५ ६९३ ९६२ २१६ १५०८ ४२६ १५९१ २१३ ६७७ ६४ ६३४ ५०३ ४२ १४९४ ४४० ४५० ४४३ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याध्यायः श्लोक संख्या १३५७ १०९२ १११४ १११३ १११२ श्लोकार्ध किञ्चित्पृष्ठागतः पादः किञ्चित्साचिनतं शीर्षम् किञ्चिदुत्फुल्लपक्ष्माना किञ्चिल्लक्ष्योर्ध्वदन्तो यः कियन्तोऽपि मया प्रोक्ताः कुचदेशगतौ कायौं कुचदेशस्थितौ कायौं कुचदेशागतं जानुः कुचयो संमुखावेतौ कुचोन्नमनचातुरी कुञ्चत्कपरको प्राः कुञ्चन्मध्यं तिरश्चीनम् कुञ्चितं पादमुद्धृत्य कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य कुञ्चित: सरलो नम्रः कुञ्चिते वलितप्रान्त कुञ्चिताङगुलि [? को] भ्रमन् कुञ्चिताङगुलिरेष स्यात् कुञ्चिता चाभितप्ता च कुञ्चिताधस्तली भूय कुञ्चिताङघ्रि समुत्क्षिप्य कुञ्चितेनाङघ्रिणाग्रेण कुञ्चितो मुष्टिरेकोऽन्यः कुञ्चितोऽसावतिक्रान्तकुञ्चितो मुष्टिरेकश्चेत् कुञ्चितौ साध्वसे स्पर्श कुकुट्टाघनिकुट्टे द्वे कुटिल म्र कुटी रूक्षा कुट्टनं दन्तसंघर्षः श्लोक संख्या श्लोकार्ध १०६९ कुट्टयित्वा तु विन्यस्य ७९० कुट्टितं वृश्चिकाद्यं चेत् ४६३ कुट्टितश्चेत्पुनः स्थाने ५४२ कुट्टितः स्थापितो यत्र ३१८ कुट्टितः स्थापितोऽङघ्रिः ४० कुट्टितोऽङगुलिपृष्ठे च १९६ कुट्टितोऽङघ्रिः पुनः स्थाने ४११ कुन्तखड्गपहेश्प्येष . १९८ कुब्जादिगमनप्रोक्ता १५०४ कुम्भाभिनयने स्याताम् २२८ कुरुतश्चेत् तलाग्रेण ५९९ कुरुते कठिनं यत्र १०१३ कुर्यात् तथा भवेद्भेदः १०६२ कुर्यात् वामाङिप्रणा सूचीम् ६७१ कुर्यादाकुञ्चितं यत्र १०३५ कुर्यादेवं तदा हस्तौ ११९ कुले त्वयं नियोवतव्यः १२५ कुशाङकुशग्रहे चाप४२९ कुष्टव्याघौ तथा शीर्ष११४ कुष्माण्डादिलतासर्वा १०११ कूपरस्वस्तिकाकारी १०५० कूपरस्वस्तिकेन स्त: ७२९ कृतापराधान् यान्ति ३४८ कृतिः क्रियाविशेषस्य २९६ कृते जङघा स्वस्तिके च ५६४ कृते योज्यावतिताख्या १४०९ कृतोऽप्याभिनयस्तावत् ४४४ कृत्वा कपोतमध्वं चेत् . ५५७ कृत्वा कृत्वा स्वकर्तव्यम् ३३९ १४७ ९७८ १५५१ १५७६ १४४६ १०६६ ३१४ ११७ २०० २९८ ८३१ १४९७ ६०८ ९९४ ४०३ ५८६ १५८३ -.. १०२४ ४४४ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या १५२४ १५१६ १६३ ३८ १४६७ ८८९ १०८४ १२० १४८४ श्लोकार्ध कृत्वा दक्षिण भागेन कृत्वा नृत्यति पाणिभ्याम् कृत्वान्तराद्ववतुर्यान् कृत्वा पाष्णिः स्वपावें च कृत्वा पुष्पपुटं पाणिम् कृत्वा प्रसारयेद् बाहू कृत्वालपल्लवं शश्वत् कृत्वालपल्लवी हस्तौ कृत्वा व्यावर्तने स्याताम् कृत्वा सकल्पं चेदर्धकृत्वा समनखं यत्र कृत्वोत्तानावूरुयुगे कृत्वोरसि समं पाणी कृत्वोधिोमुखौ हस्तौ कृत्वोर्वोश्चलनं जङघा केचित् पादौ क्षितिश्लिष्टकेचिदन्यान्य लग्नाग्रौ केचिदत्रावदन् पादम् केचिनृतकरं ह्यत्र केचिद्विपश्चितोऽत्राहुः केचिदावेष्टिताख्येन. .. केचिदेनं करं प्राहुः केवले परितोषे च केशपर्णतृणादीनाम् केशपाशाकर्षणेऽपि केशबन्धाभिधौ हस्तौ केशबन्धी करौ [कृ] त्वा केशानां वन्धने स्त्रीणाम् कोपे स्त्रीणां वितर्के च । श्लोक संख्या श्लोकार्ध १३४८ कोमलं मधुरं तिर्यक् १५७९ कोमलिका चाभिनयः १५४० कोऽहं कस्त्वं मया साधम् १००८ .ऋतौ बिम्बे शङकायाम् १५७७ क्रमतो यत्र जायन्ते १५७५ क्रमतो युगपद्वाथ २९४ क्रमपादनिकुट्टा च ६९२ क्रमात्कुर्वन्नङगलिभ्याम् ३०७ क्रमात् पाणेश्च वक्षस्तत् १५८२ क्रमादङिघ्रदक्षिणः स्यात् १५५४ क्रमादथ पुरो वामम् ११४५ क्रमादधः पुनः पश्चात् ११५२ क्रमादधस्तिर्यगूर्वम् ८२० क्रमाद्यो घट्टयत्यग्र९७५ क्रमान् मार्गस्थितानीति ९३१ क्रमान् मुहुः सव्यवामी - क्रमेण रेचकस्यानु११४७ क्रमेण रेचितो हस्तः ९८२ क्रमे स्थितौ च क्षेपे [च] ९०९ ऋव्यादे मकरे मीने २८३ क्रियते जानुपर्यन्तम् २१५ क्रियते स्वस्तिको यत्र २०७ क्रिया तन्नृतकरणम् १७१ क्रियाभिरुदरोक्ताभिः ३६७ क्रीडायामपि पर्याप्ते ७२५ क्रोधं निरूपयेद् धीमान् १५७६ क्रोशनेऽङगुलिसंस्फोटे १५८ क्वचिदङ ः प्रधानत्वम् ४७७ क्षामं खल्लं तथा पूर्णम् १४७४ १५२७ १२१ ३५४ १४८९ १४६८ ११५१ १३४ २५२ १०७८ १११७ ३९३ २०८ ६५८ १०२१ ३८८ ४५ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः ४८६ श्लोकाध श्लोक संख्या श्लोकार्ध श्लोक संख्या क्षितिघृष्टौं बहिः प्राप्तौ क्षितिलग्नाखिलतलो ९९६ गगावतरणं कृत्वा १४०६ क्षितिश्लिष्ट बहिः पाश्र्वा ४०७ - गंगावतरणं चात्र क्षितिश्लिष्टोस्पाणिश्चेत् ९३२ गंगावतरणं चेति ११३५ क्षितौ संघट्टयेत् पादौ १०६० गगने चेत् तदा चारी १०६८ क्षिपेत् क्षितौ यदा चारी १०६२ गजक्रीडितकं पार्श्व ११२९ क्षिपेदस्यामिति परे १००४ गन्धं घ्राणस्य योगेन ७०३ क्षिप्रं निरूपितांस्तालान् १५३६ गन्धघाणे प्रसूनानाम् ६३७ क्षिप्रं विदिशि यात्वाथ ८०९ गन्धे स्पर्श तथा प्रौक्तौ क्षिप्रमन्तरमाक्षिप्य ७७१ गच्छन्त्यनुपदं तद्वद् १५९८ क्षिप्तं भ्रान्त्वा चतुर्दिक्षु१४४७ गच्छेत् सदा प्लवस्योवतः १६०६ क्षिप्तः सकृत् सशब्दो यः ५२४ गतस्थानासनेष्वेसा ४०१ क्षिप्ता नतोद्वाहिताख्या ३९९ गतागतं च वलितम् ८६८ क्षिप्ताङगुलिरथासौ तु १९४ गतागतः पार्श्वयोः सः ७९७ क्षिप्तमुक्ताङगुलिरसौ १८९ गतागते दधत् दिक्षु ८०४ क्षिप्तमुक्ताङ्गुलिस्तद्वत् ४४ गतिमङविदित्वेवम् १०२३ क्षुद्रे विवर्तितः किञ्चित् १८० गत्यर्थाच्चरतेर्धातो: गत्वा गत्वा यथा चार्याम् १०२४ खटकावर्धमानोऽसौ . २३७ गत्वान्यपादपाश्वं चेत् खटकास्य करस्थाने ७०१ गत्वा विदिशि तत्रव ८०८ खटकास्यौ पताको वा २४३ गम्भीरार्थानुदात्तार्थान् खटकास्यौ यदा हस्तौ २९५ गरु [ड]प्लुत संज्ञं च १३७७ खड्गवर्तनिका दण्ड७१२ गर्वोत्सेके भाषणे च ३२९ खड्गवर्तनिकेत्याहुः २९७ गर्वगांभीर्यधैर्यादिः २३३ खण्डस्त्रिभिश्चतुर्भिर्वा ९५३ गायन्ति सुखसंस्थाना १४९९ खड़गसूचिः स्थित पादः १०४७ गीतं नृत्यानुगं यत्र १५३९ खुत्ता लङिघतजङघा च ९६४ गीतवाद्यलयेष्वेतन १५४१ खेदनिःश्वासचिन्ताभिः ६८० गीतादिमानताले च खेदस्वेदकपाटकोटि..........., १५०९ .गुल्फावपि मिथः श्लिष्टी. .. गुकावार मिया क्लिष्टा .......... ९२३ ९९२ ६५० Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या २७२ १३४३ २५६ ७४४ २५७ ४७५ श्लोकाध गेये शब्देऽपि कर्तव्या गधावलीनकं दण्डगधावलीनकं पश्चात् ग्रथने च प्रसूनानाम् ग्रन्थविस्तरतो नाति ग्रन्थविस्तारसंत्रासात् ग्रन्थविस्तारसंत्रासात् ग्लाना तथा शंकिता च ग्लानिसन्तापयोः शोके ग्लाने जरादिते सुप्ते ग्लान्याश्रपात दैन्यश्च ग्रहणे पार्श्वगामी स्यात् . ग्रीवा पाश्र्वोन्मुखा या तु ग्रीवाभंगे तथा भर्तुः ४८० ६१० ३८८ १३४३ ४७४ ८९६ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्ध १०५ चतुरस्रस्तयोरेक: ११२९ चतुरस्रेण मानेन १३८९ चतुरस्रौ तदा हार२३७ चतुरस्रौ यदा हस्तौ ८३५ चतुरस्रो विधायादौ १५६५ चतुरा सुकुटी चेति ८६२ चतुरा सा भवेत्सौम्य ४२८ चतुर्धवं तदाख्यातम् १४३ चतुर्बोदरमाख्यातम् ३२४ चतुभिः खण्डको ज्ञेयः ६८१ चतुर्मुखोऽपि ता वक्तुम् ६८ चतुस्तालान्तरौ पादौ ३६५ चमत्काराय चारीणाम ३६५ चमू समूहमम्भोधिम् चरणकुट्टितः पूर्वम् ८१ चरणन्यूनताधिक्यम् ३५५ चरणोऽग्रे द्रुतं गच्छन् १५८४ चरणौ छिन्नकरणम् ७१४ चरणौ संहतस्थौ चेत् ४३९ चरणौ समपादाया चलस्तदा नियोगोऽसौ ६४ चलदगुलिरुत्तानः १३७६ चलसंहतमन्वर्थम ७२६ चला किसलये तु स्यात् २८१ चलाङगुलिरथाल्पेऽर्थे ३६७ चलाङगुलिस्तु लेपे स्यात् ८८९ चलितं श्लेषविश्लेषं २७६ चलेयुर्यत्र गात्राणि ११४२ चापवत् तालसहिता १४२७ फु० ६७६ १०९९ १४८६ ३५७ घटोपकरणे चक्रे घट्टितो घट्टयन्पाणिः घातयन्निव तत्रतम घातवर्तनिका गात्र . घृणयोवेगमापन्ना ४३३ १०४५ ९७८ १११ ५७० चक्रचापगदादीनाम् चक्रमण्डलकं पश्चात् चक्रवर्तनिकेत्यस्या चक्रवर्तनिकेत्याहुः चञ्चला प्रसृता या सा चतुरस्रं तदाचष्ट चतुरस्रक्रियोपेतौ चतुरस्रकरौ वक्षः । ११६ २७ ५६७ १५५८ १५४५ ४४७ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारी डमरुकुट्टाख्या चारी च करणं खण्ड: चारी त्रिकोणचारान्या चारी त्रिकोणचारी चेत् चारी नाम्ना प्रविज्ञेयः चारीभिश्च मनोहरः चारी सा कथिता धीरैः चार्यते तेन मुडुपः चार्य: षोडश भौम्यः चार्याप्यञ्चितया धीमान् चार्या बद्धाख्यया सार्धम् चार्यां स्थानेऽथवा ताल चार्यो भूमिलिताः मार्ग्यः चालकज्ञास्तदा प्राहुः चालनज्ञैः समाख्यातम् चालिश्चालिवटस्तूक्तम् चित्रार्थं श्लेषभावाढ्यम् चिन्तानिर्वेदयोः शोके चिन्तान्विते प्रमत्तेऽपि चिन्तालज्जावितकेंषु 'चिन्तासागरसन्निमग्न चिबुकं दूरनिष्क्रान्तम् चिबुकं लक्षितप्रायम् चिकस्थाविमौ कार्यों चिबुकोष्टकम्पेन चिरं निरुध्य यो मुक्तः चिह्न यद्यच्च रूपं च काभिनयेऽप्येष चुम्बनेष्वनुकम्पायम् ४४८ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या श्लोकार्ध १०८४ चेष्टाकृतिविशेषः सा ९५२ च्युतसन्दंश एव स्यात् १०८५ छ ११०८ छिन्नं चेति क्रमादेभिः १४८६ छिन्नं तु दृढसंश्लेषः १११६ १०३० ज जगुरेतावथान्ये तु जङघा मनाक् नता तु स्यात् जङघावर्ताभिधा सोक्ता १०८० ९५७ ६९ जङ्घा स्वस्तिक विश्लेषात् १३६९ जधैवं पञ्चधा प्रोक्ता जनतोत्सारणे प्रोक्तः १५३१ ९६० जनसंघ निजं पार्श्वम् ८०२ जनितं दक्षिणाङगेन ७९८ जनितो दक्षिण पादः १५१३ जनितोत्सन्दिता चाष १५०० जनितो दण्डपादरच ५१५ जनितो दक्षिणोऽङ्घ्रिः ३२५ जलक्लिन्नाथवा सव्यम् ९१० जलाशयान् वनान्तांश्च १४९४ जलोदराभिधे व्याधौ ५६६ जानुदनं समुत्क्षिप्य ५६५ जानुद्वयं बहिर्भूतम् २०२ जानुनोनिकटं प्राप्तौ ६५९ जानुन्यन्तर्गतौ यः स्यात् ५२१ जानु यावत् स्तनसमम् ६४२ जानुशीर्षे बहिः पाखें ३६ जानु सत्वरमापात्य ५४० जानुसन्धिसमत्वेन श्लोक संख्या ९५० ७५ १३९७ ५५४ २७७ ८८० १०६७ १०१६ ३९९ ३८६ ८२ १३७१ १४३१ ९५५ १४५९ १४४९ १५९२ ६२६ ३९१ १०७० ४१३ २९२ ३९६ १००५ ९२६ १५९६ ९३७ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकार्ध जायते या क्रिया तत् स्यात् जिह्मदृष्ट्याङगसंकोचात् जुगुप्सया न चात्यन्तम् जुगुप्सिता विस्मितेति जृम्भायां तु मुखाभ्यासे जम्भोच्चवीक्षणे दीर्घः ज्येष्ठमध्यमनीचेषु ज्योव् [? प्रयोज्यौ च] ज्वल द्भिरिव मामयम् श्लोक संख्या ७४८ ८५८ ७७० ८५० १५५७ १५६४ २८० १५८६ ढालश्छेवाङगहारश्च ढिल्लाई त्रिकलि: किन्तु ५८२ श्लोक संख्या श्लोकार्ध ८२२ ततो वक्षःस्थलं प्राप्तः ६५३ ततो वक्षःस्थलं प्राप्तौ ६१९ ततो वामं सपर्यन्तम् ४२७ तत्कालार्हक्रियायोग्यौ ९२ तत् स्वस्तिकत्रिकोणाख्यम् ३३२ तत्तदेशगता कार्या ७०६ तत्तदेशानुसारेण १ तत्तद्रसानुगुण्येन १४९८ तत्पार्श्वमागतौ हस्तौ तत्र विधाश्चतुर्घोक्तम् १५१४ तत्र सिद्धास्तथासिद्धा १५१३ तत्र स्वाभाविकोऽन्वर्थः तत्राद्यः षड्विधः खड्ग६९६ तत्राद्यो धैर्यमाधुर्य३९३ तत्राद्यौ प्लुतमानेन ७९१ तत्रेत्यर्थेऽप्यसावेव ५४४ तत्रैव लोडयित्वाथ ११०२ तत् साचि यत् तिरश्चीनम् १४९९ तथा गण्डमुखस्पर्श १३४४ तथातिशयशोभाभिः ८१६ तथा परं करं वामाम् ७६८ तथा पुष्पपुटाख्यान्या ८१० तथाप्यमूर्मया काश्चित् ८४८ तथाप्यहं सुबोधाय १३६८ तथाभिनयनैर्युक्तम् ९२६ तथा यत्रपताकादीन ७०८ तथाविधे खेचरे च ४१० तथा समपुटा बाह्य७२२ तथा स्वपार्श्वनीता सा तं निदिशेत पताकेन ततः पृथङमया नास्य तंतश्चेच्चलितः पाण्योः ततः सहोत्तरोष्ठेन ततः स्थाने कुट्टयेच्च तताद्यनुगता गानततो निकुट्टकं चार्धततोऽन्तर्मण्डलम्रान्तौ .. ततोऽन्यदेशचलनम् ततोऽन्यस्मिन् करे तिर्यक ततोऽन्याङगपरावृत्तौ ततोऽपविद्धोरूद्वृत्तततोपसृत्य वामाडिघ्रः ततो मयेह लिख्यन्ते ततोऽर्धकुञ्चितं चेति ततोलवतर्ना प्रोक्ता । १५६७ ७८८ ५०२ ६२१ ६८३ १५७२ ७४२ १०८२ १५७० १२१ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोकार्ध.. श्लोक संख्या १५२३ १४४८ ८० ७०१ १८४ १६५ २९० २७५ ४१२ तथोचितं प्रकुर्वीत तथोद्वाहित शीर्षण तथोर्ध्वप्रेक्षणादेवम् तथोरभ्रकसम्बन्धात् तथोल्लकसनेनापि तदश्वारोहणारम्भे तदवादि तथा सद्भिः तदनृत्संगमारच्य तदन्यस्मिन् क्रमाद्धस्ते तदाकरः स्वस्तिकाख्यः तदा खड्गकलासोऽसौ तदाङगहारो दशभिः तदा चालि समाचष्टम् तदा चाषगतं सेयम् तदा तत् करणं धीरैः तदा तद् बलितं स्थानम तदा तलमुखौ स्याताम् तदात्र सद्भिराख्यातम् तदा त्वाविद्धवक्राख्यौ तदा दाननिषेधे स तदा दोलाभिधो हस्तः तदा धीरैः पुष्पपुट तदा धीर समादिष्टा तदा निगदिता सद्भिः तदा निषधनामासौ तदानवृत्ते योज्योऽयम् तदा पुष्पपुटो हस्तः तदा भेदः प्लवस्य स्यात् तदा भेदो द्वितीयः स्यात् श्लोक संख्या श्लोकार्ध ५८९ तदा मनो मनोहारि६३२ तदालातं मण्डलं स्यात् ६४१ तदा लीनं वल्लभायाः ७६३ तदा वा भवतो हस्तौ ६५९ तदा सद्भिः समादिष्टा ९१३ तदा सचीमुखः प्रोक्तः ७७१ तदासौ बाणसन्धाने १५७७ तदासी मुकुल: प्रोक्तः . . . ७८९ तदासौ शुकतुण्डः स्यात् २४४ तदा स्तो नलिनीपद्मकोश१५८१ तदाहुः पल्लवो केचित् १३५० तदीर्ध्याकोपलज्जादि१५१९ तदुक्तं प्रावृतं सद्भिः १४८३ तदेलकाक्रीडिताख्यम् ६१४ तदेवाङगपरावृत्त्या ९१६ तदेष भेद आद्यः स्यात् २६१ तदोक्त भमरं धीरैः ७८६ तदोवृत्ती जगुः केचित् ३०७ तदोवृत्ती करो स्याताम १४१ तदोवेष्टनमास्यातम् २४७ तदोल्लासं समाचष्टम् ७४८ तद्देशसंश्रये लक्ष्ये ७४४ तद्देशस्थो बुधैरुक्तः ११०८ तद् भुग्नं यदधोवक्त्रम् २३१ तद्वत् यत्र शिरः क्षेत्रे ११३ तद्वदङगान्तरेणापि २३४ तद्विलोकितमाख्यात् १६०९ तनोति यत्र नृत्तं स १५७४ तन्मतेऽपि तदभ्यासात् १०७४ १४८० ९१८ १५९३ १४६४ २५९ १५३७ १८१ ५७४ ८५३ ३०१ . ५०५ १५९५ १३८८ ४५० Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकार्ध श्लोक संख्या १०१८ २०९ ४९३ ७६३ १५१८ . ३२ १५६० ८८५ ९८३ ९०१ तन्मण्डलमतिकान्तम् तन्मण्डलमिति प्रोक्तम् तपस्विदर्शने स्याताम् तरलौ नर्तने स्याताम् तर्केऽद्भुते पुटद्वन्द्वा तर्जनी चापवद्वका तर्जन्यग्रं यदा यत्र तर्जन्यनामिके यत्र तर्जन्यस्य भ्रमन्त्यूर्धः तर्जन्याद्यङ्गुलीनां चेत् तर्जन्याङ गुष्टको युक्त्वा तर्जन्याद्या यदाङ गुल्यः तलपुस्पपुटे त्वेतत् तलपुष्पपुटं पूर्वम् तलपुष्पपुटं वक्षः तलमध्यमरालस्य तलश्लिष्टौ पताको चेत् तलसंमुखमावक्षः तलसंस्फोटितं चाथ तलसंस्फोटितं गण्डतला [लता] द्यं वृश्चिकं पश्चात् तलेनादी निकटयाथ तले यस्य विकीर्णाश्चेत् तस्मानाट्यप्रयोगे तु तस्य रङ्गप्रविष्टास्ताम् तस्योक्तो मानसो भावः ता एव परिवर्तिन्यः ताण्डवेशोकमल्लेन तादगेव भवेदेष श्लोक संख्या श्लोकार्ध १४३४ तामाचष्टाशोकमल्ल: १४२७ फु. तारुणोऽसौ प्रसिद्ध स्यात १२८ तारयोः समवस्थानम् १५४४ तायपक्षविनोदाख्यम् ४६२ तालद्वयान्तरेऽथाधी १५० तालतौल्ययुतं नाति ६३ तालपत्रे त्वसौकर्ण१६५ तालप्रयोगनैपुण्यात् ८१ तालपत्रं समाचष्टम् ६१२ तालान्तरे पुरो गत्वा १५७ तालान्तरे यदा वामः ६१० तालान्तरौ स्थितौ स्याताम् ११४१ ताले शीले च कर्तर्व्यः १३४३ तालौ द्वावर्धतालश्च १११९ तावन् मज्जदनल्पवाष्प तिरश्चीना यथा गढा २१२ तिर्यक् कुञ्चितजानुः स्यात् ६११ तिर्यक्तलेन मृनाति १४१५ तिर्यक्ताण्डवचाराख्यम् ११२८ तिर्यक्प्रसारितो सर्प१३५३ तिर्यक् प्रसृतपादस्य १०८९ तिर्यक संकुचितो यः स्यात् २०३ तिर्यक् सञ्चारयदन्यम ७०५ तिर्यक् स्थितेनोपलाभम् ६८६ तिर्यगायत एप स्यात् ६१६ तिर्यगास्योऽथ सूर्यस्य १०४ तिर्यगूर्वमधोधश्चेत् ४०४ तिर्यग्गतं यत्तद्वक्रम् २५४ तिर्यग्गतागते विभ्रत् ३१७ ३२ ८७९ १५०८ ४५५ ९३६ ३५६ ७६३ ३०८ १०४३ ५३५ १०३९ ६९८ २३८ १५७१ ५७३ ५६८ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोकार्य श्लोक संख्या १०१९ ११२ - २६९ १०७ ७५० १६४ .. २७८ श्लोक संख्या श्लोकार्ध ४९५ त्रितालान्तरमुत्क्षिप्य ४६४ विधान्तिमः कलासः स्यात् ९३४ त्रिपताकं यदा वामम् १४२३ त्रिपताकस्तदा प्राहुः १४२४ त्रिपताकस्तदा प्रोक्तः ७६१ त्रिपताकोक्तरीत्यैव ८१२ त्रिपताकोदितेस्वेष ७७७ त्रिपताको कटी क्षेत्रे ३०२ त्रिपताको कटौ मूनि । - त्रिपताको पताकौ वा .. ११९ त्रिपताको प्रचलितो ८२३ त्रिपताको यदा पाणी १०७३ त्रिभंगीवर्णसारकम् १४०८ चैगुण्येऽपि स्त्रियां तीरे १६०१ त्रोटितोद्घट्टितोत्सेधः ५६० व्यस्रभावात्पुनश्चापि १५६८ व्यस्रभावेन पावें स्वे, ६९९ यत्रपक्षस्थितौ पादौ ६१५ व्यस्रः स्यादथ हस्तस्य ६७७ व्यस्र ताले सद्भिरेतत् ११८ व्यस्रौ द्वावपि चेत् तत्स्यात् ६९६ व्यस्रो पक्षस्थितौ पादौ ६०७ त्वयाभिलषिते कथम् १२८ त्वरया परितो भ्रान्तिः तिर्यग्गमनं वलनं मतम् तिर्यग्निवेशिता यार्धतिर्यग्वहिः पार्श्वगतः तिर्यग्भ्रान्तिरथो य: स्यात् तियग्भ्रान्तिरथो यः स्यात् तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्रम् तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्रम् तिर्यमष्टि विधायकम् तिर्यञ्चावुत्पतन्तौ द्राक् तिर्यञ्चौ तौ यदा यत्र तिलके स्यावर्ध्वमेष तीक्षणकपरको स्याताम् तीक्ष्णाग्रं यत्र सा सूची तुर्यं यत्र कटीच्छिन्नम् तुर्यो भेदो बकाद्यस्य तृणादेर्धारणं दन्तः तृतीयस्त्वेकवा तुर्यतेन शब्दं सुधीरेवम् ते लिख्यन्तेऽभिनेयार्थम् तेषामभिनयं कुर्यात् तोषे तृत्तानितः स स्यात् तों [? थों] शब्दं त्वर्धतोलनं ताडनं छेदतौ तिर्थक्स्वस्तिको स्याताम् तौ स्वस्थौ स्वस्वकार्येषु त्रयोविंशतिमाचक्षे त्रयोविंशतिरन्यानि त्रासनिष्क्रान्तमध्येव त्रासोभ्रमत्पुटद्वन्द्वा १५९४ ७७९ १०८ . ११०४ ९८६ ८९२ ८९४ १५०४ १४२२ १४८१ १४६२ ८७० दक्षिणः शकटास्यत्वम् ८७७ दक्षिणः शकटास्योऽथ ४४६ दक्षिणश्चरणः सूची ४६८ दक्षिणस्तु करो वामम् १४५६ १४१ ४५२ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या १३६७ ८३८ ८५१ ४३६ ६२९ ९९ ५५६ २२० ४३८ ४५५ श्लोकार्ध दक्षिणस्तु ततो वामः दक्षिणां तु यदा जङघाम् दक्षिणाङिघ्रः समो वामः दक्षिणेनालपद्मेन दक्षिणे यत्र सूची स्यात् दक्षिणे वामतः पादे दक्षिणोऽघ्रिर्भवेत् सूची दक्षिणो जनितोऽथ स्यात् दक्षिणो जनितोऽथाङिघः दक्षिणो जनितो वामः दक्षिणो दण्डपादोऽन्यः दक्षिणो भ्रमरः पादः दक्षिणो यदि पादः स्यात् दक्षिणो विच्यवीभूयः दण्डपक्ष ललाटाद्यम् दण्डपादा पुरःक्षेपा दधती चरणौ गच्छेत दधल्लाद्यौ तु शिथिले दधाते चेत्तदा प्रोक्तः दन्तोष्टशिरसः कम्पात् दष्टनिष्कर्षणे तद्वत् दर्शयेत् तीक्ष्णरूपाणि दशभिः करणरेभिः दशस्त्वन्वर्थलक्ष्माणो दशायामन्तिमायां सः दशोदिष्टान्यथामीषाम् दक्षिणो दण्डडपाद स्यात् दाने त्वभयदानेऽपि । दिक्स्वस्तिकं पुनरथ श्लोक संख्या श्लोकार्ध ८०९ दिक्स्वस्तिकमथैकेन ९४३ दिशास्वष्टासु चेद्धस्तो ९४० दिग्वर्षाख्यमनङगानाम् ६८७ दीप्ता विकासिता दृष्टि: १४४४ दीर्घ मानं तथोच्चत्वम् ४०३ दूते ते ऊर्ध्वमुख्यौ तु १४६८ दूरे स्थितिदन्तपङक्त्योः १४६५ दृश्यन्तेऽन्तर्बहिर्वा चेत् १४६२ दृश्यात्पलायमानेव १४७६ दृश्याद् द्रुतनिवृत्ता च १४३५ दृशोऽनुक्ताभिनयना १४८१ दृष्टयो मिलिता सर्वाः १४७२ दृष्टादृष्टफलादृष्ट१४५२ दृष्टिदृप्ताभिघोत्साहे १३८३ दृष्टिभ्र मुखरागाद्यैः ९६६ दृष्ट्याधोगतया धीरैः १६०८ दृष्टया निर्वर्णयन्त्यापि २३ दृष्टया मुकुलया किञ्चित् २२७ दृष्टयावधूतशिरसा ६३५ दृष्टया सहास्यया धीरः । ५५३ दृष्टयो मिलिता सर्वा ६४९ दृष्टयोर्खयाकेकरया १३४३ दृष्ट्वा खिद्यति चेदुक्तम् ५२८ देवताया द्विजातेश्च ५२५ देवेष दक्षिणो वाम: १४३० देवोपहारकं प्रोक्तम् १४३६ देशाद्यानामथतेषाम् ४१८ देहस्वभावभावेषु १३६७ दोल नीराजिताख्यं च ४४८ ४३१ १४१७ ४४५ ३१९ ६७८ ६२२ ६२८ ६९४ ४३१ ६४७ १५०७ २१२ २१० ८१४ १५१७ १५३ ७५६ ४५३ . Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोक संख्या १५८५ १७४ ५२१ ३२५ श्लोकार्घ दोलापादा तथोद्वत्ता दोलापादाभिधा त्वेषा दोलोत्थितो लताहस्तः दोहने च गवादीनाम् द्रुतं तत्र प्रदेशेषु दुतं विनिश्य लुठनात् द्रुतभ्रान्तौ हंसपक्षौ द्रुतमन्दादिभावेन द्रुतशाखावलम्बे च द्वयाङिघ्रप्रचारः करणम् द्वापञ्चाशदिमानीति द्वाभ्यां त्रिचतुराभिर्वा द्विगुणैस्त्रिगुणैर्यद्वा द्वितीययासहामूलोत्क्षिप्ता द्वितीया खड्गपूर्वस्य द्वित्रिंशत्ते तथाऽप्युक्ताः द्विधा तान्यात्मनिष्ठानि द्विस्त्रिर्वा मण्डलाकारः द्विस्त्रि, मूनि संयोज्यः ५३२ १३१ ८८२ ३३३ श्लोक संख्या श्लोकार्ध ९५९ धृतिमोहघातपात१०१३ घृतिस्थैर्यबलोत्साह२६८ ध्यानाभिनयने चित्र४७ ध्याने योगे सद्भि रेष ८३० ध्वजच्छत्रपताकादीन् ७८८ न २७० न कराभिनयः कार्य: १५२१ नक्राणां वडवाग्नेश्च ९१३ नखक्षते कामिनीनाम् ९५३ न जानामीति वाक्यर्थे ८७८ नटेनेत्यवदन्नृत्य १३४३ नतं चोन्नतमेवेति १५३६ नतं तु न्यञ्चितस्कन्धः ४८१ नतजानुर्यत्र जया १५८३ नतध्वस्तनिमित्तानि १३४३ नताग्रावथवोच्चाग्रौ ४९१ नतोन्नताङगुलिरसौ १५९ नतोन्नते संहते च २२५ नतोन्नतौ मुहुः स्याताम् नत्वाहं तमकिञ्चनम् ४६७ नत्वैकदायत: सद्यः ७६० नदीपूरे च नक्रेऽपि ८०५ नन्द्यावर्त चैकपादम् १६६ नन्द्यावर्तस्थानकस्थौ ८२३ नन्द्यावर्तस्थितावङघी १४२ः नन्द्यावर्तस्य चेत्स्थानम् २४८ नन्द्यावर्ते स्थिताङ्घ्रिभ्याम् ८९ नभस्तेजोऽनिलं चोष्णम् १५९८ न भाति यावन्नोपैति ९९१ ६३० ३०६ ४१० १११६ २५२ ८७० धत्तं सा विप्लुता दृष्टिः धनुराकर्षणाख्यं च धनुराकर्षणे प्रोक्तम् धारणे लेखनस्यापि धाराभिमुखता तत् स्यात् धीरधुर्योऽशोकमल्ल: धीरैः स्तब्धो दोलितो वा धूमे सा मण्डलाकारधृतमुक्ते यथा मीन १०४९ १०२८ ९२७ १०३३ ६५४ ५८६ ४५४ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकार्ध श्लोक संख्या १५०९ ६७९ १९३ १६० ८०० १६८ ९२ १५६ ५३३ नमज्जानुस्तु या जङघा नमनं स्यात् प्रयोगेष नमनात्तु नितम्बस्य नमनादुदरं क्षामम् नमनोन्नमनोपेता नम्रा ग्रीवा नता प्रोक्ता नयने किञ्चिदाकुञ्च्य नरः स्त्रियोऽथवा कर्युः नर्तकी ग रूमानेन नर्तकी तनुते नृत्ते नर्तकी दक्षिणे पार्वे नर्तकी नर्तने गीतनर्तकी लघुमानेन नर्तकी यत्नतस्तावत् नर्तने तनुयात् क्षिप्रम् नलिनीपद्मकोशी चेत् नवधोच्छ्वासनिःश्वासौ नवभिः करणरेभिः नवरत्नमुखं चेति नवोक्तान्यात्मनिष्ठानि । नवोपविष्टस्थानानि नागबन्धमथ स्वस्थम् नाटये नृत्ये गती युद्ध नाट्ये नृत्ये तथा नृत्ते नाट्यवेदेनादिमूलनाटयोपयोगिनः प्रायः नानाकार्यान्तरोपेतम नानादृष्टियुतं धीरः नानारीत्यान्वितं नृत्तम् श्लोक संख्या श्लोकार्ध ४०१ नानार्थगीतसहितम् १५४९ नानालङकृतिचिन्नांङगः ४१५ नान्दीपिण्डप्रदाने तु ३८९ नाभिक्षेत्रादयं कार्यः १४२५ नाभिदेशसमीपस्थे ३६२ नाभिदेशस्थितावेतौ ६२३ नाभिदेशस्थितो नीवि९०७ नाभिपार्श्वद्वयं पश्चात् १५८८ नायिकाप्रार्थनोक्तौ स्यात् १५३० नारादघ्नजले पायें १६११ नासाक्षेत्रादथाग्रस्थः १५४८ नासादेशगतः कार्य: १५९० नासादेशगतः कार्यः ८६३ नासानिल प्रसंगेन १५५४ नासा संकुचिता या स्यात् ७३१ नास्तीत्युक्तवथ मनाक् ५१७ नास्तीत्युक्तौ च नारीभिः १३९१ नाहं मत्वं न मे कार्यम् ७६६ निकुञ्चितपुटापाङगा ४९३ निकुञ्चिताकुञ्चितौ स्याताम् ८७५ निकुट्टक विधायाथ ८७४ निकुट्टकः पुराट्यर्घ१०२० निकुटं करणं पश्चात् ९९७ निकुट्टकोरूद्वत्ताख्य ९९७ निकुटाधनिकुटटार्ध६१५ निकुटटार्धनिकट्टे च ८८१ निकुट्टार्धनिकुट्टे द्वे ६२६ निकुट्टितौ समौ पादौ १५३४ निकुट्टोरूवृत्तके चेत् ५१३ २०५ १६६ ४३९ ४१७ १४११ ९६४ . १३९२ १३४३ १३९८ ११२१ - १४०९ १०९६ ४५५ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या १०८१ श्लोकार्ध निकुट्टोरूवृत्तके तु निकुट्टकोरुद्वृत्ताख्य निगूढ स्रस्ततारा या निघृष्टोङिघ्रः क्रमाद्यत्र निजं पाश्वं सरन्नन्य निजपावें भ्रमन्ती सा निजे पावें पुरो देश नितम्बं करिहस्तं च नितम्बं विष्णुक्रान्तः नितम्बकरिहस्तेन नितम्बपल्लवाख्ये द्वे नितम्बवर्तना सोक्ता नितम्बस्वस्तिकाद्यं तु नितम्बाभिमुखी यत्र नितम्बौ तु यदा हस्तो निदध्यादुपविष्ट सन् निद्रामुद्रितनेत्रयापि निपुणे श्लिष्टविश्लिष्टौ निमेषिणी या सा दृष्टि: निम्नं खल्लं समाख्यातम् नियुज्यते वाजिगजनियुज्यन्ते बुधैरेते नियुज्यन्ते बुधरेताः नियोज्या सा बुधस्तद्वत् नियोज्यास्तूत्तमैः पात्रः निरन्तरोत्क्षेपणैर्यत्निरन्तरौ विधायोर्ध्वनिरवादि तदा धीरैः निरस्तस्खलितो श्वासः श्लोक संख्या श्लोका १३४७ निरीक्षणालसे तारे १३४३ निरुक्तिमेवं केऽप्याहुः ४६० निरोधात्तु गतिस्थित्योः ९७४ निर्गम्य मणिबन्धाद्य: ३८६ निर्गताभिमुखौ स्याताम् ८२ निर्गतावंशदेशाच्च - निर्णयाङगी कृती योज्यः १३४३ निदिशेत् तमृततेन १३८५ निर्दिशेत तानि रोमाञ्चः . ' १३९२ निर्दिशेदथ वृक्षादीन् ७१२ निनिमेषा समुत्फुल्ला ७३३ निर्वर्णना तया युक्तम १४०२ निर्वेदादिष्वपि च या १००६ निवर्तितस्तथेत्यूरोः ७३२ निवारणे बहिः क्षिप्त: ९४२ निवृत्तविनिवृत्त च १५०६ निवृत्तः सन् निजे पावं १८ निवृत्ता कथिता स्कन्ध४५६ निवृत्ता रेचिता चेति | ३९० निश्चलं मीलितास्यं यत् ४१३ निश्चलात्माङगविन्यास?? निःशङकगमनेनापि ५९४ निःशङकः पतिरभ्युपैति ३६३ निःश्वासेनाङगकम्पेन ३२२ निःश्वासोत्सुक्यदौर्बल्य३३१ निषण्णो तु नमस्यूरू १४७३ निषण्णो व्योम्नि यत्रोरू । ७३४ निष्कम्पा समतारा या ५१६ निष्कर्षणं स्यानिष्कासः ८२८ ८४२ २३९ ६४२ - ६४८ ६७४ ४६९ ५०३ ५१२ ३९४ १५४ ११२७ ७८५ 9 m m3 v Vrur 9 No 5 ५७१ ८६५ ६७९ १४९४ ६५८ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या २१८ ९८१ ९७७ १३९२ १५३२ १३७० ७१४ १३८६ १९० ८५१ श्लोकार्ध निष्कामो निर्गमः प्रोक्तः निष्पीडने त्वलक्तस्य निष्पेषणे तथा सत्यम् निःसारे मृदुनि श्लक्ष्मे निहिते पर पादस्य नीकी नमनिका शङका नीचस्तैस्ते प्रयोक्तव्याः नीतोवंतर्जनीको चेत् नीत्वा क्रमेणकदा वा नीत्वा यत्र करौ चित्रम् नीव्यादिरचने त्वेष नूपुरं करणं पूर्वम् नूपुरं च ततः कृत्वा नपुरं भ्रमरं चाथ नूपुरं यत्र विक्षिप्तम् नूपुराक्षिप्तके चार्धनूपुराक्षिप्तके छिन्ननृत्तति प्रेष्यते दृष्टिः नृत्यहस्तानुगां नृत्ये नृत्यायं देवरङगायाः नृत्यज्ञैर्यदि रेच्यन्ते नृत्य चित्रमसौ. भेदः नृत्येत् ससौष्ठवं स स्यात् नृत्येद् विलासमधुरम् नृत्येदनुगुणं यत्र नृत्ये दसौ तथा प्रोक्तः नृत्ये यत्राङगसञ्चारः न्यसेत् कटितटेऽथानी श्लोकानुकर्माणका श्लोक संख्या श्लोकार्ध ४९६ प १७५ पक्षपाते पराधीन २३२ पक्षिणां पञ्जरेष्वेतौ २१ पक्षिणां वरवध्वोश्च ९९४ पञ्चतालान्तरं पादः १५१५ पञ्चभिः करणैरेभिः ३२३ पञ्चभिर्मूर्धभिर्यत्र २०२ पञ्चमं तु कटीच्छिन्नम् १५९२ पञ्चमो लघुमानेन १५९५ पञ्चविंशतिरित्युक्ता ५५ पञ्चविंशतिसंख्याकैः १३९८ पञ्चसंख्यादिनिर्देशे १३७५ पञ्चेति चालकानि स्य: १३६३ पतत्कनीनिका श्रान्ता १३६२ पतनेऽधः पतन्कार्यः १३९७ पतन्तावुत्पतन्तौ तौ १३५१ पताकीकृत्य तावेव १५३५ पताको त्रिपताको वा १५५९ पताको त्रिपताको वा ६२४ पताकौ तु बुधाः प्राहुः ७५४ पताको स्वस्तिकी कृत्य १५९९ पताको स्वस्तिको कृत्वा १५९० पताको हंसपक्षी वा १५३९ पतिता 5 रधः प्राप्ता १५५२ पतितोत्पतितो शीर्षात् १६०३ पतेतां यत्र तत्प्रोक्तम् १५४३ पत्रवृन्तच्छेदने च १४७४ पदद्वयनिकुट्टा च पदद्वय निकुट्टा स्यात् । २८२ २६३ २६. २७५ ६९१ २८६ ४७९ ८२९ ८०६ ७४ १०८३ ४५७ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्लोका पदद्वय निकुट्टा स्यात् पद्भ्यां तलानुगं गच्छेत् पद्मकोशस्य हस्तस्य पद्मकोशाभिघ हस्तौ परः करो मूर्धदेशः परस्तु भ्रमरोऽथाङ्घ्रिः नृत्याध्यायः श्लोक संख्या १५ ५ १३ ९६ ११४० ९६१ १४०६ ७ ४०० श्लोक संख्या श्लोकार्ध १०९२ परिमण्डलितोत्तान: १६०४ परिमण्डलितो रक्ते १९९ परिवर्तितो भवेदेषः २९० परिवेशे भ्रमन्ती सा ८४० परिवृत्त ततस्तस्मिन् १४६४ परावृत्ततला तिर्यक ७७५ परिवृत्तविधिर्ज्ञेयः ७८९ परिवृत्तस्त्वविनये ७९१ परिवृत्ताभिघा चासौ ३४२ परिवृत्तिप्रकारेण ७३९ परिवृत्या पुष्पपुट: ९९० परे करानुगं प्राहुः १०११ परे तौ विधुतौ मूर्ध्नि १०५२ परे प्रसारण वाह्वोः १०९ परे सर्पशिरो हस्तौ १५४ परोक्षास्तेऽभिनेतव्या. ८३९ परोरुमूलक्षेत्रान्तम् १४५ पर्यायगजदन्ताख्यम् १२५ पर्यायाच्चेत् तत् तदोक्तम् २७९ पर्यायादेकदा वा यद् १३८० ७४८ ११४७ २९२ ३०१ 1 ३१० ६७० १००६ ७६५ ८०० १५२६ २५३ पर्यायात् पतितश्चारी १३७२ पर्यायाद यत्र तत् प्रोक्तम् ९८७ ८४१ १४२२ ८०१ ५३० ६९३ पर्यायेण तदा धीरैः ६१८ पर्यायेणोत्प्रकोष्ठं चेत् ४९ पर्वतारोहणेऽथ स्यात् १८० पल्लवी वर्तितौ चेद् सा ६३१ पश्चात्क्षेपाद्भवेदेषा ७८ पश्चात्तापादिषु प्रोक्तः ६८७ पश्चादपि तदा प्रोक्तम् परस्परमुखी भूय परस्य लीलया यत्र ' परागधोमुखत्वेन परागस्येन पात्रेण परागस्योऽपविद्धः स्यात पराङ्घ्रिपृष्ठाभिमुखी पराङ जनुपर्यन्तम् पराज रुद्धतस्यैषा पराङ्मुखः परित्राणे पराङ्मुखः परित्राणे पराङ्मुख लुठत्येकपराङ्मुखोऽथ खेदे स पराङ्मुखो नृणां माने पराङ्मुखौ च पूर्वाभ्याम् पराङमुखौ स्वस्तिकौ च परावृत्तः सोऽङ्गहारः परावृत्ताख्यमूर्ध्ना च परावृत्ताख्यशीर्षेण परिग्रहे यथौचित्यम् परिणामे पार्श्वमुखः परितो गतया दृष्ट्या परिधाने नाभिगत: परिमण्डलितेनाथ ४५८ ११०० ५३१ ९३१ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या ३४७ ९९५ १०७३ १०५७ ३८८ १०८४ श्लोकार्घ पश्चानिष्कुट्टितः स्थाने पश्चात्प्रक्षिप्य पादं चेत् पश्चात्प्राप्ता परावृत्ता पश्चात् स्वस्तिकबन्धेन पश्चात् बिलोडय दोलावत् पश्यन्तीमवनि ज्ञेयः पश्यन्त्यग्रे पार्श्वयोश्च पाणिकण्ठकटीपादपाणिकण्ठकटीपादपाणिमेव विधं वामम् पातयेच्चेत् पताको द्वौ पातस्तु करुणे योज्यः पातोऽधोगमनं तिर्यक् पात्रं विश्रभ्य विश्रभ्य पात्रं सविस्मयं यत्र पात्रे यत्राप्रयत्नेन पादं परोरुपर्यन्तम् पादः सूची भवेद् वामः पादयुग्मकृता सैव पादश्चेत्कुट्टितः पूर्वम् पादश्चेत्कुट्टितः पूर्वम् पादश्वेत्कुञ्चितः पृष्ठे पादानाभ्यां समानाभ्याम् पादाग्रेण क्षितो घातः पादाग्रेण नटी मन्दम् पादाने सा तदादिष्टापादाङगुलीभिराक्रम्य पादाङ्गुष्ठ करस्पर्शान् . पादालङकरणे त्वेष श्लोक संख्या श्लोकार्ध १०९७ पादाहतो तथा नाना १०५५ पादेऽधी यत्र घूर्णन्तौ ४०८ पादेनकेन यद्यन्यम् ८२९ पादौ स्वस्तिकबन्धन ८३६ पानभोजनयोरेष १६०८ पार्श्वक्षेपनिकुट्टान्या १५९५ पार्श्वक्रान्तोऽथ सूच्यङिघः १४२१ पार्श्वक्रान्तं निवेशं च १४२२ पार्श्वक्रान्तो दक्षिणः स्यात् १६०५ पार्श्वक्रान्तोऽपरस्तद्धि ११४५ पार्श्वक्रान्तोऽप्यथो वामः ४९७ पार्श्वक्रान्तो भवेत् सव्यः ४९५ पार्श्वक्रान्तोर्ध्वजानुश्च १५४६ पार्श्वक्रान्तस्तु सव्यः स्यात् १५४२ पार्श्वक्रान्तस्ततो वामः १५३५ पार्श्वक्रान्तस्ततो वामः १००४ पार्श्वक्रान्तस्ततो वामः १४३७ पार्श्व गच्छन् पार्श्वगः स्यात् १०९८ पार्वजश्चाथ ते ज्ञेयः १०९७ पार्वतः क्षेपणादेवम् ११०३ पार्वतः प्रेक्षणं धीरैः ११११ पार्श्वद्वयचरीमध्य ९१९ पार्श्वद्वयन या किञ्चित् १०४६ पार्श्वनम्रा भवेत् श्यना १५९३ पार्श्वप्रसारिता नृत्ये १०२७ पावमण्डलिनो स्वस्व१५८७ पार्श्वयुग्मेन वैशाख१६०१ पार्श्वयोः क्रमतस्तत्र १४४ पार्श्वयोर्दोलितौ तिर्यक् १४५१ ११३१ १४५८ १४४५ १४५२ १४५६ ९५८ १४३६ १४३८ १४४१ १४४४ ३५९ १७० ११०१ ५०८ १०८७ ३४० ३६४ ४०५ ७२८ १३६५ ८४५ २६७ ४५९ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्थाध्यायः श्लोक संख्या श्लोकार्ध ८२४ पिपीलिका स्वयं योज्यः ८५४ पिहिती स्फुरितौ स्याताम् ८१९ पीडने कुट्टने स्थाने ३१७ पीडयित्वा स्थितोऽङ्गुष्ठः ३७७ पंसामभिनयेद् धीमान् १०३ पुंस्कृत: स्त्रीकृतो भावः १०४ पुटान्तरे प्रवेशो यः ६२० पुटान्तर्मण्डलावृत्तिः १०१९ पुटौ साहजिकौ स्याताम् ३७९ पुनः पुनः क्रिया या स्यात् पार्श्वयोः प्रथमं यात्वा पार्श्वयोर्लोडनैः प्राप्य पाश्वयोर्लोडितौ प्रोक्तौ पार्श्वव्यत्यासतो यद्वा पार्श्वव्यत्यासतो लग्नौ पार्श्वव्यत्यासतो योज्ये पाश्र्वादत्यन्तमसकृत् पारवनितेन शिरसा पाखान्तरं पातयेत् पार्श्वोपगमनाद् बाहुः पाश्वभ्यां चेत्तदा धीरः पाश्वभ्यां चेत् तदा सद्भिः पाश्र्वावलोकनैश्चित्र पार्श्वे तथागते शीघ्रम् पार्श्वेऽथैककरोऽकस्मात् पार्श्वनोरां विनिक्षिप्य पार्श्वे न्यस्येत् तदा चारीम् 11 १०५७ पुनराहार्य तान्यग्रे १०३४ पुनरेतद् द्वयं चाङग ६६४ पुनर्नितम्बदेशस्थी ३३९ पुनश्चलुठित: स्थाने ८०५ पुनस्तन्मुख एव स्यात् १०७३ पुभिर्नियुज्यते त्वेतत् १००० पुराटिका मिथोऽङ्घ्रिभ्याम् पार्श्वे प्रसारित स्त्वेकः पाक मिश्रिते द्वे स्तः पार्श्वोत्ताना कुन्तले तु २८७ पुरुषे श्मश्रुदेशस्थः ९३५ पुरुष रङ्गहारास्ते ९१ पुरोगतास्तिरस्कारे २२६ पुरोजिघ्रः कुञ्चितो वामः पार्श्वोत्थितः प्रयोक्तव्यः पाणिगः पार्श्वगोऽप्येवम् पाष्णिजङघोरुसंश्लिष्ट पाष्णिदेशे स्थापयित्त्वा ३४५ पुरोदण्डभ्रमाख्यं च ९३० पुरोदण्डप्रमाख्ये तत् १००९ पुरोमुखी सूचिते सा पुरः क्षेपनिकुट्टा च ९३३ १०२९ पाष्णिपार्श्वगतेऽन्यस्य पाष्णिपार्श्वगताख्येन पाणिरष्टविधा ज्ञेया पाष्णिश्लिष्टौ तिरश्चीनो पाष्णिः स्याच्चरणस्याग्र पुरः पश्चात्सरा चारी ५९० पुरः पश्चात्सरा चारी ९२४ पुरः पुरः कुञ्चितश्चेत् ९९० पुरतः पार्श्वयोस्तद्वत् ४६० श्लोक संख्या १७९ ४८२ ३५१ ४५ ६६३ · ६६५ ४९६ ४९४ ४८३ ७९६ १५५० १३५२ ७३३ ११११ ८४० ८८१ १०५१ ६७ १४२० ११२ ९४१ ७५६ ७७८ १०१ १०८४ १०८२ १०८९ १०७१ ८०२ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या १००८ १३८१ ४० ८७१ १०३० १०२५ ३२२ ९७१ १४८७ १०२ ५८८ श्लोकार्ध पुरः प्रसार्यतः पादौ पुरतो धावतो यस्मिन् पुरतो यत्र हंसीव (हंसक०) पुरश्चेत्सर्पतस्तूर्णम् पुरः सरति यत्राङिधः पुरस्तात्पार्श्वयोस्तिर्यक् पुरस्तात्स्वस्तिको भूत्वा पुरस्तादन्तरिक्षेऽङिधम् पुरस्तानिसृतिर्यत्र पुरस्ताल्लुठिता पृष्ठपुरस्ताल्लुठिता सा स्यात् पुरश्चलनुच्यनीच पुष्पगुच्छाग्रहेऽप्येतत् पुष्पधान्यजलादीनाम् पुष्पाञ्जली प्रसादे च पुष्पावचयने हारे पुष्पितेऽधोमुखः कार्यः पूर्णावशोकमल्लेन पूणों कपोलो षोढेति पूर्व पूर्वमुपक्रान्ता पूर्वभाग- शरीरस्य पूर्वमूर्ध्वं विधायकम् पूर्वरङगे प्रयोक्तव्यान् पूर्वसूरिभिरादिष्टा पूर्व पार्वे तत: पश्चात् पूर्वोक्तं. गजदन्तं तु पृथगुत्तानितो चेत् तौ पृष्ठतः सरणात् पृष्ठापृष्ठतो याति यः पाया श्लोक संख्या श्लोकार्घ १०५३ पृष्ठप्रसृतपादस्य ८१२ पृष्ठाद्यं स्वस्तिकं चाथ -- पृष्ठायातावुभौ कार्यों १०२७ पृष्ठोत्तानतलं पाष्णिः १०५४ पृष्ठोत्तानतलो यत्र ८५२ प्रक्षप्रद्योतको यद्वा ८५४ प्रचुरः स बुधैरेवम् १०६६ प्रचारयोग्यतामात्रात् ७७८ प्रच्छेदक: शेषपदम् १०८६ प्रणामेऽध: पतन्ती सा १११० प्रतिक्षणं यथा नेत्रम् १२४ प्रतिद्वन्द्विनि ते स्याताम् ९१४ प्रतिलोमानुलोमाभ्याम् २३५ प्रतिषेधे तथा स्त्रीणाम् २३५ प्रतीपं यायिनी जङघा ७४ प्रतोदग्रहणेऽप्येष २९ प्रत्यक्षा देवता: साक्षात् ५६४ प्रत्यक्षा येऽभिनेयास्ते ५६१ प्रत्यङगत्वं कथं तेषाम् १५६० प्रत्यङगत्वं भवेदेवम् ९८८ प्रत्यङगश्च करा योज्या ८२२ प्रत्यपादि तदा धीरैः १३४३ प्रत्यालीढं भवेत्स्थानम् ७३१ प्रथमेऽथ बुधैरुक्तः ७७९ प्रदक्षिणं भ्रमन् कार्यम् २३३ प्रदोषं दिवसं रात्रिम् २६४ प्रयत्नेन विना य: स्यात् ३८० प्रयुज्य स्वस्तिको यत्र ३५८ प्रयोक्तव्यमिति प्राहः . ००० " ४०४ ६७३ ६७१ ४२३ . "ता ४२५ ३१९ ७१७ ९०० ५२९ १६२ ६२६ ५२७ ११४९ १३४३ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्ध प्रयोक्तव्या इमाचार्यः प्रयोक्तव्याः शिवस्याग्रे प्रयोक्तव्यौ करौ बाला प्रयोगे चापवज्रादेः प्रवेशनं समुद्वृत्तम् प्रवृद्धनामासी वायुः प्रसन्नस्यस्तथा स्वस्थ प्रसन्नो मुखरागः स्यात् प्रसरति दिनमणितेजसि प्रसरत्यग्रदेशे यः प्रसर्पितं तलाद्यं तु प्रसादकं सरोषस्य प्रसारितं मुदादौ तत् प्रसारितः पार्श्वयोश्चेत्. प्रसारितः पुनस्तिर्यक प्रसारितभुजो मुष्टि: प्रसारित मुखे या वा प्रसारितां दधानौ यौ प्रसारिता अधः क्षिप्ताः प्रसारिताधोमुखाख्यप्रसारिते तु ये स्याताम् प्रसारितो भवेद् यत्र प्रसारितौ तथोत्तान प्रसार्य पुरतः किञ्चित, प्रसार्येत पुरो यत्र प्रसुप्ताभिनये प्रोक्तः प्रसूनोद्धरणे वृन्ता प्रस्पन्दमानपक्ष्माग्रा प्रसृताङ्गुलिकः पादः ४६२ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या श्लोकार्ध १४२० प्रसृतादच तथा कुञ्चन् प्रसृताऽस्यान्नताग्रा या १४९ प्रसृतौ त्वायतावुक्तौ ८९५ प्रसूती पार्श्वयोः पूर्वम् ४९२ प्रहारान् विविधांश्चैव ५२२ प्रह्लादनेन गात्रस्य ६३३ प्रांशुग्राह्य फलादीनाम् ९०१ प्राकृतं भ्रमणं पातः १४९३ प्राकृतं समभावेषु ३७२ प्राङ्मुखः कम्पितो वृक्षः १३७८ प्राचुर्याद् भौमचारीणाम् १५०९ प्रातिलोम्येन गात्रस्य ३३५ प्रातिलोम्येन यद्वेदम् ३८३ प्राधान्यं यत्र पादस्य ९३८ प्राप्तो वसन्तसमय: ७०० प्रायः प्रयुज्यतं धीरैः ५५१ प्रायशोऽमूः प्रयुज्यन्ते ३०९ प्रार्थने देवपूजायाम् ५९३ प्राहापकुञ्चितामेनाम् ३७० प्राहुः परे त्वलक्ष्ये तौ ८८४ प्राहोत्तानोऽग्रगं भट्ट: ९८९ प्रियं स्वप्ने समालोक्य २७० प्रियेण यदसंलापः ९९८ प्रीतिकोपे नवेर्ष्यायाम् १०२८ प्रेक्षणे गरुडादीनाम् ५२६ प्रेरणे वाजिनामाजी १७२ प्रेषणे कुङकुमादेस्तु ४५० प्रोच्यतेऽशोकमल्लेन ३४७ प्लुतमानकृतानर्ध श्लोक संख्या ५९२ ५४९ ४८५ ८११ ६५१ ६४५ ९२० ४९२ ४९७ २१६ १४२७फु० ७४० ८३६ १०२२ १५१० ४१९ १११५ १८५ १०४१ ४९० ६०१ १५०५ ४५१ १४७ ८९६ ८९३ ७९ १४८९ १५८१ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्ध प्लुत मानकृताधिश्चेत् ब बकाद्यः प्लवपूर्वश्च बद्धया स्थितिरेवं चेत् बद्धां विरच्य चारों चेत बद्धा तु स्वस्तिकम् पूर्वम् बलिदाने भोजने च बहिः क्षेपाद् भवेत् क्षिप्ता बहिर्गताः तिरश्चोता बहिर्गता मिथोयुक्ता बहिर्मण्डलग: स्थित्वा बहियों निम्नतां प्राप्तः हिस्थिताङ्गुलिस्तु स्यात् बहुधा चालनानि स्युः बहुयानप्रसाध्ये बालग्रहे सुगादाने बालव्यजनकं चान्यत् बालव्यजनचालाख्य बालसर्पो भवेद्देव्याः बाला वाऽप्यसावेव बालेन्दुर्दर्शने कार्यः बाष्पाविलात्पसञ्चारा बाहुकट्यूरुपादानाम् बाहुः प्रसारितस्तिर्यक् बाहुरम्यन्तराक्षेपात् बाहुरान्दोलितोऽन्वर्थः बाहुल्यान्नर्तनारम्भे बायोम् बाह्यपार्श्वसुसंश्लिष्टौ ५९ tatasafoet श्लोक संख्या श्लोकार्घ १५७९ बाह्यपान संस्पृश्य बिभ्रती सर्वतश्चित्रम् बिभ्रतोः स्वस्तिकाकारम् बिलोड्योर:स्थले हस्तौ १५६६ ११५३ १००० वीभत्सा चाद्भुतेत्यष्टौ ८४२ बीभत्सा दृष्टिरुक्ता सा १८५ बुधैर्योज्यो विमर्दे तु ४०० बुधैयज्योऽथ विश्वासे ४०० बृहन्मण्डलपूर्णौ चेत् ५९० ब्राह्मस्थ शुकतुण्डेन ८१८ ब्राह्माख्यस्थानकेनापि ४१८ ब्राह्म समोऽङ्घ्रि रेकोऽन्यः २२२ ब्रुवेऽहं तानि कर्माणि ७५४ भ २४२ भञ्जने कार्मुकादीनाम् ७३ भट्टाभिनवगुप्तस्य ७५९ भद्रे परस्मिन् प्रथमे ८२५. भयहर्षरोदनवदन ९० भयानके तु चलनम् ४३ भयानके सबीभत्से १२५ ४४३ १५१८ भवन्ति वर्तना मुष्टि: भवेच्येद्ध स्तको मुख्यः भवेत्तज्जृम्भणे हास्ये ३०० भवेदन्ते तदा धीरैः ३८७ भवेदर्धनिकुट्टाख्य ३८५ भवेत् सव्योऽङ्घ्रिरुद्वृत्तः ११३८ भवेद् द्विचरणश्चाप १२३ भानौ चन्द्रे च कर्तव्या २३४ भारस्योद्वहने स्तम्भ श्लोक संख्या १०६३ १३०२ ७८२ ८५६ ४२६ ४३९ २३ ३१ ७९४ ६९८ . ६८९ ९३७ ४९७ ५० ९०८ १०५ १५०३ ४९८ ५८४ १७५२ १०२२ ३८९ १४८५ १४०१ १४५३ १४७१ ९९ २२९ ૪૬૨ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्याध्यायः श्लोक संख्या १५६० ४२३ ३५१ १११८ १४२७ फु. १४२७ फु० • १४२७ फु० ४२१ ३७८ श्लोकार्ध भालवर्तनिकोर:स्थ भालस्थोऽप्यन्यपाच्चेित् भावार्द्रहृदयोपेता भालेऽलक्तकमञ्जिताघरमुरः भावं विनिर्दिशेत् चैवम् भावप्रकाशकैरङगः भावार्थे तिष्ठतेर्धातोः भावानुभावसंयुक्तान् भाषासिन्धुभवाच्चैतत् भिद्यन्ते दशना यैस्तु भिन्नोच्चा स्यान्मनाग्वका भीतिकासश्रमश्वासभुग्नमुद्वाहि विवृत्तम् भुजङगत्रासितं पाणिम् भुजङगत्रासितं कुर्याद् भुजङगत्रासितांश्चारीम् भुजगत्रासितोन्मत्ते भजजगत्रासितोऽन्यः स्यात् भुजङगत्रासितो ऽप्येष भजङगाञ्चितकं दण्डभुजङगाञ्चितमाक्षिप्तः भुजांसकूर्पराग्रेष् भुजावंसान्तरं गत्वा भुजावधि विलासेन भुवो विशाखदेवं तत् भूपालदर्शने तो स्त: भूमिघातादपि स्त्रीणाम् भूमिप्राप्त जानु नतम् भूमिश्लिष्टैर्यदा पादैः श्लोक संख्या श्लोकार्घ ७११ भूरिनिर्भुजचेष्ठाभिः १६१ भूषावलित सर्वाङगा १५३० भूष्यन्तेऽङगानि ये स्तानि १४९४ भूस्थापसारण भूमि ६५७ भूस्थितार्थग्रहे लोभे भेदान् कतिपयानस्य ८६४ भौमाकाशिकभेदानाम ६५५ भौमानि मण्डलानीति १४९५ भौमाकाशिकं चेति ५५२ भ्रमणाद् भ्रमितः खड्ग: १५१ भ्रमणे तु गदाखड्ग३३१ भ्रमन्त्यौ संयुते भ्रान्तौ ५७४ भ्रमन् प्रदक्षिणे सद्भिः १४१२ भ्रमरं च तदावर्तम् १४०९ भ्रमरं दण्डपक्षं च १४४६ भ्रमर नूपुरं चैव १३६५ भ्रमरं शकटास्यं च १४५० · मरीभिश्च सम्प्रोक्तम १४६० मरेण सहेमानि १३७५ भ्रान्तिरामणिबन्धं सा ११२४ भ्रान्त्वा च प्रसृतो यत्र ३०७ भ्रान्त्वा प्रसारण केचित् ८०६ भ्रामयित्वा विलासेन १५५४ भ्राम्यते सकला यत्र ८९३ भ्र वयोः स्तनयोः कट्याः १२७ वा सा कुञ्चिता प्रोक्ता ६६२ भरेका ललितोक्षिप्ता ४१० म १४७९ मंत्रण मुदेशस्य १६३ १४२७ फु० ११२३ १३४८ १४२९ १५५३ १४०४ ७२१ १०१० ३१० ८२७ १००१ १५३३ ४७८ ४७६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोका मकरं दक्षपार्श्वस्थम् (हंसक० ) मकराख्या ततो ज्ञेया मङ्गल्यं दधिदूर्वादि मणिबन्धप्रकोष्ठांस मणिबन्धप्रदेशस्थ : मणिबन्धसमायुक्तौ मणिबन्धावधिभ्रान्तिः मणिबन्धावधिप्रोक्ता मणिबन्धावधिभ्रान्तो मणिबन्धासिकर्षाख्यम् मणिबन्धासिकर्षाख्यम् मणिबन्धस्थितौ स्याताम् मणिबन्धे यदैकस्य मणिबन्धो जानुनी च मण्डलभ्रमणं प्रान्ते मण्डलस्वस्तिकं त्वाद्यम् मण्डलस्वस्तिकं लीनम् मण्डलस्वस्तिकमिदम् मण्डलस्वस्तिकौ यात्वा मण्डलाकारसंप्राप्तौ मण्डलाकृतिसंभ्रान्तौ मण्डलाग्रं ततः पश्चात् मण्डलान्यन्तरिक्षाणि मण्डिका सा तदा प्रोक्ता मञ्जुलैरुज्ज्वलैवषैः मता नमनिका धीर: मतान्तरे कामिनां सा मत्तक्रीडोsथ गणना श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्थ मत्तल्लि च नितम्बं च ७१० मत्तल्लि चार्घमतल्लि १०८ मत्तल्लिर मत्तल्लि ७९० मत्तल्ल्ययो गण्डसूचि १४५ मत्तक्रीडस्तथा विद्युत् २९१ मत्स्यग्रहासक्तचित्त ७१५ मदिरा सा मदे धीरः ७४९ मदनप्रभुकोपतापिताया ७३२ मदस्खलितमत्तल्लि ७५८ मधुरं सविलासं च ७८९ मध्यचत्राभिघा चारी २४३ मध्यप्रसारिताङ्गुष्ठौ ८१८ मध्यभावेन मध्यस्थम् ४२५ मध्यस्थापन कट्टेति १४६८ मध्यमाङ्गुष्ठयोर्यत्र १४१३ मध्यमायां स्थिता पृष्ठे १११९ मध्यमे सात्विके प्रोक्तः १९४९ मध्यसाम्ये कटिस्थौ द्वौ ८३७ मध्यस्थ तारकं सौम्यम् ८४९ मध्यस्थ स्याद् विचारे तु ८२० मध्यस्थापनिकुट्टा च ७५९ मध्यस्य वलनाच्छिन्ना १४२८ मध्ये गते स्वस्तिकोऽसौ १५९७ मध्ये निवेशित: पश्चात् ६७५ मध्ये निवेशितश्चाथ १५४९ मध्ये मध्यप्रदेशस्थः २३८ मनाक्कलितयोरूर्ध्वम् १३५० मनाक् पार्श्वनतावेतौ श्लोक संख्या १४१४ ११२२ १४६९ १४१५ १३४३ १५९३ ४७२ १४९१ फु० १३४६ १५१९ १०८३ ३१० ६१९ ११०३ ४१ १३३ ३२१ १४७ ५०१ ५१ १०८५ ३४१ १६ ११०७ ११०३ ४८ २६६ ८७ ४६५ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोकार्ध श्लोक संख्या ८११ २६१ ९२२ ९७६ १७३ १४८ १४४ १५७ ०० ११४ १११ मनाक् सुललितं तिर्यक् मनाक स्रस्तपुटा दृष्टिः मनाक्स्रस्तोर्ध्व पुटा मनागञ्चितपक्ष्माया मनागभ्यन्तराविष्टा मनागाकुञ्चितप्रान्ता मनागुत्प्लुत्य चेत्पादौ मनाग्वक्रीकृतो नम्रः मनाङ मनोहरं केचित् मनोवाक्कायचेष्टाभिः मनोहरं यदग्राम्यम् मन्थस्याकर्षणे योज्यः मयणप्यहुकोवताविनाए मयापि विदितागसम् मयूरललितं सूची मयूराद्यं ततः पश्चात् मर्यवमेते संप्रोक्ता मर्दिताग्रमथानं तु मर्दिताङगुष्ठकः कार्यः मस्तकाच्चेझमत्यूर्ध्वम् मातृकोत्करसम्पाद्यम् माधुर्यधैर्यगाम्भीर्यमाने भवेत्तृतीयस्तु मायासङगमभङगभीरुमाराधितोऽपि नहि मिथः श्लिष्टास्तु सांगुष्ठाः मिथः संमखतां प्राप्ती मिथोंसवीक्षाबाह्यं तत् मिथोंसवीक्षाबाह्याख्यम् श्लोक संख्या श्लोकार्ध १५२८ मिथोऽभिमुखतां प्राप्य ४७१ मियोऽभिमुखतां यातौ ४४२ मियोयुक्तौ वियुक्तौ च ४५३ मिथो लग्नकनिष्ठौ च ४३३ मिलिते प्रोचिरे लक्ष्य४४२ मुकुलं हस्तमारभ्य (हंसक०) ९८७ मुक्तादीनां गुणक्षेपे ३८४ मखदेशगतावेतो . १५२९ मुखदेशस्थितः पाने १४९६ मुखदेशस्थितोऽथैकः १५३४ मुखदेशाद् विनिर्गच्छन् ७७ मुखदेशस्थितः प्रश्न १४९१ मुखदेशे तु पार्श्वस्थ १४९८ मुखप्रदेशमागच्छन् ११३० मुख रागश्चतुर्घोक्तः १३७७ मुखरागो नियुक्तोऽसौ ७०४ मुखसंकोचने त्वेष २२ मुखस्थितो भवेदेष २ मुखस्यातिविकाशेन ११९ मुखाद् यो निर्गतो दीर्घ१३४३ मुखाग्रसंश्रितो कायौं । ४३७ मुखान्तरित एष स्यात् ३८३ मुख्या पादक्रिया चास्याम् १५०६ मुग्धां स्निग्धां यदा दृष्टिम् १५१० मुदितेनापि मनसा ५९८ मुधा विनार्थे सिंहे २८२ मुनिस्तु यानि चत्वारि ७८५ मुडुपोपपदाश्चार्यः ७५७ मुष्टिकं स्वस्तिकावेवम् ५८१ ५८५ १८२ ६१७ ५२६ १२९ ११६ ९८० १५५८ ६७५ २०८ ८६८ १०८१ २९७ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या १५०७ ११४० ९२१ १४३९ १५८३ २० श्लोकार्ध मुष्टिमूर्ध्वकनिष्ठे तु मुहुरन्तर्बहिः क्षेपात् मुहुर्दशनसंश्लेषमुहुर्लग्नपुटा या तु मुहुर्मुहुरथ द्रव्यमुहुर्मुहुः संनिपात्य मुहुर्मुहुः समुल्लङघ्य मुष्टिविलुठितस्त्वेकः मूर्छातिवर्षयोरुष्णमच्छितादिष्वपि प्रायः मूच्छिते तन्द्रिते भीते मूच्छिते तु विलीनोऽथ मूर्ध्व देशोपरिकरी मूलाम्रपार्श्वसंश्लेषात् मृगप्लुता तदा चारी मृदङगप्रमुखैर्वाद्यैः मदुभङगा तु यैका भ्र: मृगकर्णविनिर्देशे मृगशीर्षों हंसपक्षी . . मेधपंक्तो यथा विद्युत मेघप्रच्छादिते तस्मिन् मोक्षणं रक्षणं क्षेपः मोक्षणे तोमरस्यासौ मोट्टायिते कुट्टमिते मौनविसर्जनगर्व १५६१ १५८९ १४९५ १५२९ १५६४ ९७९ ८२३ १०१३ श्लोक संख्या श्लोकार्ध ४४ यत्र चित्रकृतं कान्तम् ३८७ यत्र तत्कुचदेशस्थ ५५५ यत्र तत् स्थानमादिष्टम् ५१४ यत्र तन्मुनिभिः क्रान्तम् १८८ यत्र तिर्यक् पताकाख्यम् १५८७ यत्र त्रेताग्निसंस्थानाः १५४६ यत्र नृत्येऽनयोर्योगः ७९७ यत्र पक्षी समानीयौ ४८७ यत्र पात्रं कालहीनम् ३२६ यत्र पात्रं द्रुतं गात्रम् ३२४ यत्र पात्रं मुखे कुर्यात् ५२९ यत्र पादो भवेदन७९५ यत्र पार्श्वमुखौ पूर्वम् २१४ यत्र पार्ष्या निजे पावें १००२ यत्र वक्रानामिका स्यात् १४१८ यत्र विद्धाभिधा चारी ४७८ यत्र सन्तापलग्नान्ता ९ यत्र सा दण्डपादाख्या २५३ यत्र साधारणमदः १५७० यत्र सा स्यात्तिरश्चीन २४६ यत्र सोक्ता तदा चारी ६०६ यत्र स्तस्तत् तदादिष्टम् १० यत्र स्पृशेन्मुहुः सोक्ता ४७८ यत्र स्वकायाभिमुखम् ९०५ यत्राकुञ्चितपादाभ्याम् यत्राङगना खण्डितास्ते १०२३ यत्राङगना गीतताल१९० यत्राङनाः परित्यक्त९४४ यत्राङगुल्याः कनीयस्या ३४ ११५१ ४५९ १०६१ ८१६ १०५९ १०४३ १००९ १०४७ १४९२ १५३३ १४९७ यतः पादस्ततः पाणिः यत्कुचादी कामिनीनाम् यत्तन्नतं श्रमालस्य Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्याध्यायः श्लोक संख्या ६९९ ५७९ . १४९० ९१७ १५४१ १६०९ ११०२ २७४ १५४३ २७४ ११५० १६१७ श्लोकार्घ . यत्राङिघः कुट्टितः पूर्वम् यत्राङिघमेकमुद्धृत्य यत्राङिघरुद्धृतो मूर्तिः यत्राङघी नूपुरस्थाने यत्राङघ्री रेचितौ सा स्यात् यत्रान्यचरणे नैषा यत्रान्यजानुतः पृष्ठे यत्रान्याडिघ्र समुद्धृत्य यत्रासौ कथिता चारी यत्रासौ पञ्चमो भेदः यत्रासौ परिवृत्ताद्यः यत्रेषद् वलितं गात्रम् यत्रतत् समपादाख्यम् यत्रोभयोः प्रधानत्वम् यत्रोरम्रकसंबाधयत्रोरुस्ताइयते चारी यत्रोधिोमुखौ तिर्यक यत्रोर्वोऽधोमुखस्त्र्यस्रम् यत्रोद्वत्तेन पादेन यत्रोा पातयेत्पाp यत्रोर्वी कुट्टयेत्तेन यथाभिनेयं स्थानं हि यथा मन्दानिलायातात् यथारसं यथाभावम् यथालक्ष्मविनिष्पन्नयथासंभवमेतस्मिन् यथोचित बुधैर्योज्यः यथोचित्य योजनीयः यथोल्लुकसितेनेष्टम् श्लोक संख्या श्लोकार्ध ११०४ यथौचित्यं हस्तकाद्यः ९१५ यन्मनागायतं वक्त्रम् १०७४ [यदा] कन्दर्पतप्तांगी ९२२ यदा करौ कर्कटाख्यौ १०३२ यदा कलाकलाप ः १०४७ यदाग्रे पृष्ठतश्चैव । १०६७ यदाङिघ्र कुट्टितं पात् १०१५ यदा तदा मताऽन्वर्था- . . १०७२ यदा तलमुखौ हस्तौ १५७८ यदा [व] मन्दमुल्लोल१४०५ यदा नतोन्नतौ स्याताम् ९१६ यदा निकुञ्चितं स्कन्ध८९० यदा न त्यति हंसाद्यः १०२२ यदा नृत्ये ङगनाङगानाम् ८१७ यदा पताको संश्लिष्टौ १०३७ यदापसरतोऽसौ स्यात् ८३३ यदा प्रसारयेद् दण्ड७८० यदा मण्डलतो हस्तौ १०५२ यदा यत्र तदा सद्भिः १०१९ यदा यत्र तदा स स्यात् १०५५ यदा यद्वा स्वस्तिको तौ ९०७ यदा यदासौ खटकामुखः १५५८ यदा याभिमुखीभूय १८९ यद्वक्षः सौष्ठवोपेतम् ६०८ यदा वामोऽध्याधिक: स्यात् ७९ यदा समस्य वामा ः १५ यदा स्यातां तदा प्राप्तौ १८३ यदा स्यातां तदा प्रोक्ता ६१७ यदा हस्ती कपोताभौ २५१ ९९६ १००९ ८५३ १०४९ १९९ २३६ ७३ ३६८ ३२८ १४८२ २१४ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकार्ध श्लोक संख्या ४३१ ४५८ ९५० ४६६ ५२६ १३७९ श्लोक संख्या श्लोकार्य १०६९ या दृश्यमापिवन्तीव ५०६ या दृष्टिः कुञ्चिता सोक्ता ३२९ या नर्तने ऽधिजङघोरु५०७ या यस्य नियता लीला ३०० यावन्न निर्गतो रङगात् १०७९ या विश्रान्तिं क्वचिन्नति १४१६ यावुन्नतौ कपोलौ तौ ४३२ या षड्भिरधिकाभीषाम् १५०० या स्थितिललिता भूमौ १५५६ या स्रस्तोर्घपुटा साम्रा २७१ युक्तं चित्ररसर्वाक्यम् १०५८ युक्तोऽन्वर्थोऽद्भुते वीरे १३४३ युगपच्चेत्सूची पादौ ३३० युगपत क्रमतो यद्वा ३३२ युगपत् क्रमतो वा स्यात् ३५० युगपल्लुठतो यत्र .. ५८ ये करास्त्वान्तरं भावम् ४७ येनाभिव्यज्यते चित्त८१८ ये यक्षा राक्षसा दैत्याः ९८४ ये वक्षः स्वस्तिककटी १०९४ योगे स्तोके निर्घने च १०३८ योग्यतायां च कर्तव्यः ९१९ योङगोपाङगकरप्रचारकरणः ४३३ योजनीयो यथौचित्यम् ३६९ योज्यं करणमेकैकम् ४०९ योत्कृष्टमारुता नासा५५० यो दधात्युन्नतावोष्ट५४८ योद्विग्ना दृश्यमालोक्य १४२५ योऽधरो दशनैर्दष्टः यदि द्रुतं तदालाता यदीक्षणं स्वभावस्थम् यदुन्नतं पुरः स्तब्धम् यदुवं दर्शनं सद्भिः यदैको हंसपक्षस्तु यद्येष पृष्ठ एव स्यात् यद्यप्यस्ति तथाप्येते यद्गतागतविश्रान्ति यद्वाक्यं तद् द्वि[मू]ढाख्यम् यद्वा द्वादशभिर्यत्र यद्वानयोमिलित्वामू यद्वापगच्छतो यत्र यद्वा हारो हरस्यायम् यनिम्नं शिथिले वक्षः यनिष्कम्पमृत्क्षिप्तम् यः पादोऽसावग्रतलयवादिताडने दण्डे यष्टिग्रहे किमर्थे च यस्मिन् प्रवर्तते तत्स्यात् यस्यां सैषा चाषगतिः यस्यां निकुट्टितः पादः यस्याभितस्ततः पादौ या कायमायतीकृत्य या कुञ्चितपुटातीव या ग्रीवा विधुत भ्रान्ता याने प्रसारिता जङघा या जिह्वा लोढसक्का सा या जिह्वा लेढि दन्तोष्ठम् या त्वन्तर्बहिरङगुष्ठ- . १५११ ५८३ ९३१ ७९२ ७२८ ३२६ ३२६ ५७० १३८८ १७६ १११६ १०६ १४१८ ५१२ ५४० ४४७ ५३९ ४६९ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्याध्यायः श्लोक संख्या ५०९ १८७ ४३५ श्लोकार्ध . यो नासया शनैः पीत: यो निःश्वासः प्रबृद्धः सन् यो निष्क्रान्तोऽतिदुःखेन यो भवेच्चरण पार्श्वम् यो भवेनिष्क्रिय: स्तब्धः यो भूमिस्थितपाणिः सन् यो मध्यगतया पाया योर्धचन्द्राकृतिधरः योल्लसल्लग्नपक्ष्माया योषितां स्वैरगमने यौ तौ चलो शोकचिन्ता श्लोक संख्या श्लोकार्ध ५२३ रसभावेषु तान्याहुः ५२२ रसाभिव्यक्तिहेतुत्वात् ५२५ राक्षसेऽधोमुखः कार्यः ८८३ रूक्षा क्रूरा स्तब्धतारा ३९४ रेखायां च निमित्तेऽपि ३४७ रेचक विदधाते च ३९८ रेचकांश्चतुरोऽवोचत् १४२ रेचकाद्यं निकुटुं च .. ४५७ रेचकाद्यं निकुटं च ३९६ रेचकरङगहारैश्च ५२० रेचितं बृश्चिकाद्यं च रेचिता क्रियते पाणि: ८६३ रेचितोऽर्धनिकुट्टश्च ९०३ रेचितोऽन्वर्थलक्ष्मा स्यात् ९०६ रेचितौ पूर्ववत् यत्र ११४१ रोषं परित्यज्य भजस्व १३७९ रोषेाजनिते जल्प १३८१ ल १३४६ लक्ष्माण्यशोकमल्लेन १५५३ लक्ष्यते शिक्षिताद् योऽति ७२३ लग्नाग्रा: संहता ऊर्ध्वा ५३६ लग्नोग्रे तु यदाङगुष्ठः ८४४ लग्नान्तर्जानु यज्जानु ९६१ लज्जानुतापयोरस्य ८३४ लक्ष्यन्ते लक्ष्मविदुषाम् ९०३ लताद्यं वृश्चिकं चाथ १५०२ लतावेष्टितकाख्यं च ३७७ लतावृश्चिक वैशाख५८८ लब्धो जीवनवासरः २६२ १४२६ १३७४ १३९९ ६६८ १३८२ १०२९ १३४३ ५४३ ७७६ १५१० ८९८ रङग प्रविश्य यैः स्थित्वा रङगावतरणारम्भ रङगावतरणारम्भ रङगे पुष्पाञ्जलिक्षेपे रचयित्वा चतुदिक्षुरचयेच्चातुरी योगात् रचयेत् त्रिश्चतु: पञ्चरचयेद् हस्तक: पात्रम् रच्येते रेचितौ यत्र रञ्जने सविलासेऽपि रथचक्रकृती तिर्यक रथचक्रा तलोद्वत्ता रमणीयमिदं यत्र रमात्र देवता तत्स्यात् रम्यवर्णनिबद्धं यत् रवर्भवेदुपस्थान रसभावसमाकीर्ण १५१७ १५२२ १८४ ४१२ ११४३ ११३७ १३९० ७६६ ११२ १५०८ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोका ललाटप्राप्तिमर्यादम् ललितं दण्डपादं च ललितं स्यात्कुचाघस्तात् ललिता यत्र गात्रस्य लास्याङ्गानि सचारीणी लीनं समनखं कृत्वा लीलया ललितौ हस्तौ लीलयावस्थितौ सद्भिः लीलादावपि हेलायाम् लीलावतंसयुतयोः लुठत्येककरे तिर्यक त्येक तिर्यक् लुठत्येतत् समादिष्टम् लुठनं मण्डलाकारम् लुठितोऽन्यः करो यत्र लेखप्रवाचनेऽथासौ लेहनं जिह्वया लेहः लोकयुक्त्यनुसारेण लोकयुक्त्यनुसारेण लोकयुक्त्यनुसारेण लोके प्रसिद्धा सा पार्श्व लोको वेदस्तथाध्यात्मम् लोडितः स्यात् तदाख्यातम् लोडितौ तदनङ्गाङ्गलोडितौ यत्र तत् प्रोक्तम् लोलतारकनेत्राभ्याम् लोलितं शकटास्यं च व वंशादिजलयंत्रे स्यात् ६० इoter क्रमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्ध २८७ वक्रमेकं प्रसार्य स्वं११८ वक्षं उद्वाहितं सोक्ता १५३८ वक्षसः स्कन्धयोरूर्ध्वम् १५४५ वक्षस्याभिमुखौ हस्तौ १५४० १३४३ ७३५ वक्षोग्रस्थः पुरोवक्रः ९४८ वक्षोदेशात्प्रयोक्तव्यः ४७७ वञ्चयन्तीव चेल्लोकम् वक्षः स्वस्तिकमिच्छन्ति वक्षः स्वस्तिकमुक्तं तत् १५२१ वदनान्तप्रवेशेन ७६८ वदान्यं खटकावक्रम् ८४१ वरवध्वोविवाहार्थम् ८१० वर्जिताभिनयैर्वाक्य: ७६९ वर्तना चतुरस्राख्या ८४५ वर्तनाद्या पताकाख्या १३७ वर्तना स्वस्तिकं कृत्वा ५६० वर्तना स्वस्तिकाख्यं च ९४ वर्तना स्वस्ति काख्यान्या १४६ वर्तनास्वस्तिकीभूय २०९ वर्तनास्वस्तिक पार्श्व १००४ वर्तने शुकतुण्डाख्यौ १२०८ वर्तितश्चोरुपृष्ठे सा ७६७ वर्तित: सालपद्माख्या ८५३ वर्तितावूर्ध्वदेशे चेत् ८५५ वर्तितौ दण्डपक्षौ चेत् ६६४ वर्तितौ नावि सम्प्रोक्तौ ८५३ वर्तितौ स्वोक्तरीत्यैव वर्तिती यत्र तत्रासी ५७ वर्तुले मथनेऽप्येषा श्लोक संख्या १०१६ ९८९ ३०४ ११४४ १३८३ ११४३ ३१६ ७५ १५५० ५३८ ३१३ २२९ १४९२ ७४७ ७०९ ८१७ ७५५ ७४१ ८१९ ७९४ ७०९ ७१८ ७१६ ७२२ ७३० ६० ७३६ ७२५ ३६९ ४७१ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या ४०८ १४७१ १४६१ १४६० ९०२ ८९७ ६४६ ८९३ ४७० ४६१ ४४८ ५३५ श्लोका वयंजनशलाकादिः वर्षमानासारितेषु वलनं चेत् तदा प्रोक्तम् वलितः पृष्ठतः पादः वलिताभिधहस्तौ चेत् वाञ्छया वा महीपस्य वादने कोहलादीनाम् वाद्यप्रबन्धवर्णानाम् वानरे मुखदेशस्थी वामं करं कटौ न्यस्य वामं करं पताकाख्यम् वामः क्रमादतिक्रान्तः वामतश्चेदर्धसचिवामतो गमनं कृत्वा वामदक्षतिरश्चीनम् वामदक्षतिरश्चीनम् वामदक्षिणतो यत् स्यात् वामदक्षिणयोस्तूर्णम् वामदक्षिणपाश्चात्य वामदक्षिणयोः पश्चात् वामदक्षिणयोमनः वामदक्षिणयोस्तिर्यक वामः समो निषण्णोरुः वामः स्याद् भ्रमरो यत्र वामांसक्षेत्रपर्यन्तम् वामाङगनिर्मितावाथ वामाङगरचितं पश्चात् वामाङगे भ्रमरं चार्धवामाङिनिमिता बाह्य श्लोक संख्या श्लोकार्ध १७३ वामेन पितृकार्येऽर्थे १४१९ वामोऽधि स्पन्दितोऽथ स्यात् ७८२ वामोऽड्डितोऽप्यध्यधिक: १०१० वामोऽथ दण्डपादस्तु ७३७ वामोऽलातोऽथ चरणः १५५७ वामो लताकरो यत्र ५६ वामो व्योम्नि निषण्णोरुः १५५३ वासोऽवगुण्ठनाद् भानुम् .. १३१ वाहने वेगदाने च १५८२ विकाशिता चला दृष्टि: १५७२ विकाशिता मनोजन्म १४५८ विकाशिनी समा दृष्टिः १३५२ विकासिरेचितोद्वृत्त६०६ विकृते घोषवाग्गन्धे ७५७ विक्षिप्ताक्षिप्तके चाथ ७८३ विक्षिप्ताञ्चितके दण्ड७६९ विक्षिप्ताभ्यां पताकाभ्याम् १०३१ विक्षिप्तोद्वत्तयोरेष ८३७ विचित्रं यत्र कान्तानाम् ८३२ विचित्रं ललितं चेति ७९३ विचित्रमण्डनहर्षः ७८३ विचित्रवर्तनायोगात् ९७७ विचित्ररससंकरो जयति १४६१ विचित्रलास्यमेदज्ञा (हंसवि०) ८४३ विचित्रान् रचयेद् भावान् १४३३ विच्युतश्लिष्टपाश्वौं ऽसौ १३९६ विच्यतानामिकाङ्गुष्ठ१३५५ विच्युतावथ नेत्रादिः १४४३ विच्यतोऽसौ कामिनीभिः १२० १४०२ १३९५ ६७६ १४९६ १८२७ फु. ६८३ ७२५ १५१२ १५०५ २१९ १२२ १७८ २४५ ४५२ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या १३६४ ७६७ ३१४ ३०९ ६२९ ५७७ २०७ २५५ ५३६ ११३९ श्लोकार्घ विच्युतौ स्वस्तिकावेतौ विच्छिन्नमन्दरुदिते विटकर्तृककान्तादिविडालादिपदेऽप्येष वितत्यन्तरितावशी विकितं तथा ध्यानम् विकिता ततोऽप्यर्धवितर्केपराधे च वितर्के पेलवासूया वितर्के सविवादानाम् वितस्तिमात्रं तत्स्थानम् वितालिताभिधौ चैवम् वितालितावुत्तरेण विदध्याद् यत्र पात्र चेत् विदध्याद्यदि सान्वर्था विदध्याद् विचिश्यां यत्र विद्युत्कलासः खड्गाद्यः विद्यभ्रान्तं च करणम् । विद्युभ्रान्ता च विक्षेपा विद्वद्भिस्तत्समादिष्टम् विधत्ते सोत्सन्दिताख्या विधाय स्वस्तिकौ पश्चात् विधाय त्रिपताको चेत् विधाय त्रिपताको द्वौ विधाय दक्षिणं पाणिम् विधाय नपुरं यत्र विधाय पार्श्वयोरन्तः विधाय मण्डिका पादी विधाय मुकुलं हस्तम् श्लोक संख्या श्लोकार्ध ३०६ विधाय व्यंसितं वामे ५१४ विधाय स्वस्तिकौ यत्र १८६ विधायादावरालौ चेत् ३७ विधायादौ पताको द्वौ ९२१ विघायाधोमुखावेतौ ६२८ विधायक नितम्बाख्यम् ४३० विधायोत्तानितौ हस्तौ १३७ विधायोद्वाहितं शीर्षम् १७६ विधुतं तिर्यगायामि ३१५ विधुताकम्पिताधूत ९२५ विनष्टे च तथासत्ये ४८३ विना कृतं स्वस्तिकेन ४९० विनिष्क्रान्तो विसृष्टः स्यात् १५६२ विनिःसरति सव्येऽङध्रौ १००७ विप्रकीणौं केचिदाहुः १५८८ विप्रलब्धाखण्डिताश्च १५६६ विभक्ते छेदन चैते १३८४ विभाति विद्युदाद्यस्तु ९६७ विभ्रमे सा तथा वेगे ८५७ विभ्रान्ता विप्लुता त्रस्ता ९८२ विमुक्तकं जानुगतम् ८४३ दिमोहनविवर्तनः १६०५ वियुक्ताः संहता वक्राः १५८४ वियोज्यौ रशनायां च १५७४ विरलाङ्गुलिको कार्यों १३८९ विरलाङ गुली पताको चेत् ७७५ विरूपितस्तथा ज्ञेया १५९४ विलम्बेनाविलम्बन १५९७ विलासस्यायथाकार ६८२ १०१ १५७१ ४६६ ४३० ८७५ १५०४ ५९२ १४८ १९७ २४७ ६२४ १५२८ ९११ ४७३ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोका विलासितं तलाद्यं च विलासेन चतुर्दिक्षु विलासेनांसपर्यन्तम् विलोक्य च पुरः पश्चात् विलोडनं विधायाथ विलोडितो यदा पश्चात् विलोक्य च नटी कुर्यात् विलोड्यते यत्र करः विलोड्य पार्श्वयोः स्तोकम् विलोड्य मण्डलाकारम् विलोमवचनैर्धीमान् विलोलतारका भीत्या विलोलाङ्गुलिकावेतौ विलोलोद्वृत्ततारा या विवर्तत समुद्भ्रान्तौ विवर्तनं थरहरम् विवृतं त्वोष्ठविश्लेषे विवर्तितं परावृत्तौ विवर्तितमतिक्रान्तम् विवर्तताभिधमथ विवर्तितो विसृष्टश्च विवाहदर्शने स्याताम् विष्णुक्रान्तमपक्रान्तम् विशतिव्र्व्यभिचारिण्यः विशेष तु चलाबेतौ विश्लिष्टवर्तितं त्वाद्यम् विश्लिष्टवतताद्यैश्च विश्लिष्टे ते पराङ्मख्यौ विशृङ्गाटकबन्घाख्यम् ४७४ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या श्लोकार्ध १३८४ विशृङ्गाटकबन्घाख्यम् ७९९ विष्कम्भं च तथा क्रान्तम् ८५६ विष्कम्भापसृतौ मत्तः १५८० विषमं वा ततः स्थानात् ७८७ विषमं वा यदा स्थित्वा ८५९ विषमस्था समुत्प्लुत्य १५७४ विषमादि च खण्डाद्यम् ८०४ विषमाभिमुखान्याहुः ७७२ विषर्जनं तथाह्वानम् ७९५ विस्तारितपुटद्वन्द्वा ६६६ विस्तार्याी समुत्प्लुत्य ४४६ विस्तीर्णा च बुधैः सोक्ता ३०४ विस्तीर्णे गगनेऽम्भोधि: ४३८ विस्फुलिङ्गान् घनरवान् ४८४ विस्मृतावथ मायायाम् १५१५ विहसी तु यदा ज्ञेया ५७६ विहाय प्रेक्षणाच्चापि ३३३ विहृतावज्ञया चैतत् ११२७ वीक्षणे वरमार्गस्य ३३३ वोटिकाच्छेदनं भीतौ ५३४ वीटिकाग्रहणे त्वेष १२७ वीरसिंहसुतेनोक्तम् ११३३ वीराख्यया तथा दृष्टया ४३० वीरे रौद्रेऽथ निष्क्रामः २११ वृत्त्या लक्षणया तेषाम् ७५५ वृश्चिकं वृश्चिकाद्ये च ८४७ वृश्चिकाद्यं कुट्टित ं च १०२ वृषभक्रीडितं चाथ ७६० वृषभासनमाख्यातम् श्लोक संख्या ८०३ ८७४ १३४३ १६०६ १६०७ १६०२ ८७२ ५०१ ६०७ ४४८ १०६८ ४६६ २४५ ६५२ ८ १५४७ ६६१ ५७८ ९११ ५५४ ३८० ४६५ ६८८ ४९९ ४२५ ११२५ १४०० १३७८ ९४२ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या ७५१ २८९ २८० २९२ २५८ २६० २९१ २९२ ११४२ २७३ २८७ २८५ श्लोकार्ध वेतालभडिगरिटयादि वेदनादौ सूत्कृतं स्यात् वेष्ठयित्वा यदा ः स्यात वैभाविक चित्रपदम् वैशाखरेचितं पश्चात् वैशाखरेचितं पूर्वम् वैशाखरेचितः पार्श्ववैशाखरेचितोऽसौ स्यात् वैष्णवं समपादं च वैष्णवं स्थानकं प्रोक्तम वैष्णवस्थानकेनापि व्यं सितं चतुरं क्रान्तम् . व्यं सितं च विवृत्तं च व्यक्तः कुटिलकेशेष व्यत्यस्तत्तर्जनीक: स्यात् व्यत्यासारचिता सैव व्यात्तास्ये या चला लोला व्यादी] चलितं लोलम् व्याधिभीतिविषादेषु । व्याधौ च संभ्रमे गर्वव्याभुग्नं चेति षोढोक्तम् व्यावर्तितं तथा ज्ञेयम् व्यावर्तितो वहिश्चान्तः व्यावर्तन्ते कनिष्ठाद्याः व्यावर्तनक्रियापूर्वम् व्यायच्छतो मिथश्चार्यः व्यावृत्तं विनिवृत्तं तत् व्यावृत्तक्षेपणादौ स्यात् व्यावृत्तपरिवृत्तौ च श्लोक संख्या श्लोकार्ध ३९० व्यावृत्तिक्रियया मुष्टिम् ५३१ व्यावृत्तिक्रियया यत्र १०७७ व्यावृत्तिक्रियया वक्षः १४८८ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्याम् १३९९ व्यावृत्तिक्रिययोध्वं तु १४०७ व्यावृत्तपरिवृत्तौ चेत् १३४३ व्यावृत्तौ परिवृत्तौ च १३६६ व्यावृत्तौ परिवृत्तौ च ८६६ व्यावृत्या च समानीय ८८० व्यावृत्या तु भुजावर्ध्वम् ६९२ व्यावृत्योरःस्थलायातः ११२४ व्युत्क्रमाच्चेत्पुरः प्राप्ती १३७६ श ११५ शकटास्यं पृष्टकुट्टम् १३८ शकटास्यश्चतुर्दिक्षु ११०९ शकटास्यस्तत: पादः ५४७ शकटास्यस्ततोऽनूरुद् ५६६ शकटास्यस्ततोऽसौ स्यात् ३३० शङखस्य धारणे योज्यः २४८ शनैर्गत्वा शिरोदेशम् ५७४ शमसम्भवयोरुक्तः ६०९ शरदं निर्दिशेन्नाटये ७२० शल्यावयवनिष्कर्षे ६१३ शकटास्योऽथ वामोऽडिधः ७४६ शकटास्यो भवेत् पश्चात् ९५१ शकटास्यो भवेद्वामः ५७८ शक्त्या यदपि बाधः स्यात् ३४१ शिखरस्य कपित्थस्य ५१ शिखरस्यापि कर्माणि १४२७ फु. १४८५ १४६७ १४७७ १४६५ २२४ २७७ ३९८ १७२ १४६६ १४७६ १४७८ ४२५ ७५२ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोकार्ध श्लोक संख्या . ५८७ ४३७ ४३४ ४५४ १०२६ ४१६ ४५२ ७०२ १५४२ १०८८ शिखराख्या कपित्थाख्या शिखिनां रम्यवाणीभिः शिथिलौ मणिबन्धस्थौ शिथिलो मेनिरे केचित् । शिरः क्षेत्रे यदा प्राप्तौ शिरसोबाहिताख्येन शिरःस्थितौ पताकौ द्वौ शिरोंसकर्परं तुल्यम् शिरोदेशगतौ कायौं शिरोदेशात् ब्रजन्नूर्ध्वम् शिरोऽभिघातात् सध्वानः शिरो ललाटं श्रवणम् शिरोवक्षो मखस्थोऽयम् शिरोद्वेष्टित एष स्यात् शिशिरतौं वसन्ते च शीघ्रमुत्पन्नरोमाञ्च शीताभिनयनं वेवम् शीतार्ताभिनयेऽशोकः शीतार्ते व्याधिते मत्ते शीर्ष देशे कटीदेशे शीर्षस्य कम्पनेनापि शुकतुण्डाभिधौ हस्तौ शुकतुण्डेन हस्तेन शून्या च मलिना श्रान्ता शृङगाररससम्पन्नशृङगाराभिनयेऽप्येवम् शेषास्त्रेताग्निसंस्थाना शेषे तलस्थिते स्तोऽसौ शध्यसांमुख्यबहुला श्लोक संख्या श्लोकार्ध ७४३ शैवाख्यस्थानकेनापि ६४१ शोकहच्छत्ययोः शीतम् २७५ शोभा द्विगुणतां धत्ते २७४ शोभातेजोविशेषादीन् २७६ शोकमन्थरतारा सा ६२५ श्लथपक्ष्मपुटा घूर्या ६२२ श्लिष्टौ पुरोऽथवापश्चात् ८८५ श्लिष्टोरुजचं जानूक्तम् ... ५९ श्रमम्लानपुटा सन्ना ३७४ श्रव्ये श्रवणयोगेन ६६२ श्राद्धकर्माणि योज्योऽयम् ६०५ श्रितं कञ्चिल्लयं वेगात् २१३ श्रीमताशोकमल्लेन ११० श्रोत्रकण्डूयने दुष्ट६४० ष ६५७ षडङ्गुलं यदैतस्य ६३६ षडशोतिर्मताश्चार्यः ९४५ षड्भिस्तु करणरेभिः ३२५ षड्वारमथवा सप्त८२१ षोडशेति यस्रमाना ६५९ षोढेति रसनां प्राह २४९ स ६९० संगमादौ वरस्त्रीणाम् ४२८ संग्रामधीरधुर्येण | १५२२ संघट्टितेत्यमूभी म्यः ४८० संज्ञया ज्ञातलक्ष्माणि ३४ संचक्षे करणं तु सम्प्रति मुदे ४१ संचारितोत्कुञ्चिता१५२० संत्रस्तोर्ध्वपुटा दृष्टिः ९२५ ९६९ १३५४ १४४७ १३४३ ४५५ یہ قا ९६६ ६०७ १११६ ४५३ ४७६ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या १७५ १४९१ फु. १४९८ २१७ १४४३ १४५८ ६४४ ३२९ ३५३ २५० rv ८३५ श्लोकार्ध संप्राप्य कूर्परक्षेत्रम् संप्रोवता ये न ते ज्ञेयाः संभाविते प्रकर्तव्यो संभ्राम्योा क्षिपेद्यत्र संमुखं रचयेद् विद्युत् संमुखीन रथाङग तत् समुन्नतमुरः सन्नम् संयतस्वस्तिको स्याताम् संयुते वियुते यद्वा संयुक्ते तु सहाये स्यात् संयुतौ तौ विधातव्यौ संयोगे त्वस्य तर्जन्यौ । संलग्नाग्रा यदाङ गुल्यो संलग्नश्चेति पादयोः संलापेऽध्ययने तत् स्यात् संवाहनेऽप्यथ स्याताम् संशये दधदगुल्यो संश्रित्य स्वस्तिके पायः संश्लिष्टमणिबन्धौ च संश्लिष्टो बाह्यपावन संश्लिष्य मणिबन्धौ स्तः संस्पर्शाच्चोष्णवातस्य संस्पर्शाद् रूक्षवातस्य संहतं स्फुरितं वत्रम् संहतस्थानकेनाछी संहर्षास्फोटनादौ च स ईष्यारोषयोः स्त्रीणाम स एव चेत्पुरोदेशे स कण्ठरेचकः प्रोक्तः श्लोक संख्या श्लोकार्ध ८१४ सक्रोधे वामहस्तेन ७०४ सखित्वे संयुतः स स्यात् १३२ सखि वल्लभसङग१०६५ सखि स्फुरति यामिनी १५७३ सखेदवचसीदानीम् ७७६ सञ्चरं ललिताद्यं स्यात् ८८६ सञ्चरल्ललितं यत्र ८२४ स तज्जनितसंस्कारः ९४२ सत्योक्तिस्तम्भमानेषु १०३ स त्रोटिताभिधौ योज्यः १७ सत्वरं भ्रामयेदन्तः . ८८ सतृष्णे चानुरक्तेऽपि २० सदा तिष्ठन्ति सुप्रीताः ५९३ सद्भिरेतत् समादिष्टम् ५५५ सद्वितीयः प्रयोक्तव्यः ५२ सनिकर्ष बिना यस्य । ११७ सनिमेषा च सा धीरैः १०३२ सन्दप्टक: समुद्गाख्यः १९६ सन्धानेऽपि च शस्त्राणाम् ९२६ सन्ध्याकाले प्रथक् स्याताम् १६ सप्तभिः करणरेभिः ६६९ सप्तमं तु कटीच्छिन्नम् ६३७ स पादो घट्टितोत्सेध: ५६६ स बाहुरञ्चितः खेदे १०३४ सभावश्चेष्टितैर्देवाः ८९९ सभ्यातिमोहनीभाव५३८ सम्भ्रन्तोद्घट्टिताख्यः ८८३ सन्रक्षेपकटाक्षा सा १४२४ सघ्र क्षेपेण नेत्रण ८०४ १७४ ४७२ ५३४ ८९९ १९८ १३६१ १४१० ३५४ ६७२ १५३५ १४०० ४३१ ६२१ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या श्लोकार्ध ५५२ सर्वतो भ्रमणात् कटयाः ८७६ सर्वतो भ्रमणाद् यः स्यात् ३२७_सर्वत्रैवाङ्गहारेषु ५०० सर्वदिक भ्रमणात्प्रोक्ता १५७५ सर्पशीर्षौ करौ मध्यम् १४७३ सर्वार्थग्रहण देश्यम् ९७० सर्वार्थग्रहणे योज्यः ९७३ सर्वे चाषगताः पादाः सविलासं यदा स्याताम् ९५४ स विस्मितोऽद्भुते कार्यः ९२८ स वैद्ये त्वेकहस्तस्थः ८०७ सव्याधः पाष्णिदेशं चेत् ८७० श्लोका समं छिन्नं खण्डनं च समं नाकुञ्चिते च समं निर्भुग्नमाभुग्नम् समं साच्यनुवृत्तं च समदृष्टिर्नटी हस्तम् समपादं समाश्रित्य समपादस्थानकेन समपादस्थानहेतोः समपादं स्वस्तिकं च समपादाड्डिता बद्धा समः पुरस्ताद् यत्रेदम् समप्रकोष्ठ चलनम् समप्रकोष्ठबलनम् सममुक्तं मनाक् श्लेषः समवाचि तदा सूची समवोचदिमां तिर्यक् समः सहजकार्येषु समस्थितोऽङ्घ्रिरेकोऽन्यः सम्पूर्णभ्रमणैः प्राग्वत् सम्प्रलापैस्तथा लीनाम् सम्प्राप्यारालतां याति सम्भ्रान्त नामको धीरैः 11 ७६१ सव्यापसव्यतो नाभि ५५३ सव्यापसव्यतो भ्रान्तौ १०१२ सव्यापसव्यतो मुष्टि: १०४० सव्यापसव्यतो यत्र ५२८ सव्यापसव्यतो यत्र ८७९ सव्यापसव्यतो यत्र १४८० सव्यापसव्यतो यत्र ६८० सव्यापसव्ययोंरारात् ११५ सव्यापसव्ययोर्नृत्यम् १३९६ सव्यासव्येतराङगाभ्याम् ११३४ सशब्दच्युतसन्दंशः सम्भ्रान्ताभिघमप्यन्य सम्यक्तया च शास्त्रार्थ सरलप्रस तस्याग्रे सरलोत्सारितोद्वेष्ट सरलोऽसौ तथा पूर्वः २३२ सशब्दच्युतसन्देशः ८१३ ससौष्ठवा : सुलक्ष्माणः ८२७ ससौष्ठवैः साभिमानः ३८३ स स्यादधीने सारिका च लताक्षेपः स रोगे दुःखसंयुक्ते ९६५ सहजा तु स्वभावस्था ५२४ सहजा रेचितोत्क्षिप्ता ४७८ श्लोक संख्या १४२४ ३७८ १४१७ ३४३ २२७ ६३१ २०६ १४८३ ७३६ ५२७ ११० ९८५ ७२१ ७४९ ७५१ ७१५ ८०८ १५८० १५९६ १५८९ १६०९ १४०७ ६६ ४२ ३२२ ६५० ९ ४७५ ४७५ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या श्लोकार्ध सहर्षोत्पादकारम्भैः सहाक्षिप्ताख्यया चार्या सहि वल्लह संगव स्थानान्यथ तथा सुप्त सांकूर्परो वक्षः समाधे पुरतः पश्चात् समाचष्ट नृपाशोक– समाञ्चितौ कुञ्चिताख्यः समादिष्टा तथा मध्य समाधत्ताशोक मल्लः समा नतोन्नता यस्रा समाधें नर्त्तनेऽङगानाम् समाश्वासे गुणे चायम् समासाद्य मुदं यत्र समुत्क्षिप्तान्यभागोऽसौ समुद्वृत्तं समुन्नतम् समदृतौ त्वो गत्वा समुन्नतकटिर्हस्तः समे तूर्ध्वतले स स्यात् ५६३ १५१२ ४६५ १२४ ९८० ११४८ ४४९ ४५१ hototosमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्घ ६३८ समी सहजभावेषु १९५२ सहर्षमवलोकनम् १४९१ साकेकरा दुर्निरीक्ष्ये ८७८ साग्निधूमे प्रयोक्तव्यः २५६ सा तदा जनिता चारी ९७४ सार्धं तु वियवां कृत्वा १०६४ सा दृष्टिः कथिता शून्या ३४४ सा दृष्टिर्मलिना प्रोक्ता १११४ सा दृष्टिर्म कुलानन्दे ९७३ सा दृष्टिर्ललिता धीरैः ३६० सा दृष्टिः शङ्किता प्रोक्ता १५५५ साधुवादे ध्वजेऽप्येषा ४ सारसान् केकिहंसी च १५३९ सालस्यगमनोपेता ३४९ सा वक्त्रान्तःस्थ वीक्षाणाम् ४५७ ४६१ ४५५ h ८३ ६६८ १५८८ ४९६ सा विवृत्ता कटी धीरैः ५५१ ३४२ ४६१ ४४२ ७६ सास्मिता कुञ्चितप्रान्ता ९०२ सा हृष्टा दृष्टिरादिष्टा १३ सिते वर्णे तूर्ध्वगतो ९५६ सिंहविक्रीडितं सिंह ५ ११३१ १३८२ समोत्सरितमत्तल्ली समोत्सरितमत्तल्ली समोत्सरितमत्तल्ली समोत्सरितमत्यर्धम् समोत्सरितमेतत् स्यात् समोत्सरितमावर्तम् समो भ्रान्तः कम्पितश्च ९९५ सिंहाकषितकं नाम १४७६ सीत्कृतं चेति स प्रोक्तः १४२७ कु. सीधुपाने मुखस्थ: स्यात् ५१८ ५९ २५५ १४७५ सीमन्ताभिनये योज्यः १४२९ सुखं गन्धं रसं वायुम् ६४५ ६४३ २१० ५१७ सुखितः सुखितेष्वेव ९१३ सुखे कर्मगतः कार्यः ५६१ सुधाब्धिमतमाश्रित्य समो यत्र तदाचष्ठा समौ क्षामौ कम्पितौ च समौ विवर्तितौ स्याताम् ६९५ ४८२ सुप्यते यत्र तत् प्रोक्तम् ९४६ ६१ ४७९ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः श्लोकार्ध श्लोक संख्या ४४० १५५६ . ७४५ ७३७ २२८ ११३० ९१४ १०५६ २५ ३९४ ४४४ ५१८ सुभ्र वो यत्र नेत्रान्तौ सुरते स्वस्तिकाकारौ सुवीजनभूमितापः सुव्यक्तलक्षणाः कार्याः सूचीपादोऽथवा स्वीय सूत्रधारादिनेत्याहुः सूक्ष्मरसकृदुल्लास: सूच्याङिघ्रर्दक्षिणो वामः सूच्यघ्रिर्दक्षिणो वामः सूच्यङिघर्ती मरश्चाथ सूची कूर्वन् कूर्परस्तु सूची प्रावृतमुल्लाल: सूची भ्रमरको वाथसूची वामोऽप्यपक्रान्तः सूचीविद्धमलातं च सूचीविद्धं वामविद्धम् सूची स्याद् दक्षिण पादः सूची स्यादथ वामोऽङिघ्रः सूची स्याद् भ्रमरश्चान्य सेवायामपि योज्योऽसौ सोक्ता त्रिकोणचारीति सोङगहारोऽङगहारज्ञैः सोवाहिता कटी लोला सोऽपविद्धो गदाखड्गसोरूद्वत्ता तदाचारी सौन्दर्यभरसम्पन्नः सौधान्तःपुरयोरेष सौभाग्यादिसमुद्भूते सौम्यानि यानि वस्तूनि श्लोक संख्या श्लोकार्ध १५४४ सौम्यापाङगविकासाढ्या १७ सौष्ठवस्य पुरोक्तस्य ६३९ सौष्ठवेन तदा धीरैः ३२३ सौष्ठवेन तदा सोक्ता ९१२ स्कन्धस्थौ सर्पशीषौं चेत् ८८२ स्खलितं परिवृत्तं च १५३७ स्खलितेऽपि स्खलद्वासः १४३८ स्खलितोऽङिधर्यत्र तिर्यक् .. १४५३ स्तनप्रदेश विधृतः १४५५ स्तब्धस्ततः कम्पितश्च ३८२ स्तब्धोदवृत्तपुटादृष्टि: . ९६८ स्तम्भकीडनिका तिर्यक १४४० स्तम्भितश्च तथोच्छ्वास१४४२ स्तवकेषु समाकुञ्च्य १४२७ स्तोकस्पन्दाऽलसा या भ्र १४२७ फु. स्तोकोन्मीलितताराख्या १४३५ स्त्रीभिरेवेति तद् योज्यम् १४४५ स्त्रीणां त्रीणि स्युरेतानि १४५९ स्थानकं चतुरस्रं चेत् २१८ स्थानकं साधितं तस्य ११०६ स्थानकं वैष्णवं त्वेतत् १३४३ स्थानकं वैष्णवं यत्र ३४० स्थानकानामतश्चिन्त्यम् ३८१ स्थानकत्वेऽपि चारीत्वम् ९९१ स्थानादिन्यासभेदेन १५२५ स्थानकेन विनिर्देश्यः १३९ स्थानचारीकराणां यत् ११५१ स्थाने कूर्मासने जानु६४८ स्थाने तु कुट्टितः सा स्यात् ४८० ४६३ ८६७ . १०२६ ८६४ ८८८ ८८९ ९७२ ९७१ ३१८ १५४१ ९४ ११०४ ४८० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक संख्या १०४२ ४६७ १५०३ ४४१ ४४२ १७७ ८९१ G ३९२ ९९३ श्लोकार्ध स्थाने सा मध्यचक्रेति स्थाने सिद्ध ततः पश्चात् स्थापितः कुट्टितः स्थाने स्थितपाठ्यमथासीनम् स्थितः साधिका चारी स्थितातुरः पुरस्ताच्चेत् । स्थितेऽन्यतोऽङ गुलीसंघ स्थितौ स्थितस्वभावेन स्थित्वा चेद् वर्धमानेन स्थित्वा दिगन्तरास्यस्तु स्थित्वा पादतलाग्रेण स्थित्वाङघीपाणिविद्धन स्थित्वा विषमसूच्याख्य स्थित्वा शीर्षोपरि करौ स्थित्वैकपादस्थानेन स्थिरः स्वभावाभिनये स्थिरहस्तोऽथ पर्यन्त: स्थलोदरेऽप्यसावेव स्निग्धा हृष्टा तथा दीना स्नेहविच्छेदतः कान्ते स्पन्दितः शकटास्यः स्यात् स्पन्दितोऽप्यथ वाम: स्यात् स्पृशतो वाह्यपार्वाभ्याम् स्पृशेत् स्फिजं यदि जनः स्पृशेद दक्षिणहस्तेन स्पृशद् यदि तदा सद्भिः स्पृश्यमङगादियोगेन स्फुटयन्त्यो रसादीन् याः स्फरितं कम्पनादुक्तम् श्लोकानुक्रमणिका श्लोक संख्या श्लोकार्ध १०९१ स्फुरिताग्रे सृतो वेगात् ८६४ स्फुरितौ या पुटौ स्तब्धौ १०९९ स्मरसङगरसंगमिनौ १४८७ स्मिततारा साभिलाष९८६ स्मिताकृतिविशत्तारा २५६ स्मृती संभावनायां च १४२ स्यन्दनस्थे विमानस्थे ३४६ स्यात् स्वस्तिकं त्रिकोणं च .१०३१ स्यातां यत्र तदा तत् स्यात् १४०४ स्यादन्वर्थ रिक्तपूर्णम् ३५२ स्यादपस्पन्दिता चारी १०५८ स्यादेकाङिघ्रप्रचारो यः १०६० स्याद्रेचकनिकुट्टाख्यम् ८५५ स्याल्लतावृश्चिकं पूर्वम् १०३७ सरोषमपि भाषणम् ३४६ स्रस्तहस्तयुगं सुप्तम् १३४३ स्रस्तापाङ्गा स्तब्धतारा २२२ बस्तरङगैस्तद्वदक्षि४२७ जुवा मसृणतोपारः ४६५ स्वं स्वं पार्वे गते यत्र १४८२ स्वच्छ: प्रसन्नः शृङगारे . १४७० स्वपार्वे कुट्टितः पूर्वम् १०४५ स्वपार्वे जनसंघ स्यात् १०१७ स्वपाश्व दोलितोऽथासौ १५७८ स्वपार्वे वक्षसो जातौ ९४१ स्वभावजी यावुच्छ्वास७०२ स्वभावस्थं समं प्रोक्तम् ४७४ स्वभावाल्ललितं चारी ५७२ स्वल्पे कुब्जे कुमार्यां च . ११३४ १४१४ १५१२ ९४४ ४५६ ६५२ १५१६ ८७६ ५८२ १०९२ १६१ २८४ ५१९ ३२८ १५५१ ४८१ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः श्लोक संख्या ३४९ . २५७ ७२३ ६८९ ७६८ ८४४ श्लोकार्ध स्वममखतल: पार्श्व स्वस्तिकं करणं पूर्वम् स्वस्तिकं कर्कट मुष्टि: स्वस्तिक केचिदत्राहुः स्वस्तिक स्वस्तिकान्यर्ध स्वस्तिकाकारयोर्यत्र स्वस्तिकाकृतयोरङ घ्यः स्वस्तिकाकृतितां नीत्वा स्वस्तिकाकृतिभागाडिधः स्वस्तिकाद्विच्युतः पूर्वः स्वस्तिकाधोमुखौ रात्री स्वस्तिकावथ कर्तव्यौ स्वस्तिकापसृत केचित् स्वस्तिकीकृतयोः पाण्योः स्वस्तिकीय चेद्धस्तौ स्वस्तिकीभूय तौ स्तोऽथ स्वस्तिकेन विना चाङिघः स्वस्तिको मण्डलगतिः स्वस्तिको तो प्रयोक्तव्यो स्वस्तिकौ युगपद्यत्र स्वस्थाननिर्गतं सन्नम् स्वस्थाने स्थापितपदा स्वस्थौ चलौ चियुक्तश्च स्वस्वचेष्टासमुद्भूतैः स्वस्वपार्शगतौ प्रोक्ता स्वाङगावलोकने स्त्रीणाम् स्वादुभक्ष्ये चैवमन्ये स्वाभाविक यत्र गात्रम् स्वाभाविक समं जानु स्वाभाविकः प्रसन्नश्च स्वाभाविकी समोक्ता सा स्वाभाविकी स्वभावस्था श्लोक संख्या श्लोकार्ध ६०३ स्वाभाविको यदा वामः १३९३ स्वेदापनयनेऽज्ञात१५९५ ह २४१ हंसपक्षावुरो देशे .. ११२० सपक्षौ स्वस्तिकाच्चेत् ७८३ हंसास्यः स करः प्रोक्तः १०७१ हंसस्थाभिधहस्तेन । ८१७ हसीवासौ तृतीयोऽयम् (हंसक०) १०४८ हरिणीवासिता चारी । १११३ हस्तस्य त्रिपताकस्य २४६ हस्तं हंसास्यमाधाय (हंसक०) १९ हस्तयोस्तत् समाख्यातम् । १४०८ हस्तावुन्नम्य युगपत् ८०५ हस्तेन करिहस्तेन ७८१ हस्तौ विलुठितौ यत्र १९ हस्तौ विधाय हंसास्यौ ९७५ हस्तौ शिरस्तथा दृष्टिम् ३७० हृदयक्षेत्रगः कार्यः १८ हृदयस्थोऽथ पाच्चेित् ११४४ हृदयस्थो निरालम्बे ८८६ हृदि मुष्टिकरोऽन्यः- . ११०८ हृदि सन्दंशहस्तेन ५१६ हृद्यगन्धे च सन्दिग्धे ७०६ हाधिोमुखः स स्यात् ७४७ हनुं बिभ्रदसौ पृष्ठे ९११ हारादिवन्धने चैषा ५५० हासे घाणे विस्मये च ९२३ हास्यबीभत्सयो/रैः ४१४ हास्या दृष्टिरसावुक्ता ५८१ हिरण्यकशिपोर्वक्षः ३६१ हेमन्तर्तुविनिर्देश्यः ५१० हेलाभावालसं यत्र ६४० . .२२५ १४० ६२८ ५२३ २४ २२३ تما ४९८ २७१ ६३४ سل له ४८२ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत अं० हा० : अंगहार भू० चा० : भूमिचारी अ० ० : असंयुतहस्त भू० मं० : भूमिमण्डल आ० चा० : आकाशचारी म० बं० : मणिबन्ध आ० मं० : आकाशमण्डल मा० ला० : मार्गलास्याँग उ० क० : उत्प्लुतिकरण मु० द० : मुखदर्शन क० क० : करकर्म मु० रा० : मुखराग कला० : कलास मु० चा० : मुडुपचारी ख० क० : खड्गकलास मृ० क० : मृगकलास च० गु० : चरणांगुलि र० दृ० : रसदृष्टि क० : ताराकर्म वि० न० : विचित्राभिनय य० अं० : असमान में अंगहार द० क० : दन्तकर्म वि० क० : विद्युत्कलास दे० आ० : देशी आकाशचारी व्य० दृ० : व्यभिचारी दृष्टि दे० भू० : देशी भूमिचारी सं० द० : संचारी दृष्टि दे० ला० : देशी लास्यांग सं० ह० : संयुतहस्त दे० स्था० : देशी स्थानक सु० स्था० : सुप्तस्थानक नृ० क० : नृत्तकरण स्त्री०स्था० : स्त्रीस्थानक नृ० ह... : नृत्तहस्त स्था० दृ० : स्थायिभाव दृष्टि पा० त० : पादतल पु० स्था० : पुरुषस्थानक हं० क० : हंसकलास प्र० भ० : प्रत्यंगभूषण ह. क० : हस्तकरण प्ल० क० : प्लवकलास ह० क्षे० : हस्तक्षेत्र फु० : फुटनोट ह० प्र० : हस्तप्रचार भ० म० : भरतमत ह० वि० : हस्तविन्यास भा० भा० : भावानुभाव ह० म० : हनूमत्मत भा० न० : भावाभिनय ४८३ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अंगहार अंगानंग अंगुलिसंगता अंध्रिताडिता अंसपर्यायनिर्गत असवर्तनिक अग्रग अग्रग अग्रतल अग्रतलसंचर अञ्चित अञ्चित अञ्चित अञ्चित अञ्चिता अञ्जलि अड्डस्खलितिका अड्डित अड़िता अतिक्रान्त अतिक्रान्त अतिक्रान्त अतिक्रान्ता अत्य अद्भुता अघ अघः क्षिप्ता अघर अधस्तल ४८४ नृत्याध्यायः संक्षिप्त संकेत शब्द (दे० ला०) अधोगत (दे० ला०) अघोगत ( पाष्णि) (दे० आ० ) (चालन) (चालन ) अधोमुख अवोमुख अध्य अर्ध्याधिका अनंगांगमोटन (पाद) अनंगोदीपन ( ह० प्र० ) अनिल ( ह० प्र० ) (पाद) अनिष्ट (पाद) अनुलोमविलोमा (बाहु) अनुवृत्त ( उ० क० ) (करण) अन्तर्गता (ग्रीवा) अन्तर्यात अपक्रान्त अपक्रान्ता अपकुञ्चिता अपक्षेपा अपराजित (सं० ह० ) (दे० भू० ) (भू० मं० (भू० चा० ) ( आ० मं० ) अन्तरालग ( च० गु० ) (करण) ( आ० मं० ) ( आ० चा० ) (भू० मं० ) (र० दृ० ) ( ह० क्षे० ) अपसूत अपविद्ध अपविद्ध ( ह० प्र० ) अपविद्ध अपविद्ध अपसर्पित अपसृत (अधर) अपस्पन्दिता अभितप्ता संक्षिप्त संकेत ( पा० त० ) ( ह० प्र० ) ( बाहु) ( ह० प्र० ) ( भू० मं० ) (भू० चा० ) (चालन) (चालन) (वायु) ( भा० न० ) ( मु० चा० ) ( मु० द०) ( उ० क० ) ( पाष्णि) · ( गुल्फ) (करण) (आ० चा० ) (दे० भू० ) (दे० आ० ) ( चा० अं० ) ( बाहु ) (चालन) करण ) (340 370) ( च० गु० ) (पार्श्व ) (करण) (भू० चा० ) (सं० दृ० ) Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अभिनय अराल अरालखटकामुख अलवर्तना अर्गल अर्धकुञ्चित अर्धचन्द्र अर्धनिकुट्ट अर्धनिकुट्टक अर्धपुराटिका अर्धमण्डलवर्तना अर्धमण्डलिका अर्धमतल्लि अर्धा अर्ध रेचित अर्ध रेचित अर्धसूचि अर्धस्वस्तिक अलग अलगाञ्चित अलाग अलात अलात अलातचक्र अलपद्म अलपद्मवर्तना अलपल्लव अलाता अलाता पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द (दे० ला० ) ( अ० ह० ) (नृ० ह० ) (दे० भू० ) ( वर्तना) (करण) अवहित्थवर्तना ( जानु ) अश्वक्रान्त ( अ० ह० ) अष्टवन्धविहार (करण) (करण) (दे० भू० ) ( वर्तना) अवलोकित (सं० ह० ) अवहित्थ अवहित्थ अवहित्य (करण) ( उ० क० ) ( उ० क० ) (करण) (त्र्य० अं० ) ( आ० मं० ) असंयुत हस्त आ आकुञ्चित (करण) आकुञ्चित आकृष्टि (नृ० ह०) आकेकरा (करण) आक्षिप्त (करण) आक्षिप्त आकाशचारी आकाशमण्डल आक्षिप्त रेचित आक्षिप्त रेचित आक्षिप्ता आच्छुरित आदिकूर्मावतार आन्दोलित (चालन) आभुग्न (नृ० ह०) आयत ( वर्तना) आयत आलात (अ० ह० (दे० आ०) आलीढ ( आ० चा० ) आलीढ संक्षिप्त संकेत ( मु० द० ) (सं० ह०) ( स्त्री० स्था० ) (करण) ( वर्तना) ( स्त्री० स्था० ) (चालन) ( अ० ह० ) (आ० चा० ( फु० नो० ) (म० ब० ) ( सु० स्था० ) (क० क० ) (सं० दृ० ) (करण) (70 370) (करण) (त्रय ० अं० ) (आ० चा० ) ( च० अं० ) (करण) ( बाहु) ( वक्ष ) (अघर) ( स्त्री० स्था० ) ( आ० मं० ) ( प्र० स्था० ) ( च० अं० ) ४८५ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः शब्द आलोकित आवर्त आवर्त आवर्तिता आविद्ध आविद्धवक्र आविद्धवर्तना आविद्धा आवेष्टित आसीन आस्कन्दित आह्वान इन्द्रियाभिनय इष्ट संक्षिप्त संकेत शब्द (मु० द०) उत्तर (करण) उत्सन्दिता (भू० मं०) उत्सारित (जंधा) उदर (बाहु) उद्घट्टित (नृ० ह.) उद्घट्टित (वर्तना) उद्घट्टित (आ० च०) उद्वर्तित (ह० क०) उद्वाहि (मा० ला०) उद्वाहित (भू० मं०) उद्वाहित (क० क०) उवाहिता उवाहिता (इन्द्रिय) उद्वृत्त (भा० भा०) उद्वृत्त उद्वृत्त (मा० ला०) उद्वृत्त (अनिल) उद्वत्ता (उ० स्था०) उद्धृतान (दे० भू०) उद्वेष्टन (क० क०) उद्वेष्टित (5) उद्वेष्टित (पाणि) उन्नत (च० गु०) उन्नत (दे० आ०) उन्नता (मा० ला०) उन्नता (ह० पु०) उन्मत्त (नृ० ह०) उन्मेषित (उ० क०) उपविष्ट स्थानक संक्षिप्त संकेत (सं० ह.) (भू० चा०) (बाहु) (उदर) (पाद) (करण) (त्र्य० अं०) (उरु) (मुख) (वक्ष) (सु० स्था०) (कटि) (जंघा) (नृ० ह.) (अधर) (करण) (त्र्य० अं०) (आ० चा०) (पा० त०) (दे० आ०) (बाहु) (क० क०) (पाव) (जानु) (ग्रीवा) (रसना) (करण) (पलक) (भ० म०) उक्तप्रत्युक्त उच्छ्वास उत्कट उत्कञ्चिता उत्कृष्टि उत्क्षिप्ता उत्क्षिप्ता उत्क्षिप्ता उत्क्षेप उत्तमोत्तम उत्तान उत्तानवञ्चित उत्प्लुतिकरण ४८६ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द उपार उर उरः पाश्वर्धमण्डल उरभ्रसम्वाघ उरःस्थ वर्तना उरुद्वय उरुद्वृत्ता उरोंकण उरोमण्डल उरोमण्डल उल्लाल उल्लास उल्लासित उल्लोकित उल्वण उरुताडित उरुणी ऊ ऊरुद्वृत्त ऊर्णमाभ ऊर्ध्व ऊर्ध्वग ऊर्ध्वजानु ऊर्ध्वजानु ऊर्ध्वमण्डल ऊर्ध्वमुख ऊर्ध्ववर्तना ऊर्ध्वस्थ कलग ६२ पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द (दे० ला० ) ॠ (ह० क्षे० ) ऋऋज्वी (नृ० ह०) ए (चालन ) ( वर्तना) (ह० क्षे० ) (भू० चा० ) (दे० ला०) (नृ० ह० ) एकपार्श्वगत (करण) एकलाक्रीडित (दे० आ० ) (दे० ला०) ( मु० द० ) (नृ० ह०) (दे० भू० ) (दे० भ० ) एणप्लुत एलकाक्रीडित (अनिल) एलकाक्रीडित एकजानुनत एकपदकुट्टिता ( अ० ह०) ( ह० क्षे० ) एकपाद एकपादलोहडी एकपादाञ्चित ( ह० प्र०) ( आ० चा० ) कक्षवर्तनिका कटि कटिच्छिन्न कटिभ्रान्त (करण) कटिशीर्ष कटिसम कटीरेचक कण्ठरेचक (करण) (नृ० ह० ) ( ह० प्र०) ( वर्तना) ( बाहु) ( उ० क० ) क कपाल चूर्णन कपित्थ कपित्थ वर्तना कपोत कपोल कम्पित कम्पित संक्षिप्त संकेत (रसना) (दे० स्था० ) ( मु० चा० ) (दे० स्था० ) ( उ० क० ) ( उ० क० ) (दे० स्था० ) (भू० मं० ) ( उ० क० ) (भू० चा० ) (भू० चा० ) ( वर्तना) ( कटि) (करण) (करण) ( ह० क्षे० ) (करण ) ( रेचक ) ( रेचक ) ( उ० क० ) (अ० ह० ) ( वर्तना) (सं० ह० ) ( कपोल) (उरु) (अनिल) ४८७ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कम्पित कम्पित कम्पिता कम्पिता करकर्म करण कररेचितरत्न करस्पर्श कराँगुलि हस्त करिहस्त करिहस्ता करुणा कर्कट कर्णयुग्मप्रकीर्ण कर्तरीमुख कर्तरीमुख वर्तना कर्तरी लोहडी कर्तर्याञ्चित कलfवकविनोद कागूल कातरा कान्त कान्ता किन्तु कुञ्चन्मध्य कुञ्चन्मूला कुञ्चित कुञ्चित ४८८ नैस्याध्यायः संक्षिप्त संकेत शब्द (अधर) कुञ्चित (कपोल) कुञ्चित (जंघा ) ( कटि ) ( क० क० ) (करण) (चालन) ( उ० क० ) (क० गु० ) (नृ० ह० ) (करण) (दे० भू० ) ( २० ह० ) (सं० ह० ) (चालन ) . ( अ० ह० ) ( वर्तना) ( उ० क० ) ( उ० क० ) (चालन ) ( अ० ह० ) (दे० भू० ) ( आ० मं० ) ( र० ह० ) (दे० ला०) ( पा० त० ) ( क० म० ) (पाद) ( बाहु ) कुञ्चित कुञ्चित कुञ्चित कुञ्चिता कुञ्चिता कुञ्चिता कुट्टन कुण्डलिचारक कुलीरका क्रुद्धा कूर्मालग कूर्मासन केशबन्ध केशबन्धवर्तना कोमलका क्रमपादनिकुट्टिका क्रान्त क्रान्त क्रान्त क्रोध क्लिष्ठांगुष्ठ क्षाम क्षाम क्षाम क्षिप्ता क्षेत्राञ्चित क्षेप संक्षिप्त संकेत ( जानू ) ( पलक ) ( कपोल) (करण) (भ्रू) (ग्रीवा) (सं० दृ० ) ( चं० गु० ) (द० क० ) (चालन) (दे० भू० ) ( स्था० दृ० ) ( उ० क० ) (दे० स्था० ) (नृ० ह० ) ( वर्तना) (दे० ला०) ( मु० चा० ) ( उ० स्था० ) (करण) (आ० मं० ) ( भा० भा० ) ( गुल्फ) (उदर) (पृष्ठ) ( कपोल) (जंघा ) ( उ० क० ) ( क० क० ) Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका शब्द संक्षिप्त संकेत शब्द संक्षिप्त संकेत ख (पाद) (पाद) (वर्तना) (करण) खटकामुख खटकामुखवर्तना खटकावर्धन खड्गवर्तना खड्गकलास खण्डन खण्डसूचि खल्ल खल्ल खुत्ता (मु० चा०) गंगावतरण गज़क्रीडितक गजदन्त गण्डसूचि गतागत गतिमण्डल गन्धाभिनय गरुडपक्षक गरुडप्लुत गात्रवर्तना गारुड गीतवाद्यता (अ० ह.) घट्टित (वर्तना) घट्टितोत्सेध (हं० ह.) घातवर्तना (वर्तना) पूर्णित (ख० क०) च (द० क०) चक्रकुट्टनिका (दे० स्था०) चक्रमण्डल (उदर) चतुर (पृष्ठ) चतुर (दे० भू०) चतुरस्त्र चतुरस्र (करण) चतुरस्त्र अंगहार (करण) चतुरस्राख्यवर्तना (सं० ह०) चतुरा (करण) चतुर्थ (स्त्री० स्था०) चतुर्थ (अ० अं०) चतुर्थ (ह० भि०) चतुर्थ (नृ० ह०) चतुर्मुखलोहडी (करण) चतुष्कोणनिकुट्टिता . (वर्तना) चतुष्पत्राब्ज (दे० स्था०) चरणांगुलि (दे० ला०) चल (गुल्फ) चल (करण) चलन (द० क०) चलसंहत (ग्रोवा) चलित (सं० दृ०) चालका (अ० ह०) (करण) (दे० स्था०) (नृ० ह०) (च० अं०) (वर्तना) (भ्र) (ख० क०) (वि० क०) (ब० क०) (प्ल० क०) (उ० क०) (मु० चा०) (चालन) (च० गु०) (म. बं.) (अनिल) (ता० क०) (चिबुक) (चिबुक) (ह० सं०) गुल्फ गृध्रावलीनक ग्रहण ग्रीवा ४८९ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः संक्षिप्त संकेत (दे० ला०) शब्द चालि चालिवट चाषगत चाषगति चित्रपद चिबुक (क० क०) (दे० भू०) (करण) (नृ० ह०) (वर्तना) (करण) चुक्कित छिन्न छिन्न छिन्ना छेवा संक्षिप्त संकेत शब्द (दे० ला०) ढिलाई (दे० ला०) त (भू० म०) तर्जन (भू० चा०) तलदर्शिनी . (मा० ला०) तलपुष्पपुट (चिबुक) तलमुख (द० क०) तलमुखवर्तना तलविलासित (द० क०) तलसंघटित (करण) तलसंस्फोटित (कटि) तलोद्वृत्ता (क० क०) तायपक्षविनोद (दे० ला०) ताडन ताम्रचूड (जंधा) ताराकर्म (दे० आ०) तिरश्चीना (दे० आ०) तिर्यक (करण) तिर्थक्करण (भ. चा०) तिर्यक्कुञ्चिता (उ० क०) तिर्यक्ताण्डव (जानु) तिर्यस्वस्तिक (उ० स्था०) तिर्यगाञ्चित (सं० द०) तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्र (स्था० दृ०) तिर्यङमुखा तिरश्चीन (दे० आ०) तिरश्चीनकुट्टिता (मु० च०) तूक तृतीय (दे० ला०) तृतीय जंघा जंघालंघनिका जंघावर्ता जनित जनिता जलशयन जानु जानुगत जिह्वा जगप्सिता - (करण). (दे० भू०) (चालन) (क० क०) (अ० ह०) (ता० क०) (जंघा) (बाहु) (उ० क.) (दे० भू०) (चालन) (उ० क०) (उ० क०) (चालन) (दे० भू०) (पा० त०) (मु० चा०) (दे० ला०) (वि० क०) (ख० क०) डमरी डमरुकुट्टिता Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द तृतीय तृतीय तृतीय तोरणचालक तोलन त्र्यत्र अंगहार त्र्यस्रा वस्ता त्रिकलि त्रिकोणचारी त्रिकोणस्वस्तिक त्रिकूट त्रिपताक त्रिपातकवर्तना त्रिभंगीवर्ण सार श्रोटित थ थरहर थासक द पक्ष दण्डपक्ष दण्डपाद दण्डपाद दण्डपाद दण्डपादा दण्डपादा दण्डपादाञ्चित दण्डरेचित पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द ( ब० क० ) दण्डवर्तना ( प्ल० क० ) (हं० क० ) (चालन ) ( क० क० ) (अं० हा० ) ( ग्रीवा) (सं० दृ० ) (दे० ला०) ( मु० चा० ) (चालन) ( मा० ला०) ( अ० ह०) ( वर्तना) (नृ० ह०) (करण) ( आ० सं० ) दन्तकर्म दर्पशरण दष्ट दिक्स्वस्तिक दिग्वर्षाभिघचालन दीना दुःख दृप्ता देवोपहारक (चालन ) (पाद) दोल दोल (दे० ला०) दोलापाद (दे० ला०) दोलापादा द्विगूढ़ द्वितीय द्वितीय ( आ० मं० ) देशी आकाशचारी देशीकर देशी भौमचारी देशी लास्याँग देशी स्थानक द्वितीय (करण) द्वितीय द्वितीय ध (दे० आ०) ( आ० चा० ) (उ० क० ) (करण) धूनन धनुराकर्षण धनुर्पल्लविनाक संक्षिप्त संकेत ( वर्तना) (द० क० ) ( उ० क० ) (द० क० ) (करण) (चालन) ( स्था० दृ० ) ( भा० भा० ) ( स्था० दृ० ) (चालन) (दे० आ०) (दे० ला०) (दे० भौ० ) (दे० ला०) (दे० स्था० ) (सं० ह० ) (चालन ) (करण) ( आ० चा० ) ( मा० ला०) (हं० क० ) ( प्ल० क० ) ( ख० क० ) ( वि० क० ) ( ब० क० ) (चालन) (चालन) ( क० क० ) ४९१ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः संक्षिप्त संकेत (वक्ष) नत नत (ग्रीवा) - (करण) (करण) (अनिल) नत पृष्टक नता नता नता नन्द्यावर्त नमनिका नम्र नलिनी पद्मकोश नवरत्नमुख नागबन्ध नागबन्ध नागापसर्पित नाभि नासा निकुट्टक निकुट्टक निकुञ्च निकुञ्चित संक्षिप्त संकेत शब्द निर्भुग्न (पार्श्व) निवर्तित (जानु) निवृत्ता (सु० स्था०) निवेश (उ० क०) निम्भित (ग्रीवा) निःश्वास (जंघा) निषध (नासा) निष्कर्षण (दे० स्था०) निष्काम (दे० ला०) निःसृता __(बाहु) नीकी (नृ० ह०) निराश्रित (चालन) नूपुर (दे० स्था०) नूपुरपादिका (उ० क०) नूपुरविद्धिका __ (करण) नृत्त हस्त (ह० क्षे०) प __ (नासा) पंचम (दे० भू०) पक्ष प्रद्योतक __ (करण) पताकवर्तना (म० ब०) पतिता (करण) पतिता (क० क०) पतिता (दे० ला०) पतितान (नृ० ह०) पतितोत्थिता (करण) पदद्वयनिकुट्टा (वर्तना) पद्मकोश (पलक) पद्मवर्तना (अनिल) पराड्मुख (सं० ह.) (द० क०) (ता० क०) (जंघा) (दे० ला०) ' (चालन) (करण) (आ० च०). (दे० भू०) (नृ० ह.) (वि. क.) (नृ० ह.) (वर्तना) (5) (पाणि) (क० गु०) (पा० त०) (पाणि) (मु० चा०) निग्रह निजापन नितम्ब नितम्ब नितम्ब वर्तना निमेषित निरस्त (वर्तना) (ह० प्र०) ४९२ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका परावृत्त परावृत्त परावृत्ततला परावृत्ता परिग्रह परिच्छिन्न परिवर्तित परिवर्तिता परिवृत्त परिवृत्तरेचित पर्यस्तक पर्यायगजदन्तक पल्लव पल्लववर्तना पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता पश्चात्पुरःसरा पाणिरेचक संक्षिप्त संकेत शब्द (दे० स्था०) पार्श्वक्रान्त (त्र्य० अं०) पार्श्वक्षेपनिकुट्टिता (दे० भू०) पार्श्वग (जंघा) पार्श्वगत (क० क.) पार्श्वच्छेद (च० अ०) पार्श्वजानन (क० क०) पार्श्वद्वय (जंघा) पार्श्वद्वयचारी (करण) पार्वतल (य० अं०) पावनिकुट्टक (च० अं०) पार्श्वमण्डल (चालन) पार्श्वमुख (न० ह०) पावस्वस्तिक (वर्तना) पिष्टकुट्टक (मु० चा०) पिष्टनिकुट्ट (मु० चा०) पिहित (पा० रे०) पुट (ता० क०). पुरः (पाद) पुरःक्षेपनिकुट्टिता (पा० त०) पुरःक्षेपा (पा० रे०) पुर: पश्चात्सरा (मु० चा०) पुरस्तलुठिता (करण) पुराटिका (पाद) पुरुषस्थानक (दे० स्था०) पुरोदण्डभ्रमाख्य (दे० भू०) पुष्पपुटवर्तना (दे० स्था०) पुष्पमण्डिका (पर्व) पुष्पमुख (करण) पूर्ण संक्षिप्त संकेत (आ० चा०) (म० चा०) (पाद) (ह० प्र०) (च० अं०) (करण) (ह० क्षे०) (मु० चा०) (ह० प्र०) (करण) (नृ० ह०) (ह० प्र०) (च० अं०) (भु० मं०) (भू० मं०) (पलक) (पुट) (ह० क्षे०) (मु० चा०) (दे० आ०) (मु० चा०) (मु० चा०) (दे० भू०) (पु० स्था०) (चालन) (वर्तना) (मा० ला०) (सं० ह.) (उदर) ४९३ पात पाद पादतल पादरेचक पादस्थितिनिकुट्टिता पादापबिद्धक पाष्णिग पाणिपाश्वंग पाष्णिरेचिता पाणिविद्ध पाव पार्श्वक्रान्त Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः शब्द संक्षिप्त संकेत (पलक) (अनिल) (क० गु०) (दे० आ०) (करण) (स्त्री० स्था०) (प्ल० क०) ' (कपोल) संक्षिप्त संकेत शब्द (पृष्ठ) प्रसृत (कपोल) प्रसृत (पृष्ठ) प्रसृता (मु० चा०) प्रावृत (करण) प्रेङखोलित (बाहु) प्रोन्नत (दे० आ०) प्लवकलास (दे० स्था०) फ (वक्ष) फुल्ल (मा० ला०) ब (वर्तना) बककलास (ता० क०) बद्धा (प्र० भू०) बलित वर्तना (प्र० स्था०) बलिबन्धाञ्चित (वि. क०) बहिर्गत (ख० क०) बहिर्गता (ब० क०) बाहु (प्ल० क०) बाहुबन्धलोहडी (हं० क०) ब्राह्मण (मु० चा०) म (मु० द०) भय (अनिल) भयानका (ता० क०) भयान्विता (मु० रा०) भाल वर्तना (पाव) भाव (बाहु) भावाभिनय (स० स्था०) भुग्न (च० गु०) भुजंगवासित (करण) भुजंगत्रासिता पृष्ठलुठित पृष्ठस्वस्तिक पृष्ठानुसारी पृष्ठोत्क्षेप पृष्ठोत्तानतल प्रकम्पित प्रच्छेदक प्रतिवर्तना प्राकृत प्रत्यकभूषण प्रत्यालीढ़ प्रथम प्रथम प्रथम प्रथम प्रथम प्रतिलोमानुलोमका प्रविलोकित प्रवृद्ध प्रवेशन प्रसन्न प्रसारित प्रसारित प्रसारित प्रसारिता प्रसर्पित (ब० क०) (भू० चा०) (वर्तना) (उ० क०) (गुल्फ) (जंघा) (बाहु) (उ० क०) (दे० स्था०) (भ० भा०) (र० दृ०) (स्था० दृ०) (वर्तना) (दे० ला०) (भा० न०) (मुख) (करण) (आ० चा०) ४९४ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त संकेत भुजंगत्रस्तरेचित भुजंगाञ्चित भूमिलग्न भेद भैरवाञ्चित भौमचारी भौममण्डल भ्रमण म्रमर भामर ग्रमर म्रमर भ्रमित ग्रान्त म्रान्तपादाञ्चित भ्रामरी म्र कुटी पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द (करण) मत्तल्लि (करण) मत्तल्ली (पा० त०) मत्तस्खलित (ता० क०) मत्स्यकरण (उ० क०) मदविलासित (भू० चा०) मदस्खलितक (भू० म०) मदालस (ता. क.) मदालसा (अ० ह०) मदिरा (भू० मं०) मध्य (करण) मध्यचक्रा (च० अं०) मध्यलुठिता (म० ब०) मध्यस्थापनकुट्टा (अनिल) मन (उ० क०) मन्दा (आ० चा०) मयूरललित. (भू० चा०) (त्र्य० अं०) (उ० क०) (च० अं०) (करण) (उ० स्था०) (दे० भू०) (सं० १०) (भा० भि०) (मु० चा०) (मु० चा०) (मु० चा०) (दे० ला.) (नासा) (करण) (दे० भू०) (अनिल) (पाद) (सं० १०) (दे० ला०) (मा० ला०) मराला (चालन) मकर मकर वर्तना मणिबन्ध मणिबन्धगतागत मणिबन्धासिकर्षाख्य मण्डल मण्डलगति मण्डलस्वस्तिक मण्डलाम मण्डलाभरण मत्तभीड मरुदान्दोलित (सं० ह०) मर्दित (वर्तना) मलिन (म० बं०) मसृणता (चालन) मार्गलास्य (चालन) मिथोंसवीक्षावाह्य (प्र० स्था०) मिथोयुक्त (बाहु) मिथोयुक्ता (करण) मुकुल (चालन) मुकुला (चालन) मुक्तजानु (च० अं०) मुख (मुल्फ) (पाणे) (अ० ह०) (सं० दृ०) (उ० स्वा०) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्याध्यायः संक्षिप्त संकेत (वर्तना) मुखदर्शन मुखरस मुखराग मुडुपचारी मुरजकर्तरी मुरजाडम्बर (कटि) (ग्रीवा) (करण) (र० दृ०) मुष्टि मुष्टिक स्वस्तिक मष्टिवर्तना मृगकलास मृगप्लुता मोक्षण मोटन मोटित मौलिरेचितक संक्षिप्त संकेत शब्द (मु० द०) रेचित वर्तना (दे० ला०) रेचिता (मु० रा०) रेचिता (मु० चा०) रेचिता (चालन) रेचितनिकुट्टक (चालन) रौद्री (अ० ह०) ल (न. ह.) लंकादाहाञ्चित (मु० व०) लंधित (म० क०) लंधितजंघा (आ० चा०) लज्जिता (क० क०) लताकर (क० क०) लताक्षेप (स्त्री० स्था०) लतावृश्चिक (चालन) लतावेष्टित लय (मु० रा०) ललाट (क० क०) ललाटतिलक (दे० भू०) ललित (चालन) ललित (र० दृ०) ललित (रसना) ललितवर्तना. (इं० भि०) ललितसंचर (पृष्ठ) ललिता (उदर) लहरीचक्रसुन्दर (इं० भि०) लीन (नृ० ह.) लेटि __(अधर) लोहनी (अ० अं०) लोल रक्त रक्षण रथचक्रा रथनेमिसम रस दृष्टि (उ० क०) (दे० ला०) . (दे० भू०) (सं० दृ०) (नृ० ह.) (दे० भू०). (करण) (चाल ) (दे० ला०) (ह० क्षे०) (करण) (नृ० ह०) (करण) (आ० मं०) (वर्तना) (आ० मं०) (सं० दृ०) (चालन) (करण) (दे० ला०) (रसना) (चिबुक) रसना रसाभिनय रिक्तपूर्ण रिक्तपूर्ण रूपाभिनय रेचित रेचित रेचित ४९६ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोला लोलित लोहडी लोहड्याञ्चित वक्र वक्रटिटता वक्रा वक्रा वक्ष वक्षः स्वस्तिक वर्तनाभरण वर्तनास्वस्तिक वर्तित वर्धमान वर्धमान वलन वलित पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द (रसना) विकूणिता (करण) विकृष्टि (उ० क०) विकृष्टा (उ० क०) विकोशा विक्षिप्त (चिबुक) विक्षिप्ताक्षिप्तक (मु० चा०) विक्षेपा (क० गु०) विचित्र (रसना) विचित्रलोहडी (वक्ष) विच्यवा (करण) वितड (चालन) वितर्किता (चालन) वितालित (करण) विद्युत्कलास (सं० ह.) विद्युम्रान्तक्रिय (दे० स्था०) विद्युभ्रान्ता (ता. क०) विद्युभ्रान्ता (न० ह.) विद्युम्रान्ता (उरु) विद्धा (स्त्री० स्था०) विधुत (करण) विनिगहित (करण) विनिवर्तित (ग्रीवा) विनिवृत्त (क० गु०) विनिवृत्त (पाणि) विप्रकीर्ण (चालन) विप्रकीर्णवर्तना (आ० मं०) विप्लुता (चालन) विभ्रान्ता (अधर) विमुक्त संक्षिप्त संकेत (नासा) (क० क०) (नासा) (सं० दृ०) (करण) (करण) (दे० आ०) (आ० म०) (उ० क.) (भू० चा०) (दे० ला.) (सं० दृ०) (पलक) (वि० क०) (करण) (चा० लं.) (आ० चा०) (दे० आ०) (दे० आ०) (मुख) (अधर) (स्त्री० स्था०) (करण) (मुख) - वलित वलित वलितोर .. .. बल्लित वलिता वलिता वहिर्गता वामदक्षतिरश्चीन वामविद्ध वालव्यसनचालन विकासी (वर्तना) (सं० दृ०) (सं० दृ०) (अनिल) ४९७ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्याध्यायः विमुक्तक वियुक्त वियुक्ता वियुक्ता विरुडितबन्धन विलीन विलोकित विवर्तन विवर्तन विवर्तित वितित विवर्तित विवर्तित विवर्तित विवृत संक्षिप्त संकेत शब्द (उ० स्था०) विसर्जन (गुल्फ) विसृष्ट (पाणि) विस्मित (क० गु०) विस्मिता (चालन) विहसी (अनिल) विहृत (मु० द०) वोभत्सा (ता. क०) वीरा (दे० ला०) वृश्चिक (पार्व) वृश्चिककुट्टित (पलक) वृश्चिक रेचित (अवर) वृश्चिकापसृत (सु० स्था०) वृषभक्रीडित (करण) वृषभासन (मुख) वेष्टन (जानु) वेपथुव्यञ्जक (करण) वैभाविक (कटि) वैशाखरेचित (सं० १०) वैशाखरेचित (दे० स्था०) वैशाखस्थानक . (उ० स्था०) वैष्णव (करण) वैष्णव (त्र्य० अं०) व्यंसित (त्र्य० अं०) व्यभिचारिदृष्टि (करण) व्यादीर्ण (चालन) व्याभुग्न (दे० भू०) व्यावर्तित (क० क०) व्यस्तोप्लुतिनिवर्तक (चालन) संक्षिप्त संकेत (क० क.) (अधर) (अनिल) (स्था० दृ०) (दे० ला.) (आ० मं.) (र० दृ०) (र० दृ०) (करण) (करण) (करण) (य० अं०) (करण) (दे० स्था०) । (दे० आ०) (चालन) (मा० ला०) (करण) (च० अं०) (प्र० स्था०) (पु० स्था०) (दे० स्था०) विवृत विवृत विवृत्ता विषण्णा विषमसूचि विष्कम्भ विष्कम्भ विष्कम्भ विष्कम्भापसृत विष्णुकान्त विश्लिष्टवर्तित विश्लिष्टा विश्लेष विश्रृंगाटकवन्ध (व्य० दृ०) (चिबुक) (मुख) (क० क०) (चालन) Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शंका शंकिता शकटास्य शकटास्य शकटास्या शब्द शब्दाभिनय शरसन्धान शुकतुण्ड शुकतुण्डवर्तना शून्या शिखर शिखरवर्तना शिर संक्षिप्त संकेत (अधर) (करण) (त्र्य० अं०) (करण) (ह० पु०) (ह. पु०) (चालन) (च० गु०) (जानु) (चिबुक) (दे० स्था०) (क० गु०) (वक्ष) पारिभाषिक सम्बानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द सन्दंष्टक (दे० ला०) संभ्रान्त (सं० दृ०) संम्रान्त (भू० मं०) संमत (करण) संमुख (भू० चा०) संमुखागत (भा० भा०) संमुखीन (इं० भि०) संलग्ना (चालन) संहत (अ० ह०) संहत (वर्तना) संहत (सं० दृ०) संहता (अ० ह.) सम (वर्तना) (ह० क्षे०) सम (ह० क्षे०) सम (मा० ला०) सम (दे० स्था०) सम (म० रा०) सम (ह. क्षे०) सम (सं० दृ०) सम (क० क०) सम (चिबुक) समकर्तरिलोहडी समकर्तचत (वि० क०) समनख समपाद (दे० भू०) समपाद (दे० भू०) समपादा (अ० ह.) समपादाञ्चित (पाद) शीर्ष शेषपद श्याम श्रवण . श्रान्ता श्लेष श्वसित (जानु) (म० बं०) (पलक) (मु० द०) (अनिल) (द० क०) (कपाल) (सु० स्था०) (उ० क०) (उ० क०) (करण) (पु० स्था०) (दे० स्था०) (भू० चा०) (उ० क०) ४९९ षष्ठ संघट्टिता संचारिता सन्देश Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द समपादनिकुट्टित समप्रकोष्ठचलन समसूचि समस्खलतिका समा समुद्गक समुद्वृत्त समोत्सारित समोत्सारितमत्तल्ली सरल सर्पित सहजा साचि साधारण सारिका सिंहाकर्षित सिंहविक्रीडित सीत्कृत सुकलास सुप्तस्थानक सृक्कागुना सूचि सूची सूची सूची सूचीमुख सूचीमुखवर्तना सूचीबद्ध सूचीविद्ध ५०० नृत्याध्यायः संक्षिप्त संकेत ( मु० चा० ) (चालन) (दे० स्था० ) (दे० भू० ) सूत्कृत (ग्रीवा) सैन्धव ( अघर ) ( ता० क० ) (भू० मं० ) (भू० चा० ) ( बाहु ) (करण) स्खलित (x) स्खलित ( मु० द०) स्तब्ध (चालन ) (दे० भू० (दे० ला०) शब्द सूचीविद्ध सूच्यन्तर सूच्यास्य स्तम्भक्रीडनिक स्तम्भित (करण) स्त्रीस्थानक (करण) स्थापना (अनिल) स्थायिदृष्टि स्थितपाठ्य ( सु० स्था० ) सोच्छ्वासा सौष्ठव स्कन्ध स्कन्धभ्रान्त स्कन्वाञ्चित स्थितावर्ता (रसना) स्थिरहस्त ( च० अं० ) (करण) स्निग्धा (पाद) स्पन्दिता ( आ० चा० ) (दे० आ० ) ( अ० ह० ) ( वर्तना) स्फुरित (करण) स्फुरिता स्फोटन स्पर्शाभिनय स्फुरिका स्फुरित संक्षिप्त संकेत ( आ० मं० ) ( उ० क० ) (नृ० ह०) (अनिल) ( मा० ला० ) (नासा) (दे० ला०) (ह० क्षे० ) ( उ० क० ) ( उ० क० ) (अनिल) (करण) (उरु) (दे० भू० ) (अनिल) ( स्त्री० : स्था० ) (दे० ला०) ( स्था० दृ० ) ( मा० ला० ) (भू० चा० ) ( च० अं० ) ( स्था० दृ० ) ( भू० चा० ) (हं० भि० ) (दे० भू० ) ( पलक ) ( चिबुक) (दे० भू० ) ( क० क० ) Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द स्रुवा स्वसंमुखतल स्वस्तिक स्वस्तिक स्वस्तिक स्वस्तिक स्वस्तिक स्वस्तिक रेचित स्वस्तिक रेचित स्वस्तिकवर्तना स्वस्तिका स्वस्तिकाश्लेष स्वस्थ स्वस्थ स्वस्थालसा पारिभाषिक शब्दानुक्रमणिका संक्षिप्त संकेत शब्द (दे० ला०) ( ह० प्र० ) (सं० ह० ) (नृ० ह० ) (बाहु ) (दे० स्था० ) (त्र्य० अं० ) ( वर्तना) (दे० भू० ) स्वाभाविक स्वाभाविकी हरिणत्रासिता हरिणप्लुत (करण) हरिणप्लुता (करण) हर्ष ह हंसास्य (उ० स्था० ) ( उ० स्था० ) हस्तकरण हस्तक्षेत्र हस्तप्रचार (चालन) हारदामविलासक (अनिल) हास्या हृष्टा संक्षिप्त संकेत ( मु० रा० ) (नासा) ( अ० ह० ) (दे० भू० ) (करण) (दे० आ० ) ( भा० भा० ) ( ह० क० ) (ह० क्षे० ) ( ह० प्र० ) (चालन) (र० दृ० ) ( स्था० दृ० ) Page #514 -------------------------------------------------------------------------- _