SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लास्यांग प्रकरण जहाँ कान्तों का गीत, वाद्य तथा नृत्य विचित्र हो और कायिक ( आंगिक), वाचिक एवं मानसिक (आहार्यं ) चेष्टाओं से शून्य हो, वहाँ पुष्पमडिका लास्यांग होता है । ५. प्रच्छेदक यत्राङ्गनाः परित्यक्तलज्जाश्चन्द्रातितापिताः । कृतापराधकान् यान्ति प्रियान् प्रच्छेदकस्तु सः ॥ १४६७॥ जहाँ चन्द्रमा से अत्यन्त तप्त रमणियाँ लज्जा का परित्याग करके अपराधी प्रियतमों के पास जाती हैं, वहाँ प्रच्छेदक लास्यांग होता है । यथा सखि स्फुरति यामिनी शशिनमुन्नयांशुभिर् ज्वलद्भिरिव मामयं स्पृशति मानमुन्मूलयन् । प्रतो विगतलज्जया सुरतसंग रे सज्जया । मयापि विदितागसं प्रियमुपासितुं गम्यते ॥ १४६८ ॥ 1597 1598 चित्रार्थं श्लेषभावाढ्यं मुखप्रतिमुखान्वितम् । यद्वाक्यं तद् द्वि[मू]ढाख्यं लास्याङ्गं कथितं बुधैः । १५००॥ 1599 जैसे; हे सखी ! रात्रि चन्द्रमा को उठाकर चमक रही है और यह चन्द्रमा मानों अपनी जाज्वल्यमान किरणों मेरे मान का उन्मूलन करते हुए मुझे छू रहा है। इसलिए मैं निर्लज्ज होक रतियुद्ध की तैयारी करके अपराधी प्रियतम के पास जा रही हूँ । ६. शेषपद तताद्यनुगता गाननिष्णाता यत्र गायकाः । गायन्ति सुखसंस्थानास्तच्छेषपदमीरितम् ॥१४६॥ ( वीणा, सारंगी आदि ) वांद्यों का अनुगमन करने वाले गानविद्या में निष्णात गायक जहाँ सुख से बैठकर गाते हैं वहाँ शेषपद लास्यांग होता है । ७. द्विमूढ 1600 1601 विचित्र अर्थों वाला, श्लेषालंकार से युक्त और मुख एवं प्रतिमुख संधियों से युक्त जो वाक्य होता है, उसे बुधजन द्विमूद लास्यांग कहते हैं । ३७९
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy