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________________ नत्याध्यायः यथाअङ्करितां मम हृदये प्रेमलता रमणजलधरो मुदितः। 1602 सिञ्चति जीवनस्वनैरिह वचनैरुन्नति नेतुम् ॥१५०१॥ जैसे; मेरे हृदय में अंकुरित हुई प्रेम रूपी लता को बढ़ाने के लिए प्रियतम रूपी बादल वचन रूपी जलधारा से सींच रहा है। ८. त्रिमूढ रम्यवर्णनिबद्ध यद् बहुभावसमन्वितम् । 1603 अलङ्कृतं तुल्यवृत्तं [वाक्यं तत् स्यात् त्रिमूढकम् ॥१५०२॥ जो रमणीय अक्षरों में निबद्ध हो; अनेक भावों से युक्त हो; अलंकार से पूर्ण हो; और समान वृत्त' वाला हो, उसे त्रिमूढ लास्यांग कहते हैं। यथाभयहर्षरोषरोदनवद [न]-सम्भेदनानि कुर्वाणौ। 1604 स्मरसङ्गरसङ्गमितौ जितमिति नौ मन्मथो हसति ॥१५०३॥ भय, हर्ष, क्रोध, रुदन, कथन और संभेदनये सब करते हुए तथा रतियुद्ध में लगे हुए हम दोनों को जीत लियायह कहकर कन्दर्प हँस रहा है। कुचोन्नमनचातुरीचलितकञ्चुकीबन्धया , 1605 कपोलपुलकावलीकलितयाऽऽयतापाङ्गया । विमोहनविवर्तनविदितसङ्गन्या संगमे 1606 त्वयाभिलषिते कथं सुमुखि मानमालम्बसे ॥१५०४॥ हे सुमुखी ! कुचों को उत्तुंग बनाने की चतुरता से चोली पहनने वाली कपोलों पर रोमांच से युक्त लम्बी तिरछी चितवन वाली और ज्ञात सहवास वाली तुम मोहक हाव-भावों द्वारा मेरे सहवास की इच्छा प्रकट करके मान सयुक्त लम्बी तिरछी माहक हाव-भावों द्वारा मेरे अवलम्बन क्यों कर रही ९. वैभाविक प्रियं स्वप्ने समालोक्य पञ्चबाणनिपीडिता। 1607 विचित्रान् रचयेद् भावान् यदा वैभाविकं तदा ॥१५०५॥ जब नायिका स्वप्न में प्रियतम को देखकर कामबाण से पीड़ित होती हुई अनेक प्रकार के भावों की रचना करे, तब वभाविक लास्यांग होता है । ३८०
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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