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________________ लास्यांग प्रकरण यथा कर्ण नैशिकं सखि मया कान्तश्चिरं प्रोषितो निद्रामुद्रितनेत्रापि शयने साक्षादिवावेक्षितः । मायासङ्गमभङ्गभीरुतरये वोन्मज्ज्य लज्जाजलात् कण्ठग्राहमनिन्दितः परिवृतः प्रोल्लासितो मोदितः ॥ १५०६ । । 1008 1609 जैसे; हे सखी ! अब रात का वृत्तान्त सुनों ! चिरकाल से परदेश गये हुए प्रियतम को, निद्रा से मुंदी हुई आँखें होने पर भी, मैंने पलंग पर साक्षात् की तरह देखा । तब मानों ऐन्द्रजालिक संगम के नष्ट होने से अत्यन्त डरी हुई मैंने लज्जा रूपी जल से निकलकर प्रियतम के गले से लिपटकर घेर लिया और खूब आमोद-प्रमोद किया । १०. चित्रपद यत्र चित्रकृतं कान्तं कान्ता कामकृतव्यथा । दृष्ट्वा खिद्यति चेदुक्तमिदं चित्रपदं तदा ।। १५०७ ॥ जहाँ चित्र में नायक को देखकर नायिका कामपीड़ा से खिन्न हो जाती है, वहाँ चित्रपद लास्यांग होता है । सरोषस्य साधिक्षेपपदं 1610 यथा कान्तं चित्रपटे विलिख्य विदधे यावत् तयालापनम् लब्धो जीवनवासरैः कतीपयैस्त्यक्ष्यामि न त्वामिति । तावन् मज्जदनल्पबाष्प सलिले सम्भिन्नभिन्नाक्षरम् खेदस्वेदकपाटको टिघटितं कण्ठे विशीर्णं वचः ।। १५०८ ॥ जैसे; चित्रपट पर प्रियतम को लिखकर जब तक नायिका यह कहने लगी कि मिलने पर तुम्हें जीवन के कतिपय दिनों तक नहीं छोडूंगी, तब तक अत्यधिक अश्रुजल में डूब जाने से छिन्न-भिन्न अक्षरों वाला तथा खेद के कारण बहने वाले पसीने-रूपी किवाड़ों के सिरे से टकराया हुआ वचन कण्ठ में ही विगलित हो गया । ११. उक्तप्रत्युक्त प्रसादकं यदा । नानार्थगीतसहितमुक्तप्रत्युक्तकं तदा ॥ १५० ॥ जब क्रुद्ध व्यक्ति को प्रसन्न करने वाला आक्षेपयुक्त तथा अनेक अर्थों सहित वचन प्रयुक्त होता है, तब उक्त प्रत्युक्त लास्यांग होता है । 1611 1612 1613 ३८१
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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