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________________ नृत्याध्यायः 1614 यथाप्राप्तो वसन्तसमयः समयानभिज्ञ रोषं परित्यज भजस्वमयि प्रसादम् । उत्तुङ्गपीवरपयोधरभूरिभारा 1615 माराधितोऽपि नहि रक्षितुमीहसे माम् ॥१५१०॥ हे समय से अनभिज्ञ कान्त ! वसन्तकाल आ गया है । (इसलिए) रोष का परित्याग करो। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। क्या, मनाये जाने पर भी, तुम उन्नत तथा स्यूल कुचों वाली मुझको (अपना) नहीं रखना चाहते हो? १२. उत्तमोत्तम युक्तं चित्ररसर्वाक्यं चित्र वैश्च मञ्जुलम् ।। 1616 तथाभिनयनैर्युक्तमुत्तमोत्तमकं मतम् ॥१५११॥ विभिन्न प्रकार के रसों तथा भावों से युक्त, सुन्दर तथा अनेक प्रकार के अभिनयों से युक्त वाक्य उत्तमोतम लास्यांग कहलाता है। यथासहर्षमवलोकनं विहितभीतमालिङ्गनम् 1617 सरोषमपि भाषणं सजललोचनं रोदनम् । इति प्रथमसंगमे चतुरचित्तचेतोहरो 1618 विचित्ररससङ्करो जयति कोऽपि वामभ्रवः ॥१५१२॥ जैसे ; हर्षपूर्वक देखना, भयपूर्वक आलिंगन करना, क्रोधपूर्वक बोलना और सजलनेत्रपूर्वक रोना--यह ललना के प्रथम सहवास में चतुर व्यक्ति के चित्त को हरने वाला अनेक रसों का सम्मिश्रण विलक्षण होता है । देशी लास्यांगों का निरूपण (२) देशी लास्यांगों के भेद चालिश्चालिवटस्तूकं मनो लेढिरुरोङ्कणम् । 1619 ढिल्लाई त्रिकलिः किन्तु देशीकारं निजापनम् ॥१५१३॥ उल्लासस्थसको भावः सुकलासं लयस्तथा । 1620 ढालश्छेवाङ्गहारश्च लवितं विहसी तथा ॥१५१४॥ ३८२
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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