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________________ नृत्याध्यायः भरत मनि के मतानुसार मंचारी भावों या व्यभिचारी भावों से उत्पन्न दृष्टि के बीस भेदों के नाम इस प्रकार हैं : १. शून्या, २. मलिना, ३. श्रान्ता, ४. लज्जिता, ५. ग्लाना, ६. शंकिता, ७. विषण्णा, ८. मुकुला, ९. कुञ्चिता, १०. अभितप्ता, ११. जिह्मा, १२. ललिता, १३. विकिता, १४. अर्धमुकुला, १५. आकेकरा, १६. विभ्रान्ता, १७. विलुप्ता, १८. त्रस्ता, १९. विकोशा और २०. मदिरा । दृष्टयो मिलिताः सर्वा षट्त्रिंशत् परिकीर्तिताः । इस प्रकार दृष्टियों के सभी भेदों को मिलाकर कुल छत्तीस दृष्टियाँ होती हैं । आठ रसजा दृष्टियाँ (१) १. कान्ता या दृश्यमापिबन्तीव भृशं स्वच्छा विकाशिनी ॥४३१॥ 432 . सभ्र क्षेपकाटाक्षा सा कान्तानङ्गविवर्धिनी । यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्तनम् । 433 तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते ॥४३२॥ जो दृष्टि मानो दृश्य पदार्थ को पी रही हो, अन्यन्त स्वच्छ एवं विकसित हो, म भंग (टेढ़ी भवों वाली) तथा कटाक्ष से युक्त हो और कामोत्पादक (या कामिनियों के शरीर की शोभा का उत्कर्ष बताने वाली) हो, हो, वह कान्ता कहलाती है। २. हास्या और उसका विनियोग या कुश्चितपुटा तीवमध्यमन्दतया क्रमात् । 434 मनागभ्यन्तराविष्टा चित्रभ्रान्तकनीनिका । हास्या दृष्टिरसावुक्ता सद्भिविस्मापने मता ॥४३३॥ 435 यदि सिकुड़ी हुई पलकों वाली दृष्टि क्रमशः तीव्र, मध्य और मन्द गति से कुछ भीतर की ओर चली जाय और पूतलियां आश्चर्यजनक रूप में घमती हों, तो वह हास्या कहलाती है। नाट्याचार्यों के मत से आश्चर्यचकित करने वाले भावों के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ३. करुणा और उसका विनियोग या स्रस्तोर्ध्वपुटा सास्रा नासिकानानुगामिनी । शोकमन्थरतारा सा करुणा करुणे मता ॥४३४॥ 436 १४४
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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