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________________ नत्याध्यायः ४५. अंसपर्यायनिर्गत बध्वा तु स्वस्तिकं पूर्व कलाससमये यदा । निर्गतावंसदेशाच्च पर्यायात् कटिदेशगौ ।। 851 करौ यत्र तदोक्तं तदंसपर्यायनिर्गतम् ॥८४२॥ जब कलास नामक बाजा के बजने के समय दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में बाँधकर कन्धे के प्रदेश से निकाल कर बारी-बारी से कमर के प्रदेश में पहुंचा दिया जाता है, तब उसे अंसपर्यायनिर्गत चालन कहते हैं । ४६. स्वस्तिकत्रिकोण विधाय स्वस्तिको पाश्चादाकुञ्च्य पुनरूर्ध्वगौ । 852 वामांसक्षेत्रपर्यन्तं करौ यदि गतौ तदा । तत् स्वस्तिकत्रिकोणाख्यमवदन् पूर्वसूरयः ॥८४३॥ 853 जब दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाकर पश्चात् सिकोड़ कर पूनः कन्धे के क्षेत्र तक ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है, तब पूर्वाचार्यों ने उसे स्वस्तिकत्रिकोण चालन कहा है ।। ४७. रयनेमिसम आदिमध्यावसानेषु दधतौ स्वस्तिकाकृती। रथचक्रकृती तिर्यगेकदा क्रमतोऽथवा । हस्तौ विलुठितौ यत्र रथनेमिसमं विदुः ॥८४४॥ जब दोनों हाथ आदि, मध्य और अवसान में एक साथ या क्रमशः स्वस्तिक का आकार तथा रथ के पहिए का आकार धारण करके लोटते हैं, तब उसे रयनेमिसम चालन कहते हैं । ४८. लतावेष्टित अन्तर्बहिः करावं वलित्वोद्वेष्टितौ यदि । 855 पार्श्वयोः क्रमतस्तत्र तिर्यग् लुठति चैकके । लुठितोऽन्यः करो यत्र तल्लतावेष्टितं तदा ॥४५॥ 856 जब दोनों हाथ भीतर, बाहर तथा ऊपर वक्र गति से जाकर चारों ओर से घिर जायें और दोनों पावों में दोनों हाथ लोटने लगें, तो उसे लतावेष्टित चालन कहते हैं। 854
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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