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________________ चालन प्रकरण ४१. मण्डलाभरण अभ्यन्तरप्रवेशेन परिभ्राम्य तु चक्रवत् । पश्चाद् विलोड्य दोलावत् क्रियया पार्श्वयोर्यदा । 845 प्रातिलोम्येन यद्वेदं मण्डलाकरणं तदा ॥३६॥ जब दोनों हाथ भीतर प्रवेश के साथ चक्र की तरह घूमकर दोनों पाश्वों में डोले की तरह झूलें अथवा विपरीत भाव से उक्त क्रियाएँ हों, तो उसे मण्डलाभरण चालन कहते हैं । ४२. अष्टबन्धविहार बामदक्षिणपाश्चात्य [] रोदेशेषु सर्वतः । 848 मण्डलस्वस्तिको यात्वा क्रमेण सविलासको ॥३७॥ दिशास्वष्टासु चेद्धस्तौ लुठितौ यत्र तत्तदा । 847 अष्टबन्धविहाराख्यमादिष्टं नृत्तकोविदः ॥८३८॥ जब मण्डल और स्वस्तिक का आकार धारण किये हुए दोनों हाथ क्रमशः विलासपूर्वक बायें, दायें, पीछे और आगे सब ओर आठों दिशाओं में जाकर लोटते हैं, तब नृत्य के विद्वानों ने उसे अष्टबन्धविहार चालन कहा है। ४३. शरसन्धानक पराङ्मुखे . लुठत्येककरे सति विलासतः। 848 परः करो मूर्धदेशपर्यन्तं चेद् गतागतः ॥३६॥ पुनस्तन्मुख एव स्याच्छरसन्धानकं तदा ॥८४०॥ 849 जब एक हाथ पराङ्मुख होकर हाव-भाव के साथ लोटता है और दूसरा हाथ सिर तक जाता-आता हुआ पुनः उसी के सम्मुख रहता है, तब उसे शरसन्धानक चालन कहते हैं। ४४. पर्यायगजवन्तक . लुठत्येककरो तिर्यगथान्यस्तु प्रसारितः । पर्यायाद् यत्र तत् प्रोक्तं पर्यायगजदन्तकम् ॥८४१॥ 850 जहाँ बारी-बारी से एक हाथ तिरछा होकर लोटता है और दूसरा फैलता है, वहाँ उसे पर्यायगजवन्तक चालन कहते हैं ।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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