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________________ ४. मण्डलस्वस्तिक और उसका विनियोग साधं [T] विच्यवां कृत्वा चतुरस्रौ करौ ततः । 1168 उद्वेष्टितक्रियापूर्वमूर्ध्वमण्डलिहस्तकौ ॥११४८॥ प्रयुज्य स्वस्तिकौ यत्र कुर्यात् स्थाने तु मण्डलम् । 1167 मण्डलस्वस्तिकमिदम्यदि विच्यवा नामक चारी तथा चतुरस्र दोनों हस्तों की रचना करके चारों ओर घेरने की प्रक्रिया के साथ ऊर्ध्वमण्डल स्थिति में हाथों को प्रयुक्त किया जाय; और तदनन्तर दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में और मण्डल नामक स्थान की रचना की जाय; तो उसे मण्डलस्वस्तिक करण कहते हैं। ' -प्रसिद्धार्थनिरीक्षणे ॥११४६॥ किसी प्रसिद्ध वस्तु के निरीक्षण के अभिनय में मण्डलस्वस्तिक करण का विनियोग होता है। ५. लीन और उसका विनियोग ऊर्ध्वमण्डलिनौ पाणी विधायोरस्स्थितोऽञ्जलिः । 1168 यदा निकुश्चितं स्कन्धयुगं ग्रीवा नता भवेत् । तदा लोनम्यदि ऊर्ध्वमण्डलिन नामक दोनों हाथों की रचना करके हथेलियों से अंजलि बनाकर, दोनों कन्धों को निकचित और नता ग्रीवा का निर्माण किया जाय; तो वह लीन करण होता है। -वल्लभायाः प्रार्थनायां नियुज्यते ॥११५०॥ 1169 प्रेयसी से अनुनय-विनय करने के अभिनय में लीन करण का विनियोग होता है। ६. उन्मत्त और उसका विनियोग यत्र विद्धाभिधा चारी चरणस्त्वञ्चिताभिधः । क्रमेण रेचितो हस्तस्तदुन्मत्तमुदीरितम् । 1170 जहाँ विद्धा नामक चारी, अंचित नामक चरण और रेचित नामक हस्त की क्रमश: रचना की जाय, वहाँ उन्मत्त करण होता है । सौभाग्यादिसमुद्भते गर्वे स्त्रीणामिदं मतम् ॥११५१॥ स्त्रियों के सौभाग्य आदि से उत्पन्न गर्व के अभिनय में उन्मत्त करण का विनियोग किया जाता है। २९६
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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