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________________ 1171 ७. वलितोर और उसका विनियोग कृत्वोरसि समं पाणी व्यावृत्तपरिवर्तितौ । सहाक्षिप्ताख्यया चार्या यत्रोरौ परिवृत्तितः ॥११५२॥ पानीय शुकतुण्डाख्यौ क्रियेतेऽधोमुखौ करौ। 1172 बद्धया स्थितिरेवं चेत् स्यात्तदा वलितोरु तत् । यदि वक्षस्थल पर दोनों हाथों को एक साथ व्यावृत्त तथा परिवृत्त बनाया जाय और आक्षिप्ता नामक चारी के साथ परिवर्तन द्वारा ऊरु पर लाकर शुकतुण्ड मुद्रा में दोनों हाथों को अबोमुख करके रखा जाय; तदनन्तर बद्धा नामक चारी द्वारा स्थिति की जाय, तो उसे वलितोह करण कहते हैं । एतन्नियुज्यते धीरैर्लज्जायां मुग्धयोषिताम् ॥११५३॥ 1173 मुग्धा नामक नायिका की लज्य के अभिनय में घोर पुरुष वलितोष करण का विनियोग कहते हैं । ८. स्वस्तिक और उसका विनियोग उद्वेष्टय निर्गतौ यत्र करौ व्यावर्तितौ समम् । उत्प्लुत्य पाणिचरणरचितः स्वस्तिको भवेत् । 1174 यदि दोनों हाथों को चारों ओर से घुमा कर एक साथ ही व्यावर्तितावस्था में किया जाय और उछलकर हाथों की भाँति पैरों की भी स्वस्तिक मुद्रा में रचना की जाय, तो उसे स्वस्तिक करण कहते हैं । तत्स्वस्तिकं सराभस्य निषेधान्वेषणादिषु ॥११५४॥ सब प्रकार की दुर्भावनाओं को दूर करने तथा अन्वेषण आदि के अभिनय में स्वस्तिक करण का विनियोग होता है। ९. अर्षस्वस्तिक और उसका विनियोग चरणः स्वस्तिकः सव्यः करः करिकराभिधः । 1175 खटको हृदि वामश्चेत्तदाधस्वस्तिकं मतम् ॥११५५॥ ... यदि एक पैर को स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित किया जाय और दाहिना हाथ करिहस्त मुद्रा में तथा बायां हाथ खटक हस्त मुद्रा में हृदय पर रखा जाय, तो उसे अर्षस्वस्तिक करण कहते हैं। ... .. २९७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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