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नृत्तकरण प्रकरण क्रियेते स्वस्तिको यत्र स्वस्तिको चरणावपि ।
वक्षःस्वस्तिकमुक्तं तदनाभुग्नांसकं तदा । 1161 जब चतुरस्र मुद्रा में दोनों हाथों को वक्षस्थल पर करके रेचितावस्था में आर-पार घुमाकर और उन्हें आभुग्न (झुकाकर) वक्ष पर रख दिया जाय ; तदनन्तर दोनों हाथों और दोनों पैरों को स्वस्तिकाकार बना दिया जाय; तो इस क्रिया को वक्षःस्वस्तिक करण कहते हैं । इसमें कन्धा झुका हुआ नहीं होना चाहिए।
लज्जानुतापयोरस्य प्रयोगः परिकीर्तितः ॥११४३॥ लज्जा और पश्चात्ताप के अभिनय में वक्षःस्वस्तिक करण का विनियोग करना चाहिए । ३. वतित और उसका विनियोग
वक्षस्यभिमुखौ हस्तावालग्नमणिबन्धको । 1162 स्वस्तिको युगपद्यत्र व्यावृत्तपरिवत्तितौ ॥११४४॥
कृत्वोत्तानाबूरुयुगे पातयेद्वर्तितं त्वदः । 1163 यदि दोनों हाथों को सम्मुखावस्था में रखकर कलाइयों को किञ्चित् वक्ष पर सटा दिया जाय; और तदनन्तर स्वस्तिकाकार मुद्रा में दोनों को एक साथ आवृत-परिवत कर घुमा दिया जाय; तदनन्तर दोनों हाथों की हथेलियों को उत्तान करके दोनों जाँघों पर गिरा दिया जाय; तो उसे वर्तित करण कहते हैं।
पातयेच्चेत्पताको द्वावसूयायां मतं तदा ॥११४४॥ अधोमुखौ निघृष्टौ तौ क्रोधाभिनयने मतौ ।
1164 अभिनेयवशादेवं शुकतुण्डादयः कराः ॥११४६॥ दोनों हाथों की पताक मुद्रा में इस वर्तित करण का विनियोग असूया के अभिनय में करना चाहिए । यदि उन्हें अंधोमख करके गिरा दिया जाय तो मतान्तर से उनका विनियोग क्रोध के अभिनय में किया जाता है। कुछ आचार्यों के मत से अभिनय वस्तु के अनुसार वर्तित करण में शुकतुण्ड आदि हस्तों का प्रयोग किया जाता है ।
केचिदत्रावदन् पादं तलपुष्पपुटोदितम् । 1165
परे करानुगं प्राहुः पादं करणपण्डिताः ॥११४७॥ कुछ आचार्यों का मत है कि उक्त विनियोगों में तलपुष्पपुट करण की पादमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए; किन्तु दूसरे करण-विशेषज्ञ नाट्याचार्यों का कहना है कि हस्तमुद्रा के अनुरूप पादमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए।