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________________ नत्याध्यायः स्थानकों, चारियों और करणों के भी अनन्त भेदोपभेद हैं। अत: विद्वज्जन भी उन सबका वर्णन करने में असमर्थ हैं। अङ्गाहारोपयोगीनि करणानि कियन्त्यपि । लक्ष्यन्ते लक्ष्मविदुषामधुना साधुना मया ॥११३७॥ 1155 अब मैं नाट्य-लक्षणों के वेत्ता विद्वानों के लिए नृत्योपयोगी कुछ करणों का लक्षण-विनियोग बता रहा हूँ। बाहुल्यानर्तनारम्भे समावज्री लताकरौ । अङ्गं तु चतुरस्र स्याद्विशेषस्त्वधुनोच्यते ॥११३८॥ 1156 नृत्य के आरम्भ में बहुधा सम स्थिति पैरों, लताकर हाथों और चतुरस्र अंग का उपयोग किया जाता है । अब उनके सम्बन्ध में विशेष निर्देश किया जा रहा है। १. तलपुष्पपुट और उसका विनियोग विनिःसरति सव्येऽज्रौ चार्याध्यधिकया समम् । व्यावृत्तितः करद्वन्द्वे सव्यं पार्श्व समाश्रिते ॥११३६॥ 1157 परिवृत्त ततस्तस्मिन् सन्नतं पार्श्वमागते । यत्र तत्कुचदेशस्थो हस्तः पुष्पपुटाभिधः ॥११४०॥ 1158 तलपुष्पपुटं त्वेतत् पादेऽग्रतलसञ्चरे । अध्यधिका नामक चारी के साथ बाँयें पैर के बाहर की ओर निकल जाने पर, दोनों हाथों को घमाकर बायें पार्व में अवस्थित कर देने पर, फिर उनको परिवृत्त कर सन्नत नामक पार्श्व के निकट पहुँच जाने पर, पुष्पपुट हस्त मद्रा को कचों के पास अवस्थित कर देना चाहिए। ऐसी क्रिया को तलपुष्पपुट करण कहते हैं । इस करण में अग्रतलसंचर नामक पैर का प्रयोग करना चाहिए। रङ्गे पुष्पाञ्जलिक्षेपे लज्जायामपि सुभ्र वाम् ॥११४१॥ 1159 (सूत्रधार द्वारा) रंगमंच पर पुष्पांजलि-समर्पण और सुन्दरियों के लज्जा के भाव-प्रदर्शन में तलपुष्पपुट करण का विनियोग करना चाहिए । २. वक्षःस्वस्तिक और उसका विनियोग चतुरस्रकरौ वक्षःस्थले कृत्वाथ रेचितौ । व्यावृत्त्या च समानीयाभुग्ने वक्षसि चेदिमौ ॥११४२॥ 1160 २९४
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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