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________________ नत्याध्यायः 1009 नतजानुर्यत्र जङ्घा वलिताभ्यन्यजविकम् । 1008 सोरूद्वत्ता तदा चारी बुधादिषु स्मृता ॥६६१॥ जब अग्रतलसंचर पाद-मुद्रा की एड़ी दूसरे पैर की एड़ी के सम्मुख हो; अथवा विपरीत क्रम से हो; घुटना झुका हुआ हो और जंघा बल खायी हुई हो; तब से विद्वानों ने उसे उरूवृत्ता भूमिचारी कहा है । ईर्ष्या आदि के अभिनय में उसका विनियोग किया जाता है। १३. स्थितावर्ता गत्वान्यपादपार्श्व चेद् यत्राग्रतलसञ्चरः । अन्तर्जानु स्वस्तिकत्वं प्राप्तोऽन्यश्च्युतिपूर्वकः । । । तथा स्वपार्श्वनीता सा स्थितावर्ता तदोदिता ॥६६२॥ 1010 जहाँ अग्रतलसंचर पाद मुद्रा दूसरे पैर के पार्श्व में जाकर घुटने के नीचे स्वस्तिक मुद्रा को प्राप्त कर ले और दूसरा पैर हट कर अपने पार्श्व में ले आया जाय, तो उसे स्थितावर्ता भूमिचारी कहते हैं । १४. अपस्पन्दिता स्यादपस्पन्दिता चारी स्पन्दिताघ्रिविपर्ययात् ॥६६३॥ चलायमान चरणों के परिवर्तन से अपस्पन्दिता भूमिचारी होती है। १५. समोत्सरितमत्तल्ली निहिते परपादस्य मध्येऽग्रतलसञ्चरे । 1011 कृते जङ्घा स्वस्तिके च परेऽग्रतलसञ्चरे ॥४॥ पादेऽज्री यत्र घूर्णन्तावपसृत्योपसर्पतः । 1012 समोत्सरितमत्तल्ली सा चारी मध्यमे मदे ॥६६॥ जब अग्रतलसंचर पाद-मुद्रा को दूसरे पैर के बीच में रखा जाय; फिर दूसरे अग्रतलसंचर को जंघा के साथ स्वस्तिकाकार बनाया जाय; तत्पश्चात् दोनों पैर घूमते हुए हटकर समीप आ जाय, तो उसे समोत्सरितमत्तल्लो भूमिचारी कहते हैं । मध्यम मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १६. मत्तल्ली क्षितिलग्नाखिलतलौ जनास्वस्तिकयोगिनौ । 1013 अर्धव्यस्रो च यत्राी घूर्णन्तावुपसर्पतः । यदापसरतोऽसौ स्यान्मत्तल्ली तरुणे मदे ॥६६॥ 1014
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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