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________________ विचित्राभिनय प्रकरण गन्धघ्राणः प्रसूनानामृतुजानां तथा बुधः । संस्पर्शाद् रूक्षवातस्य शिशिरं सुनिरूपयेत् ॥६३७॥ 634 विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वह ऋतुजनित पुष्पों की गन्ध को सूंघ कर तथा रूक्ष वायु के स्पर्श से शिशिर ऋतु का अभिनय करे। सहर्षोत्पादकारम्भैरुपभोगैर्विचित्रितैः । अभिनेयो वसन्तस्तु नानापुष्पप्रदर्शनात् ॥६३८॥ 635 हर्षोत्पादक कार्यों सहित विचित्र प्रकार के उपभोगों और नाना प्रकार के पुष्पों के प्रदर्शन से वसन्त ऋतु का अभिनय करना चाहिए। सुवीजनभूमितापैस्तथा स्वेदापमार्जनात् । संस्पर्शाच्चोष्णवातस्य धीरो ग्रीष्मं विनिर्दिशेत् ॥६३६॥ 636 अच्छी तरह पंखा झेल कर, भूमि का ताप दिखा कर, पसीना पोंछ कर और गर्म वायु का स्पर्श करके पीर पुरुष ग्रीष्म ऋतु का भाव प्रदर्शित करें। हस्तौ सिरस्तथा दृष्टिं शरदीव विनिर्दिशेत् । . शिशिरौं वसन्ते च ग्रीष्मेऽपि निपुणौ नटः ॥६४०॥ 637 निपुण अभिनेता को, शरद् ऋतु की तरह, दोनों हाथों, शिर और दृष्टि को शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुओं में भी प्रयुक्त करना चाहिए। शिखिनां रम्यवाणीभिरिन्द्रगोपः सशालैः । अधोमुखपताकाभ्यां शिरसोद्वाहितेन च । 638 तथोर्ध्वप्रेक्षणादेवं प्रावृष सन्निरूपयेत् ॥६४१॥ मयूरों की रमणीय वाणी, हरितभूमि सहित बीरबहूटी (इन्द्रगोप) और अधोमुख दोनों पताक हस्तों, उद्वाहित शिर तथा ऊपर निरीक्षण द्वारा वर्षा ऋतु का भाव प्रकट करना चाहिए। चिह्न यद्यच्च रूपं च कर्म वा वेष एव च । 639 निर्दिशेत तमृतुं तेन यथेष्टानिष्टदर्शनात् ॥६४२॥ इष्ट और अनिष्ट का भाव (जहाँ जो उचित हो) दिखाते हुए जिस ऋतु के लिए जो चिह्न या लक्षण, जो रूप, जो कार्य या जो वेष उचित हो, उसी से उस ऋतु का भाव प्रकट करना चाहिए।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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