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________________ नत्याध्यायः 642 ऋतूनिमानर्थवशात प्रयुञ्जीत यथारसम् । 640 सुखितः सुखितेष्वेव दुःखितो दुःखितेषु च ॥६४३॥ इम ऋतुओं को (उनके ) प्रयोजनवश रस के अनुरूप प्रकट करना चाहिए । सुखी होकर सुखित वस्तुओं का और दुःखी होकर दुःखित वस्तुओं का भाव अभिव्यक्त करना चाहिए। आविष्टो येन भावेन यः सुखेनापरेण वा । 641 स तज्जनितसंस्कारस्तन्मयं वीक्षतेऽखिलम् ॥६४४॥ जो व्यक्ति जिस भाव से, चाहे दुःख से या सुख से आविष्ट रहता है, उसमें उसका संस्कार निहित रहता है । अत: वह सब वस्तुओं को उसी रूप में देखता है। प्रह्लादनेन गात्रस्य स्पर्शस्य ग्रहणात तथा । सुखं गन्धं रसं वायुं चन्द्रं ज्योत्स्नां निरूपयेत् ॥६४५॥ शरीर के आह्लादन और स्पर्श-ग्रहण से सुख, गन्ध, रस, वायु, चन्द्रमा तथा चाँदनी का अभिनय करना चाहिए । वासोवगुण्ठनाद् भानु धूलि धूमधनञ्जयौ । 643 उष्णं च भूमिसन्तापं दिशेच्छायाभिवाञ्छया ॥६४६॥ वस्त्र का घघट काढ़कर या ओट लगाकर सूर्य, धूल, धूम, अग्नि, गर्मी, भूमि-ताप तथा छाया का प्रदर्शन करना चाहिए। दृष्ट्योलयाकेकरया मध्याह्ने दर्शयेद् रविम् ॥६४७॥ 644 आकेकरा दृष्टि को ऊपर की ओर करके दोपहर-सूर्य का भाव प्रदर्शित करना चाहिए। सौम्यानि यानि वस्तूनि सुखभावोद्भवान्यपि । निर्दिशेत् तानि रोमाञ्चैत्रस्पशैश्च नाट्यवित् ॥६४८॥ 645 जो वस्तुएं सुखपूर्ण तथा अच्छे भावों से उत्पन्न हों उन्हें नाट्यवेत्ता को रोमांच तथा शरीर-स्पर्श से प्रकट करना चाहिए। उद्वेगैरास्यसंकोचैरसंस्पर्शश्च नाट्यवित् । दर्शयेत, तीक्ष्णरूपाणि वस्त्वयोग्यकृतानि च ॥६४६॥ 646 नाटयवेता को अयोग्य व्यक्ति द्वारा निर्मित तीक्ष्ण रूपवाली वस्तुओं का अभिनय विना स्पर्श किये, उद्वेम के साथ तथा मुख सिकोड कर करना चाहिए।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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