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________________ चारी प्रकरण २४. कलोरिका नन्द्यावर्त्तस्थानकस्थावङघ्री तिर्यक्प्रसर्पतः ।। यदा यत्र तदा सद्धिरसौ प्रोक्ता कुलीरिका ॥१०४६॥ 1070 जब दोनों चरण नन्द्यावर्त स्थानक में अवस्थित होकर तिरछे चलें, तब उसे सज्जन लोग कुलोरिका चारी कहते हैं। २५. निकुट्टक कुचितेनाघ्रिणाग्रेण गतिस्तु स्याग्निकुट्टकः ॥१०५०॥ मुड़े हुए पैर के अग्रभाग से चलना निकुट्टक चारी कहलाता है । २६. पुराटिका पुराटिका मिथोऽध्रिभ्यामुवृत्ताभ्यां निकुट्टनम् ॥१०५१॥ 1071 उठे हुए चरणों से परस्पर कूटना पुराटिका चारी कहलाती है । २७. अर्षपुराटिका यत्रोद्वत्तेन पादेन निकुट्टेन निकुट्नम् ।। परा रुद्ध तस्यैषा भवेदर्धपुराटिका ॥१०५२॥ 1072 जहाँ उठे हुए एक चरण से दूसरे अनावृत चरण को कूटा जाय, वहाँ अर्धपुराटिका चारी कहलाती है। २८. स्फुरिका पुरः प्रसर्पतः पादौ समौ चेत् स्फुरिका तदा ॥१०५३॥ जब सम नामक दोनों पैर आगे चलते हैं, तब उसे स्फुरिका चारी कहते हैं । २९. सारिका पुरः सरति यत्राज्रिरेकः सा सारिकोदिता ॥१०५४॥ 1073 जहाँ एक पैर आगे चलता है, उसे सारिका चारी कहते हैं । ३०. लताक्षेप पश्चात्प्रक्षिप्य पादं चेत्पुरस्ताच्च प्रसार्यतम् । यत्रोवों कुट्टयेत्तेन लताक्षेपस्तदा त्वसौ ॥१०५५॥ 1074 जहाँ एक पैर को पीछे फेंककर आगे फैला दिया जाय और उससे पृथ्वी को कूटा जाय, तो उसे लताक्षेप चारी कहते हैं। २७७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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