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________________ पहले दोनों हाथों को पावों में फैला दिया जाय; तदनन्तर एक-दूसरे के आमने-सामने करके दोनों को स्वस्तिक मुद्रा में बाँध कर आगे की ओर हाव-भाव के साथ चलाया जाय; इस क्रिया को आचार्य समन्तु ने तिर्यग्यातस्वस्तिकान चालन कहा है। ३१. देवोपहारक परालकपरावृत्तेरुभयोः पार्श्वयोरपि । सरलप्रसृतस्याग्ने करस्य लुठति स्वयम् ॥८१३॥ 819 सम्प्राप्य कूपरक्षेत्रं परो लुठति यत्र तत् । देवोपहारकं प्रोक्तं तदा नृत्तविचक्षणः ॥८१४॥ 820 दोनों पावों में अराल हस्त को परिवर्तित करके एक हाथ को सीधा फैलाकर स्वयं लोटा दिया जाय; फिर कुहनी के आस-पास दूसरे हाथ को लोटा दिया जाय। इस क्रिया को नत्य के विद्वानों ने देवोपहारक चालन कहा है। ३२. अलातचक्र कश्चिदन्तर्बहिश्चऋचरो हस्तः पराङ्मुखः । प्रन्यो विडम्बनां धत्तेलातचक्रस्य चेद् तदा । 821 , प्रलातचक्रमाख्यातं सद्भिरन्वर्थनामकम् ॥१५॥ बाहर भीतर चक्र के समान चलने वाला एक हाथ किसी ओर से मुंह मोड़ ले और दूसरा हाथ अलातचक्र का अनुकरण करे, तो सज्जन लोग उसका अन्वर्थ (अर्थानरूप) नाम अलातचक्र बताते हैं । 1. साधारण कटिवेशगतौ हस्तौ तिर्यग्यदि विलोडितौ । 822 ततोऽन्तर्मण्डलभ्रान्तावथवा बहिरेकदा । यत्र साधारणमवश्वालनं कथितं तदा ॥१६॥ 823 यदि दोनों हाथ कमर पर तिरछे चलाये जायें और उसके बाद भीतर अथवा बाहर एक बार मण्डलाकार में घुमाये जायें, तो उसको साधारण चालन कहते हैं । ३४. उरमकसम्बाष . स्वस्तिकाकृतिता नीत्का निष्क्रान्ती बहिरेव चेत् । - १२९
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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