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________________ नुस्याध्यायः 1020 ऊरुजानुत्रिकमधोऽपराङ्घ्रितलतस्तनुः 1019 भ्राम्यते सकला यत्र सा चारी भ्रमरी तदा ॥१००१॥ यदि अतिक्रान्ता चारी से युक्त चरण की रचना करके ऊरु, जानु और कटिदेश को त्र्यस स्थानक में परिवर्तित कर दिया जाय; तत्पश्चात् दूसरे पैर के तलवे से शरीर को घुमा लिया जाय, तो उसे भ्रमरी आकाशचारी कहते हैं। ४. मृगप्लुता अघ्रि कुञ्चितमुश्यस्योत्प्लुत्योय॑न्तं निपात्य च । अञ्चितस्य परस्याऽर्जङ्घां पश्चाद्यदि क्षिपेत् ।। मृगप्लता तदा चारी स्याद् विदूषककर्तृका ॥१००२॥ 1021 जब कुञ्चित पैर की रचना करके उछल कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया जाय और दूसरे अञ्चित पैर की जंघा को परिक्षिप्त किया जाय, तब उसे मगप्लता आकाशचारी कहते हैं। विदूषक के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५. पार्श्वक्रान्ता उन्नीय निजपावेन पादं कुञ्चितसंज्ञकम् । 1022 उा चेत् पातयेत् पार्ष्या पार्श्वक्रान्ता तदोदिता ॥१००३॥ लोके प्रसिद्धा सा पार्श्वदण्डपादेतिसंज्ञया । 1023 पादं परोरुपर्यन्तमुदस्योद्घट्टितं क्षितौ । क्षिपेदस्यामिति परे प्राहुर्तृत्तविचक्षणाः ॥१०६४॥ 1024 यदि कुञ्चित पैर को अपने पार्श्व से ऊपर उठाकर एड़ी के बल धरती पर पटक दिया जाय, तो पावक्रान्ता आकाशचारी बनती है। यह चारी लोक में पार्श्वदण्डपादा नाम से प्रसिद्ध है। एक पैर को दूसरे पैर के ऊरु तक उठाकर उद्घट्टित पाद पृथ्वी पर पटकने से यह चारी बनती है, ऐसा नृत्ताचार्यों ने कहा है। ६. ऊर्ध्वजानु जानु यावत् स्तनसमं कुञ्चितं तावदुत्क्षिपेत् । अज्रियंत्रापरः स्तब्धः सोर्ध्वजानुरुदीरिता ॥१००५॥ 1025 २६८
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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