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________________ नत्तकरण प्रकरण ३७. व्यंसित और उसका विनियोग पाणिमुद्वेष्टय यत्रकोऽधोगतो विप्रकीर्णितः । परावृत्त्य परस्ताहगूवं हृदयगस्ततः ॥१२०६॥ 1237 उत्तानितो रेचितः स्यादेकोऽन्योऽधोमुखस्तथा । स्थानमालीढसंज्ञं चेत् तत्तदा व्यंसितं मतम् । 1238 जहाँ एक हाथ को उद्वेष्टित करके दूसरे विप्रकीर्ण हस्त को उसके नीचे लाया जाय; फिर घुमाकर उसे ऊपर हृदय पर अवस्थित किया जाय; तत्पश्चात् एक रेचित हाथ को उत्तान और दूसरे को अधोमुख किया जाय; फिर आलीढ़ स्थानक धारण किया जाय; वहाँ व्यंसित करण होता है। नियोज्यं वायुसून्वादिबृहत्कपिपरिक्रमे ॥१२१०॥ हनुमान तथा बालि, सुग्रीव (बृहत्कपि) आदि के अभिनय में व्यंसित करण का विनियोग होता है । ३८. चतुर और उसका विनियोग यत्रालपल्लवो वामो हृदयक्षेत्रसंस्थयोः । 1239 करयोश्चतुरोऽन्योऽथ पादस्तूद्घट्टितो यदि ॥१२११॥ -चतुरमीरितम् । जहां दोनों हाथ हृदय में अवस्थित हों; बायाँ अलपल्लव और दायाँ चतुर मुद्रा में हो; और एक पैर उद्घट्टित हो; वहाँ चतुर करण होता है। तदा विस्मयसूचायामिदम् 1240 वैदूषिक्यां नृपागण्याशोकमल्लेन धीमता ॥१२१२॥ विद्वान् राजा अशोकमल्ल के मत से विस्मय, असूया तथा विद्वता के अभिनय में चतुर हस्त का विनियोग होता है। ३९. कान्त यत्रातिक्रान्तचार्याज्रि पात्यमानं निकुञ्च्य चेत् । 1241 पृष्ठतः स्थापयित्वा तु पुरोदेशे प्रसारयेत् ॥१२१३॥ व्यावर्त्य तत्करं न्यस्योरस्यतः परिवृत्तितः । 1242 ३०९
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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