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________________ नत्याध्यायः सौधान्तःपुरयोरेष स्वस्तिकः परिदेवने । 143 मुखदेशस्थितोऽथकोऽनुगतोऽनुगते करः ॥१३॥ अपरेण करेणाथ हताशे परिवर्तितः । 144 हृदयस्थोऽथ पाचच्चेद्दक्षिणाद्वामपार्श्वगः ॥१४०॥ महल तथा अन्तःपुर के भाव-प्रदर्शन में कर्तरीमुख हस्त को स्वस्तिकाकार होना चाहिए। विलाप करने के अभिनय में उसे मुख पर और अनुगमन करने के आशय में दोनों हाथों का परस्पर अनुगत कर देना चाहिए (अर्थात् एक हाथ के पीछे दूसरे हाथ को रख देना चाहिए) । हताश के भाव-प्रदर्शन में उसे दाहिनी बगल से बाँयी बगल की ओर परिवर्तित करके हृदय पर अवस्थित करना चाहिए। तदा दाननिषेधे स प्रकाशे वृष्टिदेशतः । . 145 दक्षिणस्तु करो वाम पार्श्वमागत ईरितः । दान के निषध तथा प्रकाश के अभिनय में दाहिने हाथ को क्षेत्रप्रान्त से लाकर वाम पार्श्व में रखना चाहिए। इमौ शिरःस्थौ कर्तव्यौ शृङगाभिनयने करौ ॥१४१॥ 146 सींग के अभिनय में दोनों कर्तरीमुख हाथों को शिर पर रखना चाहिए । १७. अर्धचन्द्र हस्त और उसका विनियोग स्थितेऽन्यतोगुलीसंघे विततेऽङ्गुष्टके सति । योऽर्धचन्द्राकृतिधरः सोऽर्धचन्द्राभिधः करः ॥१४२॥ 147 यदि चारों उँगलियों को सीधे खड़ी कर दिया जाय और अंगूठे को बाहर की ओर सीधे फैला दिया जाय तो उससे जो अर्धचन्द्राकार मुद्रा बनती है उसी को अर्धचन्द्र हस्त कहते हैं । ऊोत्तानोऽर्धचन्द्रेऽथोत्तानितो मण्डलभ्रमः । ग्लानिसंतापयोः शोके नियोज्योऽसौ नियोक्तभिः ॥१४३॥ 148 अभिनेताओं को चाहिए कि ग्लानि, सन्ताप और शोक के भाव-प्रदर्शन में वे अर्धचन्द्र हस्त को ऊपर उत्तान करके मण्डलाकार में घुमायें । मुखदेशस्थितः पाने वदनेऽपि भवेदसौ । पादाङ्करणे त्वेष करस्तद्देशगः स्मृतः ॥१४४॥ 149 पीने तथा बोलने के अभिनय में इस हस्त को मुख पर रखना चाहिए । पैरों के आभूषण प्रकट करने में उसे पैरों के पास ले जाना चाहिए।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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