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________________ चारीप्रकरण जहाँ स्वस्तिक मद्रा से हटे हए पैर को तिरछा ऊपर फैला दिया जाय, वहाँ मनीषियों ने उसे दण्डपादा चारी कहा है। २. पुरःक्षेपा कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य विस्तारत्वरया पुरः । 1080 क्षिपेत् क्षितौ यदा चारी पुरःक्षेपा तदोदिता ॥१०६२॥ कुञ्चित मुद्रा में पैर को ऊपर उठाकर यदि विस्तार की शीघ्रता से आगे पृथ्वी पर फेंक दिया जाय तो पुरःक्षेपा चारी बनती है। ३. अपक्षेपा बाह्यपाāन संस्पृश्य पृष्ठमूरोर्यदीतरः । 1081 अज्रिरेति नितम्बान्तमपक्षपा तदा मता ॥१०६३॥ यदि ऊरु के पृष्ठभाग को दूसरा पैर, बाहर वाले पार्श्व से स्पर्श करके नितम्ब के अन्त तक पहुँच जाय तो उसे अपक्षेपा चारी कहते हैं। ४. हरिणप्लुता उत्प्लुत्य चरणौ यस्यामवनौ विनिपातयेत् । 1082 समाचष्ट नृपाशोकमल्लस्तां हरिणप्लुताम् । एकाध्रिपातनं त्वस्यां मन्वतेऽन्ये मनीषिणः ॥१०६४॥ 1083 जिस (चारी) में दोनों चरण उछलकर पृथ्वी पर गिर पड़ें, उसे राजा अशोकमल्ल ने हरिणप्लुता चारी कहा है । दूसरे मनीषी लोग उसमें एक ही चरण को गिराना मानते हैं । ५. विद्युद्घान्ता पुरस्तात्पादमुत्क्षिप्य भालस्योपरि सत्वरम् । संभ्राम्योया क्षिपेद्यत्र विद्युभ्रान्ता भवेदसौ ॥१०६५॥ 1084 जहाँ पैर को आगे शीघ्रता से उठाकर तथा ललाट के ऊपर घुमाकर पृथ्वी पर फेंक दिया जाय, वहाँ उसे विद्युद्घान्ता चारी कहते हैं। ६. विक्षेपा पुरस्तादन्तरिक्षेऽनि चेत्प्रसार्य मुहुर्मुहुः । कुर्यादाकुञ्चितं यत्र सा विक्षेपा तदोदिता ॥१०६६॥ 1085 २७९
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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