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________________ नृत्याध्यायः जब आगे आकाश में पैर को बार-बार फैलाकर सिकोड़ लिया जाय, तब उसे विक्षेपा चारी कहते हैं । ७. जंघावर्ता अन्तर्भ्रान्त्या बहिर्भ्रान्त्या क्रमेणाङ्घ्रिस्तलं यदि । यत्रान्यजानुनः पृष्ठे पार्श्वेऽपि क्षिप्यते तदा । जङ्घावर्ताभिधा सोक्ता चारी चारीविचक्षणः ॥ १०६७॥ जब क्रमशः भीतर-बाहर घुमाकर ( एक पैर के ) तलवे को दूसरे ( पैर के ) घुटने के पृष्ठभाग या पार्श्वभाग पर रखा जाय, तब उसे चारी के विद्वान् जंघावर्ता चारी कहते हैं । ८. अँप्रिताडिता विस्तार्याघ्री समुत्प्लुत्य मिथस्ताडयतस्तले । गगने चेत् तदा चारी मतान्वर्थाङ्घ्रिताडिता ॥ १०६८ ।। २८० 1086 जब आकाश में पैरों को फैलाकर तथा उछलकर परस्पर तलवे को पीटा जाय, तब उसे अर्थ के अनुरूप अँप्रिताडिता चारी कहते हैं । ९. अलाता किञ्चित्पृष्ठगतः पादः परपादेन लङ्घ्यते । यदि द्रुतं तदालाता विद्वद्भिः परिकीर्तिता ॥ १०६६॥ 1087 यदि पीठ की ओर थोड़ा गया हुआ एक पैर दूसरे पैर के द्वारा शीघ्रता से लाँघा जाय, तो विद्वान् लोग उसे अलाता चारी कहते हैं । १० डमरी स्वस्तिकाकृतयोरङ्घ्योर्यत्रैको दोलितो मनाक् । परः पुरः कुञ्चितश्चेत्सा विद्धोक्ता बुधैस्तदा ॥१०७१ ॥ 1088 जानुदघ्नं समुत्क्षिप्य कुञ्चितं चरणं यदि । सत्वरं भ्रामयेदन्तर्बहिश्च डमरी तदा ॥१०७०॥ यदि कुञ्चित चरण को घुटने तक उठाकर बाहर-भीतर शीघ्रता से घुमाया जाय, तो वह डमरी चारी कहलाती है । ११. विद्वा 1089 1090
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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