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________________ चालन प्रकरण वक्षःस्थल पर दोनों हाथों को क्रमश: हिलाकर मण्डलाकार बना दिया जाय; फिर हाव-भावपूर्वक उन्हें कन्धे तक ले जाकर भीतर कर लिया जाय; अनन्तर चारों ओर से घमाकर उन्हें अघोमख किया जाय । इस क्रिया को विद्वानों ने अनंगोहीपन चालन कहा है। ५. मुरजकर्तरी अंसावधि स्तनक्षेत्राद् भ्रान्त्वा मण्डलवृत्तितः । 870 ततो वक्षःस्थलं प्राप्तौ मुहुनिक्षिप्य पार्श्वतः ॥८५८॥ अधस्तत्र ब्रजत्येको द्वितीयो मण्डलभ्रमः । 871 विलोडितो यदा पश्चादुभौ हस्तौ कटिस्थितौ । अन्योन्याभिमुखौ भ्रान्तौ तदा मुरजकर्तरी ॥५६॥ 872 दोनों हाथों को स्तनप्रदेश से लेकर कन्धे तक मण्डलाकार में घमाकर वक्षःस्थल पर ले आया जाय; उनमें से एक हाथ को बगल से बार-बार फैक कर नीच किया जाय और दूसरे को मण्डलाकार में घुमाकर कम्पित किया जाय; पश्चात दोनों हाथों को कटि पर रखकर एक-दूसरे के सामने-सामने कर दिया जाय । ऐसी क्रिया को मुरजकर्तरी चालन कहते हैं । अमी नृत्तस्य तु प्राणाश्वालकाः सुमनोहराः । प्रायो वाद्यप्रबन्धेषु प्रयुज्यन्ते विचक्षणः ॥८६०॥ 873 वे सुन्दर चालक ( चालन ) नृत्य के प्राण हैं । विद्वान् लोग बहुधा वाद्य-प्रबन्धों में (अर्थात् वाद्यों के साथ) इनका प्रयोग करते हैं। . भूरिनिर्भुजचेष्टाभिः सम्भवन्तोऽप्यनेकशः । अमी केचित् समासेन दृष्टान्तार्थ मयोदिताः ॥८६१॥ 874 अनयव दिशा ज्ञेयाः सद्धिरन्येऽपि चालकाः । ग्रन्थविस्तारसंत्रासानातिविस्तर ईरितः ॥८६२॥ 875 बिना भजा की अनेक चेष्टाओं द्वारा अनेकानेक चालनों की संभावना होने पर भी मैंने संक्षेप में कछ चालन बताये हैं । इसी रीति से सज्जन लोग अन्य चालनों का भी ज्ञान कर लें। ग्रन्थ-विस्तार के भय से बहुत विस्तार में चालनों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। समवेत रूप में पचपन चालकों का निरूपण समाप्त २३७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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