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________________ नुत्तकरण प्रकरण -तरुणे मदे ॥१३०१॥ तरुण मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १०८. गंगावतरण और उसका विनियोग अज्रस्तु क्षेपनिक्षेपो भवेतां चेद्यथा यथा । 1348 तथा पाणी पताकाख्यावुभावुन्नतिसन्नती ॥१३०२॥ कुरुतः संनतं शीर्ष गङ्गावतणं तदा । 1349 पैर जैसे-जैसे चलें, तदनुसार दोनों पताक हस्त उन्नति तथा अवनति को धारण करें और शिर संनत मुद्रा में अवस्थित हो, तो ऐसी क्रिया को गंगावतरण करण कहते हैं । गङ्गावतरणे योज्यमिदं नृत्तविचक्षणः ॥१३०३॥ नाट्याचार्यों ने गंगा जी के पृथ्वी पर उतरने के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। करण प्रयोग के विशेष निर्देश वामो बाहुल्यतः कार्यः करः करणकर्तृभिः । 1350 वक्षःस्थः करणेष्वन्यो ज्ञेयस्तत्करणानुगः ॥१३०४॥ अनुक्तनियमेऽप्येषा परिभाषोदिता बुधः । 1351 करणेऽनुक्तचारीके चारी तच्चरणानुगा । ज्ञेया ज्ञेयोऽथवा पादः करानुगतिसुन्दरः ॥१३०५॥ 1352 करणों के निर्माताओं या प्रयोक्ताओं को चाहिए कि वे बायें हाथ का प्रयोग अधिक करें। करणों में दाहिने हाथ को छाती पर रखें और वह करणों का अनुगामी हो। किसी नियम विशेष का निर्देश न करते हुए भी विद्वानों ने यह परिभाषा (सामान्य नियम) बतायी है । जहाँ करण में चारी का उल्लेख न किया गया हो, वहाँ करण के पैर के अनुसार चारी को योजना कर लेनी चाहिए; अथवा हस्त-संचालन के अनुसार पैर की सुन्दर रचना करनी चाहिए। एक सौ आठ नृत्तकरणों का निरूपण समाप्त ३३१
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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