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________________ ४. गतागत नृत्याध्यायः नर्तकी गमनोन्मुखी । यत्राङ्घ्रिमेकमुद्धृत्य निरोधात्तु गतिस्थित्योरुदास्ते तद् गतागतम् ॥१५॥ जहाँ नर्तकी एक पैर को उठा कर आकाश की ओर मुँह किये गति और स्थिति को रोकने से (संयमन करने से ) उदासीन हो, वहाँ गतागत स्थानक होता है । ५. वलित और उसका विनियोग यत्रेषद्वलितं गात्रमङ्घ्रिबंलितदिग्भवः । कनीयस्योर्वीमाश्लिष्येत्पराङ्गुष्ठेन तां यदा । तदा तद् वलितं स्थानं साभिलाषनिरीक्षणे ॥१६॥ 933 जब शरीर कुछ झुका हुआ हो; पैर बल खाया हुआ हो; और कानी उँगली ( कनीय) तथा अँगूठा धरती से चिपके हुए हों, तो उसे वलित स्थानक कहते हैं। उत्कण्ठापूर्वक देखने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ६. मोटित एकः पादः समोऽन्यस्तु कुञ्चितोर्ध्वतलाङ्गुलिः । यदा करौ कर्कटाख्यावूर्ध्वगौ मोटितं तदा ॥१७॥ 931 तदेवाङ्गपरावृत्त्या पृष्ठतो विनिवर्तितम् ॥ १८ ॥ जब पृष्ठ भाग से अंगों की अदला-बदली की जाय, तो उसे विनिवर्तित स्थानक कहते हैं । ८. प्रोन्नत और उसका विनियोग २५० 934 जब एक समस्थित पैर की उँगलियाँ और दूसरे कुंचित पैर की उँगलियाँ ऊपर को उठी हों तथा दोनों हाथ कर्कट मुद्रा में ऊर्ध्वगामी हों, तो उसे मोटित स्थानक कहते हैं । ७. विनिवर्तित 932 पादाग्राभ्यां समानाभ्यां तथाङ्गुलितलैः स्थितिः । या कायमायतीकृत्य तत् स्थानं प्रोन्नतं मतम् ॥ १६ ॥ जब शरीर को लम्बा करके पैरों के समान अग्रभागों तथा अँगुलितलों पर खड़ा हुआ जाय, तो उसे प्रोत स्थानक कहते हैं । 935
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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