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________________ मृत्वाध्याया असूयायां तथा कोपे विनियोगोऽस्य दशितः ॥११८५॥ 1210 असूया तथा क्रोध के अभिनय में अपविद्ध करण का विनियोग होता है। २३. समनख और उसका विनियोग यत्र गात्रं स्वभावस्थमजी समनखौ युतौ । लताकरो समनखम्जहाँ शरीर स्वाभाविक स्थिति में वर्तमान हो; दोनों पैर समान नखयुक्त हों; और दोनों हाथ लताहस्त मुद्रा में हों; वहाँ समनख करण होता है। -एतदाद्यप्रवेशने ॥११८६॥ 1211 आद्य वस्तु के प्रवेश करने के अभिनय में समनख करण का विनियोग होता है। २४. स्वस्तिकरेचित और उसका विनियोग चतुरस्रः स्थितो यत्र विधाय त्वरितभ्रमौ । हंपक्षाभिधौ हस्तौ व्यावृत्त्योर्ध्वं शिरःस्थलात् ॥११८७॥ 1212 सम्प्राप्य परिवृत्त्याधः प्राप्तावाविद्धवक्रको । स्वस्तिको हृदयक्षेत्रे क्रियेते तदनन्तरम् ॥११८८॥ 1213 विप्रकोो ततः कट्यां पक्षवश्चितको ततः । पक्षप्रद्योतको हस्तौ चारी तदनुगा ततः ॥११८६॥ 1214 अवहित्थाभिधं स्थानमेतत्स्वस्तिकरेचितम् । पहले चतुरस्त्र मुद्रा में एक हाथ को अवस्थित किया जाय: फिर हंसपक्ष दोनों हाथों को शीघ्रता से घमा दिया जाय; तदनन्तर उन्हें ऊपर मस्तक प्रदेश से घुमाते हुए नीचे लाकर आविद्धवक्र हाथों में परिवर्तित कर दिया जाय; तत्पश्चात दोनों हाथों में स्वस्तिक मुद्रा धारण कर उन्हें हृदय पर रख दिया जाय; पुनः उन्हें वित्रकोण मुद्रा में रच कर कटि में रख दिया जाय; फिर उन्हें क्रमश: पक्षवंचितक और पक्षप्रद्योतक मुद्राओं में अवस्थित किया जाय%; और तदनन्तर चारी और तदनुरूप अवहित्थ स्थानक की रचना की जाय । इस अभिनय-भेद को स्वस्तिकरेचित करण कहते हैं। निरूपितमिदं धीरः हर्षस्थादिनिरूपणे ॥११६०॥ 1215 ३०४
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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