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________________ नृत्तकरण प्रकरण आनन्दित व्यक्ति आदि के भावाभिव्यंजन में, पीर पुरुषों के मत से, स्वस्तिक रेचित करण का विनियोग करना चाहिए। २५. मत्तल्लि और उसका विनियोग स्वस्तिकं गुल्फयोर्बवा यत्राद्ध्योरपसर्पणम् । सममुद्वेष्टितौ पाणी तथा तावपवेष्टितौ । 1216 विदध्यादसकृत् तत् स्यान्मत्तल्लियदि दोनों टखनों को स्वस्तिकाकार में बाँधकर पैरों से लुढ़कते हुए चला जाय और साथ ही दोनों हाथों को मोड़कर फिर खोल दिया जाय; इस प्रकार बार-बार करते रहने से जो अभिनय-मुद्रा बनती है, उसे मत्तल्लि करण कहते हैं। -मदसूचकम् ॥११६१॥ मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २६. अर्धमत्तल्लि और उसका विनियोग स्खलितापसृतावघी चेद्वामो रेचितः करः । 1217 परः कटौ तदा चार्धमत्तल्लियदि दोनों पैर फिसलते तथा लुढ़कते हों और बायाँ हाथ रेचित मुद्रा में तथा दाहिना हाथ कटि पर अवस्थित हो, तो उसे अर्धमत्तल्लि करण कहते हैं । -तरुणे मदे ॥११९२॥ अत्यन्त मदमत्तता के अभिनय में अर्धमत्तल्लि करण का विनियोग होता है । २७. वलित अपसर्पति सूच्याख्ये देहदेशात्करे यदा । 1218 अपेतश्चरणः सूची चारी तु भ्रमरी क्रमात् ।। एवमङ्गान्तरेणापि यत्र तद्वलितं तदा ॥११९३॥ 1219 जब शरीर से सूचास्य हस्त अपसर्पित हो और पैर से क्रमशः सूची, चारी तथा भ्रमरी मुद्रा धारण कर गमन किया जाय; और दूसरे अंगों से भी इसी प्रकार की क्रिया की जाय, तब उसे वलित करण कहते हैं ।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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