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________________ नृत्तकरण प्रकरण तालानामन्तरालेषु गतीनां च परिक्रमे । यतीनां परिपूर्ती च सन्नियुज्यते ॥ १२००॥ 1226 सज्जनों के मतानुसार तालों के मध्य भाग, गतियों के घुमाव और यतियों (संन्यासियों) की पूर्ति के अभिनय में कटिप्रान्त करण का विनियोग होता है । ३१. छिन्न और उसका विनियोग क्रमात् करौ कटीपार्श्वदेशे चेदलपल्लवौ । छिन्ना कटी च वैशाखस्थानं छिन्नं तदोदितम् । 1227 यदि अलपल्लव मुद्रा में दोनों हाथों को क्रमशः कटिपार्श्व में रख दिया जाय; कटि छिन्ना मुद्रा में हो; और अन्त में वैशाख स्थानक की रचना की जाय; तो उसे छिन्न करण कहते हैं । तदङ्गप्रतिसारे स्यात् तथा तालप्रभञ्जने ॥ १२०१ ॥ अंगों को फैलाने और ताल ठोकने के अभिनय में छिन्न करण का विनियोग होता है । ३२. पावापविद्धक खटकास्य यदा पाणी नाभिक्षेत्रे पराङ्मुखौ । सूच्याङ्घ्रिः परपादेन युक्तोऽपक्रान्तया युतः । प्रपरश्चरणोऽथैव तदा पादापविद्धकम् ॥ १२०२ ॥ 1228 1229 जब खटकास्य नामक दोनों हाथ नभिदेश में पराङ्मुख होकर रहें; सूची नामक पैर दूसरे पैर से जुड़ा हो; और दूसरा पैर अपक्रान्ता नामक चारी में हो; तब वह पादापविद्धक करण होता है । ३३. भ्रमर और उसका विनियोग कुर्वन्नाक्षिप्तचार्या पाणिमुद्वेष्टय चेत्ततः । वलितं तु त्रिकं कुर्यात् स्वस्तिकं पादसम्भवम् ॥ १२०३ ॥ 1230 यत्रापराङ्गमेवं स्यादुल्बणावेकदा करौ । तत् तदा भ्रमरं ज्ञेयम् जब पहले हाथ-पैर में आक्षिप्ता नामक चारी को धारण करके त्रिक का वलय किया जाय ( कटि भाग को झुका दिया जाय ); फिर पैरों की स्वस्तिक मुद्रा बना ली जाय; इसी प्रकार अन्य अंगों की भी रचना की जाय; अन्त में एक बार उल्वण हाथों की रचना की जाय; तब उसे भ्रमर करण कहते हैं । ३०७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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