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________________ स्थानक प्रकरण वक्षःस्थल उन्नत हो; और अन्य अंग सन्न हों, उसे सौष्ठव कहते हैं। अपने स्थान से (स्वाभाविक रूप में)निर्गत अंग को सन्न और निश्चल को निषष्ण कहते हैं । . अनत्युच्चं चलन्पादमकुब्जकमचञ्चलम् । अङ्गमिष्टं सौष्ठवेन योज्यमुत्त [ममध्य] मैः ॥८८७॥ 901 जो बहुत ऊँचा न हो, जिसके पैर चल रहे हों और जो कुबड़ा तथा चंचल न हो, ऐसे सुरुचिकर शरीर को उत्तम तथा मध्यम श्रेणी के नर्तकों को सौष्ठव से युक्त करना चाहिए। __ स्थानकं वैष्णवं त्वेतच्चतुरस्रस्य जीवनम् ॥८॥ यह वैष्णव स्थानक चतुरस्र का जीवन है । स्थानकं वैष्णवं यत्र कटीनाभिगतौ करौ । 902 क्रमतो युगपद्वाथ वक्षश्चैव समुन्नतम् । चतुरस्र , तदाचष्ट वीरसिंहात्मजः सुधीः ॥८८६॥ 903 जहाँ दोनों हाथ एक साथ या क्रमशः कटि और नाभि पर पहुँचे तथा वक्षःस्थल अत्यन्त उन्नत हो उस वैष्णव स्थानक को विद्वान् अशोकमल्ल ने चतुरस्र कहा है। २. समपाद और उसका विनियोग एकतालान्तरौ पादौ समौ सौष्ठवसंयुतो । यत्रतत् । समपादाख्यं स्थानकं ब्रह्मदैवतम् ॥८६०॥ 904 जहाँ एक ताल के अन्तर पर दोनों पैर समान रूप से सौष्ठव के साथ युक्त हों, वहाँ समपाद स्थानक होता है। उसका अधिष्ठाता देवता ब्रह्मा हैं । एतद् द्विजातिदत्ताशीरङ्गीकारेऽथ दर्शने । पक्षिणां वरवध्वोश्च तथा लिनिन्वतिष्वपि । 905 स्यन्दनस्थे विमानस्थे नियोज्यं नृत्तपण्डितैः ॥८६१॥ ब्राह्मणों द्वारा दिये गये आशीर्वाद के स्वीकार, दर्शन, पक्षियों के निरूपण, वर-वधुओं, ब्रह्मचारी, व्रती (संन्यासी), रथारूढ और विमानारूढ के अभिनय में इस आसन का विनियोग होता है। ३. वैशाख और उसका विनियोग यस्रपक्षस्थितौ पादौ सार्धतालत्रयान्तरौ । 906
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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