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________________ नृत्याध्यायः जब एक पैर समभाव में ( सीधा ) स्थित और दूसरा व्यस्र या पक्षस्थित हो; दोनों में ढाई ताल का अन्तर हो; और जंघा सौष्ठवता के साथ कुछ झुकी हो, तो उसे वैष्णव स्थानक कहते हैं । इस स्थान के अधिष्ठाता देवता विष्णु हैं । स्वभावजे । नाना कार्यान्तरोपेतं संलापे तु पुम्भिनियुज्यतेत्वेतदुत्तमैर्मध्य मैरपि 1 इत्याह मुनिरन्ये तु विष्णुवेषानुकारिणा ॥ ८८१ || नटेनेत्यवदन्नृत्ये नायस्थितिविधायिना । [सू] त्रधारादिनेत्याहुः भरत मुनि का कहना है कि स्वाभाविक बातचीत और उत्तम तथा मध्यम पुरुषों द्वारा नाना प्रकार के कार्यों का भाव प्रकट करने में वैष्णव स्थानक का विनियोग होता है। अन्य आचार्यों का कहना है कि विष्णु का स्वरूप बनाये हुए नट को इसका प्रयोग करना चाहिए। दूसरे आचार्यों का अभिमत है कि अभिनय में नाट्य की स्थिति का विधान करने वाले सूत्रधार आदि को इसका उपयोग करना चाहिए । - श्रथ पक्षस्थितस्त्वसौ ॥८८२ ॥ यो भवेच्चरणः पार्श्वमुखाङ्गुल्या [भिमुख्य ] भाक् । स एव चेत्पुरोदेशे गतोऽभिमुखतां तदा ॥८८३ ॥ हस्तस्याङ्गुल्यावङ्गुष्ठमध्यमे । - त्र्यत्रः स्यादथ प्रसारिते तु ये स्यातामन्तरालं २४४ 894 895 896 897 तदग्रयोः ||८८४|| नृपाग्रणी । तालमत्र समाचष्टाशोकमल्लो पक्षस्थित चरण वह कहलाता है, जिसके सम्मुख बगल की ओर उँगलियाँ उन्मुख हों । वही चरण यदि अग्रभाग सम्मुख होने का भाव प्रकट करे, तो वह व्यस्त्र कहलाता है। हाथ की उँगलियों में से अंगुष्ठ और मध्यमा उँगलियों को फैलाने पर उन दोनों के अग्र भागों की जो दूरी होती है, उसे महाराज अशोकमल्ल ने ताल कहा है । 898 शिरोंसकूर्परं तुल्यं यत्र जानुसमा कटी ||८८५ ॥ 899 सन्नमङ्ग तत्सौष्ठवं मतम् । समुन्नतमुरः स्वस्थाननिर्गतं सन्नं निषण्णं निश्चलं स्थितम् ||८८६ ॥ 900 जहाँ सिर, कन्धे और कुहनी बराबर (समभाव में स्थित ) हों; कटि उन के समान (समभाव में स्थित ) हो;
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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