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________________ ६. स्फुरित और उसका विनियोग दृष्टि प्रकरण अन्वर्थी स्फुरितौ ज्ञेयौ धीरैरीर्ष्यास्विमौ मतौ ॥ ४८८ ॥ 497 फड़कने वाली दोनों पलकें स्फुरित कहलाती हैं । ईर्ष्या के अभिनय में धीर पुरुषों ने उनका विनियोग बताया है। ७. उन्मेषित और ८ निमेषित तथा उनका विनियोग उन्मेषितावलग्नौ स्तः संलग्नौ तु निमेषितौ । इमावुभावपि ज्ञेयौ क्रोधाभिनयने बुधैः ॥४८६ ॥ 498 यदि दोनों पलकों को खोल दिया जाय तो वे उन्मेषित और बन्द कर दिया जाय तो निमेषित कहलाती हैं । विद्वानों ने क्रोध के अभिनय में इन दोनों पलकों का विनियोग बताया है । ९. वितालित और उसका विनियोग वितालितावुत्तरेण पुटेनाधः स्थिताहतेः । प्राहुः परे त्वलक्ष्ये तावतिविस्तारितौ पुटौ ॥४६०॥ 499 यदि ऊपर की पलक से नीचे की पलक पर चोट की जाय तो वे वितालित कहलाती हैं। दूसरे आचार्यों के मत से अत्यन्त फैली हुई पलकें वितालित कहलाती हैं । अदृश्य वस्तु के अभिनय में उनका विनियोग होता है । तारों (आँखों की पुतलियों) का निरूपण तारों के भेद ब्रवेऽहं तानि कर्माणि ताराभेदा भवन्ति ये । द्विधा तान्यात्मनिष्ठानि विषयाभिमुखानि च ॥ ४६१ ॥ 500 अब तारा भेदों तथा उनके कार्यों का निरूपण किया जा रहा है । उनके कार्य दो प्रकार के होते हैं: एक आत्मनिष्ठ और दूसरे विषयाभिमुख । आत्मनिष्ठ ताराकर्म (१) प्राकृतं भ्रमणं पातो वलनं चलनं तथा । प्रवेशनं समुद्वृत्तं निष्क्रामञ्च विवर्तनम् ॥ ४६२ ॥ नवोक्तान्यात्मनिष्ठानि ताराकर्माणि कोविदैः । 501 विद्वानों ने आत्मनिष्ठ ताराकार्यों के नौ भेद बताये हैं : १. प्राकृत, २. भ्रमण, ३. पात, ४. वलन, ५. चलन, ६. प्रवेशन, ७. समुद्वत्त, ८. निष्क्राम और ९. विवर्तन । १५७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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