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________________ १. प्राकृत तारयोः समवस्थानं प्रकृत्या प्राकृतं मतम् ||४६३ ॥ तारों (पुतलियों) की समवस्थित स्वाभाविक स्थिति प्राकृत कहलाती है । २. भ्रमण नृत्याध्यायः पुटान्तर्मण्डलावृत्तिस्तारयोभ्रं मणं पलकों के भीतर तारों को मण्डलाकार में घुमाना भ्रमण कर्म कहलाता है । ३. पात पातोऽधोगमनम् - तारों का नीचे गिराना पात कहलाता है । ४. वलन तारों का तिरछा घुमाना वलन कहलाता है । ५. चलन - तिर्यग्गमनं वलनं मतम् । कम्पनं चलनं ज्ञेयम्तारों का काँपना चलन कहलाता है । ६. प्रवेशन -प्रथ तत् स्यात् प्रवेशनम् ||४६५ ॥ पुटान्तरे प्रवेशो यः तारों का पलकों के भीतर प्रवेश करना प्रवेशन कहलाता है । ७. समुद्वृत्त मतम् ॥४६४॥ तारों को ऊपर की ओर घुमाना या उन्नत करना समुद्वत्त कहलाता है । ८. निष्काम — समुद्धृतं समुन्नतम् । निष्कामो निर्गमः प्रोक्तः तारों का बाहर निकलना निष्काम कर्म कहलाता है । ९. विवर्तन तारों का कटाक्ष करना विवर्तन कहलाता है । १५८ - कटाक्षः स्याद् विवर्तनम् ॥ ४९६ ॥ 502 503 504
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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