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________________ मत्याध्यायः १७. ढाल यदा [त्व] मन्दमुल्लोलकमलोपरि बिन्दुवत् । 1651 नृत्ये यत्राङ्सञ्चारः तदासौ ढाल उच्यते । इममेव बुधाः केचित्ताननाम्ना प्रचक्षते ॥१५४३॥ 1652 जब नृत्य में अत्यन्त चंचल कमल पर जल-विन्दु की तरह अंगों का संचार किया जाता है, तब वह ढाल नामक लास्यांग कहलाता है। इसी को कोई विद्वान तान नाम से अभिहित करते हैं । १८. छेवा सुभ्र वो यत्र नेत्रान्तौ भावगी स्वभावतः । तरलौ नर्तने स्यातामसौ छेवा मता बुधैः ॥१५४४॥ 1653 जहाँ नृत्य में नर्तकी के नेत्रों के कोर स्वभावतः भावभित एवं चंचल हों, वहाँ बुधजन छेवा नामक लास्यांग मानते हैं। १९. अंगहार ललिता यत्र गात्रस्य नतिः पूर्वोत्तरार्धयोः । चापवत् तालसहिता सोऽङ्गहारोऽभिधीयते ॥१५४५॥ 1654 जहां पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध धनुष की तरह अंगों का वलन (झुकना) ताल सहित सुन्दर दिखाई दे, वहां अंगहार लास्यांग होता है। २०. लंधित मुहुर्मुहुः समुल्लय वाद्यस्यावादनं यदा । पात्रं विश्रम्य विश्रम्य नृत्येत् स्याल्लवितं तदा ॥१५४६॥ 1655 जब पात्र वाद्य के शब्द का बार-बार उल्लंघन करके रुक-रुक कर नृत्य करे, तब लंधित लास्यांग होता है। २१. विहसी विहसी तु तदा ज्ञेया यदा स्यात् सुन्दरस्मितम् ॥१५४७॥ जब सुन्दर मुसकराहट के साथ नृत्य किया जाय, तब उसे विहसी लास्यांग कहते हैं । २२. नीको नर्तकी नर्तने गीतवाद्यताल [ल] येष्वपि । 1656 प्रस्खलन्ती यदा नीकी तदा जनमनोहरा ॥१५४८॥ ३८८
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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