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________________ प्राक्कथन अशोकमल्ल और उनका नृत्याध्याय ग्रन्थ के अन्तक्ष्यि के आधार पर यह सिद्ध होता है कि अशोकमल्ल एक राजा था । नत्याध्याय के कतिपय स्थलों पर उसने स्वयं ही अपने नाम का उल्लेख किया है ( यथा ५६४, ९४५, १०१८, १०६४, १०७७ और १२७२ आदि ) । अपने लिए उसने अनेक प्रकार के विशेषणों का प्रयोग किया है, जिनके आधार पर उसका राजा होना सिद्ध होता है । स्वयं को उसने अशोकेन पृथ्वीन्द्रेण (४६), अशोकमल्लेन भूभुजा ( ८०, १०७, १८४, ३३९, ३९९ तया १५९७ ), अशोकमल्लो नृपाग्रणी (२४१, ५४५, ८८५ तथा १५१९ आदि) और नपाशोकमल्लेन (१२९४, १३२७ एवं १४८९ आदि) राजपदवाच्य विशेषणों से अभिहित किया है। राजा होने के साथ ही उसने अपने को धीमान् ( ४६, ५२६ ) और विदुषां चरः ( ४२४) भी बताया है। अपने लिए उसने विशेष सम्मानजनक पदवियों एवं गौरवशाली पर्याधों का भी उल्लेख किया है, जो कि ६९५, ७०७, ९७३, १०८८, १२०८ और १२१२ आदि श्लोकों में दृष्टव्य हैं। परिचयात्मक दृष्टि से अशोकमल्ल के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। नत्याध्याय के कतिपय स्थलों से केवल इतना ज्ञात होता है कि अशोकमल्ल के पिता का नाम वीरसिंह था।वीरसिंह भी राजपद पर आसीन हुआ, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु अशोकमल्ल द्वारा अपने लिए प्रयुक्त वीरसिंहसुतः ( ३३८, ४०१ ४६५ ), वीरसिहानुना ( ३९८, ४८६, १०१३), वीरसिंहात्मजः (८८९, १०४१), वीरसिंहजः (९१३, १०४४, १३०६) और वीरसिंहसुनन्दनः (१५३७) आदि उल्लेखों से स्पष्ट है कि उसके पिता का नाम वीरसिंह था। - अशोकमल्ल कहाँ का राजा था और उसका स्थितिकाल क्या था, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की कोई ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है; किन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थ में जिन आचार्यों का उल्लेख किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे १४वीं, १५वीं शती ई० के आस-पास हुए। ऐसा ज्ञात होता है कि वे क्षत्रिय वंशोद्भव थे और दक्षिण-मध्य भारत के निवासी । नाटय-संगीत के वे पारंगत विद्वान थे और अन्य कलाओं में भी निष्णात थे। विद्वान् होने के साथ ही वे विद्वत्प्रिय भी थे। उनकी एकमात्र उपलब्ध कृति नृत्याध्याय के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अपनी वर्तमान स्थिति की अपेक्षा अपने मूल रूप में वह कुछ भिन्न थी। जिस रूप में उसका एकमात्र हस्तलेख उपलब्ध हआ है, उसमें निश्चित ही उसके लिपिकार की स्वबुद्धि का भी आँशिक समावेश देखने को मिलता है। आदि से अन्त तक उसको एक ही गति से लिपिबद्ध किया गया है और बीच-बीच में उसके अनेक स्थल स्खलित तथा अशद्ध हो गये हैं। मल हस्तलेख के लिपिकरण की इस अवैज्ञानिकता, अज्ञता एवं असावधानी के कारण अनेक स्थल ११
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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