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________________ अंगार ( अंग - विक्षेप) अंगारों का निरूपण प्रयोक्तव्यान् दृष्टादृष्टफलानपि । 'पूर्वर अङ्गहारान्प्रवक्ष्यामि नामतो लक्ष्मतस्तथा । पूर्वरंग ( नाटक आदि की आरम्भिक क्रिया) में प्रयोग करने योग्य तथा दृष्ट एवं अदृष्ट फल वाले अंगहारों ( अंग-विक्षेपों) के नाम तथा लक्षणों का निरूपण किया जा रहा है । अङ्गानामुचिते देशे प्रापणं सविलासकम् । मातृकोत्क र सम्पाद्यमङ्गहारोऽभिधीयते 1 भातृका -समूह के योग से सम्पन्न होने वाले अंगों को हाव-भाव के साथ समुचित स्थान पर पहुंचाना अंगहार कहलाता है । यद्वा हारो हरस्यायं प्रयोगोऽङ्गेरिति स्मृतः । करणाभ्यां मातृका स्यात् कलापः करणैस्त्रिभिः । चतुभिः खण्डको ज्ञेयः संघातः पञ्चभिर्मतः । इति सङ्घविशेषेण संज्ञा मेदान्परे जगुः । 1401 करणन्यूनताधिक्यं तेषां मेने मुनिः स्वयम् । द्वाभ्यां त्रिचतुराभिर्वेत्येतद्वा शब्दसूचितम् । 1402 1403 1404 अथवा, हरस्य अयम् इति हारः इस व्युत्पत्ति के अनुसार हार का अर्थ है प्रयोग । अंगों से प्रयोग यह अंगहार शब्द का अर्थ है । दो करणों के योग से मातृका बनती है; तीन करणों के योग से कलाप; चार करणों के योग से खण्डक; और पाँच करणों के योग से संघात का निर्माण होता है । इस प्रकार अंगों के समूह-विशेष के कारण अन्यान्य आचार्यों ने अंगहारों के अनेक भेद बताये हैं । 1405 उन अंगहारों में करणों की न्यूनता तथा अधिकता को स्वयं भरत मुनि ने स्वीकार किया है। दो या तीन अथवा चार मातृकाओं के योग से अंगहार का सम्पादन करना चाहिए, यह उन्होंने शब्द द्वारा सूचित किया है । १. देखिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ७९५-८१४ । ३४७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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