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________________ नत्याध्यायः 1409 अंगहार के भेद स्थिरहस्तोऽथ पर्यस्तः सूचीविद्धोऽपराजितः । 1406 वैशाखरेचितः पार्श्वस्वस्तिको भ्रमरोऽपरः । आक्षिप्तकः परिच्छिन्नो मदाद्विलसितस्ततः । 1407 पालीढाच्छुरितौ पार्श्वच्छेदसंज्ञोऽपसपितः । मत्ताक्रीडस्तथा विद्युभ्रान्तोऽमी षोडशोदिताः । 1408 चतुरस्रेण मानेनाङ्गहारा मुनिसत्तमः । १. स्थिरहस्त, २. पर्यस्त, ३. सूचीविख, ४. अपराजित, ५. वैशाखरेचित, ६. पार्श्वस्वस्तिक, ७. ममर, ८. आक्षिप्तक, ९. परिच्छिन्न, १०. मदविलसित, ११. आलीट, १२. आच्छरित, १३. पावच्छेद, १४. अपपित, १५. मतकीड तथा १६. विद्युमात-इन सोलह अंगहारों को मुनिवरों ने चतुरस्र मान के हिसाब से बताया है। विष्कम्भापसृतौ (तो)मत्तस्खलितो गतिमण्डलः । अपविद्धश्च विष्कम्भोद्घट्टिताक्षिप्तरेचिताः । रेचितोऽर्धनिकुट्टश्च वृश्चिकापसृतस्ततः । 1410 अलातकः परावृत्तः परिवृत्तादिरेचिंतः । उद्वत्तकश्च सम्भ्रान्तसंज्ञः स्वस्तिकरेचितः । षोडशेति यस्लमाना द्वात्रिंशदुभये मताः । १. विष्कम्भापसृत, २. मत्तस्खलित, ३. गतिमण्डल, ४. अपविद्ध, ५. विष्कम्भ, ६. उद्घट्टित, ७. आक्षिप्तरेचित, ८. रेचित, ९. अर्षनिकुट, १०. वृश्चिकापसृत, ११. अलातक, १२. परावृत्त, १३. परिवृत्तरेक्ति, १४. उत्तक, १५. सम्मान्त और १६. स्वस्तिकरेचित-ये सोलह अंगहार श्यसमान के हिसाब से बताये गये हैं । दोनों मानों के अंगहारों को मिलाकर कुल बत्तीस अंगहार होते हैं । करणवातसन्दर्भानन्त्यात्तेषामनन्तता । 1412 द्वात्रिंशत्ते तथाऽप्युक्ताः प्राधान्यविनियोगतः । करण-समूह के सन्दों के अनन्त होने से अंगहार अनन्त होते हैं । तो भी प्रधानता के हिसाब से बत्तीस बताये गये हैं। 1411 ३४८
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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