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________________ चतुर्थ उत्तानवञ्चितौ पाणी विधायाथार्धचन्द्रकम् । कट्यां करं निवेश्याथ पादाग्राभ्यां नटी यदा ॥१६०० ॥ रचयन्ती गतीर्नाना [बक] वत् पुरतोऽनु च । पावाङ्गुष्ठकरस्पर्शान्नृत्ये वक्राकृतिस्तदा । तुर्यो भेदो बकाद्यस्य कलासस्य बुधैर्मतः ॥ १६०॥ उत्तवञ्चित नामक दोनों हाथों की रचना करके अर्धचन्द्र हस्त को कटि पर रखकर जब नर्तकी पैरों के अग्रभाग से बगुले की तरह आगे-पीछे अनेक प्रकार की चालों को रचती हुई बत्राकृति होकर पैरों के अंगूठों को हाथ से छूकर नृत्य करती है, तब विद्वानों ने उसे चतुर्थ बककलास कहा है । चार प्लवकलास (५) 1716 प्रथम कलासकरण प्रकरण ५१ 1714 1715 विषमस्था समुत्प्लुत्य समौ पादौ यदा नटी । बिभ्रती सर्वतश्चित्रं त्रिपता [क] करान्विता ॥१६०२ ।। 1717 नृत्येदसौ तदा प्रोक्तः कलासः प्लवपूर्वकः । त्रिपताकौ पताकौ वा कृत्वा नाभिस्थितौ करौ ॥१६०३॥ 1718 पद्भ्यां तालानुगं गच्छेत् पश्चाद्यत्र भवेदसौ । श्राद्यो भेदः प्लवाद्यस्य कलासस्य बुधैर्मतः ।।१६०४॥ 1719 विषमासन से उछलकर सम नामक पैरों को धारण करती हुई नर्तकी जब सब ओर आश्चर्य के साथ त्रिपताक नामक हाथ से युक्त होकर नृत्य करती है, तब प्लवकलास निष्पन्न होता है। जहाँ पश्चात त्रिपताक या पताक नामक दोनों हाथों को नाभि पर रखकर पैरों से ताल का अनुसरण करती हुई नर्तकी चले, वहाँ विद्वानों ने प्रथम लवकलास माना है । द्वितीय पुरोगतम् । विधाय त्रिपताकौ चेद् वाममङ्घ्रि पाणिमेवं विधं वामं लघुमानेन नर्तकी ॥१६०५ ।। 1720 वामतो गम [नं] कृत्वा बध्नीयादासनं समम् । ४० १
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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