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________________ नेत्तकरण प्रकरण जहाँ सूची नामक एक पैर के साथ दूसरा पैर एड़ी में स्वस्तिक मुद्रा धारण किये हो; कटि प्रदेश को व्यावृत्त तथा परिवृत्त किया जाय; फिर एक पार्श्व में बद्धा चारी को धारण किया जाय; और अन्त में दोनों हाथों की रेचित में रचना की जाय; तो उसे विनिवृत्त करण कहते हैं । -परिक्रमे ॥१२३४॥ परिक्रमा करने के अभिनय में विनिवृत्त करण का विनियोग होता है । ५७. ललाटतिलक और उसका विनियोग वृश्चिकार्यदाङ्गुष्ठः पादस्य तिलकं लिखेत् । ललाटेऽथ तदा ज्ञेयं ललाटतिलकं बुधैः । यदि वृश्चिक पैर का अंगूठा ललाट पर पैर का तिलक लिखे, तब विद्वान् लोग उसे ललाटतिलक करण समझें । 1267 विद्याधरगतावेतन्नियोज्यं - नृत्तवेदिभिः || १२३५॥ 1268 नृत्तवेत्ताओं को चाहिए कि विद्याधर की गति के अभिनय में वे ललाटतिलक करण का विनियोग करें । ५८. विवर्तित कुर्यात्त्रिकविवर्त्तनम् । पाणिपादं समाक्षिप्य रेचितं च परं पाणि यत्रतत्स्याद्विवत्तितम् ॥१२३६ ॥ 1269 यदि एक हाथ और एक पैर को चलाकर कटिदेश में घुमाया जाय; और फिर दूसरे हाथ को रेचित में परिणत किया जाय; तो उसे विर्वार्तत करण कहा जाता है । ५९. अतिक्रान्त प्रतिक्रान्तं विधायाघ्र पुरो यत्र प्रसारयेत् । करौ प्रयोगयोग्यौ च तदतिक्रान्तमुच्यते ॥१२३७॥ 1270 जहाँ पैर को अतिक्रान्त क्रम करके उसे आगे फैला दिया जाय और दोनों हाथों को भी उसी के अनुसार संचालित किया जाय, वहाँ अतिकान्त करण होता है । ६०. विद्युद्भ्रान्त और उसका विनियोग विद्युद्भ्रान्ता यत्र विद्युद्भ्रान्तमिदं चारी करौ तदनुगामिनौ । प्रोक्तम् ३१५
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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