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________________ नृत्याध्यायः खुले हुए मुख को विनिवृत्त कहते हैं। क्रोध, ईर्ष्या, असूया, विहृत (भावविशेष) और कामिनियों की अवज्ञा के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ६. व्याभुग्न और उसका विनियोग यन्मनागायतं वक्त्रं तद् व्याभुग्नमितीरितम् । - 574 औत्सुक्यचिन्तानिर्वेदगम्भीरालोकनादिषु ॥५७६॥ (दोनों पावों में) किञ्चित् फैले हुए मुख को व्याभग्न कहते हैं । उत्सुकता, चिन्ता, विरक्ति और गंभीरतापूर्वक अवलोकन आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । चार प्रकार के मुख राग का निरूपण मुखराग (मुख के भाव) येनाभिव्यज्यते चित्तवृत्तिर्धार रसात्मिका । 575 रसाभिव्यक्तिहेतुत्वात् मुखरागः स उच्यते ॥५८०॥ जिस (भाव) के द्वारा धीर पुरुष रसात्मक चित्तवृत्ति को अभिव्यक्त करते हैं, वह (भाव) रसाभिव्यक्ति का हेतु होने से मुखराग कहलाता है। मुखराग के भेद स्वाभाविकः प्रसन्नश्च रक्तः श्यामो बुधैरिति । 576 मुखरागश्चतुर्थोक्तस्तल्लक्षणमथोच्यते ॥५८१॥ विद्वानों ने उसके चार भेद बताये हैं : १. स्वाभाविक, २. प्रसन्न, ३. रक्त और ४. श्याम। अब उनके लक्षणों का निरूपण किया जाता है । १. स्वाभाविक और उसका विनियोग तत्र स्वाभाविकोऽन्वर्थः. स्वभावाभिनये मतः । स्वाभाविक रूप से किये जाने वाले मखराग को स्वाभाविक कहते है। स्वाभाविक अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. प्रसन्न और उसका विनियोग __ स्वच्छः प्रसन्नः शृङ्गारेऽद्भुते हास्येऽपि जायते ॥५८२॥ स्वच्छ (सुन्दर-निर्मल) मुखराग प्रसन्न कहलाता है। शृंगार, अद्भुत तथा हास्य रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है। 577
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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