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________________ 1248 ४३. उद्घट्टित यदोद्घट्टितपादः स्यात्तत्पावं सन्नतं करौ। 1247 तालिकाकरणोद्युक्तौ तत्तदोद्घट्टितं मतम् ॥१२१८॥ जब पैर उद्घट्टित , पार्श्व सन्नत और दोनों हाथ तालिका बनाने में तत्पर हों, तो उसे उद्घट्टित करण कहते हैं। ४४. दण्डरेचित और उसका विनियोग दण्डपादा यदा चारी दण्डपक्षाभिधौ करौ । तदा प्रमोदनृत्ते स्यात्करणं दण्डरेचितम् । प्रयोगं केचिदिच्छन्ति तस्योद्धतपरिक्रमे ॥१२१६॥ 1249 जब पैर दण्डपादा चारी और दोनों हाथ दण्डपक्ष मुद्रा में हों, तब उसे दण्डरेचित करण कहते हैं। प्रमोदनत्त के अभिनय में उसका विनियोग होता है । उद्धत व्यक्ति के घूमने के अभिनय में भी कोई आचार्य उसका विनियोग बताते हैं । . ४५. वृश्चिक और उसका विनियोग करौ करिकरौ पश्चाद् दूरे वृश्चिकपुच्छवत् । अनिश्चेत् सन्नतं पृष्ठं तदा वृश्चिकमीरितम् । 1250 यदि दोनों हाथ पीठ पोछ (कन्धं के समतर) कटिहस्त मुद्रा और एक पैर (उनके कुछ) दूर पर बिच्छू की पूंछ (डंक) की तरह अवस्थित हों; पृष्ठ भाग सन्नत हो; तो वहाँ वृश्चिक करण होता है । - इदमैरावणादीनामाकाशगमने मतम् ॥१२२०॥ इन्द्र के हाथी (ऐरावत) और आकाश में उड़ने के अभिनय में वृश्चिक करण का विनियोग होता है । ४६. वृश्चिकरेचित और उसका विनियोग वश्चिकेऽङघ्रौ यदा पाणी स्वस्तिकोभूय रेचितौ । 1251 विश्लिष्यापि तदाकाशगतौ वृश्चिकरेचितम् ॥१२२१॥ जब दोनों पर वृश्चिक और दोनों हाथ स्वस्तिक होकर फिर उन्हें खोलकर रेचित में किया जाय, तब उसे वृश्चिकरेचित करण कहते हैं। आकाश में उड़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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