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________________ नृत्याध्यायः कुचयोरग्रतो गतौ । नताग्रावथवोच्चाग्रौ विप्रकीर्णौ केचिदाहु पक्षौ पराङ्मुखौ ॥३०६॥ उक्त स्वस्तिक हस्तों को जब विच्युत (गिरा दिया) किया जाय, तब उन्हें विप्रकीर्ण हस्त कहा जाता है । कुछ आचार्यों का मत है कि जब हंसपक्ष दोनों हाथों के अग्रभाग नत या उन्नत हों, और पराङ्मुख होकर कुचों के अग्रभाग में स्थित हों, तब उन्हें विप्रकीर्ण हस्त कहा जाता है । २८. विद्धव हस्त सविलासौ पताकौ । भुजांसकूर्पराग्रेषु कृत्वा व्यावर्तने स्यातां त्वरितं चेदधोमुखौ । तदा त्वाविद्धवत्राख्यौ विक्षेपवलने करौ ॥३०७॥ 315 संलग्नमध्यमांगुष्ठौ चतुरस्राकृती क्रमात् । तिर्यक्प्रसारितौ सर्पशीर्षौ चेत्तर्जनीं बहिः ॥ ३०८ ॥ प्रसारितां दधानौ यौ सूच्यास्यौ तौ तदा मतौ । विधायादौ पताकौ द्वौ व्यावृत्तिपरिवृत्तितः ॥ ३०६॥ भ्रान्त्वा प्रसारणं केचिद् विशेषमिह मन्वते । परे सर्पशिरोहस्तौ स्वस्तिकाकारतां गतौ । मध्यप्रसारिताङ्गुष्ठौ जगुः सूच्यास्यलक्षणम् ॥३१०॥ 316 317 जब भुजा, कन्धा और कुहनी के अग्रभाग में दोनों पताक हस्त हाव-भाव पूर्वक व्यावर्तित होकर ( मुड़ कर ) शीघ्र अघोमुख हो जाँय, तब, वक्रगति वाले उन दोनों हाथों को आविद्धवत्र कहा जाता है । २९. सूच्यास्य हस्त 318 319 320 जब दोनों सर्पशीर्ष हस्तों की मध्यमा और अंगुष्ठ उँगलियाँ सटी रहें, तर्जनी बाहर की ओर फैली रहे और दोनों हाथ चतुष्कोण के आकार में क्रमशः तिरछे फैले रहें, तब उन्हें सूच्यास्य कहा जाता है । कुछ आचार्यों का कहना है कि पहले दोनों हाथों की पताक मुद्रा बना कर जब उन्हें व्यावृत्त तथा परिवृत्त क्रिया से घुमाकर विशेष रूप से फैला दिया जाय, तब उन्हें सूच्यास्य कहा जाता है। दूसरे आचार्यों का मत है कि जब दोनों सर्पशीर्ष हस्तों को स्वस्तिक मुद्रा में बनाकर उनके दोनों अँगूठे को बीच से फैला दिया जाय, तब वे सूपास्य हस्त कहलाते हैं ।
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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