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विचित्राभिनय प्रकरण
चमूं समूहमम्भोधि विस्तीर्ण वनमेव च ।
विक्षिप्ताभ्यां पता [at] भ्यांनिदिशेनाटय नृत्तयोः ॥६७६ ॥
नाट तथा नृत्त के समय सेना, समूह, समुद्र तथा विस्तृत वन का भाव दोनों पताक हस्तों को फैला कर प्रदर्शित करना चाहिए ।
कामेन ग्रहपाशाभ्यां ज्वरेणापि च येऽदिताः । तेषामभिनयं
श्रङ्गलनैरिवाङ्गेषु तथा वासोवगुण्ठनात् ।
दृष्टयाधोगतया धीरैनिर्देश्या कुलजाङ्गना ॥६७८ ॥
कुर्याच्छिथिलाङ्गविचेष्टितैः ॥ ६७७ ॥
जो काम, ग्रह, वन्धन तथा ज्वर से पीड़ित हों, उनका अभिनय शिथिल अंग चेष्टाओं द्वारा करना चाहिए ।
नानालंकृतिचिन्नाङ्गः समदैर्बहुचेष्टितैः । निःशङ्कगमनेनापि नटो वेश्यां प्रदर्शयेत् ॥६७६ ॥
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अंगों को मानों अंगों में लीन करके, वस्त्र का घूंघट काढ़ कर और दृष्टि को नीचे करके धीर पुरुषों को कुलीन स्त्री का अभिनय करना चाहिए ।
खेदनिःश्वास चिन्ताभिस्तथा सम्प्रलापैस्तथालीनामात्मावस्थानिदर्शनैः
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हृदयतापतः ।
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नाना अलंकारों से सज्जित अंगों, मदयुक्त चेष्टाओं और निःशंक गमन के द्वारा अभिनेता को वेश्या का भाव प्रदर्शित करना चाहिए ।
ग्लान्यश्रुपात दैन्यैश्च सरोषवदनैरपि । भङ्गनिर्भूषणैर्दुःखं रोदनैरपि नाट्यवित् ॥ ६८१ ॥ विप्रलब्धाः खण्डिताश्च कलहान्तरिता श्रपि । इत्थं प्रदर्शयेन्नाटये तथा प्रोषितभर्तृकाः ||६८२ ॥
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॥६८०॥
वेद, निःश्वास, चिन्ता, हृदय-ताप, प्रलाप तथा व्याकुल चित्त वालों का अभिनय तदनुसार आंगिक अभिनय द्वारा करना चाहिए ।
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