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________________ नत्याध्यायः १६. पार्श्वमण्डलिन् हस्त पताकीकृत्यतावेव यदा पार्श्व स्थितौ करौं । मिथः सम्मुखतां प्राप्तौ पार्श्वमण्डलिनौ तदा ॥२८२॥ 29] केचिदावेष्टिताख्येन कर्मणा निजपार्श्वयोः । प्राविद्धभ्रामितभुजौ पार्श्वमण्डलिनौ जगुः ॥२८३॥ 292 जब दोनों ऊर्ध्वमण्डलिन हस्तों को पताक मुद्रा में करके उन्हें परस्पर सम्मुख करके पार्श्व में रख दिया जाय, तब उन्हें पार्श्वमण्डलिन् हस्त कहा जाता है। कुछ आचार्यों का मत है कि यदि वेष्टित क्रिया के द्वारा दोनों भुजाओं को कुटिल गति से घुमाया (आबिद्धभ्रमित) जाय, तब उन्हें पार्श्वमण्डलिन् हस्त कहते हैं । १७. उरोमण्डलिन् हस्त उद्वेष्टितं विधायापवेष्टितं चैकदा करौ । स्वपार्वे वक्षसो जातौ क्रमान्मण्डलवद् भ्रमात् ॥२८४॥ 293 व्युत्क्रमाच्चेदुरः प्राप्तावुरोमण्डलिनौ तदा । एतयोभ्रमणं वक्षःस्थयोः केचन मन्वते ॥२८५॥ 294 उरोवर्तनिकात्वेन प्रसिद्धौ नृत्तधीमताम् । पताको हंसपक्षौ वा ज्ञेयौ मण्डलिषु त्रिषु ॥२८६॥ 295 जब एक हाथ उदवेष्टित और दूसरा अपवेष्टित हो; उन्हें अपने पार्श्व में वक्ष पर क्रमश: मण्डलाकार में घुमाते हुए फिर वक्ष पर रख दिया जाय तब उन्हें उरोमण्डलिन् हस्त कहा जाता है। कुछ आचार्यों का कहना है कि दोनों हाथों को छाती पर ही घुमाया जाय । किन्तु नृत्तविदों का अभिमत है कि तीनों प्रकार के उरोमण्डलिन् हस्तों में पताक या हंसपक्ष हस्त उरोवर्तनिका रूप में प्रसिद्ध है। १८. उरःपावधिमण्डल हस्त पावें प्रसारितस्त्वेको वक्षस्युत्तानितोऽपरः । व्यावृत्त्योरःस्थलायातः स्वपार्श्वमलपल्लवः ॥२८७॥ 296 एवं यदा तदैवान्यः क्रिययावेष्ठितास्यया । संप्राप्यारालतां याति वक्षस्येवं परः करः । अभ्यासाकथितावेवमुरःपावर्धिमण्डलः ॥२८॥ 297 ११०
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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