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________________ नुत्तकरण प्रकरण पहले पार्श्व में भ्रमरी नामक चारी बना दी जाय और तदनन्तर मण्डल नामक स्थानक की रचना की जाय; फिर छिन्ना नामक कटि तथा भुजा के शीर्ष भाग में पल्लव नामक हस्त की रचना की जाय; इसी प्रकार अन्य अंगों की भी रचना करके फिर दो-तीन बार आवृत्तियाँ की जायें। इस अभिनय-मुद्रा को विद्वानों ने कटीच्छिन्न करण (टूटी कटि) कहा है। १७. धूणित यत्रोर्ध्वदेशगो हस्तो व्यावृत्त्या दक्षिणस्ततः । परिवृत्त्या त्वधः पार्श्वदेशाभ्रान्ति समाचरेत् ॥११७२॥ 1194 तद्दिकोऽध्रिः समाश्रित्य जङ्घास्वस्तिकतामनु । कुर्याच्चारीमपक्रान्तां दोलाख्यमपरं करम् । 1195 तद् घूणितं केचिदाहुरुत्प्लुत्य स्वस्तिकं त्विह ॥११७३॥ यदि आरम्भ में दाहिने हाथ को ऊपर उठाकर घुमा दिया जाय और बाद में परिवर्तित कर नीचे पाश्र्व भाग में कम्पित कर दिया जाय; फिर उस दिशा में अवस्थित पैर और जंघा में स्वस्तिक मुद्रा की रचना की जाय; तत्पश्चात अपक्रान्ता नामक चारी का आश्रय ग्रहण किया जाय और दूसरे बायें हाथ में दोला मुद्रा धारण की जाय । अभिनय की इस स्थिति को पूणित करण कहते हैं । कुछ आचार्यों का मत है कि इस अभिनय में उछलकर बायें हाथ से स्वस्तिक मुद्रा बनानी चाहिए । १८. निकुञ्चित और उसका विनियोग विधाय वृश्चिकं पादं यत्र तद्दिग्गतं करम् । 1196 शिरस्यरालमारच्य नासादेशार्जवेन चेत् ॥११७४॥ उरस्यरालमपरं तत् तदा स्यानिश्चितम् । 1197 एक पैर से वृश्चिक स्थानक की रचना करके उसी दिशा में हाथ को भी ले जाया जाय; फिर शिर पर (दायें) अराल हस्त को बना कर नासिका की सीध पर रखा जाय; तदनन्तर छाती पर दूसरे (बायें) अराल हस्त की रचना की जाय । इस अभिनय-स्थिति को निकुञ्चित करण कहते हैं। तदौत्सुक्ये वितर्के च गगनोत्पतनादिषु । उत्सुकता, वितर्क और आकाश से गिर जाने आदि के अभिनय में निश्चित करण का विनियोग होता है । केचित्पताकसूच्यास्यावत्र नासाग्रगौ जगुः ॥११७५॥ 1198
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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