SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. तलवृत्ता चारी प्रकरण पुरश्चेत्सर्पतस्तूर्णमङ्गुलीपृष्ठभागतः । पादाग्रे सा तदादिष्टा तलोद्वृत्ता मनीषिभिः ॥ १०२७ ॥ जब दोनों पैरों के अग्रभाग अँगुलियों के पृष्ठभाग पर ( आश्रित होकर) शीघ्रतापूर्वक आगे की ओर चलें, तब विद्वानों ने उसे तलोत्ता चारी कहा है । ३. मराला नन्द्यावर्तस्थितावङ्घी पाष्णिप्रपदरेचितौ । प्रसार्यते पुरो यत्र सा मरालोदिता बुधैः ॥ १०२८ ॥ नन्द्यावर्त नामक स्थानक और रेचित मुद्रा में अवस्थित दोनों पैर एड़ी तथा अग्रभाग में जहाँ सामने फैलाये जाते हैं, वहाँ विद्वानों ने उसे मराला चारी कहा है । ४. पाणिरेचिता 1049 ३५ पाष्णिपार्श्वगताख्येन स्थिातास्थानेन यत्र चेत् । रेचिता क्रियते पाणिः सा तदा पाणिरेचिता ॥ १०२ ॥ पाष्णिपार्श्वगत स्थानक में अवस्थित एड़ी जब रेचित की जाती है, तब उसे पाष्णि रेचिता चारी कहते हैं । ५. परावृत्ततला पृष्ठोत्तानतलो यत्र बहिरङ्घ्रिः प्रसारितः । चारी सा कथिता धीरैः परावृत्ततलाभिधा ॥ १०३०॥ 1050 स्थित्वा चेद् वर्धमानने पादौ तिर्यक् प्रसर्पतः । वामदक्षिणयोस्तूर्णं तदा तिर्यङ्मुखा मता ॥ १०३१॥ 1051 जहाँ तलवे को पीठ की ओर उत्तान करके पैर को बाहर फैला दिया जाता है, उसे धीर पुरुष परावृत्ततला चारी कहते हैं । ६. तियंड् मुखा 1052 1053 यदि वर्धमान स्थानक में अवस्थित होकर दोनों पैर वाम-दक्षिण पावों में शीघ्रता के साथ तिरछे फैला दिये जाय, तो उसे तियं मुखा चारी कहते हैं । २७३
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy