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________________ उत्प्लुतिकरणों का निरूपण १५. ऊलिग समाङ लवंता स्थित्यां निपत्योलिगं मतम् ॥१३३०॥ गिरकर स्थित होने में यदि सम नामक पैर ऊपर की ओर रहे तो ऊलिग करण होता है। १६. अन्तरालग विधायालगमुत्तानोरःस्थलो भुवि चेत् पतेत् । 1377 शिरसा पृष्ठतः। श्रोणेः संस्पर्शादन्तरालगम् ॥१३३१॥ अलग करण की रचना करके यदि छाती को उत्तान किये सिर के बल भूमि पर गिरा जाय और पीछे की ओर से कटि का स्पर्श किया जाय, तो वहाँ अन्तरालग करण होता है। १७. कूर्मालग कर्मासनं चेदलगे तदा कर्मालगं मतम् ॥१३३२॥ 1378 यदि अलग करण में कूर्मालग लया लिया जाय तो, वह कूर्मालग करण कहलाता है । १८. लोहडी समावज्री विधायाथ विवर्त्य त्रिकमाचरेत् । तिर्यगुत्प्लवनं यत्र सद्भिः सा लोहडी मता। 1379 'लोहडी लुठितं केचिदेतामेव प्रचक्षते ॥१३३३॥ सम स्थित दोनों पैरों की रचना करके तीन बार घुमाकर जहाँ तिरछा कूदा जाय, वहाँ लोहडी करण होता है । इसी लोहडी को कोई विद्वान लठित कहते हैं । १९. एकपादलोहडी एकपादेन रचिता संकपादादिलोहडी ॥१३३४॥ 1380 जो लोहडी एक पैर से रची जाती है उसे एकपादलोहडी करण कहते हैं । २०. विचित्रलोहडी गात्रस्य चक्रवद्भ्रान्तिस्तिर्यपाोपलक्षिता । यत्र सोक्ता विचित्राद्या लोहडी नृत्तवेदिभिः ॥१३३५॥ 1381 नावाचार्यों को अभिमत है कि जहाँ शरीर को चक्र की तरह घुमाया जाय और पार्श्व तिरछा दिखाई पड़े, वहाँ विचित्रलोहडी करण होता है। ३३९
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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