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________________ १४. गतिमण्डल मण्डलस्वस्तिकं उद्घट्टितं च कटीच्छिन्नममोभिः स्यादष्टभिर्गतिमण्डलः ॥ १४१३॥ त्वाद्यं नूपुरोन्मत्तेके ततः । मत्तल्ल्याक्षिप्तोरोमण्डलान्यथ । मण्डलस्वस्तिक, नूपुर, उन्मत्त, उद्घट्टित, मत्तल्लि, आक्षिप्त, उरोमण्डल और कटीच्छिन्न-- इन आठ करणों के क्रमशः प्रयोग से गतिमण्डल अंगहार बनता है । १५. वृश्चिकासृत अंगहारों का निरूपण करण-समूह गया है । ४६ स्याल्लतावृश्चिकं पूर्वं यत्र पश्चान्निकुञ्चितम् । मतल्लि च नितम्बं च करिहस्तं ततः परम् । कटीच्छिन्नं षष्ठमसौ वृश्चिकापसृतो भवेत् ॥१४१४ ॥ 1500 लतावृश्चिक, निकुञ्चित, मत्तलि, नितम्ब, करिहस्त और छठा कटीच्छिन्न-इन करणों की क्रमशः रचना से वृश्चिकासृत अंगहार बनता है । १६. मत्तस्खलित मत्तल्यथो गण्डसूचि ततो लीनापविद्धके । तलसंस्फोटितं चाथ करिहस्तमतः परम् । कटीच्छिन्नं क्रमान्मत्तस्खलितः सप्तभिर्भवेत् ॥ १४१५ ॥ 1498 मत्तल्लि, गण्जसूचि, लीन, अपविद्ध, तलसंस्फोटित, करिहस्त और कटीच्छिन्न-इन सातों करणों को क्रमशः करने से मतस्वलित अंगहार बनता है । 1499 दृष्टादृष्टफला दृष्टनियोगा सर्वत्रैवाङ्गहारेषु कलया मुख्यभावतः । गुरुरूपया ॥ १४१७॥ 1501 करणोत्करसन्दर्भानन्त्यादेतदनन्तता यद्यप्यस्ति तथाप्येते समासात् समुदीरिताः ॥१४१६॥ के सन्दर्भ से अंगहारों की संख्या अनन्त हो जाती है; फिर भी यहाँ उनका संक्षेप में निरूपण किया 1502 1503 ३६१
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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