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________________ अंग प्रत्यंग प्रकरण ८. तिरश्चीना और उसका विनियोग क्षितिश्लिष्टबहिःपार्वा तिरश्चीना मतासने ॥४०७॥ जिस जंघा का बाह्य पार्श्व भाग भूमि से सटा हो, उसे तिरश्चीना कहते हैं । आसन के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ९. परावृत्ता और उसका विनियोग पश्चात्प्राप्ता परावृत्ता धराश्लिष्टेन जानुना । 411 वामेन पितृकार्येऽथ देवकार्येऽपरेण सा ॥४०८॥ यदि घुटने को भूमि से सटा कर (या टिका कर) जंघा को पीछे की ओर मोड़ दिया जाय तो उसे परावृत्ता कहते हैं । पितृ कार्य का भाव दर्शाने में परावृत्ता के बाँयें घुटने को भूमिश्लिष्ट करके और देव-कार्य का भाव दर्शाना हो तो दाहने घुटने को भूमिश्लिष्ट करके उसका विनियोग करना चाहिए। १०. निःसृता याने प्रसारिता जङ्घा सा मता निःसृताभिधा ॥४०६॥ 412 जो जंघा आगे की ओर फैला दी जाय उसे निःसृता कहते हैं। __सात प्रकार के जानु अभिनय जान (घुटने) के भेद नतोन्नते संहतं च विवृतं कुश्चितं समम् । ततोऽर्धकुञ्चितं चेति जानूक्तं सप्तधा बुधः । 413 विद्वानों ने जानु के सात भेद बताये हैं : १. नत, २. उन्नत, ३. संहत, ४. विवृत्त, ५. सम, ६. अर्धकुञ्चित और ७ कुञ्चित । १. नत और उसका विनियोग भूमिप्राप्तं जानु नतं प्रोक्तं पातेऽभिवादने ॥४१०॥ भूमि पर अवस्थित जानु को नत कहते हैं । किसी चीज को गिराने और अभिवादन करने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २. उन्नत और उसका विनियोग कुचदेशागतं जानून्नतमुच्चाधिरोहणे ॥४११॥ 414 यदि जानु को कुच देश तक उठा लिया जाय तो, वह उन्नत कहलाता है । ऊपर उठने या ऊंची चीज पर चढ़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। २३७
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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