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________________ चालन प्रकरण यदि दोनों हाथों को स्वस्तिक में बनाकर एक को तिरछा करके हिलाया जाय और दूसरे को दोनों पावों में शिर तक नीचे-ऊपर हिलाया जाय तो सज्जनों ने उसे विश्लिष्टवर्तित कहा है। २. वेपथुव्यंजक ___ लुठत्येककरे तिर्यङ् नाभिदेशगते सति । 767 ततोऽन्यदेशचलनं यन्मञ्जुलरसोज्ज्वलम् । हस्तयोस्तत् समाख्यातं वेपथुव्यञ्जकं तदा ॥७६८॥ 768 यदि एक हाथ नाभिदेश में जाकर तिरछा होकर लौटे और फिर वहाँ से अन्य स्थानों में सुन्दरतापूर्वक उज्ज्वल होकर संचलित हो, तो दोनों हाथों की उस क्रिया को वेपथुव्यंजक कहते हैं। ३. अपविद्ध .....लुठनं मण्डलाकारं नाभिकण्ठप्रदेशयोः । वामदक्षिणतो यत् स्यादपविद्धमितीरितम् ॥७६६॥ 769 यदि नाभि और कण्ठ के पास बाँये-दाँये क्रम से हाथों को लोटाया जाय तो उसे अपविद्ध चलन कहते हैं। ४. लहरीचक्रसुन्दर एकस्मिन्नाभिदेशस्थे तिर्यग्लुठति हस्तके । ततो वामं सपर्यन्तं परं प्राप्य पराङ्मुखम् ॥७७०॥ 770 कर्मणान्दोलनेनाथ प्रसार्या, बहिर्यदा । क्षिप्रमन्तरमाक्षिप्य शिरसः पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७७१॥ 771 विलोज्यपार्श्वयोः स्तोकं यद्विलासेन जायते । । तदवादि तदा सद्भिर्लहरीचक्रसुन्दरम् ॥७७२॥ 772 पहले एक हाथ को नाभिदेश में रखकर तिरछा लोटा दिया जाय; फिर बायें हाथ को हिलाते-डुलाते हुए किनारे सहित उलटा कर शिर के दोनों बगल में किञ्चित् हाव-भाव के साथ चलायमान किया जाय, उसी को सज्जनों ने लहरीचक्रसुन्दर चालन कहा है । ५. वर्तनास्वस्तिक ..... एकस्य वलने पावें विद्युदाकृतिधारिणः । अन्वक्षरेण हस्तेन योगश्चेच्च्युतिपूर्वकः ॥७७३॥ 773
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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